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Articles by Mani Ram Sharma -मनी राम शर्मा जी के लेख

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Mani Ram Sharma:
[justify]भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र व्यवहार, गाली गलोज, हाथापाई आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत  दंडनीय हैं और उच्च न्यायालयों को ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए| किन्तु उच्च न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा और  अहम् का प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में भी कार्यवाही करते हैं| इंग्लॅण्ड के अवमान कानून में तो मात्र उसी कार्य को अवमान माना गया है जो किसी मामले विशेष में प्रत्यक्षत: हस्तक्षेप करता हो जबकि भारत में तो ऐसे मामलों में कार्यवाही ही नहीं की जाती अर्थात झूठी गवाहे देने, झूठा कथन करने या झूठे दस्तावेज प्रस्तुत करने के मामले में भारत में सामान्यतया कोई कार्यवाही नहीं होती और परिणामत: न्यायिक कार्यवाहियां उलझती जाती हैं,जटिल से जटिलतर होती जाती हैं और न्याय पक्षकारों से दूर भागता रहता है| बारबार आदेशों के उपरान्त पुलिस अधिकारियों के उपस्थित नहीं होने पर भी न्यायालय उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही संस्थित नहीं करते जबकि एक सामान्य साक्षी के किसी दिन विलम्ब से पहुँचने पर भी उसे दण्डित कर दिया जाता है जिससे ऐसा लगता है कि एक म्यान में दो तलवारें हैं|
भारत में कई उदाहरण यह गवाही देते हैं कि देश की न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष नहीं होकर स्वछन्द है| कुछ समय पूर्व माननीय कृषि मंत्री शरद पंवार के थप्पड़ मारने पर हरविन्द्र सिंह को पुलिस ने तत्काल गिरफ्तार कर लिया और उन पर कई अभियोग लगाकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया| मजिस्ट्रेट ने भी हरविंदर सिंह को 14 दिन के लिए हिरासत में भेज दिया| देश की पुलिस एवं न्यायपालिका से यह यक्ष प्रश्न है कि क्या, संविधान के अनुच्छेद 14 की अनुपालना  में, वे एक सामान्य नागरिक के थप्पड़ मारने पर भी यही अभियोग लगाते, इतनी तत्परता दिखाते और इतनी ही अवधि के लिए हिरासत में भेज देते|
सुप्रीम कोर्ट ने ई.एम.शंकरन नंबुरीपाद बनाम टी नारायण नमीबियार (1970 एआईआर 2015) के अवमान प्रकरण में अपराध के आशय के विषय में कहा है कि उसने ऐसे किसी परिणाम का आशय नहीं रखा था यह तथ्य दण्ड देने  में विचारणीय हो सकता है किन्तु अवमान में दोष सिद्धि के लिए आशय साबित करना आवश्यक नहीं है। जबकि सामान्यतया आशय को अपराध का एक आवश्यक तत्व माना जाता है| एक अन्य प्रकरण सी के दफतरी बनाम ओ पी गुप्ता (1971 एआईआर 1132) के निर्णय में भी सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है कि अवमान के अभियुक्त को मात्र शपथ-पत्र दायर करने की अनुमति है किन्तु वह कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता| वह अवमान का औचित्य स्थापित नहीं कर सकता| यदि अवमानकारी को आरोपों का औचित्य स्थापित करने की अनुमति दी जाने लगी तो हताश और हारे हुए पक्षकार या एक न एक पक्षकार बदला लेने के लिए न्यायाधीशों को गालियाँ देने लगेंगे|
न्यायालय ने एक अन्य निर्णित वाद का सन्दर्भ देते हुए आगे कहा कि अवमान के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान लागू नहीं होते और इसे अपनी स्वयं की प्रक्रिया निर्धारित कर सारांशिक कार्यवाही कर निपटाया जा सकता है,मात्र ऐसी प्रक्रिया उचित होनी चाहिए| यह नियम प्रिवी कोंसिल ने पोलार्ड के मामले में निर्धारित किया था और भारत व बर्मा में इसका अनुसरण किया जाता रहा है और यह आज भी कानून है| प्रतिवादी ने वकील नियुक्त करने हेतु समय मांगते हुए निवेदन किया कि वे लोग वर्तमान में चुनाव लडने में व्यस्त हैं किन्तु न्यायालय ने समय देने से मना कर दिया| इस प्रकार अवमान के अभियुक्त को देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्थान ने बचाव का उचित अवसर दिए बिना ही दण्डित कर दिया| प्रश्न यह उठता है कि यदि दंड प्रक्रिया संहिता को छोड़कर भी अन्य प्रक्रिया उचित हो सकती है तो फिर ऐसी उचित प्रक्रिया अन्य आपराधिक कार्यवाहियों में क्यों नहीं अपनाई जाती| देश के संवैधानिक न्यायालयों को भ्रान्ति है कि वे अपनी प्रकिया के नियम स्वयं स्वतंत्र रूप से बना सकते हैं और इस भ्रान्ति के चलते वे प्रेक्टिस डायरेक्शन, सर्कुलर, हैण्ड बुक आदि बनाकर अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण का रहे हैं| जबकि देश का संविधान उन्हें ऐसा करने की कोई अनुमति नहीं देता है| संविधान के अनुच्छेद 227(3) के परंतुक के अनुसार उच्च न्यायालयों को राज्यपाल की पूर्वानुमति और अनुच्छेद 145 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से ही प्रक्रिया के नियम बनाने का अधिकार है| वैसे भी अवमान कोई गंभीर और जघन्य अपराध नहीं है जिसके लिए तुरंत दंड देना आवश्यक हो| गंभीर और जघन्य अपराधों के मामलों में विधायिका ने अधिकतम सजा मृत्यु दंड या आजीवन कारावास निर्धारित कर रखी है जबकि अवमान कानून में अधिकतम सजा छ: मास का कारावास मात्र है| 
पुराने समय से यह अवधारणा प्रचलित रही है कि राजा ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग करता है और न्यायाधीश उसका प्रतिनिधित्व करते हैं अत: वे संप्रभु हैं| किन्तु लोकतंत्र के नए युग के सूत्रपात से न्यायपालिका व इसकी प्रक्रियाओं को आलोचना से संरक्षण देना एक समस्या को आमंत्रित करना है| यद्यपि भारतीय अवमान कानून में वर्ष 2006 में किये गए संशोधन से तथ्य को एक बचाव के रूप में मान्य किया जा सकता है यदि ऐसा करना जनहित में हो किन्तु भारतीय न्यायपालिका इतनी उदार नहीं है और उसमें  अपनी आलोचना सुनने का साहस व संयम नहीं है चाहे यह एक तथ्य ही क्यों न हो| हाल ही में मिड-डे न्यूजपेपर के मामले में भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और बचाव पक्ष के असहायपन पर पुनः प्रश्न चिन्ह लगा जब अभियुक्तों को तथ्य को एक बचाव के रूप में अनुमत नहीं किया गया| समाचार पत्र ने एक सेवानिवृत न्यायाधीश के कृत्यों पर तथ्यों पर आधारित एक लेख और कार्टून प्रकाशित किया था जिसे न्यायालय ने अवमान माना कि इससे न्यायपालिका की छवि धूमिल हुई है| यक्ष प्रश्न यह है कि न्यायपालिका की छवि को वास्तव में नुक्सान उन न्यायाधीश महोदय के कृत्य से हुआ अथवा उस कृत्य के प्रकाशन से| दूसरी ओर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि वकीलों की हड़ताल, धरने, कार्य स्थगन, पक्षकारों के न्यायालय में प्रवेश को रोकने और यहाँ तक कि न्यायालय के प्रवेश द्वार के ताला लगाने तक को न्याय प्रशासन में बाधा मानकर संविधान के रक्षक न्यायालय कोई संज्ञान नहीं लेते हैं| न्यायालय को वकील हड़ताल का नोटिस दी देते हैं और न्यायालय उसका अनुपालन करते हैं| क्या यही न्यायपालिका की स्वतंत्रता की निशानी है? वैसे जो प्रशंसा या आलोचना का हकदार हो उसे वह अवश्य मिलना चाहिए किन्तु कई बार मीडिया द्वारा निहित स्वार्थवश अतिशयोक्तिपूर्ण कथनों से न्यायालयों की अनावश्यक प्रशंसा भी की जाती है जिससे जन मानस में भ्रान्ति फैलती है और समान रूप से जन हित की हानि होती है| क्या न्यायालय ऐसी स्थिति में भी स्वप्रेरणा से मीडिया के विरुद्ध कोई कार्यवाही करते हैं?
इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश सरकार  ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका  प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2  के बहुमत से पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी| प्रेस इससे क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए “ये मूर्ख” शीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान पर ध्यान नहीं देते हैं| न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है|ठीक इसी प्रकार यदि न्यायाधीश वास्तव में ईमानदार हैं तो उनकी ईमानदारी पर लांछन मात्र से तथ्य मिट नहीं जायेगा और यदि ऐसा प्रकाशन तथ्यों से परे हो तो एक आम नागरिक की भांति न्यायालय या न्यायाधीश भी समाचारपत्र से ऐसी सामग्री का खंडन प्रकाशित करने की अपेक्षा कर सकता है| न्यायपालिका का गठन नागरिकों के अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किया जाता है न कि स्वयं न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए| न्यायपालिका की संस्थागत छवि तो निश्चित रूप से एक लेख मात्र से धूमिल नहीं हो सकती और यदि छवि ही इतनी नाज़ुक या क्षणभंगुर हो तो स्थिति अलग हो सकती है| जहां तक न्यायाधीश की व्यक्तिगत बदनामी का प्रश्न है उसके लिए वे स्वयम कार्यवाही करने को स्वतंत्र हैं| इस प्रकार अनुदार भारतीय न्यायपालिका द्वारा अवमान कानून का अनावश्यक प्रयोग समय समय पर जन चर्चा का विषय रहा है जो मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग में अपने आप में एक गंभीर चुनौती है|

