Author Topic: Articles by Mani Ram Sharma -मनी राम शर्मा जी के लेख  (Read 27179 times)

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
देश में समय समय पर होने वाले साम्प्रदायिक और जातिगत दंगे सौहार्द और समरसता पर गंभीर आक्रमण कर देश की सामासिक संस्कृति, अखंडता और एकता को चुनौती देते रहे हैं| समय समय  पर होनेवाले इन दंगों के मामलों में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने समय समय पर हस्तक्षेप कर पीड़ित लोगों को राहत दी है| गत वर्ष उत्तरप्रदेश राज्य के मुज़फरनगर जिले में भी  साम्प्रदायिक दंगों के वीभत्स रूप से देश का सामना हुआ जिसमें मुस्लिम समाज के बड़ी संख्या में लोगों को मृत्यु के घाट उतार दिया गया, उन्हें अपना निवास छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया और महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार बना लिया गया | इस घटनाक्रम के प्रसंग में इलाहाबाद उच्च न्यायालय व  उच्चतम न्यायालय में कई याचिकाएं दायर हुई | उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका मोहमद हारुन बनाम भारत संघ के मामले में न्यायालय ने पाया की यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना दिनांक 7 सितम्बर 2013 को हुई| उत्तरप्रदेश के मुज़फरनगर जिले में सांप्रदायिक तनाव के कारण दंगे भड़के जिस कारण बहुत से लोगों को जान से हाथ धोना पडा और बहुत से लोग चिंता व भय के कारण घरबार छोड़कर जान बचाकर भाग गए|
याचिका में यह कहा गया कि  दंगे मुजफरनगर , शामली और इसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में महापंचायत, जोकि नागला मन्दौर में जाट समुदाय दारा आयोजित की गयी थी, के बाद भड़के| इस महापंचायत में दिल्ली, हरियाणा व उत्तरप्रदेश से डेढ़ लाख से अधिक लोग दिनांक 27  अगस्त 2013 की घटना के विरोध में भाग लेने आये थे| उक्त घटना मुज़फरनगर जिले की जानसठ तहसील के कवल गाँव में दिनांक 27 अगस्त को घटित हुई थी जिसमें दो समुदायों के बीच हिंसा भड़की और मामूली घटना के कारण दोनों पक्षों के तीन युवक मारे गए तथा बाद में इस घटना को साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया| याचिकाकर्ता का आरोप रहा कि स्थानीय प्रशासन ने कानून लागू करने के स्थान पर न  केवल इन लोगों को संगठित होने की अनुमति दी बल्कि उपेक्षापूर्वक व संभवत: मिलीभगत से इस कार्यवाही पर निगरानी रखने में विफल रहा| यह भी आरोप लगाया गया कि  इस तिथि से लेकर अब तक 200 से अधिक मुस्लिम लोगों की नृशंस हत्या की गयी और लगभग 500 लोग, इन 50 जाट बाहुल्य   गाँवों में  जहां मुस्लिम  समुदाय अल्पसंख्या  में हैं, अभी भी गायब हैं| कई हजार शिशु, बच्चे, औरतें और बूढ़े विभिन्न गांवों में बिना भोजन और आश्रय के रह गए हैं और प्रशासन द्वारा उन्हें कोई सुविधा मुहैया नहीं करवाई गयी है| इसके अतिरिक्त बड़ी मात्रा में मुज़फरनगर के आसपास अवैध और अनाधिकृत गोला –बारूद, हथियार बरामद हुए हैं| सभी समुदायों के विस्थापित लोगों को आश्रय कैम्पों में रहने के लिए विवश किया जा रहा है जहां पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं | इन सबके परिणाम स्वरुप विभिन्न व्यक्तियों, सुप्रीम कोर्ट बार संघ, गैर सरकारी संगठनों ने दंगा पीड़ितों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए कई याचिकाएं दायर की | इन याचिकाओं में  विस्थापित लोगों के पुनर्वास , संरक्षण, और बचाव के लिए केंद्र व राज सरकार को निर्देश देने की प्रार्थना की गयी| जो बच्चे हिंसा या कैम्पों में सर्दी के कारण मर गए उसके लिए उनके माता-पिता को हर्जाना देने की प्रार्थना भी शामिल थी| समस्त तथ्यों व तर्कों पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने निम्नानुसार निर्देश दिए :

राज्य सभी चोटग्रस्त लोगों व हिंसा में मृतकों  को चिन्हित करे  और उनके आश्रितों को  कुल 15 लाख रूपये मुआवजा दे| हिंसा के कारण उनकी चल-अचल सम्पति को हुए नुक्सान के लिए भी, यदि उन्हें पहले प्राप्त नहीं हुई है तो, क्षतिपूर्ति दी जाए | उपरोक्त  में से जो भी हिंसा, बलात्कार आदि से पीड़ित जिन्हें कोई राशि नहीं मिली हो, उन्हें  भी स्थानीय प्रशासन को आज से एक माह के भीतर आवेदन करने की अनुमति दी जाती है| ऐसे आवेदन की जांच करने के बाद प्रशासन एक माह के भीतर उचित राहत राशि स्वीकृत करेगा|जिला प्रशासन पात्र लोगों के लिए रानी लक्ष्मीबाई पेंशन योजना भी लागू करेगा और  जो लोग विस्थापित हो गए हैं उनके मामलों पर भी विचार करेगा|
यदि कोई पीड़ित आवश्यक समझे तो वह जिला कानूनी सहायता प्राधिकारी से संपर्क कर सकता है जिसे सहायता करने के निर्देश दिए जाते हैं| जिन्हें 5 लाख रूपये की सहायता मिल चुकी है और वे घटना स्थल के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं बसने का मानस बना लिया हो अब यदि वे अपना व्यावसाय पूर्व स्थान पर करना चाहें व अपने सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहना चाहें तो राज्य को यह निर्देश दिया जाता है कि उनसे इस राशि की वसूली नहीं  की जाए| जिला प्रशासन  यह सुनिश्चित करे की वे लोग अपने पूर्व स्थान पर शांतिपूर्वक अपना व्यसाय कर सकें व अपने रिश्तेदारों और मित्रों के साथ रह सकें| जिन अधिकारियों को यह शिकायत है कि  इस घटना क्रम के कारण उन्हें बदले की भावना से अन्यत्र दूर स्थानांतरित कर दिया गया वे भी अपना प्रतिवेदन एक माह के भीतर सक्षम अधिकारी को प्रस्तुत कर सकते हैं| सक्षम अधिकारियों को निर्देश दिए जाते हैं कि  वे ऐसे प्रतिवेदनों पर नए सिरे से विचार करें| जिन किसानों ने अपनी आजीविका – ट्रेक्टर , मवेशी , गन्ने की फसल आदि खो दी हो उन्हें भी उचित मुआवजा दिया जाए| जिन किसानों को अभी तक कोई क्षतिपूर्ति प्राप्त  नहीं हुई हो वे एक माह के भीतर स्थानीय/ जिला प्रशासन से आवेदन कर सकते हैं जिनका निपटान एक माह के भीतर किया जाएगा|
न्यायालय ने आगे कहा कि पुन: बल दिया जाता है की यह राज्य प्रशासन का कर्तव्य होगा की वे केंद्र व राज्य की इंटेलिजेंस एजेंसियों के साथ मिलकर इस प्रकार की सांप्रदायिक घटनाओं की रोकथाम करें| यह भी स्पष्ट किया जाता है कि  कानून व व्यवस्था बनाए रखने के दायित्वाधीन अधिकारियों की यदि कोई लापरवाही हो तो उनके पद को ध्यान में रखे बिना उन्हें कानून के दायरे में लाया जाए|  समस्त पीड़ितों को उनके धर्म पर ध्यान दिए बिना सहायता दी  जाए | उक्त निर्देश देते हुए याचिका का दिनांक 26 मार्च 2014 को निपटान दिया गया| साथ ही यह भी निर्देश दिए गए की यदि कोई पीड़ित बाधा अनुभव करता हो और जिला प्रशासन से समाधान नहीं हुआ हो तो वह इस न्यायालय से संपर्क कर सकता है| इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जो मामले यहाँ स्थानांतिरत नहीं हुए हों उनमें उच्च न्यायालय  द्वारा  इसी अनुरूप आदेश पारित किये  जायेंगे|   

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
भारतीय न्यायतंत्र उर्फ मुकदमेबाजी उद्योग ने बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध करवा रखा है। देश में अर्द्ध–न्यायिक निकायों को छोड़कर 20,000 से ज्यादा न्यायाधीश, 2,50,000 से ज्यादा सहायक स्टाफ, 25,00,000 से ज्यादा वकील, 10,00,000 से ज्यादा मुंशी टाइपिस्ट, 23,00,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी इस व्यवसाय में नियोजित हैं और वैध–अवैध ढंग से जनता से धन ऐंठ रहे हैं। अर्द्ध-न्यायिक निकायों में भी समान संख्या और नियोजित है। फिर भी परिणाम और इन लोगों की नीयत लाचार जनता से छुपी हुई नहीं हैं। भारत में मुक़दमेबाजी उद्योग एक चक्रव्यूह  की तरह संचालित है, जिसमें सत्ता में शामिल सभी पक्षकार अपनी-अपनी भूमिका निसंकोच और निर्भीक होकर बखूबी निभा रहे हैं। प्राय: झगड़ों और विवादों का प्रायोजन अपने स्वर्थों के लिए या तो राजनेता स्वयं करते हैं या वे इनका पोषण करते हैं। अधिकाँश वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से चिपके रहते हैं और उनके माध्यम से वे अपना व्यवसाय प्राप्त करते हैं, क्योंकि विवाद के पश्चात पक्षकार सुलह–समाधान के लिए अक्सर राजनेताओं के पास जाते हैं और कालांतर में राजनेताओं से घनिष्ठ संपर्क वाले वकील ही न्यायाधीश बन पाते हैं। इस बात का खुलासा सिंघवी सीडी प्रकरण ने भी कर दिया है। इस प्रकरण ने यह भी दिखा दिया कि न्यायाधीश बनने के लिए आशार्थी को किन कठिन परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। भारत में किसी चयन प्रक्रिया में न्यायाधीशों या विपक्ष को भी शामिल करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जिस प्रक्रिया में जितने ज्यादा लोग शामिल होंगे; उसमें भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। प्रक्रिया में शामिल सभी लोग तुष्ट होने पर ही कार्यवाही आगे बढ़ पाएगी। यदि निर्णय प्रक्रिया में भागीदारों की संख्या बढाने या विपक्ष को शामिल करने से स्वच्छता आती तो हमें विधायिकाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्था की आवश्यकता क्यों पड़ती। इसलिए प्रक्रिया में जितना प्रसाद मिलेगा, उसका बँटवारा प्रत्येक भागीदार की मोलभाव शक्ति के अनुसार होगा और अंतत: यह बंदरबांट का रूप ले लेगी। कहने को चाहे संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीश करते होंगे, किन्तु वास्तव में यह भी राजनीति की इच्छाशक्ति की सहमति से ही होता है। जहां राजनीति किसी नियुक्ति पर असहमत हो तो, देश में वकील और न्यायाधीश कोई संत पुरुष तो हैं नहीं, वे प्रस्तावित व्यक्ति के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच खोलकर उसकी नियुक्ति बाधित कर देते हैं। अन्यथा दागी के विरुद्ध किसी प्रतिकूल रिपोर्ट को भी नजर अंदाज कर दबा दिया जाता है। विलियम शेक्स्पेअर ने भी (हेनरी 4 भाग 2 नाट्य 4 दृश्य 2) में कहा है , “हमारा सबसे पहला कार्य वकीलों को समाप्त करना है।”