सुप्रीम कोर्ट का एम.आर.पाराशर बनाम डॉ. फारूक अब्दुल्ला- {1984 क्रि. ला. रि. (सु. को.)} में  कहना है कि किसी भी संस्थान या तंत्र की सद्भावनापूर्ण आलोचना उस संस्थान या तंत्र के प्रशासन को अन्दर झांकने और अपनी लोक-छवि में निखार हेतु उत्प्रेरित करती है। न्यायालय इस स्थिति की अवधारणा पसंद नहीं करते कि उनकी कार्यप्रणाली में किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। दिल्ली उ. न्या. ने सांसदों द्वारा प्रश्न पूछने के बदले धन लिए जाने  के प्रमुख प्रकरण अनिरूद्ध बहल बनाम राज्य में निर्णय दि. 24.09.10 में कहा है कि सजग एवं सतर्क रहते हुए राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के अनुसार दिन-रात रक्षा की जानी चाहिए और उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहिए। अनुच्छेद 51 क (छ) के अन्तर्गत जांच-पड़ताल एवं सुधार की भावना विकसित करना नागरिक का कर्तव्य है। अनुच्छेद 51 क (झ) के अन्तर्गत समस्त क्षेत्रों में उत्कृष्टता के लिए अथक प्रयास करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है ताकि राष्ट्र आगे बढे। जीन्यूज के रिपोटर ने जब अहमदाबाद के एक न्यायालय से चालीस हजार रूपये में तत्कालीन राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति, सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश और एक वकील के विरुद्ध अनुचित रूप से जमानती वारंट हासिल कर लिए हों तो आम नागरिक के लिए न्यायपालिका की कार्यशैली व छवि के विषय में कितना चिंतन करना शेष रह जाता है| यह उदाहरण तो समुद्र में तैरते हिमखंड के दिखाई देने वाले भाग के समान है जानकार लोग ही इसकी वास्तविक गहराई का अनुमान लगा सकते हैं| हाल ही के सिंघवी सीडी प्रकरण ने तो उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों में अस्वच्छ राजनीतिक हस्तक्षेप प्रकट किया है| अवमान का उपयोग अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के लिए कदाचित नहीं किया जाना चाहिए| यदि अवमान के ब्रह्माश्त्र का प्रयोग कर न्यायपालिका में व्याप्त अस्वच्छता को उजागर करने पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाय तो फिर न्यायपालिका का शुद्धिकरण किस प्रकार संभव है जबकि देश में न्यायपालिका के विरुद्ध शिकायतों के लिए कोई अन्य मंच ही नहीं है|
गौहाटी उ.न्या. के कुछ न्यायाधीशों के प्रति असम्मानजनक भाषा में समाचार प्रकाशित करने पर स्वप्रेरणा से अवमान हेतु संज्ञान लिया गया। प्रत्यार्थियों ने बाद में असम्मानजनक शब्दों के लिए क्षमा याचना करते हुए तथ्यों की पुष्टि कायम रखी। गौहाटी उ.न्या. ने इस ललित कलिता के मामले में दिनांक 04.03.08 को दिए निर्णय में कहा कि निर्णय समालोचना हेतु असंदिग्ध रूप से खुले हैं। एक निर्णय की कोई भी समालोचना चाहे कितनी ही सशक्त हो, न्यायालय की अवमान नहीं हो सकती बशर्ते कि यह सद्भाविक एवं तर्क संगत शालीनता की सीमाओं के भीतर हो। एक निर्णय, जो लोक दस्तावेज है या न्याय-प्रशासक न्यायाधीश का लोक कृत्य है, की उचित एवं तर्क संगत आलोचना अवमान नहीं बनती है।   स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य (1956 AIR  541) के मामले में कहा है कि जो कोई लोक पद धारण करता हो उसे उस पद से जुड़े आलोचना के हमले को, यद्यपि दुखदायी है, स्वीकार करना चाहिए|   

उधर दिनांक 01.01.1995 से लागू चीन के राज्य क्षतिपूर्ति कानून में तो राज्य के अन्य अंगों के समान ही अनुचित न्यायिक कृत्यों से व्यथित नागरिकों को क्षति पूर्ति का भी अधिकार है व सरकार को यह अधिकार है कि वह इस राशि की वसूली दोषी अधिकारी से करे| वहाँ न्यायपालिका भी राज्य के अन्य अंगों के समान ही अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति दायीं है, और भारत की तरह किसी प्रकार भिन्न अथवा श्रेष्ठ नहीं मानी गयी है|

 
दूसरी ओर हमारे पडौसी देश श्रीलंका में अवमान कानून की बड़ी उदार व्याख्या की जाती है| श्रीलंका के अपीलीय न्यायालय ने सोमिन्द्र बनाम सुरेसना के अवमान प्रकरण में न्यायाधिपति गुणवर्धने ने दिनांक 29.05.98  को निर्णय देते हुए कहा कि दोष सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि प्रमाण का स्तर समस्त युक्तियुक्त और तर्कसंगत संदेह के दायरे से बाहर होना चाहिए| प्रकरण में न्यायालय के आदेश से सरकारी सर्वेयर अपना कार्य कर रहा था और उसने प्रकरण प्रस्तुत किया कि उसे कार्य नहीं करने दिया गया और बाधा डाली गयी| न्यायालय ने यह भी  कहा कि यदि सर्वेयर निष्पक्ष ढंग से कार्य नहीं कर रहा हो तो उससे पक्षकारों की भावनाओं को उत्तेजना मिलती है व किसी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाए तो गुस्सा और ऊँची आवाज स्वाभाविक परिणति है| दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत के इतिहास में अवमान के मामलों में शायद ही कभी इस वास्तविकता को स्वीकार किया गया है| मर्यादा की अपेक्षा कदापि  एक तरफा नहीं हो सकती| न्यायालय ने आगे कहा कि यद्यपि सर्वेयर के कार्य में बाधा डालना आपराधिक अवमान है| सिविल और आपराधिक अवमान दोनों का उद्देश्य सारत: एक ही है कि न्याय प्रशासन की प्रभावशीलता को कायम रखना और दोनों  ही स्थितियों में तर्कसंगत संदेह से परे प्रमाण की आवश्यकता है |

न्यायालय ने धारित किया कि  सर्वेयर के साक्ष्य के आधार पर दोषी को दंड कैसे दिया जा सकता है जबकि सर्वेयर ने अपनी रिपोर्ट में, यदि यह सत्य हो तो,  बाधा डालने का उल्लेख नहीं किया है| इस कारण उसका साक्ष्य अविश्वसनीय है व संदेह से परे न होने कारण अग्राह्य  है और दोषी को मुक्त कर दिया गया| उक्त विवेचन से बड़ा स्पष्ट है कि श्रीलंका में न्यायपालिका का अवमान के प्रति बड़ा उदार रुख है और वह भारतीय न्यायपालिका के विपरीत जनतांत्रिक अधिकारों को महत्व देती है व अपने अहम को गौण समझती है| यह भी उल्लेखनीय है कि श्रीलंका में अवमान नाम का अलग से कोई कानून नहीं है अपितु अवमान सम्बंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता और न्याय प्रशासन कानून में समाहित करना ही पर्याप्त समझा गया  है और वे सभी न्यायिक कार्यवाहियों के लिए समान हैं| लगता है भारत में तो न्यायपालिका को तुष्ट करने के लिए अलग से अवमान कानून बना रखा है और श्रीलंका की विधायिका ने अवमान सम्बंधित प्रावधान न्याय प्रशासन के उद्देश्य से बनाये हैं|
लोकतंत्र का मूलमन्त्र न्यायपालिका सहित शासन के समस्त अंगों का जनता के प्रति जवाबदेय होना है| चीन के संविधान के अनुच्छेद 128 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट संसद  के प्रति जवाबदेय है| इंग्लॅण्ड के कोर्ट अधिनियम, 2003 की धारा 1(1) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का मुखिया लोर्ड चांसलर देश के समस्त न्यायालयों के दक्ष व प्रभावी संचालन के लिए जिम्मेदार है| दूसरी ओर स्वतंत्र होने का अर्थ गैर-जिम्मेदार या बेलगाम घोड़े की भांति     नियंत्रणहीन होना नहीं है| भारत में न्यायालयों व न्यायाधीशों को जन-नियंत्रण से मुक्त रखा गया है और वे कानूनन किसी के प्रति भी जिम्मेदार नहीं हैं|












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Mani Ram Sharma:
[justify]भ्रष्टाचार के प्रसंग में जन लोकपाल बिल पर भारत  में यह गर्मागर्म बहस का विषय रहा कि इसके दायरे से किसे बाहर रखा जाये| वैसे भी भ्रष्टाचार पर अंतर्राष्ट्रीय संधि -2003 की भारत ने काफी विलम्ब से वर्ष 2011 में पुष्टि की है जिससे भ्रष्टाचार के विषय में भारत की संजीदगी, गंभीरता  और प्रतिबद्धता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है| दूसरी ओर हमारे पडौसी देश पाकिस्तान की स्थिति की ओर देखें तो वहाँ भ्रष्टाचार सम्बंधित मामलों के लिए राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो अध्यादेश, 1999 लागू है| यह अध्यादेश सम्पूर्ण पकिस्तान में राष्ट्रपति सहित पाकिस्तान में सेवारत सभी लोक पदधारियों पर लागू है और अभियोजन के लिए किसी पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है| ऐसी परिस्थितियों में भारत में भी भ्रष्टाचार सम्बंधित किसी भी कानून के दायरे से किसी भी पदाधिकारी को बाहर रखने की क्या आवश्यकता हो सकती है|

अध्यादेश की धारा 16 (ए) के अनुसार ऐसे अपराधों की सुनवाई दिनप्रतिदिन के आधार पर होगी और 30 दिन के भीतर निपटा दी जायेगी| धारा 18 (एफ) के अनुसार कोई भी जांच या अनुसंधान शीघ्रतम किन्तु 75 दिन के भीतर पूर्ण कर लिया जावेगा| धारा 32 के अंतर्गत अंतिम निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में 10 दिन में अपील दाखिल की जा सकेगी और जिसे न्यूनतम दो न्यायाधीशों की बेंच द्वारा सुना जायेगा व अपील दाखिल करने से 30 दिन के भीतर निर्णित कर दिया जायेगा| उक्त के अतिरिक्त पकिस्तान के भ्रष्टाचार  सम्बंधित कानून का दयारा भी बड़ा व्यापक है और उसमें किसी वितीय संस्था, बैंक, सरकारी विभाग  के प्रति दायित्व या ऋण का जानबूझकर चुकारा न करना भी उक्त अध्यादेश  की परिधि में अपराध है| बड़े पैमाने पर आम जनता से धोखाधड़ी और अमानत में खयानत को भी इस कानून के दायरे में लेकर त्वरित कार्यवाही का प्रावधान किया गया है| जबकि भारत में आम जनता के साथ संगठित तौर पर व्यावसायिक धोखाधडियाँ होती रहती हैं और पुलिस व देश के न्यायालय बड़े पैमाने पर देश की पीड़ित जनता के ऐसे मामलों को सिविल प्रकृति का मानकर ख़ारिज करते रहते हैं| उक्त से स्पष्ट है कि जोंक की तरह जनता का रक्तपान करने वाले अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के फलने फूलने और स्वास्थ्य लाभ के लिए भारत भूमि बड़ी अनुकूल है| जिस प्रकार कोई भी वनस्पति या प्राणी अनुकूल वातावरण में आसानी से फलता फूलता है उसी प्रकार विद्यमान परिस्थितियों में भारत में भ्रष्टाचार अच्छी तरह से फलफूल सकता है- नित नए उजागर होने वाले घोटाले इसे प्रमाणित करते हैं| लोक सेवा आयोग लोक सेवा में प्रवेश के द्वार हैं और हमारे यहाँ तो लोक सेवा आयोग के सदस्य भी अरबों रुपये की बेनामी सम्पति मालिक पाए जाते हैं| इससे सम्पूर्ण लोक सेवा की धारा ही दूषित हो जाती है| जो लोक सेवक भ्रष्ट तरीके से लोक सेवा में प्रवेश करता हो उससे सेवाकाल में स्वच्छता की आशा किस प्रकार की जा सकती है? 

दुर्भाग्य से हमारी कमजोर विधायिका द्वारा कोई प्रभावी व सख्त कानून नहीं बनाया जाता और यदि संयोग से हमारी विधायिका कोई जनानुकूल कानूनी प्रावधान कर दे तो हमारी न्यायपालिका उसकी मनमानी व्याख्याकर उसे भी विफल कर देती है| कहने को तो हमारे यहाँ भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह प्रावधान है कि कोई भी न्यायालय इस अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही के विरुद्ध किसी भी आधार पर रोक नहीं लगायेगा और देश का सुप्रीम कोर्ट भी सत्यनारायण शर्मा बनाम राजस्थान राज्य (AIR 2001 SC 2856) में इस आशय की सैद्धांतिक पुष्टि कर चुका है किन्तु इसके बावजूद देश के विभन्न संवैधानिक न्यायालयों ने भ्रष्टाचार के बहुत से मामलों में आज भी रोक लगा रखी है और इस कारण उनमें परीक्षण रुके हुए हैं| इससे भ्रष्टाचारियों का मनोबल बढता है और पीड़ित व्यक्ति हताश होता है व न्यायप्रणाली में विश्वास कमजोर होता है| किन्तु व्यवहार में भ्रष्टाचार के प्रमाणित मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो, राजस्थान  द्वारा कार्यवाही नहीं करने की शिकायत पर घोषित नीति के अनुसार उसका कोई न्यायिक संज्ञान लेकर आदेश पारित करने की बजाय भारत का सुप्रीम कोर्ट भी उसे अन्य राजकीय विभाग या फारवर्डिंग एजेन्ट की तरह मात्र फारवर्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है| यह स्थिति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर व निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है|
भारत के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि पाश्चात्य विकसित लोकतांत्रिक देशों की मजबूत स्थिति को छोड़ भी दिया जाये तो क्या हम हमारे पडौसी देश पाकिस्तान से भी कमजोर हैं अथवा हम भ्रष्टाचार के प्रति गंभीर और प्रतिबद्ध नहीं हैं- इस गंभीर अपराध को रोकने के लिए इच्छशक्ति का अभाव है| यदि हम 65 वर्ष के स्वतंत्रता काल में प्रतिवर्ष 1.5% भी परिवर्तन करते तो आज तक सम्पूर्ण व्यवस्था को जनोन्मुखी बना सकते थे किन्तु हमारी अपनी चुनी गयी सरकारें सुधार के नाम पर गत 65 वर्षों से नाटक मात्र कर रही हैं| सुधार के किसी भी सुझाव के विरुद्ध देश के कर्णधार और नौकरशाह एक स्वर में रटारटाया बहाना बनाते हैं कि क्षेत्र बड़ा होने के कारण यह करना कठिन है जबकि इसी अवधारणा पर क्रमश: पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश को विभाजित कर नए राज्यों का निर्माण किया गया था| किन्तु विद्यमान स्थिति गवाह है कि इन नवनिर्मित राज्यों में भी सार्वजनिक धन की लूट, अराजकता, आम नागरिक की असुरक्षा  और  अव्यवस्था में बढ़ोतरी ही हुई है, किसी प्रकार की कमी नहीं| हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक महावत विशालकाय हाथी पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है उसी प्रकार सुधार के लिए आकार की बजाय प्रबल इच्छाशक्ति व युक्ति महत्वपूर्ण है|