वैसे भी भारत की राजनीति किसी दलदल से कम नहीं है और लगभग सभी नामी और वरिष्ठ वकील किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं, जिसमें दोनों का आपसी हित है और दोनों एक दूसरे का संरक्षण करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया तो वैसे ही गोपनीय है और उसमें पारदर्शिता का नितांत अभाव है। न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए मात्र कानून का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह व्यक्ति चरित्र, मनोवृति और बुद्धिमता के दृष्टिकोण से भी योग्य होना चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति के भी कुटिल होने का जोखिम बना रहता है। अमेरिका में न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के समय उसकी पात्रता–बुद्धिमता, योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी आदि की कड़ी जांच होती है और प्रत्येक पद के लिए दो गुने प्रत्याशियों की सूची राज्यपाल को नियुक्ति हेतु सौंपी जाती है, जबकि भारत में ऐसा कदाचित नहीं होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों पर यौन शोषण के आरोप लगे और यह पाया गया कि उन्होंने शराब का सेवन किया तथा पीड़ित महिला को भी इसके लिए प्रस्ताव रखा। इससे यह प्रामाणित होता है कि वे लोग अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले रहे हैं, जिनमें सात्विक और सद्बुद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। निश्चित रूप से ऐसे चरित्रवान लोगो को इन गरिमामयी पदों पर नियुक्त करने में देश से भारी भूलें हुई हैं, चाहे उन्हें दण्डित किया जाता है या नहीं। न्यायाधीश होने के लिए मात्र विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु वह मन से सद्बुद्धि और सात्विक होना चाहिए। अन्यथा सद्चरित्र के अभाव में ऐसा पांडित्य तो रावण के समान चरित्र को ही प्रतिबिंबित कर सकता है और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

विधि आयोग की 197 वीं रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोषसिद्धि की दर मात्र 2 प्रतिशत है, जिससे सम्पूर्ण न्यायतंत्र की क्षमता–योग्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि अमेरिका के संघीय न्यायालयों की दोष सिद्धि की जो दर 1972 में 75 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 1992 में 85 प्रतिशत हो गयी है। वहीं वर्ष 2011 में अमरीकी न्याय विभाग ने दोष सिद्धि की दर 93 प्रतिशत बतायी है। भारत में आपराधिक मामलों में पुलिस अनुसंधान में विलंब करती है, फिर भी दोष सिद्धियाँ मात्र 2 प्रतिशत तक ही सीमित रह जाती हैं। इसका एक संभावित कारण है कि पुलिस वास्तव में मामले की तह तक नहीं जाती, अपितु कुछ कहानियां गढ़ती है और झूठी कहानी गढ़ने में उसे समय लगना स्वाभाविक है। दोष सिद्धि की दर अमेरिकी राज्य न्यायालयों में भी पर्याप्त ऊँची है। रिपोर्ट के अनुसार यह टेक्सास में 84 प्रतिशत, कैलिफ़ोर्निया में 82 प्रतिशत, न्यूयॉर्क में 72 प्रतिशत उतरी कैलिफ़ोर्निया में 67 प्रतिशत और फ्लोरिडा में 59 प्रतिशत है। इंग्लॅण्ड के क्राउन कोर्ट्स में भी दोष सिद्धि की दर 80 प्रतिशत है। हांगकांग के सत्र न्यायालयों में 92 प्रतिशत, वेल्स के सत्र न्यायालयों में 80 प्रतिशत, कनाडा के समान न्यायालयों में 69 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया के न्यायालयों में 79 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में क्या भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धि जनता पर एक भार नहीं हैं? क्या इतना परिणाम यदि देश में बैंकिंग या अन्य उद्योग दें तो सरकार इसे बर्दास्त कर सकेगी? फिर न्यायतंत्र के ऐसे निराशाजनक परिणामों को सत्तासीन और विपक्ष दोनों क्योंकर बर्दास्त कर रहे हैं? इससे न्यायतंत्र के भी राजनैतिक उपयोग की बू आती है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा वसूली हेतु दायर किये गए मामलों में भी, जहां पूरी तरह से सुरक्षित दस्तावेज बनाकर ऋण दिए जाते हैं, वसूली मात्र 2 प्रतिशत वार्षिक तक सीमित है, जबकि इनमें लागत 15 प्रतिशत आ रही है। देश की जनता को न्यायतंत्र की इतनी विफलता में क्रमश: न्यायपालिका, विधायिका, पुलिस व वकीलों के अलग-अलग योगदान को जानने का अधिकार है।

जहां तक नियुक्ति या निर्णयन की किसी प्रक्रिया में पक्ष-विपक्ष को शामिल करने का प्रश्न है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि जो पक्ष आज सता में है-कल विपक्ष में हो सकता है और ठीक इसके विपरीत भी। अत: इन दोनों समूहों में वास्तव में आपस में कोई संघर्ष-टकराव नहीं होता है, जो भी संघर्ष होता है-वह मात्र सस्ती लोकप्रियता व वोट बटोरने और जनता को मूर्ख बनाने के लिए होता है। यद्यपि प्रजातंत्र कोई मूकदर्शी खेल नहीं है, अपितु यह तो जनता की सक्रिय भागीदारी से संचालित शासन व्यवस्था का नाम है। जनतंत्र में न तो जनता जनप्रतिनिधियों के बंधक है और न ही जनतंत्र किसी अन्य द्वारा निर्देशित कोई व्यवस्था का नाम है। न्यायाधिपति सौमित्र सेन पर महाभियोग का असामयिक पटाक्षेप और राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भल्ला द्वारा अपर सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को देश की जनता देख ही चुकी है, जहां मात्र अनुचित नियुक्तियों को निरस्त ही किया गया और किसी दोषी के गिरेबान तक कानून का हाथ नहीं पहुँच सका। जिससे यह प्रमाणित है कि जहां दोषी व्यक्ति शक्तिसंपन्न हो, वहां कानून के हाथ भी छोटे पड़ जाते हैं। देश के न्यायाधीशों की निष्पक्षता, तटस्थता और स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देती है। देश का न्यायिक वातावरण दूषित है और इसकी गरिमा प्रश्नास्पद है। इस वातावरण में प्रतिभाशाली और ईमानदार लोगों के लिए कोई स्थान दिखाई नहीं देता है। न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति हेतु आशार्थियों की सूची को पहले सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि अवांछनीय और अपराधी लोग इस पवित्र व्यवसाय में अतिक्रमण नहीं कर सकें। वर्तमान में तो इस व्यवसाय के संचालन में न्याय-तंत्र का अनुचित महिमामंडन करने वाले वकील, उनके सहायक, न्यायाधीश और पुलिस ही टिक पा रहे हैं।

हाल ही में उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीश की पदस्थापना के लिए यह नीति बनायी गयी कि मुख्य न्यायाधीश किसी बाहरी राज्य का हो,  किन्तु यह नीति न तो उचित है और न ही व्यावहारिक है। न्यायाधीश पूर्व वकील होते हैं और वे राजनीति के गहरे रंग में रंगे होते हैं। इस वास्तविकता की ओर आँखें नहीं मूंदी जा सकती। अत: देशी राज्य के वकीलों का ध्रुवीकरण हो जाता है और बाहरी राज्य का अकेला मुख्य न्यायाधीश अलग थलग पड़ जाता है तथा वह चाहकर भी कोई सुधार का कार्य हाथ में नहीं ले पाता, क्योंकि संवैधानिक न्यायालयों में प्रशासनिक निर्णय समूह द्वारा लिए जाते हैं। वैसे भी यह नीति देश की न्यायपालिका में स्वच्छता व गतिशीलता रखने और स्थानान्तरण की सुविचारित नीति के विरूद्ध है। जहां एक ओर सत्र न्यायाधीशों के लिए समस्त भारतीय स्तर की सेवा की पैरवी की जाती है, वहीं उच्च न्यायालयों के स्तर के न्यायाधीशों के लिए इस तरह की नीति के विषय में कोई विचार तक नहीं किया जा रहा है, जिससे न्यायिक उपक्रमों में स्वच्छता लाने की मूल इच्छा शक्ति पर ही संदेह होना स्वाभाविक है। उच्च न्यायालयों द्वारा आवश्यकता होने पर पुलिस केस डायरी मंगवाई जाती है, किन्तु उसे बिना न्यायालय के आदेश के ही लौटा दिया जाता है। जिससे यह सन्देश जाता है कि न्यायालय और पुलिस हाथ से हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हैं न कि वे स्वतंत्र हैं। क्या न्यायालय एक आम नागरिक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज को भी बिना न्यायिक आदेश के लौटा देते हैं? केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक बार राज्य के महाधिवक्ता द्वारा प्रकरणों में तैयार होकर न आने पर न्यायालय से ही वाक आउट कर दिया, बजाय इसके कि कार्यवाही को आगे बढ़ाते अथवा महाधिवक्ता पर समुचित कार्यवाही करते अर्थात जहां सामने सशक्त पक्ष हो तो न्यायाधीश भी अपने आपको असहाय और लाचार पाते हैं-उनकी श्रेष्ठ न्यायिक शक्तियां अंतर्ध्यान हो जाती हैं। भारत का आम नागरिक तो न्यायालयों में चलने वाले पैंतरों, दांव-पेंचों आदि से परिचित नहीं हैं, किन्तु देश के वकीलों को ज्ञान है कि देश में कानून या संविधान का अस्तित्व संदिग्ध है। अत: वे अपनी परिवेदनाओं और मांगों के लिए दबाव बनाने हेतु धरनों, प्रदर्शनों, हड़तालों, विरोधों आदि का सहारा लेते हैं। आखिर पापी पेट का सवाल है। कदाचित उन्हें सम्यक न्यायिक उपचार उपलब्ध होते तो वे ऐसा रास्ता नहीं अपनाते। सामान्यतया न्यायार्थी जब वकील के पास जाता है तो उसके द्वारा मांगी जानी वाली आधी राहतों के विषय में तो उसे बताया जाता है कि ये कानून में उपलब्ध नहीं हैं और शेष में से अधिकाँश देने की परम्परा नहीं है अथवा साहब देते नहीं हैं।

पारदर्शिता और भ्रष्टाचार में कोई मेलजोल नहीं होता है, इस कारण न्यायालयों एवं पुलिस का स्टाफ अपने कार्यों में कभी पारदर्शिता नहीं लाना चाहता है। देश के 20,000 न्यायालयों के कम्प्यूटरीकरण की ईकोर्ट प्रक्रिया 1990 में प्रारंभ हुई थी और यह आज तक 20 उच्च न्यायालयों के स्तर तक भी पूर्ण नहीं हो सकी है। दूसरी ओर देखें तो देश की लगभग 1,00,000 सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण का कार्य 10 वर्ष में पूर्ण हो गया। इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की कम्प्यूटरीकरण में अरुचि का सहज अनुमान लगाया जा सकता है जो माननीय कहे जाने वाले न्यायाधीशों के सानिध्य में ही संचालित हैं। देश के न्यायालयों में सुनवाई पूर्ण होने की के बाद भी निर्णय घोषित नहीं किये जाते तथा ऐसे भी मामले प्रकाश में आये हैं, जहां पक्षकारों से न्यायाधीशों ने मोलभाव किया और निर्णय जारी करने में 6 माह तक का असामान्य विलम्ब किया। वैसे भी निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के 5-6 दिन बाद ही घोषित करना एक सामान्य बात है। कई बार पीड़ित पक्षकार को अपील के अधिकार से वंचित करने के लिए निर्णय पीछे की तिथि में जारी करके भी न्यायाधीश पक्षकार को उपकृत करते हैं। जबकि अमेरिका में निर्णय सुनवाई पूर्ण होने के बाद निश्चित दिन ही जारी किया जाता है और उसे अविलम्ब इन्टरनेट पर उपलब्ध करवा दिया जाता है। अपने अहम की संतुष्टि और शक्ति के बेजा प्रदर्शन के लिए संवैधानिक न्यायालय कई बार भारी खर्चे भी लगाते हैं, जबकि इसके लिए उन्होंने ऐसे कोई नियम नहीं बना रखे हैं, क्योंकि नियम बनाने की उन्हें कोई स्वतंत्र शक्तियां प्राप्त भी नहीं हैं। एक मामले में बम्बई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 40 लाख रुपये खर्चा लगाया जो उच्चतम न्यायालय ने घटाकर मात्र 25 हजार रुपये कर दिया। इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोग अहम व पूर्वाग्रहों से कूटकूट कर भरे होते हैं व देश की अस्वच्छ राजनीति की ही भांति उनका आपसी गठबंधन व गुप्त समझौता होता है और समय पर एक दूसरे के काम आते हैं। अत: निर्णय चाहे एक सदस्यीय पीठ दे या बहु सदस्यीय पीठ दे, उसकी गुणवता में कोई ज्यादा अंतर नहीं आता है। न्यायालयों द्वारा कई बार नागरिकों पर भयावह खर्चे लगाए जाते हैं, जबकि खर्चे शब्द का शाब्दिक अर्थ लागत की पूर्ति करना होता है और उसमें दंड शामिल नहीं है व लागत की गणना भी किया जाना आवश्यक है। जिस प्रकार न्यायालय पक्षकारों से अपेक्षा करते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर किसी कानून के अंतर्गत दंड लगाया जाना हो तो संविधान के अनुसार उसे उचित सुनवाई का अवसर देकर ही ऐसा किया जा सकता है, किन्तु वकील ऐसे अवसरों पर मौन रहकर अपने पक्षकार का अहित करते हैं।