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Mani Ram Sharma:
[justify]अंग्रेजों की शासन नीति का मूलमंत्र फूट डालो और राज करो रहा है| इस नीति के अनुसरण में उन्होंने भारत के देशी राजाओं को आपस में लड़वाकर सम्पूर्ण देश पर शासन स्थापित कर लिया था| इतना ही नहीं जब व्यापारिक क. ईस्ट इंडिया क. देश में सता की बागडोर संभालने में असमर्थ रही तो ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1858 पारितकर भारत पर शासन की बागडोर अपने हाथ में  ले ली और फूट की राजनीति को आगे बढ़ाया| अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने कानून निर्माण की प्रक्रिया को इस प्रकार के सांचे में ढाला कि किसी भी कृत्य, अकृत्य या अपकृत्य से सरकार और उसके सेवक किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी – सिविल व आपराधिक – से मुक्त रहें और जनता आपस में लड़ती रहे ताकि उनके लिए शासन का मार्ग आसान रहे| इन सभी लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 का निर्माण किया गया और इसके माध्यम से अपील, निगरानी आदि विभिन्न प्रकार के विलम्बकारी साधनों की एक लंबी श्रृंखला खड़ी कर दी गयी| वकीलों के तकनीकी दांवपेच और रंग दिखाते हैं| इन्हें देखते हुए यद्यपि श्रम सम्बंधित कुछ मामलों में और परिवार न्यायालयों में वकीलों के पैरवी की मनाही है| सुप्रीम कोर्ट ने मालिक मजहर (JT2007(3)SC352) के मामले में यह कहा है कि भर्ती में विलम्ब के कारण जनता न्याय से वंचित रहती है अत: सीधी भर्ती के मामले में 12 माह में और पदोन्नति के मामले में 6 माह में न्यायाधीशों की भर्ती पूर्ण कर ली जानी चाहिए| किन्तु व्यवहार में इन आदेशों की अवहेलना ही हो रही है|
आज भी यदि न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार को छोड़ भी दिया जाये तो न्यायाधीशों और वकीलों की गलतियों व इस श्रृंखला के उपयोग से न्यायिक प्रक्रिया को एक लंबे, अँधेरे और अंतहीन मार्ग पर धकेल दिया जाता है जिससे आम व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्ति एक दिवा स्वप्न बन कर रह जाता है| वकीलों और न्यायाधीशों की गलतियों व लापरवाहियों के लिए उन्हें कोई दंड नहीं दिया जाता परिणामस्वरूप ये निर्बाध गति से जारी हैं| अंतर्राष्ट्रीय मिलटरी ट्राइब्यूनल ने  संयुक्त राज्य बनाम अल्स्तोटर मामले में जर्मन न्यायाधीश ओसवाल्ड रोह्थाग द्वारा दिनांक 23.03.1942 को दिए गए अनुचित निर्णय के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी| न्यायाधीशों के अनुचित फैसलों से समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है और ये समाज में अस्थिरता उत्पना करते हैं| यह भी प्रासंगिक है कि जब गैर-इरादतन हत्या के लिए सजा हो सकती है तो फिर अनुचित फैसले, चाहे गैर-इरादतन ही हों, उनके लिए सजा क्यों नहीं होनी चाहिए| संहिता में सरकार अथवा उसके अधिकारी को विशेष दर्जा दिया गया और धारा 80 में यह प्रावधान किया गया कि इनके विरुद्ध मुकदमा करने से पूर्व कम से कम 60 दिन का नोटिस देना आवश्यक है| इसी प्रकार संहिता के आदेश 27 नियम 5 ख में  न्यायाधीशों पर यह दायित्व भी डाला गया कि वे ऐसे मुकदमे में जिनमें सरकार पक्षकार हो सुलह का प्रयास करेंगे| इन प्रावधानों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध नागरिकों के जायज दावों में भी सुलह के नाम पर विलम्ब करने का एक और नया हथियार बनाया गया ताकि मुकदमेबाजी द्रोपदी के चीर की भांति अनंत बनी रहे| ये सभी कानून हमारे सामाजिक ताने बाने से नहीं निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए बना है| अफ़सोस कि इन औपनिवेशक कानूनों को हम पिछले  65 वर्षों में भी बदल नहीं पाए हैं जबकि देश का सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग धारा 80 के औचित्य पर कई बार सवाल उठा चुके हैं|   

स्वतंत्रता के पश्चात देश की बदली परिस्थितयों के मद्देनजर देश के कानून की पुनरीक्षा करने और उसमें संशोधन के लिए एक आदेश द्वारा विधि आयोग का गठन किया गया| किन्तु आज तक विधि आयोग के गठन, उसकी रिपोर्टों पर कार्यवाही, कार्यक्षेत्र आदि को परिभाषित करने के लिए कोई सुपरिभाषित कानून अधिनियमित नहीं किया गया और देश का विधि आयोग आज भी एक “गैर-सांविधिक उत्पति” की तरह कार्य कर रहा है| परिणामत: विधि आयोग की रिपोर्टों पर क्या कार्यवाही हुई अथवा उनको स्वीकार करने व अस्वीकार करने के क्या कारण रहे इस तथ्य से स्वतंत्र भारत की जनता अनभिज्ञ ही रहती है| दूसरी ओर मात्र इंग्लॅण्ड ही नहीं अपितु हमारे पडौसी देश नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान ने भी विधि आयोग का गठन एक अधिनियम के माध्यम से कर रखा है| भारत को भी चाहिए की वह विधि आयोग के गठन, उसकी उपयोगिता और रिपोर्टों पर कार्यवाही को अधिनियम के माधयम से सुपरिभाषित करे और यह सुनिश्चित करे कि  विधि आयोग की रिपोर्टें विधि मंत्रालय में मात्र धूल की भेंट न चढें| इन  रिपोर्टों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के कारण जनता को सूचित किये जाएँ|   

सरकारी सेवकों के अपकृत्य स्वतंत्रता के तुरंत बाद न्यायविदों के चिंतन के केंद्र बिंदु रहे और  विधि आयोग ने अपनी पहली रिपोर्ट “दुष्कृत्यों में राज्य दायित्व” विषय पर विधि मंत्रालय को दिनांक 11.05.1956  को सौंपी| इस रिपोर्ट में राज्य के दायित्व के संबंध में कानून बनाने की अभिशंसा के साथ यह भी बल दिया गया कि राज्य के दायित्व के लिए लापरवाही के प्रमाण की आवश्यकता न समझी जाये| रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि जनता कानून के बारे में स्पष्ट जान सके अत: इस विषय पर विधायिका का स्पष्ट और सुपरिभाषित कानून होना चाहिए न कि न्यायाधीशों के दृष्टिकोण के अनुसार कानून का विकास किये जाने के लिए इसे उनकी दया पर खुला छोड़ दिया जाय| किन्तु अत्यंत खेद जनक है कि देश की विधायिका और विधि मंत्रालय ने इस रिपोर्ट पर विचार कर आज तक किसी कानून का निर्माण नहीं किया है और न ही इन सिफारिशों को अस्वीकार करने के कारणों से जनता को अवगत करवाया गया है| फलत: राज्य और उसके सेवकों के दुष्कृत्यों के विरुद्ध नागरिकों को आज भी किसी विशिष्ट कानून में कोई उपचार उपलब्ध नहीं हैं और जनता उपचारहीन स्थिति का सामना कर रही है| किसी स्पष्ट कानून के अभाव में न्यायालय अपने विवेक से कानून की व्याख्या करते हैं और यह स्थिति नागरिकों के लिए सुखद नहीं है|    जहां बम्बई उच्च न्यायालय ने एक दिन की अवैध हिरासत के लिए वीणा सिप्पी को 275000 रूपये क्षतिपूर्ति दिलवाई वहीं उस न्यायालय के उसी न्यायाधीश वाली बेंच ने कादर सत्तार सोलंकी को मात्र 15000 रुपये की क्षतिपूर्ति दिलवाई है| यहाँ तक कि देश में विधि स्नातक के पाठ्यक्रम में दुष्कृति विधि शामिल है किन्तु उसमें भी विदेशी दृष्टांत ही पढाए जाते हैं व मुश्किल से ही कोई भारतीय उदाहरण मिल पाता है| ठीक इसी प्रकार पुलिस थानों में एफ आई आर लिखना या न लिखना पुलिस अपना विशेषाधिकार मानती है और यह स्थिति जनता को लंबे समय से परेशान कर रही है| दिनांक 25.04.1980  को विधि मंत्रालय को सौंपी गयी विधि आयोग की 84 वीं रिपोर्ट के पृष्ठ 20 पैरा 3.32 में विधि आयोग ने स्पष्ट सिफारिश की थी कि संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा एफ आई आर नहीं लिखने को भारतीय दंड संहिता की नई धारा 167क के अंतर्गत संज्ञेय और जमानतीय अपराध माना जाय व प्रसंज्ञान लेने के लिए किसी दोषी अधिकारी विशेष के नाम की आवश्यकता नहीं समझी जाए| विधि आयोग न्यायविदों का बहु-सदस्यीय संस्थान है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश होते हैं| अत: आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण होती हैं न कि किसी कूड़ेदान में फैंकने के योग्य| किन्तु भारत सरकार ने इतनी लंबी अवधि बीतने के बावजूद भी इस अनुशंसा पर कोई सार्थक कार्यवाही नहीं की है| इससे यह संकेत मिलता है कि हमारे चुने गए जन प्रतिनिधियों पर पुलिस बल हावी है या दोनों के मध्य अपवित्र गठबंधन है, देश की शासन-प्रणाली में लोकतंत्र के तत्वों का अभाव है व आज भी पुलिस राज कायम है|  देश की विधायिका सार्थक बहस के साथ किसी दूरगामी और टिकाऊ परिणाम वाले ठोस कानून निर्माण के स्थान पर राजनैतिक लाभ के लिए तात्कालिक व सस्ती-लोकप्रियता वाले कानून और योजनाएं बनाने, और आरोप-प्रत्यारोप व शोर-शराबे में जनता का समय और धन बर्बाद कर रही है| ऐसे मामले जिनमें नोट या वोट का प्रश्न नहीं हो सामान्यतया बिना बहस के ही पारित कर दिए जाते हैं किन्तु जिन मामलों में वोट बैंक का प्रश्न हो उसमें आवश्यकतानुसार सभी चुप्पी साध लेते हैं या सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हो जाता है| बांग्लादेशी विस्थापितों की समस्या इसका ज्वलंत उदाहरण है| हमारी विधायिका ने पशु क्रूरता निवारण और घरेलू हिंसा के विषय में तो कानून बना दिये हैं लेकिन आज तक पुलिस हिंसा से निपटने के लिए किसी कानून का निर्माण में असमर्थ रहना इसका ज्वलंत उदाहरण है| फलत: अपराधों पर नियंत्रण पाने के लिए पुलिस आज भी प्रतिहिंसात्मक तरीकों से कानून को अपने हाथ में लेती रहती है और पुलिस के हाथों में जनता की स्थिति आज स्वतंत्र भारत में भी पशुओं से बदतर है| देश के कानून में पुलिस क्रूरता से बचाव के लिए जनता को पशुओं के समान भी अधिकार उपलब्ध नहीं हैं|