वकालत का पेशा भी कितना विश्वसनीय है, इसकी बानगी हम इस बात से देख सकते हैं कि परिवार न्यायालयों, श्रम आयुक्तों, (कुछ राज्यों में) सूचना आयुक्तों आदि के यहाँ वकील के माध्यम से प्रतिनिधित्व अनुमत नहीं है अर्थात इन मंचों में वकीलों को न्याय पथ में बाधक माना गया है। फिर वकील अन्य मंचों पर साधक किस प्रकार हो सकते हैं? उच्च न्यायालयों में भी सुनवाई के लिए वकील अनुकूल बेंच की प्रतीक्षा करते रहते हैं-स्थगन लेते रहते हैं, यह तथ्य भी कई बार सामने आया है। जिसका एक अर्थ यह निकलता है कि उच्च न्यायालय की बेंचें फिक्स व मैनेज की जाती हैं व कानून गौण हो जाता है। कोई भी मूल प्रार्थी, अपवादों को छोड़कर, किसी याचिका पर निर्णय में देरी करने के प्रयास नहीं करेगा, फिर भी देखा गया है कि मूल याची या याची के वकील भी अनुकूल बेंच के लिए प्रतीक्षा करते हैं, जिससे उपरोक्त अवधारणा की फिर पुष्टि होती है।

देश में आतंकवादी गतिविधियाँ भी प्रशासन, पुलिस और राजनीति के सहयोग और समर्थन के बिना संचालित नहीं होती हैं। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी परिवहन, व्यापार आदि चलते रहते हैं, जो कि पुलिस और आतंकवादियों व संगठित अपराधियों दोनों को प्रोटेक्शन मनी देने पर ही संभव है। वैसे भी इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें व्यापारी वर्ग को किसी शासन व्यवस्था से कभी कोई शिकायत रही हो, क्योंकि वे पैसे की शक्ति को पहचानते हैं तथा पैसे के बल पर अपना रास्ता निकाल लेते हैं। चाहे शासन प्रणाली या शासन कैसा भी क्यों न हो। पूंजीपति लोग सभी राजनैतिक पार्टियों को चन्दा देते हैं व अपने अनुकूल नीतियाँ  व नियम बनवाते हैं तथा सरकारें तो कठपुतली की भांति  उनके इशारों पर नृत्य मात्र करती हैं| पुलिस के भ्रष्टाचार का अक्सर यह कहकर बचाव किया जाता है कि उन्हें उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है। अत: कार्य सही नहीं किया गया, किन्तु रिश्वत लेने का भी तो उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता फिर वे इसके लिए किस प्रकार रास्ता निकाल लेते हैं। ठीक इसी प्रकार एक व्यक्ति को गृहस्थी के संचालन का भी प्रारम्भ में कोई अनुभव नहीं होता, किन्तु अवसर मिलने पर वह आवश्यकतानुसार सब कुछ सीख लेता है। देश में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गिरफ्तारियां होती हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत अनावश्यक होती हैं। ये गिरफ्तारियां भी बिना किसी अस्वच्छ उद्देश्य के नहीं होती हैं, क्योंकि राजसत्ता में भागीदार पुलिस, अर्द्ध-न्यायिक अधिकारी व प्रशासनिक अधिकारी आदि को इस बात का विश्वास है कि वे चाहे जो मर्जी करें, उनका कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है और देश मंस वास्तव में ऐसा कोई मंच नहीं है जो प्रत्येक शक्ति-संपन्न व सत्तासीन दोषी को दण्डित कर सके। जहां कहीं भी अपवाद स्वरूप किसी पुलिसवाले के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती है, वह तो मात्र नाक बचाने और जनता को भ्रमित करने के लिए होती है। यदि पुलिस द्वारा किसी मामले में गिरफ्तारी न्यायोचित हो तो वे, घटना समय के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों में, गिरफ्तारी हेतु मजिस्ट्रेट से वारंट प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु न तो ऐसा किया जाता है और न ही देश का न्याय तंत्र ऐसी कोई आवश्यकता समझता है और न ही कोई वकील अपने मुवक्किल के लिए कभी मांग करता देखा गया है। यदि न्यायपालिका पुलिस द्वारा अनुसंधान में के मनमानेपन को नियंत्रित नहीं कर सकती, जिससे मात्र 2 प्रतिशत दोष सिद्धियाँ हासिल हो रही हों, तो फिर उसे दूसरे नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित करने का नैतिक अधिकार किस प्रकार प्राप्त हो जाता है?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

  • Core Team
  • Hero Member
  • *******
  • Posts: 40,912
  • Karma: +76/-0
Mani ji i endorse your views.

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
समय समय पर जन सम्बोधनों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने सुशासन के दावे व वादे करते रहते हैं किन्तु वास्तविकता का इनको कितना ज्ञान है, लेखक कहने में असमर्थ है| इनके सुशासन व जनप्रिय सरकार के मैं कुच्छेक नमूने उजागर करना चाहता हूँ| गुजरात राज्य में भी अभी भी अंग्रेजों की बनायी गई भारतीय दंड संहिता, 1860 व दंड प्रक्रिया संहिता लागू है| ये कानून अंग्रेजों ने 1857 की प्रथम क्रांति  के बाद उपजी परिस्थितियों को देखते हुए बनाए थे| निश्चित रूप से इन कानूनों में जनता का दमनकर राजसता में बने रहने की पुख्ता व्यवस्था की गयी थी, जो स्वतंत्र भारत के लिए किसी भी प्रकार से उपयुक्त नहीं हो सकती| यदि यही अंग्रेजी कानून और न्याय-व्यवस्था हमारे लिए उपयुक्त थी तो फिर हमें स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता थी| भारतीय संविधान के अनुसार न्याय-व्यवस्था राज्यों का विषय है, जिस पर कानून बनाने के लिए स्वयं राज्य सक्षम हैं|
भ्रान्तिवश मोदी सरकार को विकासोन्मुखी समझते हुए उक्त कानूनों में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए लेखक ने दिनांक 18.02.12 को स्पीड पोस्ट से मोदी सरकार को एक पत्र लिखा था जो इनके कार्यालय को दिनांक 21.02.12 को प्राप्त हो गया| दिनांक 14.03.12 को सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक आवेदन कर लेखक के उक्त पत्र पर मोदी सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही की जानकारी चाही, किन्तु उसे कोई जानकारी आज तक नहीं मिली है| लेखक को यह कहते हुए अफ़सोस है कि उक्त पत्र का मुख्यमंत्री कार्यालय में कोई अता-पता तक नहीं चला और उलटे मुख्यमंत्री कार्यालय जैसे जागरूक और जिम्मेदार कार्यालय से लेखक के पास फोन आये कि यह पत्र किसे व कब भेजा था?
पुन: दिनांक 16.06.13 को लेखक ने भारतीय दंड संहिता, 1860 व दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन हेतु गुजरात के राज्यपाल महोदय को निवेदन किया जिन्होंने पत्रांक जी.एस.13.26/61/6340/2013 दिनांक 11.10.13 द्वारा यह पत्र गृह विभाग को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेज दिया| लेखक ने दिनांक 29.10.13 को सूचना के अधिकार के अंतर्गत एक आवेदन कर पूर्व पत्र दिनांक 18.02.12 व उक्त पत्र दिनांक 16.06.13 पर की गयी कार्यवाही तथा गुजरात सरकार के अधिकारियों के उपलब्ध ईमेल पतों की जानकारी चाही, किन्तु गृह विभाग ने पुन: अपने पत्रांक वीएसऍफ़ /102013/आरटीआई-161/डी  दिनांक 05.12.13 से यही लिखा कि उक्त पत्र उनके यहाँ उपलब्ध नहीं| अत: लेखक अपने पत्र की प्रति भेजे| लेखक ने गृह विभाग की इस अनुचित अपेक्षा की भी पूर्ति की|
भारतीय दंड संहिता, 1860 व दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करना गृह विभाग के क्षेत्राधिकार में है, किन्तु गृह विभाग द्वारा पत्रांक वीएसऍफ़ /102013/आरटीआई-161/डी दिनांक 02.01.14 से उक्त पत्र दिनांक 16.06.13 को आश्चर्यजनक रूप से पुलिस महानिदेशक कार्यालय को भेज दिया गया, जिससे यह परिलक्षित होता है कि गुजरात सरकार को पुलिस चला रही है, इसमें जन प्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं है अथवा गुजरात में जनतंत्र नहीं अपितु पुलिसराज कायम है|
क्या गुजरात राज्य में भारतीय दंड संहिता, 1860 व दंड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करने का अधिकार पुलिस महानिदेशक में निहित है? पाठकों को स्मरण होगा कि नडियाद (गुजरात)  में मजिस्ट्रेट को ज़बरदस्ती शराब पिलाने के मामले में उच्चतम न्यायालय ने लगभग 23 वर्ष पहले टिप्पणी की थी कि गुजरात में सरकार पर पुलिस हावी है, आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है, और पुलिस की सहमति के बिना सरकार कोई भी कानून बनाने में समर्थ नहीं है| ठीक इसी प्रकार अहमदाबाद के ही मजिस्ट्रेट पर 10 वर्ष पूर्व आरोप लगे थी 40000 रुपये के बदले भारत के मुख्य न्यायाधीश व राष्ट्रपति 4 प्रमुख व्यक्तियों के विरुद्ध फर्जी मामले में वारंट जारी किये|
मोदी सरकार के अधिकारियों के ई-मेल पते इन्टरनेट पर उपलब्ध नहीं हैं और लेखक के उक्त आवेदन दिनांक 29.10.13 के बिंदु 3(3) में मांगने पर भी अवर सचिव, गृह विभाग ने ये उपलब्ध नहीं करवाए हैं| इससे यह प्रमाणित है कि गुजरात सरकार में नौकरशाही ने राजतंत्र की एक मोटी अभेद्य दीवार बना रखी, जिसमें से लोकतंत्र की कोई हवा भी नहीं आ सकती है| मोदी सरकार पूरी तरह से अपारदर्शी ढंग से संचालित है और गुजरात का जो आर्थिक विकास हुआ है उसमें उसकी भौगोलिक परिस्थितियाँ और नागरिकों की कर्मठता का ही योगदान है – मोदी सरकार की वास्तव में कोई सक्रिय भूमिका नहीं है|
पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि मोदी के ज़रिए किए जाने वाले सुशासन के दावे और वादे कितने खोखले हैं| उनके कार्यपालक जनता से प्राप्त पत्रों को फ़ुटबाल के दक्ष खिलाड़ी की भांति ठोकरें मारकर इधर-उधर भेजते रहते हैं, समय व्यतीत करते हैं  और उन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं करते हैं| चाहें तो इन्हें ऊँचे वेतन पर रखे हुए डाकिये कह सकते हैं जो डाक को अनावश्यक इधर-उधर करते रहते हैं|
लेखक ने हाल ही दिनांक 04.01.14 को  मोदी को एक और व्यक्तिगत पत्र लिखकर रजिस्टर्ड डाक से भेजते हुए न्यायव्यस्था में सुधार करने का परामर्श दिया है -शायद मोदी जी को पढ़ने को भी नहीं मिला होगा और यदि मिल गया हो तो भी उस पर कोई ठोस कार्यवाही होना संदिग्ध है, क्योंकि उसे भी पुलिस महानिदेशक या उच्च न्यायालय को भेजकर अब तक उनके अधिकारियों ने अपने पुनीत कर्तव्य की इतिश्री कर ली होगी|

सत्ता हथियाने के लिए देश में विभिन्न राजनैतिक दल समय-समय पर अपनी चाल-चरित्र भिन्न होने का दावा करते रहते हैं| किन्तु ऐसा नहीं है यह हाल सिर्फ मोदी सरकार के ही हैं| लेखक ने ऐसे ही पत्र और सूचनार्थ आवेदन विभिन्न दलों की विभिन्न राज्य सरकारों को भेजे हैं किन्तु सभी के परिणाम एक जैसे ही हैं| जनता को सतर्क और सावधान रहना चाहिए कि भारत में सभी राजनैतिक दल किसी दलदल से कम नहीं हैं| 


Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
भारत का सरकारी तंत्र तो सदा से भी भ्रष्ट और निकम्मा रहा है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए| भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रेषण प्रक्रिया में प्रारंभ में पुलिस की सीधी सेवाएं ली जाती थी किन्तु पुलिस स्वयं पेटियों  को तोडकर धन चुरा लेती और किसी की भी जिम्मेदारी  तय नहीं हो पाती थी | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर अपनी नीति में परिवर्तन करना पडा  और अब मुद्रा प्रेषण को मात्र पुलिस का संरक्षण ही होता है मुद्रा स्वयं बैंक स्टाफ के कब्जे में ही रहती है| इससे सम्पूर्ण पुलिस तंत्र की विश्वसनीयता का अनुमान लगाया जा सकता है| ठीक इसी प्रकार राजकोष का कार्य- नोटों सिक्कों आदि का लेनदेन,विनिमय  आदि मुख्यतया सरकारी कोषागारों का कार्य है| राजकोष का अंतिम नियंत्रण  रिजर्व बैंक करता रहा है किन्तु सरकारी राजकोषों के कार्य में भारी अनियमितताएं रही और वे समय पर रिजर्व बैंक को लेनदेन की कोई रिपोर्ट भी नहीं भेजते थे  क्योंकि रिपोर्ट भेजने में कोषागार स्टाफ का कोई हित निहित नहीं था और बिना हित साधे सरकारी  स्टाफ की कोई कार्य करने की परिपाटी  नहीं रही है | अत: रिजर्व बैंक को विवश होकर यह कार्य भी सरकारी कोषागारों से लेकर  बैंकों को सौंपना  पडा और आज निजी क्षेत्र के बैंक भी यह कार्य कर रहे हैं | अर्थात निजी बैंकों का स्टाफ सरकारी स्टाफ से ज्यादा जिम्मेदार और विश्वसनीय है | अत: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि राज्य तंत्र  अब भ्रष्ट हो गया है अपरिपक्व होगा, यह तो सदा से ही भ्रष्ट रहा है किन्तु  आजादी के साथ इसके पोषण में तेजी अवश्य आई है |
भारत में कानून बनाते समय देश की विधायिकाएं उसमें कई छिद्र छोड़ देती हैं जिनमें से शक्ति प्रयोग करने वाले अधिकारियों के पास रिसरिस कर रिश्वत आती रहती है और दोषी लोग स्वतंत्र विचरण करते व आम जनता का खून चूसते रहते हैं| देश में शासन द्वारा आज भी एकतरफा कानून बनाए जाते हैं व जनता से कोई फीडबैक नहीं लिया जाता| आम जनता से प्राप्त सुझाव और शिकायतें रद्दी की टोकरी की विषय वस्तु  बनते हैं और देश के शासन के संचालन की शैली  तानाशाही ने मेल खाती है जहां कानून थोपने का एक तरफा संवाद  ही सरकार की आधारशीला होती है| जनता को भारत में तो पांच वर्ष में मात्र एक दिन मत देने का अधिकार है जबकि लोकतंत्र जनमत पर आधारित शासन प्रणाली का नाम है|  भारत भूमि पर सख्त कानून बनाने का भी तब तक कोई शुद्ध लाभ नहीं होगा जब तक कानून लागू करने वाले लोगों को इसके प्रति जवाबदेय नहीं बनाया जाता| सख्त कानून बनाए जाने से भी लागू  करने वाली एजेंसी के हाथ और उसकी दोषी के साथ मोलभाव करने की क्षमता में वृद्धि होगी और भ्रष्टाचार  की गंगोत्री अधितेज गति से बहेगी| जब भी कोई नया सरकारी कार्यालय खोला जाता है तो वह सार्वजनिक धन की बर्बादी, जन यातना और भ्रष्टाचार का नया केंद्र साबित होता है, इससे अधिक कुछ नहीं|   एक मामला जिसमें पुलिस 1000 रूपये में काम निकाल सकती है , वही मामला अपराध शाखा के पास होने पर 5000 और सी बी आई के पास होने पर 10000 लागत आ सकती है किन्तु अंतिम परिणाम में कोई ज्यादा अंतर पड़ने की संभावना नहीं है| जहां जेल में अवैध  सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए साधारण जेल में 1000-2000 रूपये सुविधा शुल्क लिया जाता है वही सुविधा तिहाड़ जैसी सख्त कही जाने वाली जेल में 10000 रूपये में मिल जायेगी|           
सरकार को भी ज्ञान है कि उसका तंत्र भ्रष्टाचार  में आकंठ डूबा हुआ है अत: कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त कुछ देकर ही काम करवाया जा सकता है फलत: सरकार भी काम करवाने के लिए कर्मचारियों को विभिन्न प्रलोभन देती है | डाकघरों में बुकिंग क्लर्क और डाकिये को डाक बुक करने व बांटने के लिए वेतन के अतिरिक्त प्रति नग अलग से प्रोत्साहन  राशि दी जाती है| गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भी चेक आदि बनाने के लिए सरकार अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहन राशि देती हैं| जहां इस प्रकार कोई लाभ देने का कोई रास्ता नहीं बचा हो वहां कर्मचारियों के  विपरीत व आपसे में ट्रांसफर और प्रतिनियुक्ति दोनों एक साथ अर्थात  ए को बी के स्थान पर और बी को ए के स्थान पर अनावश्यक ट्रान्सफर व प्रतिनियुक्त करके दोनों को भत्तों का भुगतान कर उन्हें उपकृत किया जाता है| तब जनता को ऐसी अविश्वसनीय न्याय और शासन व्यवस्था में क्यों धकेला जाए ? 

देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोग संविधान में रिट याचिका के प्रावधान को  बढ़ा चढ़ाकर  गुणगान कर रहे हैं जबकि रिट याचिका तो किसी के अधिकारों के अनुचित व विधिविरुद्ध अतिक्रमण के विरुद्ध दायर की जाती है और कानून को लागू करवाने की प्रार्थना की जाती है | क्या न्यायालय के आदेश के बिना कानून लागू नहीं किया जा सकता या उल्लंघन करने वाले लोक सेवकों ( वास्तव में राजपुरुषों) को कानून का उल्लंघन करने का कोई विशेषाधिकार या लाइसेंस प्राप्त है ? भारतीय दंड संहिता की धारा 166 में किसी लोक सेवक द्वारा कानून के निर्देशों का उल्लंघन कर अवैध रूप से हानि पहुंचाने के लिए दंड का प्रावधान है किन्तु खेद का विषय है कि इतिहास में आज तक किसी भी संवैधानिक न्यायालय द्वारा  रिट याचिका में किसी लोक सेवक के अभियोजन के आदेश मिलना कठिन  हैं | जब तक दोषी को दंड नहीं दिया जाता तब तक यह उल्लंघन का सिलसिला किस प्रकार रुक सकता है और इसे किस प्रकार पूर्ण न्याय माना जा सकता है जब दोषी को कोई दंड दिया ही नहीं जाय क्योंकि वह राजपुरुष है | किन्तु सकार को भी ज्ञान है कि यदि दोषी राजपुरुषों को दण्डित किया जाने लगा तो उसके लिए शासन संचालन ही कठिन हो जाएगा क्योंकि सत्ता में शामिल बहुसंख्य  राजपुरुष अपराधी हैं|  इस प्रकार रिट याचिका द्वारा मात्र पीड़ित के घावों पर मरहम तो लगाया जा  सकता  है किन्तु दोषी को दंड नहीं दिया जाता| क्या यह राजपुरुषों का पक्षपोषण नहीं है? यह स्थिति भी न्यायपालिका की निष्पक्ष छवि पर एक यक्ष प्रश्न उपस्थित करती है |  हमारे  संविधान निर्माताओं ने रिट क्षेत्राधिकार को सर्वसुलभ बनाने के लिए अनुच्छेद 32(3) में यह शक्ति जिला न्यायालयों के स्तर पर देने  का प्रावधान किया था किन्तु आज तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है अर्थात रिट याचिका को संवैधानिक न्यायालयों का एक मात्र विशेषाधिकार तक सीमित कर दिया गया है|  हमारे पडौसी राष्ट्र पकिस्तान में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का अधिकार सत्र न्यायालयों को प्राप्त है जबकि उत्तरप्रदेश में  तो सत्र न्यायालयों से अग्रिम जमानत का अधिकार भी 1965 में ही छीन लिया गया था| अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में लोकतंत्र किस सीमा तक प्रभावी है|  भारत में तो आज भी शक्ति का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ है और एक व्यक्ति या आनुवंशिक शासन का आभास होता है |