65 वर्षों के स्वतंत्रता काल के बावजूद देश में वास्तविक कानून का राज स्थापित नहीं हो पाया है और आंशिक न्याय की अवधारण पर आधारित विधि आयोग की रिपोर्टें इस स्थिति में न ही कोई मौलिक परिवर्तन कर पायी हैं| स्वतंत्रता के बाद भी देश में पुलिस और नौकरशाही के हाथ मजबूत ही हुए हैं| देश के कर्णधार जनता को नैतिकता का पाठ पढाने में विफल रहे हैं| दूसरी ओर युद्ध जर्जरित जापान का पुनर्निर्माण और हमारी स्वतंत्रता प्राप्ति लगभग समकालीन ही है किन्तु आज जापान और हमारी परिस्थितियों में भारी अंतर है, बावजूद इसके कि जापान में प्राकृतिक संसाधनों का अभाव है और हमारे यहाँ प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं| स्मरण रहे कि जापान में मात्र 1/6 भूमि ही समतल और कृषि योग्य है|
किसी विषय पर स्पष्ट नीति होने से उस विषय में मनमानी करने के अवसर न्यूनतम होते हैं किन्तु देश की स्वतंत्रता को 65 वर्ष होने पर भी आज तक न्यायालय खोलने या न्यायाधीश का पद सृजित करने के लिए कोई नीति नहीं बन पाई है| यह स्थिति न्यायाधीशों और राजनेताओं दोनों को मिलकर मनमानी व राजनीति करने के लिए खुला अवसर मुहैया करवाती है अत: किसी भी पक्षकार ने इस स्थति में परिवर्तन की पहल नहीं की है| वैसे भी राजनीतिक पृष्ठ भूमि वाले वकील ही संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीश नियुक्त हो पाते हैं| एक बार सेवानिवृत न्यायाधिपति इसरानी के लिए कांग्रेस पार्टी से उन्हें राज्य सभा सदस्यता दिलाने की मांग करते हुए राजस्थान के सिंधी समाज ने कहा था कि उन्होंने पार्टी की बड़ी सेवा की है| जब किसी विषय विशेष के लिए  न्याय निकाय की आवश्यकता अनुभव होती है तो उसके लिए अलग से ट्राइब्यूनल का गठन कर दिया जाता है और यह तर्क दिया जाता है कि इससे जल्दी न्याय मिलेगा| उपभोक्ता, सूचना के अधिकार , सेवा आदि से सम्बंधित मामलों की सुनवाई इन ट्राइब्यूनल में हो रही है जो कि समान रूप से विलम्बकारी हैं| वास्तव में इन ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे कई छुपे हुए उद्देश्य हैं– यथा राजनैतिक दलों द्वारा अपने स्वामिभक्त लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर जनाधार मजबूत करना, ट्राइब्यूनलों के माध्यम से न्यायिक क्षेत्र पर नियंत्रण रखना क्योंकि ये  ट्राइब्यूनल संबद्ध मंत्रालय के नियंत्रण में कार्य करते हैं न कि उच्च न्यायालय के नियंत्रण में| सेवा निवृत लोगों को नियुक्त कर उन्हें, सेवा काल के कुकृत्यों के लिए, ब्लैकमेल करते रहना ताकि वे अधिकाधिक निर्णय सरकार के पक्ष में करते रहें| पारदर्शी सार्वजानिक जांच या लिखित परीक्षा के बिना लोकतंत्र में नियुक्त प्रत्येक (न्यायिक या गैर न्यायिक) लोक अधिकारी जनता पर जबरदस्ती थोपा गया सामन्तशाह है जिसकी स्वस्थ लोकतंत्र मे अनुमति नहीं दी जा सकती| सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 37 में सारांशिक कार्यवाही का प्रावधान पहले से ही है और सरकार इस सूची में संशोधन और परिवर्द्धन करके किसी भी मामले को सिविल न्यायालयों द्वारा ही सारांशिक कार्यवाही प्रक्रिया से शीघ्र निर्णित करने की व्यवस्था कर सकती है| आवश्यकतानुसार शुल्क में रियायत या मुक्ति की व्यवस्था भी की जा सकती है| इस प्रकार किसी भी प्रकरण के लिए अलग से किसी  ट्राइब्यूनल की कोई आवश्यकता नहीं है बल्कि ट्राइब्यूनलों के गठन के पीछे तो छुपे हुए अपवित्र उद्देश्य होते हैं|   
 हमारी सवा अरब की आबादी में हमें आज क्रिकेट और हाकी तक के लिए देश में योग्य व (पक्षपात से दूर रहने वाले) विश्वसनीय कोच नहीं मिले फलत: हमें विदेशी कोचों की सेवाएं लेनी पडी हैं तो संवेदनशील न्यायिक क्षेत्र में हमें विश्वसनीय व्यक्ति मिलने की आशा किस प्रकार करनी चाहिए| आज अंतर्राष्ट्रीयकरण के दौर में न्यायिक क्षेत्र में भी विदेशी सेवाओं की सख्त आवश्यकता है| विधि आयोग में नियुक्तियों के लिए अमेरिका, इंग्लॅण्ड जैसे देशों के उन प्रतिष्ठित न्यायविदों को वरीयता दी जाये जो मूलत: जनतांत्रिक विचार रखते हों| अन्य सदस्य नियुक्त करते समय भी ध्यान रखा जाये कि उनमें से पेशेवर वकील या न्यायाधीश कम से कम हों अन्यथा ये लोग अपनी बिरादरी के हितों को प्रभावित करने वाली कोई बात मुश्किल से ही कहेंगे| संभव हो तो विधि मंत्री भी किसी सुलझे हुए गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को ही बनाया जाय जब देश में राजनीति अस्वच्छता का दूसरा नाम बन चुकी है| देश की विधायिका इस पर शीघ्र ध्यान दे अन्यथा इस लोकतंत्र की लुटिया डूब जायेगी|
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Mani Ram Sharma:
[justify]हमारे पडौसी राष्ट्र चीन ने अपने देश के नागरिकों के लिए प्रशासनिक प्रक्रिया कानून बनाया है जो दिनांक 01.10.90 से लागू है| उक्त कानून के अनुच्छेद 1 में प्रावधान है कि प्रशासनिक मामलों के समयबद्ध और सही परीक्षण और  नागरिकों, कानूनी व्यक्तियों व अन्य संगठनों  के वैधपूर्ण अधिकारों व हितों की रक्षा के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रशासनिक अंगों द्वारा प्रशासनिक शक्तियों का प्रयोग कानून के अनुसार किया जाता है यह कानून अधिनियमित किया जता है| किसी ठोस प्रशासनिक आदेश, जिससे नागरिकों के हित या अधिकार का उल्लंघन हुआ हो, के विरुद्ध वे न्यायालय में कार्यवाही कर सकते हैं| प्रशासनिक मामलों पर न्यायालय स्वतंत्र शक्तियों का प्रयोग करेंगे जिनमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा| न्यायालय प्रशासनिक मामलों के लिए प्रशासनिक खंड बनायेंगे| न्यायालय के समक्ष पक्षकार एक समान होंगे| सभी राष्ट्रीयताओं के लोगों को प्रशासनिक कार्यवाही में अपनी देशी भाषा का प्रयोग करने का अधिकार होगा| जो लोग स्थानीय लोगों द्वारा प्रयुक्त भाषा को नहीं समझते हों उन्हें अनुवाद सुविधा उपलब्ध करवाई जायेगी| जबकि तथा कथित गणतांत्रिक भारत में तो इसके विपरीत न्यायालय की भाषा में कार्यवाही संस्थित करनी पड़ती है और प्रलेख न्यायालय की भाषा में  अनुवाद कर प्रस्तुत करने पड़ते हैं| प्रशासनिक अत्याचारों के मामलों में भारत में सामान्य उपाय रिट याचिका में ही उपलब्ध हैं जोकि समय, व्यय  व श्रम साध्य प्रक्रिया है| यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 32(3) में जिला न्यायालयों को रिट क्षेत्राधिकार देने का प्रावधान है किन्तु देश की शिथिल व संवेदनहीन संसद खुले व आक्रामक जन-आंदोलन द्वारा विवश नहीं किये जाने तक किसी भी न्यायोचित मांग पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं समझती है|
चीनी न्यायालय लोगों से निम्न मामलों में कार्यवाहियों को स्वीकार करेगा:
प्रशासनिक बंदी बनाया जाना, जुर्माना, व्यापार लाइसेंस निरस्त करना, उत्पादन या व्यापार बंद करने या सम्पति जब्ती के आदेश को आवेदक द्वारा  अस्वीकार करना, व्यक्ति की स्वतंत्रता को अनिवार्य प्रशासनिक कार्यवाही द्वारा प्रतिबंधित करना, या सम्पति को कब्जे में लेने के आदेश को अस्वीकार करना, यह समझते हुए कि किसी व्यापारिक लाइसेंस का आवेदन कानून सम्मत है किन्तु प्रशासन ने मना कर दिया है अथवा जवाब देने से मना कर दिया है| नागरिकों की सम्पति और शरीर की रक्षा के लिए कानून सम्मत आवेदन के बाद भी अपने कर्तव्यों का प्रशासनिक अंग ने निर्वाह नहीं किया हो या जवाब नहीं दिया हो| जब प्रशासनिक अंग ने कानून के अनुसार पेंशन नहीं दी हो| प्रशासनिक अंग ने किसी कर्तव्य निर्वाह की उपेक्षा की हो| प्रशासनिक अंग ने जब व्यक्ति और सम्पति के अन्य अधिकारों का अतिक्रमण किया हो|
चीन में साक्ष्य में प्रलेखीय, भौतिक, ऑडियो-वीडियो, गवाहों का परीक्षण, पक्षकारों के कथन, विशेषज्ञ की राय, घटना स्थल का दृश्य और मौक़ा रिपोर्ट शामिल हैं| जबकि भारत में साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में दी गयी साक्ष्य की परिभाषा इतनी व्यापक नहीं होने से नागरिकों को हमेशा न्यायालय के विवेक व दया पर निर्भर रहना पड़ता है| चीन में प्रशासनिक कार्यवाही के प्रमाण का भार बचाव पक्ष पर होगा और वह वे सब साक्ष्य व प्रलेख उपलब्ध करवाएगा जिन पर कार्यवाही आधारित है| जबकि अनुच्छेद 33 के अनुसार वह  कानूनी कार्यवाही में प्रार्थी पक्ष और गवाहों से अपनी प्रेरणा पर साक्ष्य संग्रहित नहीं कर सकेगा| दूसरी ओर भारत में तो अपना दावा साबित करने का सम्पूर्ण भार आवेदक पर रहता है और यह अस्वस्थ परिपाटी बन चुका है| सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 19 (5) में यद्यपि सूचना न प्रदानगी के औचित्य को स्थापित करने का भार सरकारी पक्ष पर डाला गया है किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है|
यदि आवेदक किसी प्रशासनिक अंग को किसी प्रकरण में पुनर्विचार करने का निवेदन करता है तो प्रशासनिक अंग आवेदन प्राप्ति के दो माह के भीतर निर्णय लेगा| यदि आवेदक ऐसे निर्णय से संतुष्ट नहीं हो या निर्धारित अवधि में निर्णय प्राप्त न हो तो न्यायालय में वाद कर सकता है| यदि आवेदक सीधे ही न्यायालय में कार्यवाही करना चाहे तो वह तीन माह के भीतर कर सकता है| अनुच्छेद 43 के अनुसार न्यायालय को शिकायत प्राप्त होने पर सात दिन के भीतर मामला दर्ज करेगा या अस्वीकार करने का निर्णय करेगा| भारत में किसी भी स्तर के न्यायालयों द्वारा मामला दर्ज करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है और संयोग से यदि ऐसी कोई सीमा कहीं निर्धारित हो तो उसका निर्भय और निस्संकोच होकर उपहास किया जाता है| राजस्थान में सामान्य दाण्डिक नियमों में प्रावधान है कि आपराधिक प्रकरण में रिपोर्टिंग बिना समय गंवाए तुरंत की जायेगी किन्तु व्यवहार में यह महीने तक का समय लेती देखी जा सकती है व न्याय-प्रशासन इसे मूक-दर्शक बने देख रहा है| भारत में प्रणाली व प्रक्रिया सम्बंधित कानून तो सामन्तवादी विचारधारा वाले अड़ियल व हठधर्मी तथा वास्तव में नियंत्रणहीन लोक सेवकों द्वारा और अपनी सुविधा, संरक्षण, पोषण  व सहायता और मनमानेपन, तथा जनता का दोहन-शोषण संभव बनाने के लिए ही बनाए जाते हैं| इन नियमों के निर्माण में जन सुविधा कोई स्थान नहीं रखती| भारत में अधिकाँश प्रक्रियागत कानून जनविरोधी हैं अत: ये मौलिक कानून के प्रयोग होने से पहले ही पक्षकारों को थकाकर न्याय से वंचित करने के लिए पर्याप्त हैं| प्रक्रियागत नियमों के माध्यम से न्याय के रास्ते में इतने गढे और अवरोध बना दिए जाते हैं कि एक न्यायार्थी इनमें लडखडाकर गिर जाता है और अंतत: अन्याय के आगे घुटने टेकने को विवश हो जाता है| भारत के मौलिक कानून भी खोखले ही हैं| सूचना के अधिकार अधिनियम की उद्देशिका में यद्यपि जवाबदेही जैसा लुभावना उद्देश्य बताया गया है किन्तु मूल कानून में जवाबदेही निर्धारित करने का कोई उल्लेख तक नहीं है| अत: अन्य कानूनों की तरह उक्त कानून भी एक परिणामहीन व मनोरंजक  कानून मात्र रह गया है|     