यदि देश के कानून को निष्ठापूर्वक लागू किया जाए तो लोक सेवकों के अवैध कृत्यों और अकृत्यों  से निपटने के लिए अवमान कानून व भारतीय दंड संहिता की धारा 166 अपने आप में पर्याप्त हैं और रिट याचिका की कोई मूलभूत आवश्यकता महसूस नहीं होती | किन्तु देश के न्याय तंत्र से जुड़े लोगों ने तो मुकदमेबाजी को द्रोपदी के चीर की भांति बढ़ाना है अत: वे सुगम और सरल रास्ता कैसे अपना सकते हैं| मुकदमेबाजी को घटना वे आत्मघाती समझते हैं| देश के न्यायाधीशों का तर्क होता है कि देश में मुक़दमे  बढ़ रहे हैं किन्तु यह भी तो दोषियों के प्रति उनकी अनावश्यक उदारता का ही परिणाम है और कानून का उल्लंघन करनेवालों में दण्डित होने का कोई भय शेष ही नहीं रह गया है| जब मध्य प्रदेश राज्य का बलात्कार का एक मुकदमा मात्र 7 माह में सुप्रीम कोर्ट तक के स्तर को पार कर गया और दोषियों को अन्तिमत: सजा हो गयी तो ऐसे ही अन्य मुक़दमे क्यों बकाया रह जाते हैं|
भारत में पुलिस संगठन का गठन जनता को कोई सुरक्षा  व संरक्षण देने के लिए नहीं किया गया था अपितु यह तो शाही लोगों की शान के प्रदर्शन के लिए गठित, जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा है, देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह है|  पुलिस बलों में से मात्र 25 प्रतिशत  स्टाफ ही थानों में तैनात  है व शेष बल तो इन शाही लोगों को वैध और अवैध सुरक्षा देने व बेगार के लिए कार्यरत है| कई मामलों में तो नेताजी के घर भेंट  की रकम भी पुलिस की गाडी में  पहुंचाई  जाती है जिससे कि रकम को मार्ग में कोई ख़तरा नहीं हो| लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों को सुरक्षा देने के स्थान  पर वास्तव में तो इनकी गतिविधियों की गुप्तचरी कर इन पर चौकसी रखना ज्यादा आवश्यक है|  अभी हाल ही में उतरप्रदेश राज्य में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया है जहां सरकार ने एक विधायक और उसकी पुत्री को  सुरक्षा के लिए 2-2 गनमेन निशुल्क उपलब्ध करवा रखे थे व इन  विधायक महोदय पर 60 से अधिक आपराधिक मुकदमे चल रहे थे|  इनके परिवार में 5-6 शास्त्र लाइसेंस अलग से थे | इससे स्पष्ट है कि किस प्रकार के व्यक्तियों को निशुल्क राज्य सुरक्षा उपलब्ध करवाई जाती है और जनता के धन का एक ओर किस प्रकार दुरूपयोग होता है व दूसरी ओर पुलिस बलों की कमी बताकर आम जन की कार्यवाही में विलम्ब किया जाता है | चुनावों के समय आचार संहिता के कारण इस आरक्षित स्टाफ को महीने भर के लिए मैदानों में लगा दिया जाता है | जब महीने भर इन महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा में कटौती  से इन्हें कोई जोखिम नहीं है तो फिर अन्य समय कैसा और क्यों जोखिम हो सकता है| किन्तु पुलिस जनता से वसूली करती है और संरक्षण प्राप्त करने के लिए ऊपर तक भेंट पहुंचाती है अत: यदि कार्यक्षेत्र में स्टाफ बढ़ा दिया गया तो इससे यह वसूली राशि बंट जायेगी और ऊपर पहुँचने वाली राशि में कटौती होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इस कारण पुलिस थानों में स्टाफ की हमेशा कृत्रिम कमी बनाए रखी जाती है और महानगरों में  तो मात्र 10-15 प्रतिशत   स्टाफ ही पुलिस थानों  में तैनात है| फिर भी पुलिस थानों का स्टाफ भी इस कमी का कोई विरोध नहीं करता और बिना विश्राम किये लम्बी ड्यूटी देते रहते हैं कि ज्यादा स्टाफ आ गया तो माल के बंटाईदार बढ़ जायेंगे|
पुलिस अधिकारियों की मीटिंगों और फोन काल का विश्लेष्ण किया जाए तो ज्ञात होगा कि उनके समय का महत्वपूर्ण भाग तो संगठित अपराधियों, राजनेताओं और दलालों से वार्ता करने में लग जाता है|  पुलिस के मलाईदार पदों के विषय में एक रोचक मामला सामने आया है जहां असम में एक प्रशासनिक अधिकारी को जेल महानिरीक्षक लगा दिया गया और बाद में सरकार ने उसका स्थानान्तरण शिक्षा विभाग में करना चाहा तो वे अधिकारी महोदय स्थगन लेने उच्च  न्यायालय चले गए|  बिहार  के एक पुलिस उपनिरीक्षक के पास उसके अधीक्षक से ही अधिक एक अरब रूपये की सम्पति पाई गयी थी| वहीं शराब ठेकेदार से 10 करोड़ रूपये वसूलने के  आरोप में पुलिस उपमहानिरीक्षक  को निलंबित भी किया गया था| वास्तव में पुलिस अधिकारी का पद तो टकसाल रुपी वरदान है  जो भाग्यशाली –भेंट-पूजा   में विश्वास करने वाले लोगों को ही नसीब हो पाता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा भी है कि पंजाब पुलिस में कोई भी भर्ती बिना पैसे के नहीं होती है| अब गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक की सम्पति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है|  इन तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पदों को तो ऊँचे दामों पर नीलाम किया जा सकता है अथवा किया जा रहा है व  वेतन देने की कोई आवश्यकता नहीं है|  भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां भी पहले परिवादी से वसूल करती हैं और बाद में सुविधा देने के लिए अभियुक्त का दोहन करती हैं या सुरक्षा देने के लिए नियमित हफ्ता वसूली करती हैं अन्यथा कोई कारण नहीं कि इतनी बड़ी रकम वसूलने वाला लोक सेवक लम्बे समय तक छिपकर, सुरक्षित व निष्कंटक नौकरी करता रहे या इसके विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त ही नहीं हुई हो | आज भारतीय न्यायतंत्र  एक अच्छे उद्योग के स्वरुप में संचालित है और इसमें व्यापारी वर्ग, जो प्राय: मुकदमेबाजी से दूर रहता है,  भी इसमें उतरने को   लालायित है व  बड़ी संख्या में व्यापारिक पारिवारिक पृष्ठभूमिवाले लोग  पुलिस अधिकारी, न्यायिक अधिकारी, अभियोजक और वकील का कार्य कर इसे  एक चमचमाते  उद्योग का दर्जा दे रहे हैं|

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
NORMS FOR DISCHARGE OF JUDICIAL DUTIES
« Reply #95 on: May 10, 2014, 09:31:56 AM »
From:   Mani Ram Sharma
Chairman, Indian National Bar Association, Churu- Chapter
Nakul Niwas,
Behind Roadways Depot
Sardarshahar- 331 403-7 District- Churu (Raj)
INDIA TVC
Email: maniramsharma@gmail.com   
  Cell: 919460605417,919001025852
                  Dated: 09th   May, 2014
A Humble Request to
All the Hon’ble Chief Justices
Of State High Courts
Of Republic of India

Sir,
TRANSPARENCY IN FUNCTIONING OF JUDICIARY
Whereas RTI Act has been introduced to promote transparency and accountability in the working of every public authority the Hon’ble Supreme Court has also held in M/s. Kranti Associates Pvt. Ltd. Versus Sh. Masood Ahmed Khan, “It cannot be doubted that transparency is the sine qua non of restraint on abuse of judicial powers. Transparency in decision making not only makes the judges and decision makers less prone to errors but also makes them subject to broader scrutiny.”
Section 4(1) (b) (iv) of RTI Act says, “Every public authority shall publish within one hundred and twenty days from the enactment of this Act the norms set by it for the discharge of its functions.” It is a matter of pleasure that Hon’ble Orisa High Court has framed comprehensive and detailed norms as given at the end of this communication. Unfortunately most of the High Courts have not set these norms for the sub-ordinate judiciary. Therefore all the other High Courts are requested to frame such norms for the sub-ordinate judiciary and place in public domain for the good of Republic of India. Further the norms should also be fixed by all courts that the cases will be dealt with on first come first serve basis except the special circumstances to be placed on record.
Kindly apprise me of the concrete steps taken by you in this behalf. Meanwhile please acknowledge receipt.
Sincerely yours
Mani Ram Sharma
HIGH COURT OF ORISA
( www.orissahighcourt.nic.in_pdf_rti_RTI.pdf )
The norms set by it for the discharge of its functions    The norms/ yardstick of Judicial Officers have been fixed by the Orissa High Court for discharge of their duties as follows.
A. DISTRICT JUDGES
Nature of cases    Yardstick fixed
1) Special Judge Case (Vig.)    One in 10 days
2) Delhi S.P.E. Cases (C.B.I.)    One in 7 days
3) Sessions Cases    One in 4 days
4) Offence Under IPC exclusively Triable by Court of Sessions along with offence Under S.C. & S.T. (P.A.) Act, 1989.    One in 4 days
5) Offence under S.C. & S.T. (P.A.) Act. 1989 read with other offences under IPC.    One case in 1 day
6) Criminal Appeals    Two per day from the decisions of Asst. Sessions Judges throughout the State. Three per day from the decisions of the Judicial Magistrates throughout the State.
7) Jail Criminal Appeals on contest.    Two per day from the decisions of Asst. (Disposed of Sessions Judges throughout the State.
Three per day from the decisions of the Judicial Magistrates throughout the State.
8) Other jail Criminal Appeals    Eight per day throughout the State.
9) Criminal Revisions    Five Revisions per day
10) Original Suits    One Title Suit in 3 days
11) T.M.S., M.S., & other Suits    One per day
12) Civil Appeals    
(a) One Appeal from Civil Judge (Sr.Divn.)/ (Jr.Divn.), Title/Money in one day.
(b) One contested Rent Appeal in one day.

13) Civil Revisions    Five Cases per day
14) Misc. Appeals    Five Appeals per day
15) H.R.C. Appeals    Same as Title Appeals/Civil Appeals.
16) Misc. Cases including Execution Cases.    Five cases per day
17) MISCELLANEOUS CASES
a) Cases under sec.166 under the Motor Vehicle Act.    One case in one day
b) Cases under Sec.140 M.V. Act. (Contested)    Eight Cases per day
c) M.V. Appeal    Three Appeals per day
d) M.V. Revision    Six Revisions per day
e) Cases under the Employees State Insurance Act    One case in one day
f) Cases under the Juvenile Justice (Care & Protection of Children) Act.2000    One case in one day
g) Cases under any other Special Act    One case in one day
h) Cases under N.D.P.C. Act    One case in two days
i) Misc. Cases U/o.21 Rule 58 C.P.C.    One case in two days
j) Petition U/o.21 Rule 97 & 99 C.P.C.    One case in two days
k) Petition U/o.39 Rule-4 C.P.C.    Eight Cases per day
l) Cases under the C.P.C.    Eight Cases per day
m) Crl. Misc. Cases U/s.408 & 440 Cr.P.C.    Ten cases per day
B. CIVIL JUDGE (SENIOR DIVISION)
1. (a) Contested Suits (T.S.) (above 50 thousands)    One in Four days
(b) Contested Suits (M.S.,T.M.S. & Other Suits) (above 50 thousands)    One in two days
2. (a) Contested Suits (T.S.) (below 50 thousands)    One in three days.
(b) Contested Suits (T.S.) (below 50 thousands)    One in 1.5 days.
3. Regular Appeals    i) Two Title Appeals per day.
ii) Two Money Appeals per day.
4. Misc. Appeals    Five per day.
MISC.JUDICIAL CASES
5. (a) Cases under the Spl. Acts.    Two cases per day.
(b) Cases under C.P.C.    Five cases per day.
6. S.C.C. Suits    Five cases per day
7. Final Decree Proceedings    Five cases per day
8. Arbitration Cases U/Ss.5, 8, 11, 13, 20 & 30 of Arbitration Act, 1940.    Two cases per day
9. Essential Commodities(Special Provisions) Act    Two cases per day.
C. ASSISTANT SESSIONS JUDGES
1. Sessions Cases    One case in three days.
2. Criminal Appeals    Four Appeals per day.
D. CIVIL JUDGE (JUNIOR DIVISION)
1. Title Suits    One suit in three days.
2. Money Suits, T.M.S. and other Suits    One suit per day.
3. Election Cases under the O.G.P. Act.    The same Yard-stick as prescribed for money suit (one case per day)
4. S.C.C. Suits    Five Suits per day.
5. Final Decree Proceedings    Five cases per day
6. Misc. Cases    Five Misc. Cases per day
7. Ex-parte Suits    15 Suits per day for all
8. Total number of days devoted to Judicial Work. Minutes 1/5th part thereof    All the Dist. & Sessions Judges.
All the Principal Civil Judges (S.D.) & Civil Judge (Jr. Divn.).
E. CONTESTED CRIMINAL CASES FOR JUDICIAL MAGISTRATES
1. Chief Judicial Magistrate    250 cases per year
2. S.D.J.M. taking Cognizance    200 cases per year
3. Judicial Magistrate and S.D.J.M. (not taking cognizance).    350 cases per year
4. Cases U/s. 125 Cr.P.C.    One case per day
5. Enquiries U/s.202 Cr.P.C.    Five Cases per day
6. Petty Offences U/s.206 Cr.P.C. (Motor Vehicle)    Fifteen cases per day.
7. Section 55-A of the Orissa Forest Act,1972    Same as Criminal cases.
8. Cases on admission in Criminal side (Uncontested).    Fifteen Cases per day.
9. Committal Enquiries    Three cases per day
F. Registers of Civil Courts and in districts where there is no Register, Civil Courts, Civil Judges (Senior Division) functioning as permanent and Continuous Lok Adalats provided they reach the prescribed yardstick/outturn for the days devoted to Judicial work.
There will be minimum two sittings per month and the minimum disposal will be as follows:
1) Civil Cases -    2 Civil Cases per sitting (Pre-litigation Cases or cases referred to them by Civil Courts)
2. Criminal Cases referred to them by different Criminal Courts    5 Criminal Cases per sitting
Credit will be given of the civil cases and Criminal Cases disposed of in Permanent and Continuous Lok Adalats as per the yardstick prescribed (i.e. 15 cases per day) in the outturn of the respective Judges who have referred the Civil or Criminal Cases to the Permanent and Continuous Lok Adalats.
G. INDUSTRIAL TRIBUNAL
1. Industrial Dispute Cases U/s.10 & 12.    One in three days.
2. I.D. Misc. Cases (Un-contested)    Ten Cases per day.
3. Misc. Cases U/s.33    One in one day.
4. Misc. Cases U/s.33(c)    Two in one day.
H. SALES TAX TRIBUNAL
1. Under Sec.25    One in two days
2. Under Sec.41    One in four days
3. Under Sec.42    One in four days
4. Under Sec.44    Two per day
5. Under Sec.68    Three cases per Commissioner and five cases per Asst. Commissioner per day.
6. Under Sec.(429a) & (b)    The Asst. Commissioner will not get any credit.
(Total number of working days per year is to be treated 240 working days.)

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में यद्यपि जन प्रतिनिधियों के माध्यम से जन भावनाओं को कार्यरूप देने  की व्यवस्था की गयी है किन्तु सभी जानते हैं कि ये जनप्रतिनिधि सच्चे अर्थों में किनके प्रतिनिधि हैं जब ये प्रश्न पूछने के लिए धन लेते हैं और सांसदों का वेतन जो वर्ष 2005 में 4000 रूपये प्रतिमाह था को बढाकर वर्ष 2009 में 50000 रूपये महीना एक स्वर में कर लोकतंत्र पर बड़ा उपकार करते हैं|   इसी दर्शन को ध्यान में रखते हुए ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभाओं की व्यवस्था की गयी है जहां आम नागरिक सभा में भाग ले सकते हैं, अपने विचार रख सकते हैं| ठीक यही व्यवस्था संसद और विधान सभाओं के सम्बन्ध में लागू की जानी चाहिए व  सांसदों तथा विधायकों के लिए अपने क्षेत्र में नियमित मीटिंगें करना आवश्यक  बनाया जाना चाहिए क्योंकि वे पार्टी के नहीं अपितु जन प्रतिनिधि हैं और न्यायपालिका  सहित सरकार के प्रत्येक अंग में प्रत्येक स्तर पर जन समितियों का गठन किया जाना चाहिए  ताकि जनता की सक्रिय  भागीदारी सुनिश्चित हो सके| भारतीय गणतंत्र का उद्धार तो तभी हो सकता है जब समस्त नीतियाँ, नियम, कानून यह धारणा लेकर बनाए जाएँ कि सत्ता  में शामिल प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्ट, नकारा, कर्तव्यहीन, गैर जिम्मेदार है या सत्ता प्राप्त होने पर हो जाएगा चाहे उसके पद की ऊँचाई  या नाम  कुछ भी क्यों न  हो | भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे हैं और अब उनके हाथ में सत्ता  का कोई भी अंश प्राप्त होने पर वे भूखी भेडिये की तरह टूट पड़ते हैं जिस प्रकार एक भूखे व्यक्ति को कई दिनों से भोजन मिलने पर | यदि वास्तव में लोकतंत्र के सपने को साकार करना हो तो देश के प्रत्येक कानून में सम्बद्ध लोक सेवकों की जिम्मेदारी परिभाषित होनी चाहिए और उनकी प्रत्येक लापरवाही, दुराचार व अनाचार  के लिए बिना किसी औपचारिक पूर्वानुमति के दंड की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए | सुपरिभाषित नीतियों व स्पष्ट  कानून के अभाव में मनमानेपन की संभावना रहती है |
हमारे  राजनेता भी मात्र कमियाँ ढूंढने  का ही कार्य करते रहे हैं , कोई रचनात्मक कार्य करने की न  तो उनमें क्षमता है और न  ही ज्ञान है |  हाल ही में पूर्व मंत्री श्री अरुण शौरी ने बयान दिया कि  विकास में तेजी लाने के लिए राज्यों को और शक्तियाँ दी जानी चाहिए|  किन्तु प्रश्न यह है कि जो शक्तियां राज्यों के पास पहले से ही हैं क्या उनका वे सही व भरपूर उपयोग करते हैं | संविधान के अनुसार न्याय व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है और देश में साक्ष्य, सिविल प्रक्रिया , दंड प्रक्रिया , दंड संहिता आज भी राजशाही तर्ज पर  अंग्रेजों के बनाए  हुए ही प्रचलित हैं और किसी भी राज्य ने उनका भारतीयकरण या प्रजातान्त्रिकीकरण  करने की पहल नहीं की है| कुछ  समय पूर्व यशवंत  सिन्हा ने भी बयान दिया था कि  आई पी सी  में क्या दोष है इस कानून के आधार पर तो अंग्रेजों ने 200  वर्ष शासन किया है| किन्तु वे भूल रहे हैं कि शासन तो अंग्रेजी कानून से पहले भी चलता रहा है|  यदि अंग्रेजों के बनाए  ये कानून और नीतियाँ प्रजातंत्र के अनुकूल थी तो फिर अंग्रेजों को कोसने अथवा स्वतंत्रता की मांग करने की आम  व्यक्ति को क्या  आवश्यकता थी | देश के राजनेताओं की मानसिक स्थिति को देखने पर वे दया के पात्र  नजर आते हैं|  अव्यवस्था और मंद विकास का जिक्र करने पर देश का नेतृत्व  बचाव में कहता है कि जापान जैसे तेजी से विकास करने वाले देशों की जनसंख्या कम है किन्तु वे भूल जाते हैं कि उनके प्राकृतिक साधन और श्रम शक्ति भी तो कम है| इसके विपरीत भारत में प्रचुर प्राकृतिक साधन व श्रम शक्ति है  तथा उपभोक्ता बाज़ार भी विस्तृत है किन्तु सुप्रबन्धन का अभाव है | अत: अधिक आय,उत्पादन व उपभोग पर सरकार को कर भी अधिक मिलता है फिर अव्यवस्था का क्या कारण है  समझ से परे रह जाता है | प्रजातंत्र का वास्तविक अर्थ तो लोगों के मन पर  शासन से होता है न  कि  इनके तन पर, शायद यह बात देश के राजनेता आज तक नहीं समझ पाए हैं| भारतीय  1  रूपये का जो अंतर्राष्ट्रीय मूल्य वर्ष 1917 में 13 डॉलर के बराबर था 2013 में   1 डॉलर बराबर  70 रुपया (अर्थात 1/910) हो गया  और वह  दिन दूर नहीं लगता जब 100 रुपया एक डॉलर के समान रह जाएगा|

मेट्रो में रहने वाले जन प्रतिनिधियों को जब ग्रामीण कठिनाइयों का कोई अनुभव नहीं हो तो उन्हें मंत्री बनाना किस प्रकार उचित हो सकता है| क्योंकि मेट्रो की नगर निगम का ही बजट राजस्थान जैसे एक राज्य के बजट से अधिक होता है | एक उदाहरण से यह बात और स्पष्ट हो सकेगी कि आपातकाल के दौरान सभी विरोधी नेताओं को जेल की कठिनाइयों का सामना करना पडा फलत: 1977 में सत्ता  में आते ही जनता पार्टी की सरकार ने सर्वप्रथम जेल सुधार पर ध्यान दिया|  जिस प्रकार एक गरीब व्यक्ति को अरबों रूपये यदि एक साथ दे दिये जाएँ तो वह उनका कुशल प्रबंधन नहीं कर सकता ठीक उसी प्रकार मेट्रो में रहने वाले ये धनी लोग भी समान रूप से गरीब और ग्रामीण  जनता के योग्य बजट, योजना या कानून  नहीं बना सकते | अंग्रेजी संस्कृति के वातावरण में जन्मे और पले  इन नेताओं द्वारा जो भी नीतियाँ, कानून आदि बनाए जाते हैं वे लोगों के लिए  दुर्बोध अंग्रेजी भाषा में बनाए जाते हैं जो – प्लास्टिक फूलों की तरह शोभायमान तो होते हैं किन्तु  उनमें देशी संस्कृति के पुट  के बिना स्वाभाविक खुशबू गायब होती है | 

संज्ञेय अपराध के स्थिति में सूचना मिलने पर पुलिस को अविलम्ब ऍफ़ आई आर दर्ज करनी  चाहिए और शेष जांच तो उसके बाद में ही प्रारंभ होनी चाहिए|  इस आशय से सरकार ऑनलाइन ऍफ़ आई आर प्रारंभ करने जा रही है | दूसरी ओर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की कि पुलिस को शिकायत प्राप्त होने के  बाद 3 माह तक का समय ऍफ़ आई आर दर्ज करने हेतु  अनुमत किया जाए| दंड प्रक्रिया संहिता में अनुसंधान हेतु 3 माह की अवधि नियत है|  यदि ऍफ़ आई आर दर्ज करने के लिए 3 माह अवधि हो तो फिर अनुसंधान के लिए तो 3 वर्ष की अवधि और मुक़दमे के लिए 3 दशक की अवधि की कल्पना की जानी चाहिए| इस भूमि पर एक ओर निर्दोष नागरिकों को फर्जी मुठभेड़ में मारने के लिए सजा के स्थान पर पुलिस को सम्मान और पदोन्नति  दी जाती है वहीं मानवाधिकार आयोग इन निर्मम हत्याओं  के लिए मुआवजा देते हैं| भारत सरकार  के उक्त विरोधाभासी कार्यों से सरकार संचालन में भागीदार लोगों व सरकारी वकीलों के मानसिक स्वास्थ्य  पर संदेह होना स्वाभाविक है| अर्थात सरकार और उसके वकील तो अपने प्रत्येक मनमाने कार्य को उचित ठहराने के भी दुराचरण की परिधि में आते हैं किन्तु सुपरिचित कारणों से सरकार इन पर कोई कार्यवाही नहीं करती | यदि सरकार तुलनात्मक रूप से हलके दंड के लिए भी अपने सेवकों के विरुद्ध कोई विभागीय कार्यवाही प्रारम्भ नहीं करती तो विश्वास नहीं किया जा सकता कि वही सरकारी तंत्र इनके विरुद्ध न्यायालय में कठोर कार्यवाही के लिए अनुमति देदेगी| वैसे व्यवहार में देखा जाए तो लोक सेवकों के अभियोजन के लिए स्वीकृति की नौबत ही नहीं आती है | फिर  भी जब तक ऊपर हिस्सा पहुंचता रहता है स्वीकृति नहीं दी जाती है| इस प्रकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 भ्रष्टाचार का पोषण करने में पर्याप्त योगदान देती है|  किसी भी लोक सेवक के विरुद्ध आपराधिक शिकायत पर कोई भी पुलिस अधिकारी या न्यायाधीश प्रथम दृष्टया ही कोई कार्यवाही नहीं करते बल्कि किसी न किसी अनुचित आधार पर उसका असामयिक अंत कर दिया जाता है| अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक सेवकों के विरुद्ध दायर 20 में मात्र 1 मामले में  ऍफ़ आई आर दर्ज होने के आदेश हुए जिसमें भी पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट दे दी किन्तु मजिस्ट्रेट ने प्रसंज्ञान लिया| किन्तु बाद में रिवीजन में वकील की मिलीभगत से सत्र न्यायालय स्तर पर वह मामला भी ख़ारिज हो गया| वकील लोग कई बार अनुपस्थित रहकर विरोधी की मदद कर देते हैं और न्यायाधीश इसमें भागीदार बनते हैं|  अत: भारत की जनता को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे मौजूदा न्याय तंत्र में किसी राजपुरुष के विरुद्ध कोई उपचार प्राप्त कर सकते हैं | यह तो एक आँख मिचौनी के खेल और अभेद्य चक्रव्यूह की तरह है| भारत का न्यायतंत्र अस्वच्छ है और इसमें प्रवेश करनेवाले को संक्रमण का ख़तरा हमेशा बना रहता है |  देश के न्यायाधीश एक ओर बकाया मुकदमों के अम्बार पर चिंता व्यक्त करते देखे जाते हैं वहीं वर्ष में सर्दी-गर्मी- त्यौंहारों के नाम लगभग 100 छुट्टियां मनाते हैं| छुट्टियां इन लोगों ने मनानी ही हैं चाहे सर्दी गर्मी हो या न हो | जहां जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड जैसे इलाकों में गर्मी नहीं पडती वहां सर्दी के बहाने 45 दिन की छुट्टियां मना लेते हैं और बंगाल जैसे राज्यों में अक्टूबर माह में 30 दिन की छुट्टियां – जब सर्दी और गर्मी दोनों ही न हो – मनाना जरुरी समझते हैं| किन्तु इन्हीं लोगों को जब सेवानिवृति के बाद किसी आयोग या अर्द्धन्यायिक  निकाय में लगा दिया जाता है तो  ये बिना सर्दी गर्मी की परवाह किये कार्य करते हैं|  इससे न्यायतंत्र से जुड़े लोगों की बकाया मामलों के प्रति चिंता की वास्तविकता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | राजशाही के रूप में और लोकतंत्र के आवरण में  शासित भारत के निवासी धन्य हैं | लोकतंत्र  में जनभावना प्रमुख होती है| क्या जनता चाहती है कि वर्ष में इतनी सवैतनिक छुट्टियां हों ?
                                       