चीनी कानून के अनुसार आवेदक ऐसे निर्णय से असंतुष्ट होने पर उच्च स्तरीय न्यायालय में अपील कर सकेगा| मामला दर्ज करने पर न्यायालय बचाव पक्ष को पांच दिन में शिकायत की प्रति भेजेगा| प्रतिपक्षी शिकायत की प्रति प्राप्त होने के दस दिन के भीतर न्यायालय को अपना बचाव कथन मय प्रलेखों के उपलब्ध करवाएगा| न्यायालय पांच दिन के भीतर शिकायत के जवाब की प्रति  आवेदक को भेजेगा| भारत में न्यायालय किसी पक्षकार को कोई प्रति उपलब्ध नहीं करवाते हैं वे लोक सेवक न्यायालय की बजाय राजा की श्रेष्ठ भूमिका निभाना अधिक पसंद करते हैं| यहाँ तक कि उच्चतम न्यायालय भी वादी से अपेक्षा करता है कि वह प्रतिवादी को समन स्वयम ही भेजे| समय सीमा और उसकी अनुपालना तो भारतवर्ष में एक दिवा स्वप्न मात्र कहा जा सकता है| उपभोक्ता संरक्षण कानून में 90 दिन में निर्णय घोषित करने का प्रावधान है किन्तु वास्तव में इनमें वर्षों लगते देखे जा सकते हैं| भारत में नागरिकों के लिए तो याचिका प्रस्तुत करने की समय सीमा है किन्तु न्यायालयों के लिए निपटान हेतु कोई समय सीमा नहीं है|चीन में प्रारंभिक स्तर से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी जन न्यायालय( People’s Court) हैं और वे सभी गर्व से अपने नाम के साथ “जन न्यायालय” शब्द लिखते हैं जबकि भारत में तो न्यायाधीश निर्णय देते समय “न्यायालय श्री ... न्यायाधीश ...” जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं| जाहिर है भारतीय न्यायालय न्यायाधीशों, वकीलों और पुलिस के न्यायालय हैं और व्यक्तिश: उपस्थित होने वाले पक्षकारों को यहाँ प्रतिकूल दृष्टि से देखा जाता है| 
चीन में बचाव पक्ष द्वारा बचाव कथन न प्रस्तुत करने से मामले की सुनवाई पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा| न्यायालयों में प्रशासनिक कार्यवाही की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों का विषम संख्या में समूह होगा| असंतुष्ट पक्षकार मामले के पुनर्विचारण हेतु निवेदन कर सकेगा| अनुच्छेद 50 के अनुसार न्यायालय प्रशासनिक मामले की सुनवाई करते समय सुलह करवाने का प्रयास नहीं करेगा जबकि भारत में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 27 नियम 5 ख में  न्यायाधीशों पर यह दबाव और दायित्व भी डाला गया कि वे ऐसे मुकदमे में जिनमें सरकार पक्षकार हो सुलह का प्रयास करेंगे| ऐसा प्रावधान न्यायालयों की निष्पक्षता पर अपने आप में एक प्रश्न चिन्ह है| अनुच्छेद 54 के अनुसार जो प्रशासनिक कार्य सही कानून को लागू कर व कानूनी प्रक्रिया को अपनाकर किया गया हो और अकाट्य साक्ष्य पक्ष में हों तो उसे न्यायालय उचित ठहरा सकता है| पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव, गलत कानून लागू किये जाने, कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन करने, अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करने या शक्ति का दुरूपयोग करने पर प्रशासनिक कार्य को न्यायालय द्वारा पूर्णतः या अंशत: निरस्त किया जा सकता है| यदि बचाव पक्ष अपने कानूनी कर्तव्यों के निर्वहन में विलम्ब करता है या असफल रहता है तो उसे संपन्न करने के लिए समय निश्चित किया जायेगा| यदि कोई प्रशासनिक जुर्माना अनुचित हो तो उसे संशोधित करने के लिए आदेश  दिया जा सकता है| अनुच्छेद 56 के अनुसार यदि किसी प्रशासनिक कार्य से न्यायालय यह समझता है कि इससे प्रशासनिक अनुशासन का उल्लंघन किया गया है तो न्यायालय आपराधिक कार्य पाए जाने पर सम्बंधित मामला अभियोजन के लिए भेजेगा| किन्तु भारत में तो सभी मामले पक्षकार स्वयम को ही लड़ने पड़ते हैं और न्यायालय, विशेषकर राज्याधिकारियों के मामले में, पक्षकार के निवेदन पर भी आपराधिक कार्यवाही से परहेज करते हैं| एक ही समान प्रकृति के मामलों में बारबार सरकार के विरुद्ध होने वाले मामले एवं रिट याचिकाएं इसे प्रमाणित करती हैं| भारत में पुलिस द्वारा निराधार आरोप-पत्र प्रस्तुत करने और अभियुक्त के दोषमुक्त होने, तथा इसके विपरीत पुलिस द्वारा अंतिम (बंद) रिपोर्ट देने व अभियुक्त के आरोपित होने पर भी पुलिस के विरुद्ध कोई कार्यवाही प्रारम्भ तक नहीं होती है| यद्यपि कानून के संरक्षण की आवश्यकता कमजोर पक्षकार को होती है किन्तु भारत में शक्तिसंपन्न लोक सेवकों को अभियोजन स्वीकृति की आवश्यकता का अतिरिक्त सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया गया है|