[/justify][/size][/color][/size][/size][/size][/size]

Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908   में सारांशिक  कार्यवाही के लिए 10 दिन के नोटिस का प्रावधान किया गया था तब न तो उचित परिवहन सुविधाएं थीं और न ही डाकघर की सेवाएं सर्वत्र उपलब्ध थीं | किन्तु आज हम इलेक्ट्रोनिक युग में जी रहे हैं फिर भी इन समय सीमाओं की पुनरीक्षा कर इन्हें समसामयिक नहीं बनाया गया है | देश में न्यायिक या समाज सुधार के नाम पर कार्य करने वाले ठेकदारों  की बानगी बताती है कि वे समय व्यतीत करने या लोकप्रियता हासिल करने और सरकार में कोई पद पाने की लालसा में  यह अभ्यास कर रहे हैं और उनमें से भी अधिकाँश लोग अपना अतिरिक्त समय नहीं दे रहे हैं बल्कि सार्वजनिक कार्यालयों में बैठकर कार्यालय समय का ही दुरुपयोग कर रहे हैं| इनमें सुधार कम और आडम्बर ज्यादा है| पाठकों को याद होगा कि पत्नि को यातना देने वाले एक व्यक्ति ने  नारी हिंसा पर सीरियल व पत्नि के एक हत्यारे ने मोस्ट वांटेड नामक सीरियल बनाए थे| सुधार के नाम पर अखबारों की सुर्ख़ियों में रहने वाले ये अधिकाँश लोग भी इसी श्रेणी में आते हैं| अन्यथा कोई सुधार दिखाई क्यों नहीं देते, देश के हालात तो दिन प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं|
 सरकार में अधिकारीवृन्द कार्यरत होते हुए इसी कुप्रबंधित व्यवस्था का सुदृढ़ अंग बन कर कार्य करते हैं अन्यथा वे इस व्यवस्था में टिक ही नहीं पाते  और सेवानिवृति  के बाद भी उन्हें किसी न किसी आयोग  या कमिटी में नियुक्ति दे दी जाती है जिसका कार्य सुधार करना या न्याय देना होता है| जो व्यक्ति कल तक इसी स्वयम्भू नौकरशाही का हिस्सा रहे हों वे किस प्रकार सुधार या न्याय  कर सकते हैं अथवा अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई मत  किस व्यक्त कर  सकते हैं? 

हमारी इस विद्यमान व्यवस्था में जो व्यक्ति जितना अधिक अवसरवादी, कुटिल, बेईमान,भ्रष्ट और डरपोक है वह सत्ता में उतना  ही ऊँचा पद पा सकता है |  इस दुश्चक्रिय व्यवस्था में परिवर्तन या  सुधार के लिए गठित होने वाले आयोगों आदि में भी आई ए एस, आई पी एस या संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता है जिन्हें धरातल स्तरीय बातों का कोई व्यावहारिक ज्ञान, अनुभव  या साक्षात्कार नहीं होता है| इन लोगों ने जीवनभर मात्र प्रचलित परिपाटियों, परम्पराओं  और प्रोटोकोल का अनुसरण किया है व कोई मौलिक क्रांतिकारी परिवर्तन में तो इनका दिमाग ही काम नहीं करता है| यदि मौलिक परिवर्तन करने में ये लोग सक्षम होते तो 30 वर्ष से अधिक समय की गयी अपनी ऊर्जावान सार्वजनिक सेवा के दौरान ही रंग दिखा सकते थे और किसी आयोग या कमेटी के गठन की आवश्यकता ही नहीं रहती | अत: इन उपयोगिता खो चुके ऊर्जाविहीन सेवानिवृत लोगों को किसी भी आयोग या कमिटी का कभी भी सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए|
हमारे राजनेता जनता को गुमराह करते हैं कि आजादी के बाद हमने बड़ी तरक्की की है | किन्तु प्रश्न यह है कि हमने  कितनी तरक्की की है और  उसमें से आम नागरिक को क्या मिला है| दूर संचार विभाग की वेबसाइट 1970 में बन  गयी थी किन्तु नागरिकों को तो यह सुविधा 20 वर्ष बाद ही मिलने लगी है| सीएनएन ने 1970 का भारत पाक युद्ध अमेरिका और कनाडा में लाइव प्रसारित किया था| क्या हम आज भी इस स्थिति में हैं? अमेरिका के एक बैंक का व्यवसाय ही भारत के सारे बैंकों के व्यवसाय से ज्यादा है|     भ्रष्टाचार के कुछ पैरोकार यह भी कुतर्क देते हैं कि रिश्वत तो तब ली जाती है जब कोई देता है| किन्तु रिश्वत कोई दान –दक्षिणा नहीं है जो स्वेच्छा से दी जाती हो अपितु यह तो  मजबूरी में ही दी जाती है| उन लोगों का दूसरा सुन्दर तर्क  यह भी होता  है कि बाहुबलियों द्वारा सरकारी अधिकारियों या न्यायाधीशों को भय  दिखाया जाता है कि वे रिश्वत स्वीकार कर कार्य करें अन्यथा उनके लिए ठीक नहीं होगा|  सभी सरकारी कर्मचारी सेवा में आते समय शपथ लते हैं कि वे भय, रागद्वेष और पक्षपात से ऊपर उठकर कार्य करेंगे तो ऐसी स्थति में उनका यह तर्क भी बेबुनियाद है| ये तर्क ठीक उसी प्रकार आधारहीन हैं जिस प्रकार हमारे पूर्व वित्त –मंत्री चिदम्बरम   ने कर बढाने के विषय पर जवाब दिया था कि लोग 10 रूपये में पानी खरीद कर पी रहे हैं अत: वे कर तो दे  ही सकते हैं | किन्तु वे भूल रहे हैं कि स्वच्छ पेय जल उपलब्ध करवाना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है और सरकार इसमें विफल है अत: लोगों को  पानी भी खरीद कर    पीना पड़ता है| पानी जीवन की एक आवश्यकता है और यह कोई विलासिता या दुर्व्यसन  नहीं जिसके लिए  यह माना जाए कि लोग कोई अपव्यय कर रहे हैं| ऐसा प्रतीत होता है कि देश में अपरिपक्व  ,दुर्बुद्धि और दुर्जन लोगों का कोई अभाव नहीं है|
देश में 80 प्रतिशत  जनता ग्रामीण पृष्ठ भूमि से है और एयरकन्डीशन   में रहे इन आई पी एस, आई ए एस या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को तो इस पृष्ठ भूमि के स्वाद का कोई अनुभव व व्यावहारिक ज्ञान तक नहीं है ऐसी स्थिति में इनकी नियुक्ति कितनी सार्थक हो सकती है| देश में जो डॉक्टरेट किये हुए लोग हैं वे भी प्राय: व्यावहारिक अनुभव व वास्तविक शोध  के बिना मात्र किताबी कीड़े ही हैं| पाठकों को याद होगा कि  गाज़ियाबाद  किडनी घोटाले में संलिप्त चिकित्सक एक आयुर्वेदिक वैद्य ही था किन्तु उसने अपने अनुभव के आधार पर सैंकड़ों किडनी प्रत्यारोपण के मामलों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था क्योंकि उसके पास ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव था चाहे उसने इस हेतु कोई डिग्री हासिल न की हो| वैसे भी तो भारत में डिग्रियां  और डॉक्टरेट मोल मिल जाती हैं उनके लिए अध्ययन की कोई ज्यादा आवश्यकता नहीं है| देश में उपलब्ध  चिकित्सा सुविधाओं पर राजनेताओं का कोई ज्यादा विश्वास  नहीं  है और वे अक्सर अपने इलाज के लिए विदेश जाते रहते हैं| जब देशी चिकित्सकों  पर राजनेताओं को विश्वास नहीं है फिर देशी न्यायाधीशों पर भी क्यों विश्वास किया जाए कि  वे बिना पक्षपात के न्याय कर देंगे|  वैसे भी देश के न्यायाधीश एक पीड़ित पक्ष को राहत देने से इनकार करने के लिए  जी तोड़ मेहनत करते देखे जा सकते हैं| उनका मानना है कि यदि सभी को न्याय दिया जाने लगा तो मुकदमें अनियंत्रित हो जायेंगे|  क्रिकेट व होकी के खेलों  के प्रशिक्षण के लिए भी तो हमारे यहाँ विदेशी लोगों का आयात किया ही जा रहा है |
न्याय का स्थान तो हृदय  में ही होता है उसका अन्य बातों से बहुत कम सम्बन्ध है| जो अन्याय हो रहा है वह अज्ञानता या ज्ञान के अभाव में नहीं हो रहा है| न्याय के लिए न्यायदाता में समर्पण भाव होना आवश्यक है न  कि उसके लिए कोई ऊंचा  पारिश्रमिक| जिस प्रकार एक हरिण घास खाकर भी अन्न खाने वाले घोड़े से तेज दौड़ सकता है उसी प्रकार कम वेतन पाने वाला निष्ठावान व्यक्ति, जिसके हृदय में न्याय का निवास हो,  भी न्याय कर सकता है और दूसरी ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि  अधिक वेतन पाने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से न्याय कर ही देगा|  देश की न्यायिक सेवाओं में प्रत्येक स्तर की भर्ती  से पूर्व उनकी बुद्धिमता, सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त अमेरिका की भांति भावनात्मक परीक्षण भी होना चाहिए ताकि उनकी प्रवृति और रुझान  का ज्ञान हो सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि आशार्थी में वांछनीय गुण विद्यमान हैं| जहां सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन के मामले में बार की नकारात्मक और सुधार-विरोधी भूमिका सामने आयी वहीं  कनाडा में बार संघों द्वारा न्यायिक सुधार हेतु स्वयं सर्वे व शोध करवाया जाता है| यह भी देखने में आया है न्यायाधीश अपने स्वामिभक्त वकीलों के समय पर न  पहुँचने पर उनके लिए प्रतीक्षा करते हैं अन्यथा आम नागरिक को तो सुनवाई का कोई पर्याप्त अवसर तक नहीं देते हैं| जहां न्यायाधीश स्वयं हितबद्ध होते हैं वहां वे वकील पर दबाव बनाकर पैरवी में शिथिलता ला देते हैं| वकील को भी अपने पेट के लिए रोज उनके सामने ही याचना करनी  है अत: वह विरोध नहीं कर पाता है क्योंकि उसे भी यह ज्ञान है कि प्रतिकूल फैसले की स्थिति में ऊँचे स्तर  पर यदि अपील कर भी दी गयी तो पर्याप्त संभव है कि वहां पर भी  निचले न्यायाधीश के पक्ष में  स्वर उठेगा और वांछित परिणाम नहीं मिल पायेंगे| इस बात का निचले न्यायाधीशों को भी ज्ञान और विश्वास है कि लगभग सभी मामलों में उनके उचित –अनुचित कृत्यों-अकृत्यों  की पुष्टि हो ही जानी है| ऊपरी न्यायाधीश भी तो कोई अवतार पुरुष या देवदूत नहीं हैं, वे भी कल तक न्यायालय स्टाफ और पुलिस को टिप्स देकर कार्य को गति प्रदान करवाते रहे हैं परिणाम स्वरुप वे सफल वकील कहलाये| उनके पास न तो कोई चरित्र प्रमाण पत्र है न ही उन्होंने कोई प्रतिस्पर्धी योग्यता परीक्षा पास कर रखी है| संवैधानिक न्यायालयों के अधिकांश न्यायाधीशों के सम्बन्ध में भी उनके गृह राज्यों से उनके पूर्व चरित्र के विषय में कोई सुखद रिपोर्टें  नहीं मिलती हैं| ऐसे उदाहरण भी हैं जहां जेल के निरीक्षण पर आये उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार के आरोपी से जेल में आवेदन लेकर तत्काल ही जमानत मंजूर कर दी! जानलेवा हमले के एक मामले में जिसमें दोषी ने पीड़ित की हथेली काटकर ही अलग कर दी थी, राजस्थान उच्च न्यायालय ने मात्र 7 दिन की सजा को ही पर्याप्त समझा|कहने को अच्छा वकील भी वही बन पाता है जिसमें एक कुशल व्यापारी के समान विक्रय कला हो न कि  उसे कानून का अच्छा ज्ञान हो|  क्योंकि कानून का अच्छा ज्ञान तो भारत के अधिकाँश न्यायाधीशों में भी नहीं है  अत: यदि किसी वकील में कानून का अच्छा ज्ञान हो तो भी उसका मूल्याङ्कन करने में स्वयम न्यायाधीश ही समर्थ नहीं हैं| एक प्रकरण में सामने आया कि  उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को “आपराधिक शिकायत” की परिभाषा और दायरे जैसी प्रारंभिक बात का भी  ज्ञान नहीं था किन्तु ऊपर वरदहस्त होने के कारण यह पद प्राप्त हो गया | इसी  आपराधिक मामले में न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा परिवादी पर खर्चा लगा दिया गया किन्तु कानून में उसे ऐसी शक्ति प्रदत्त नहीं है| मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया और फिर भी निर्णय को सही बताया गया| जब मजिस्ट्रेट ने खर्चा वसूली की कार्यवाही प्रारंभ की तो उसे पुन: बताया गया कि उसे खर्चा लगाने की कोई शक्ति ही नहीं तब कार्यवाही बंद की गयी|