चीनी न्यायालय मामला दर्ज होने के तीन माह के भीतर निर्णय देगा| यदि मामले में विशेष परिस्थितियों में समय सीमा बढ़ाया जाना अवश्यक समझा जाये तो ऐसा उच्च स्तरीय न्यायालय से अनुमोदित किया जाएगा| जबकि भारत में तो न्यायालय के मंत्रालयिक कर्मचारियों की कृपा से ही बारबार स्थगन लेकर मामले को द्रोपदी के चीर की भांति अंतहीन किया जा सकता है| चीन में निर्णय से असंतुष्ट पक्षकार निर्णय प्राप्त होने के 15 दिन के भीतर अगले उच्च स्तर पर अपील कर सकेगा| अनुच्छेद 60 के अनुसार अपील पर अंतिम निर्णय दो माह के भीतर देगा और यदि मामले में विशेष परिस्थितियों में समय सीमा बढ़ाया जाना अवश्यक समझा जाये तो ऐसा अगले उच्च स्तरीय न्यायालय से अनुमोदित किया जाएगा| भारत में तो अनुचित रूप से समय अनुमत करने की असीमित शक्तियां न्यायालयों के पास न होते हुए भी प्रयुक्त की जाती हैं| भारत में मूल वाद जिसमें साक्ष्य होना हो व अन्य मामले (रिट, अपील, निगरानी आदि सारांशिक कार्यवाहियां), जिनमें साक्ष्य नहीं होना हो, में समान विलंब होता है और मामले के परीक्षण में न्यायालय का लगने वाला वास्तविक समय व श्रम गौण है| वस्तुत: भारतीय न्यायिक प्रक्रिया एक मनमानी, उत्पीडनकारी व अतर्कसंगत प्रक्रिया है जिसमें पक्षकार की नियति न्यायालय की दया पर निर्भर रहती है और अंतत: उसे हानि ही होती है चाहे वह मामले में वह जीत ही क्यों न जाये|
चीन में यदि प्रशासनिक अंग निर्णय की अनुपालना करने से मना करता है तो न्यायालय प्रशासनिक अंग के बैंक खाते से रकम पीड़ित पक्षकार के खाते में ट्रांसफर के लिए आदेश दे सकता है, प्रति दिन के लिए 50 से 100 यान जुर्माना लगाने और यदि प्रशासनिक अंग द्वारा निर्णय की अनुपालना न करना अपराध कारित  करता हो तो जिम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध कानून के अनुसार आपराधिक कार्यवाही की जायेगी| प्रचलित प्रथा के अनुसार भारत में तो डिक्री की इजराय लगाई जायेगी और प्रतिपक्षी से उसका पक्ष व आपतियाँ सुनी जायेगी तथा लंबा समय लेने के बाद ही आम आदमी के विरुद्ध किसी न्यायिक निर्णय की अनुपालना संभव है और सरकारी अधिकारी के विरुद्ध किसी निर्णय की अनुपालना तो एक टेढ़ी खीर है जिसमें कई दांवपेंच हैं|   

कानून के अनुच्छेद 67 के अनुसार आवेदक के अधिकारों के अतिक्रमण से हुई हानि के लिए क्षतिपूर्ति पाने का अधिकारी होगा| ऐसा आवेदन प्रथमत: विभाग के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा और विभाग द्वारा मनाही पर न्यायालय में कार्यवाही की जा सकेगी| ऐसी क्षतिपूर्ति का दायित्व सम्बंधित विभाग का होगा और विभाग ऐसे दायित्व के लिए दोषी कार्मिकों से पूर्णतः या अंशत: वसूली के आदेश देगा| अनुच्छेद 69 के अनुसार क्षतिपूर्ति की लागत विभिन्न स्तर पर सरकारी बजट में शामिल की जायेगी| भारत में विभाग ऐसे दावों से बजट की कमी के बहाने से प्राय: मना करते रहते हैं|

प्रशासनिक मामलों की सुनवाई करने वाला न्यायालय मुक़दमे की फीस लेगा और यह फीस हारनेवाले पक्षकार द्वारा या दोनों पक्षकार जिम्मेदार हों तो दोनों द्वारा वहन की जायेगी| भारत में अधिकांश मामलों में वादी को मुकदमे का खर्चा नहीं दिलवाया जाता और अपवादस्वरूप यदि दिलवाया जाये तो यह नाम मात्र का होता है| सरकारी विभाग से तो यह और भी कठिन है| चीन के कानून में न्यायालयों को बहुत कम विवेकाधिकार दिया गया है और न्यायालय के साथ  “कर सकेगा” की बजाय अधिकाँश जगह “करेगा” शब्द का प्रयोग किया गया है व कानूनों को निदेशात्मक की बजाय आदेशात्मक रूप दिया गया है | उक्त से यह बड़ा स्पष्ट है कि हमारे यहाँ कानून निर्माण और लागू करने की स्थिति दोनों ही कमजोर हैं और यह नागरिकों की सहिष्णुता और धैर्य की परीक्षा लेती है व अमेरिका, इंग्लॅण्ड ही नहीं बल्कि हमारे पडौसी राष्ट्रों से भी कमजोर दिखाई देती है| मात्र इतना ही नहीं राज्य के अनुचित कृत्यों से हुई हानि के लिए चीन के संविधान के अनुच्छेद 41 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति पाना संवैधानिक अधिकार है| भारतीय  न्यायप्रणाली में एक रूपता, सुसंगतता, समानता, निष्पक्षता व जन विश्वास की कमी के कारण ही खाप या स्थानीय पंचायतें और कब्जा खाली करवाने वाले दल पनपते हैं| जहां बम्बई उच्च न्यायालय ने एक दिन की अवैध हिरासत के लिए वीणा सिप्पी को, स्वयं पैरवी करने पर, 275000 रूपये क्षतिपूर्ति दिलवाई वहीं उस न्यायालय के उसी न्यायाधीश वाली बेंच ने कादर सत्तार सोलंकी को एक दिन की अवैध हिरासत के लिए, वकील नियुक्त करने पर भी, मात्र 15000 रुपये की क्षतिपूर्ति दिलवाई है|  समानांतर न्यायालयों की कार्य प्रणाली में विश्वास ही लोगों को उनकी ओर आकर्षित करता है और लोग न्यायप्रणाली की बजाय इस समानांतर प्रणाली का सहारा लेते हैं| न्याय न होने का एक अर्थ यह भी निकलता है कि न्याय करने वाले लोग विद्वान तो हो सकते हैं किन्तु हृदय से सज्जन व्यक्ति नहीं हैं| एक विद्वान के पास शब्द भण्डार और शब्द कोष बड़ा होता है जिसके उपयोग से वह शब्द जाल के माध्यम से सही को गलत और गलत को सही ठहराने का प्रयास कर सकता है किन्तु वास्तव में सही व न्यायोचित क्या है यह तो एक सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति भी जानता है, विद्वान के लिए तो यह मुश्किल नहीं है| वैसे भी भारत में न्यायाधीश पद के लिए आयोजित होने परीक्षाओं में बुद्धिमता परीक्षण का कोई प्रश्न-पत्र नहीं होता है – मात्र कानूनी ज्ञान के ही प्रश्नपत्र होते हैं अर्थात हमें न्यायाधीश पद हेतु बुद्धिमान लोगों की आवश्यकता नहीं है| दूसरी ओर अमेरिका में न्यायाधीशों के लिए मात्र ज्ञान की ही नहीं चरित्र और मनोवृति की भी सार्वजनिक जांच की जाती है जबकि भारत के न्यायालय न्यायाधीश नियुक्ति प्रक्रिया को गोपनीय एवं अपना विशेषाधिकार मानते हैं और सूचना के अधिकार में ऐसी कोई सूचना नहीं देते हैं| जब लगभग हमारे ही समान आबादी वाला चीन ऐसे कानून बनाकर राज्य मशीनरी की लगाम कस सकता है तो भारत के जन प्रतिनिधि अपने कानूनों के सरलीकरण कर न्यायपालिका सहित नौकरशाही के मनमानेपन, दांव पेंचों और पैंतरों से जनता को मुक्ति देने में क्यों घबराते हैं, समझ से बाहर है|
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Mani Ram Sharma:
[justify]संविधान के रक्षक उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्र भाषा में कार्य करना अपने आप में गौरव का विषय है| राजभाषा पर संसदीय समिति ने दिनांक 28.11.1958 को संस्तुति की थी कि उच्चतम न्यायालय  में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए| उक्त संस्तुति को पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है किन्तु इस दिशा में आगे कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है| जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में अन्ग्रेजी भाषी लोग मात्र 0.021% ही हैं| इस दृष्टिकोण से भी अत्यंत अल्पमत की, और विदेशी भाषा जनता पर थोपना जनतंत्र का स्पष्ट निरादर है| देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश के सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाहियां अनिवार्य रूप से ऐसी भाषा में संपन्न की जा रही हैं जो 1% से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है| इस कारण देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों से अधिकांश जनता में अनभिज्ञता व गोपनीयता, और पारदर्शिता का अभाव रहता है| जनता द्वारा समझे जाने  योग्य भाषा में सूचना प्रदानगी के बिना अनुच्छेद  19 में गारंटीकृत “जानने का अधिकार” भी अर्थहीन है| सुप्रीम कोर्ट ने क्रान्ति एण्ड एसोसियेटेड बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 में कहा है कि इस बात में संदेह नहीं है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है। कई बार माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने महत्वपूर्ण निर्णयों के सार दूरदर्शन पर हिंदी भाषा में जारी करने के निर्देश दिए हैं| अब माननीय संसद द्वारा समस्त कानून हिंदी भाषा में बनाये जा रहे हैं और पुराने कानूनों का भी हिंदी अनुवाद किया जा रहा अतः उच्चतम न्यायालय  द्वारा  हिंदी भाषा में कार्य करने में कोई कठिनाई नहीं है|



पश्चिम बंगाल मानव अधिकार आयोग द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची की किसी भी भाषा में शिकायतें स्वीकार की जा रही हैं| उक्त आयोग के अध्यक्ष भी सेवानिवृत न्यायाधीश होते हैं| देश के चार छोटे राज्यों –अरुणाचल, गोवा, मेघालय और नागालैंड को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य की प्रथम राजभाषा अंग्रेजी नहीं है| राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,  राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण आयोग, विधि आयोग आदि  भारत सरकार के मंत्रालयों/ विभागों के नियंत्रण में कार्यरत कार्यालय हैं और वे राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसरण में हिंदी भाषा में कार्य करने को बाध्य हैं तथा उनमें उच्चतम न्यायालय के सेवा निवृत न्यायाधीश कार्यरत हैं| यदि एक न्यायाधीश सेवानिवृति के पश्चात हिंदी भाषा में कार्य करने वाले संगठन में कार्य करना स्वीकार करता है तो उसे अपने पूर्व पद पर भी हिंदी भाषा में कार्य करने में स्वाभाविक रूप से कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए| दिल्ली उच्च न्यायालय में 11 अनुवादक पदस्थापित हैं जो आवश्यकतानुसार अनुवाद कार्य कर माननीय न्यायाधीशों के न्यायिक कार्यों में सहायता करते हैं| उच्चतम न्यायालय में भी हिंदी भाषा के प्रयोग को सुकर बनाने के लिए माननीय न्यायाधीशों को अनुवादक सेवाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं|

आज केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत ट्राइब्यूनल तो हिंदी भाषा में निर्णय देने के लिए कर्तव्य बाध्य हैं| अन्य समस्त भारतीय सेवाओं के अधिकारी हिंदी भाषी राज्यों में सेवारत होते हुए हिंदी भाषा में कार्य कर ही रहे हैं| राजस्थान उच्च न्यायालय की तो प्राधिकृत भाषा हिंदी ही है और हिंदी से भिन्न भाषा में कार्यवाही केवल उन्ही न्यायाधीश के लिए अनुमत है जो हिंदी भाषा नहीं जानते हों| क्रमशः बिहार और उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालयों में भी हिंदी भाषा में कार्य पर बल दिया जाता है| न्यायालय जनता की सेवा के लिए बनाये जाते हैं और उन्हें जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए| हिंदी भाषा को उच्चतम न्यायलय में कठोर रूप से लागू करने  की आवश्यकता नहीं है अपितु वैकल्पिक रूप से इसकी अनुमति दी जा सकती है और कालान्तर में हिंदी भाषा का समानांतर प्रयोग किया जा सकता है| आखिर हमें स्वदेशी  भाषा हिंदी लागू करने के लिए कोई लक्ष्मण रेखा खेंचनी होगी- शुभ शुरुआत करनी जो है|

अब देश में हिंदी भाषा में कार्य करने में सक्षम न्यायविदों और साहित्य की भी कोई कमी नहीं है| न्यायाधीश बनने के इच्छुक,  जिस प्रकार कानून सीखते हैं ठीक उसी प्रकार हिंदी भाषा भी सीख सकते है| चूँकि किसी न्यायाधीश को हिंदी नहीं आती अत: न्यायालय की भाषा हिंदी नहीं रखी जाए तर्कसंगत व औचित्यपूर्ण नहीं है| इससे यह यह संकेत मिलता है कि न्यायालय न्यायाधीशों और वकीलों की सुविधा के लिए बनाये जाते हैं| देश के विभिन्न न्यायालयों से ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश आते हैं| देश के  कुल 18008 अधीनस्थ न्यायालयों में से  7165 न्यायालयों की भाषा हिंदी हैं और शेष न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी अथवा स्थानीय भाषा है| इन अधीनस्थ न्यायालयों में भी कई न्यायालयों की कार्य की भाषा अंग्रेजी है जबकि अभियोजन एवं पुलिस द्वारा हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में प्रस्तुति की जा रही है| पंजाब , हरियाणा, दिल्ली, प. बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, तमिलनाडु आदि इसके उदाहरण हैं| इस प्रकार कई राज्यों में अधीनस्थ न्यायालयों, उच्च न्यायालय व अभियोजन की भाषाएँ भिन्न भिन्न हैं किन्तु उच्च न्यायालय अपनी भाषा में सहज रूप से कार्य कर रहे हैं |
संसदीय राजभाषा समिति की संस्तुति संख्या 44 को स्वीकार करने वाले माननीय राष्ट्रपतिजी के आदेश को प्रसारित करते हुए राजभाषा विभाग के (राजपत्र में प्रकाशित)  पत्रांक I/20012/07/2005-रा.भा.(नीति-1) दिनांक 02.07.2008 में कहा गया है, “जब भी कोई मंत्रालय/विभाग या उसका कोई कार्यालय या उपक्रम अपनी वेबसाइट तैयार करे तो वह अनिवार्य रूप से द्विभाषी तैयार किया जाए| जिस कार्यालय का वेबसाइट केवल अंग्रेजी में है उसे द्विभाषी बनाए जाने की कार्यवाही की जाए|”  फिर भी राजभाषा को लागू करने में कोई कठिनाई आती है तो केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो अथवा आउटसोर्सिंग से इस प्रसंग में सहायता भी ली जा सकती है|

संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट खंड 5 में की गयी निम्न संस्तुतियों को राष्ट्रपति महोदय द्वारा पर्याप्त समय पहले, राज पत्र में प्रकाशित  पत्रांक I/20012/4/92- रा.भा.(नीति-1)  दिनांक 24.11.1998 से, ही स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है| संस्तुति संख्या (12)- उच्चतम न्यायलय के महा-रजिस्ट्रार के कार्यालय को अपने प्रशासनिक कार्यों में संघ सरकार की राजभाषा नीति का अनुपालन करना चाहिए| वहाँ हिंदी में कार्य करने के लिए आधारभूत संरचना स्थापित की जानी चाहिए और इस प्रयोजन के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए| संस्तुति संख्या (13)- उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ –साथ हिंदी का प्रयोग प्राधिकृत होना चाहिए| प्रत्येक निर्णय दोनों भाषाओं में उपलब्ध हो| उच्चतम न्यायालय द्वारा हिंदी और अंग्रेजी में निर्णय दिया जा सकता है| अत: अब कानूनी रूप से भी उच्चतम न्यायालय में हिंदी भाषा के प्रयोग में कोई बाधा शेष नहीं रह गयी है|
संविधान के अनुच्छेद 348 में यह प्रावधान है कि जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी| उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा के प्रयोग का प्रावधान दिनांक 07-03-1970 से किया जा चुका है और वे राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत अपनी कार्यवाहियां हिंदी भाषा में स्वेच्छापूर्वक कर रहे हैं|  ठीक इसी के समानांतर राजभाषा अधिनियम में निम्नानुसार धारा 7क अन्तःस्थापित कर संविधान के रक्षक उच्चतम न्यायालय में भी हिंदी भाषा के वैकल्पिक उपयोग का मार्ग प्रक्रियात्मक रूप से खोला जा सकता है|
       धारा 7 क. उच्चतम न्यायालय के निर्णयों आदि में हिन्दी का वैकल्पिक प्रयोग- “नियत दिन से ही या तत्पश्चात्‌ किसी भी दिन से राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से, अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का प्रयोग, उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित या दिए गए किसी निर्णय, डिक्री या आदेश के प्रयोजनों के लिए प्राधिकृत कर सकेगा और जहां कोई निर्णय, डिक्री या आदेश हिन्दी भाषा में पारित किया या दिया जाता है वहां उसके साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के प्राधिकार से निकाला गया अंग्रेजी भाषा में उसका अनुवाद भी होगा।“ 
इस हेतु संविधान में किसी संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है| हिंदी के वैकल्पिक उपयोग के प्रावधान से माननीय न्यायालय की कार्यवाहियों में कोई व्यवधान या हस्तक्षेप नहीं होगा अपितु राष्ट्र भाषा के प्रसार के एक नए अध्याय का शुभारंभ हो सकेगा|


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