 राज्य सभा की समिति ने यद्यपि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के लिए लिखित परीक्षा की अनुशंसा की थी किन्तु यह प्रक्रिया अस्वच्छ राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक है अत: इस पर कोई अग्रिम कार्यवाही नहीं की गयी| भारत के न्यायाधीश तथ्यों और कानून को तोड़मरोड़कर उनका मनचाहा अर्थ निकालने में सिद्धहस्त अवश्य हैं|  इस कारण समय समय पर विरोधाभासी व असंगत निर्णय आते रहते हैं  और हमारी न्याय व्यवस्था जटिल से जटिलतर बनती जा रही है|  विडंबना है कि कानून के विषय में तो यहाँ अपवादों को छोड़कर ब्रिटिश काल से चली आ रही अस्वच्छ और जनविरोधी परम्पराओं का अनुसरण और सरकार व अधीनस्थ न्यायालयों का समर्थन मात्र किया जा रहा है, प्रजातंत्र के अनुकूल कोई नवीन मौलिक  शोध नहीं हो रहा है|  सरकारी अधिकारियों को भी विश्वास है कि न्यायालयों के आदेश कागजी घोड़े हैं  और उनकी अनुपालना करने की कोई आवश्यकता भी नहीं है व उनका कुछ भी बिगडनेवाला नहीं है| अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने अक्षरधाम काण्ड के अभियुक्तों को दोषमुक्त करते हुए कहा है  कि पुलिस द्वार निर्दोष लोगों को फंसाया गया है जबकि इन्हें संदेह के आधार पर नहीं छोड़ा गया है|  आश्चर्य है कि ऐसी स्थिति में सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय ने इन्हें दोषी मान लिया| फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने न  तो पुलिस के विरुद्ध कोई कार्यवाही के लिए आदेश दिया है और पीड़ितों को अनावश्यक जेल के लिए कोई क्षतिपूर्ति भी स्वीकृत नहीं की है|  कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक मामले में दिनांक  7 जुलाई 2010  को पश्चिम बंगाल सूचना आयोग को आदेश दिया था कि द्वितीय अपील का निपटान 45 दिन में करे किन्तु प.बं. सू . आयोग के भयमुक्त आयुक्त ने दिनांक 20 सितम्बर 2008  को दायर एक द्वितीय अपील पर 58  महीने बाद दिनांक 24 जुलाई 2013 को  अपना निर्णय घोषित कर कीर्तिमान स्थापित किया है| न्यायालयों के प्रति सरकारी अधिकारियों के सम्मान का यह प्रतीक है| वर्तमान परिस्थितियों में यह भी स्पष्ट नहीं है कि न्यायालयों और सूचना आयोगों के आपसी सम्बन्ध कितने प्रगाढ़  हैं अथवा उनकी जन छवि कैसी है| मैंने  असम राज्य सूचना आयोग की वेबसाइट से पाया है कि उन्होंने किसी भी न्यायालय के विरुद्ध आज तक कोई प्रकरण निर्णित नहीं किया है|  यदि भय के कारण किसी नागरिक ने कोई प्रकरण दायर ही नहीं किया है तो यह और भी गंभीर है तथा लोकतंत्र को चुनौती है| उस राज्य में पुलिस के विरुद्ध भी आज तक 10 से कम मामले दायर हुए हैं| अनुमान लगाया जा सकता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम पारदर्शिता लाने में कितना कामयाब हुआ है | क्या कोई न्यायविद बता सकता है कि भारत में कानून, शक्ति, लाठी, गोली  या आतंक में से किसका शासन चलता है ? पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि न्यायालयों के प्रति आम नागरिक के मन में भय या सम्मान क्या अधिक है |

जहां परिवादी या अभियुक्त (आशाराम जैसे) उच्च श्रेणी का हो वहां पुलिस उसके लिए हवाई यात्रा का प्रबंध करती है अन्यथा आम नागरिक यदि गवाह के तौर पर पेश हो तो भी उसे पुलिस या न्यायालय द्वारा रेल या बस का किराया तक नहीं दिया जाता है| इन सब घटनाक्रमों को देश के संवैधानिक न्यायालय भी मूकदर्शी बनकर देखते रहते हैं| भारत में तो जो कुशल मुंशी होते हैं वे कालान्तर में सफल  वकील बन जाते हैं और स्टाफ के साथ उनकी अच्छी पटरी खाती अत: उनका कोई काम बाधित  नहीं होता| वे तरक्की पाते हैं और न्यायाधीश बन जाते हैं | हमारे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कपाडिया ने भी अपना व्यावसायिक जीवन सफर  कुछ इसी प्रकार तय किया था| भारत का न्यायिक वातावरण तो मुंशीगिरी करने वालों के लिये  ज्यादा उपयुक्त है, ईमानदार और विद्वान की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है|  देश में ढूंढने  पर भी ऐसा प्रैक्टिसरत   वकील मिलना कठिन है जिसने अपने व्यावसायिक जीवन में न्यायालय स्टाफ या पुलिस वालों को कभी टिप न दी हो| वास्तव में देखा जाये तो न्याय में विलम्ब के लिए इनमें से कोई भी वर्ग चिन्तित नहीं है और न ही इनमें से कोई न्यायिक या पुलिस सुधार के लिए हृदय से इच्छुक है | न्यायालयों में प्रतिदिन बड़ी संख्या में न्यायार्थी आते हैं किन्तु उनके बैठने या विश्राम के लिए कोई स्थान तक नियत नहीं है और उनकी स्थिति याचकों  जैसी है | जहां कहीं उनको कोई आश्रय उपलब्ध करवाया गया है उस पर वकील समुदाय ने अतिक्रमण कर रखा है|  दिल्ली में तो न्यायालयों के कैंटीन  व अन्य स्थानों पर वकील समुदाय ने कब्जा कर रखा है और पेंट करवा रखा है कि  यह स्थान वकीलों के लिए आरक्षित  है और मुवक्किलों के लिए पैर रखने के लिए भी कोई स्थान देश की राजधानी दिल्ली के न्यायालयों में आरक्षित नहीं है|  ये लोग भूल रहे हैं कि  न्यायालयों या वकीलों का अस्तित्व मुवक्किलों से ही हैं अन्यथा नहीं| 

कुछ समय पहले न्यायाधिपति स्वतंत्र कुमार,जिन्हें मात्र 8 दिन के लिए उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति दी गयी थी, पर यौन शौषण के आरोप लगे तो उनके समाचार के प्रसारण को रोकने के लिए लगभग 50 से अधिक वकीलों का दल उच्च न्यायालय में पैरवी हेतु उपस्थित हो गया और उसी समुदाय से जब हिरासत में अथवा फर्जी मुठभेड़ में मारे गये लोगों के हितार्थ पीड़ित मानवता की सेवा में आगे आने के लिए आह्वान किया गया तो एक भी आगे नहीं आया| यह इस व्यवसाय और  इन व्यवसाइयों की नैतिकता को दर्शाता  है|  कमजोर तबके को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने के लिए सामान्यतया सुप्रीम कोर्ट में पैरवी हेतु 10000 रूपये व गुजरात जैसे विकसित कहे जाने वाले राज्यों में उच्च न्यायालय के लिए 500 रूपये  की सहायता दी जाती है वहीं सरकार द्वारा अपने मामलों की ट्रिब्यूनलों में पैरवी के लिए मात्र 1000 रूपये पारिश्रमिक दिया जाता है और वकील समुदाय छिपे हुए उद्देश्यों के लिए इस अल्प पारिश्रमिक पर भी कार्य करने को लालायित रहते हैं | दिल्ली के जिला स्तर के न्यायालयों में मौके की रिपोर्ट देने के लिए कमिश्नरों  को लाखों रूपये पारिश्रमिक दिया जाता है और इस प्रकार उपकृत होने वाले वकील अधिकांशत: न्यायाधीशों के रिश्तेदार या घनिष्ठ मित्र होते हैं| पंचनिर्णय के मामलों में भी भारी शुल्क ऐंठने और भ्रष्टाचार की शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं | जब न्यायालय अपनी चारदीवारी के भीतर भी नागरिकों का शोषण नहीं रोक सकते तो फिर जनता द्वारा उनसे कितनी अपेक्षाएं रखना उचित व व्यावहारिक है| संभव है कुछ निहित हितोंवाले लोग इन विचारों से सहमत न हों किन्तु उनके सहमत अथवा असहमत होने से तथ्य, तश्वीर और भारतीयों की तकदीर  नहीं बदल जाते|

हमारी राज्य सभा ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृति आयु बढाने के लिए सिफारिश की कि देश में स्वास्थ्य के स्तर में सुधार के परिणाम स्वरुप न्यायाधीशों की सेवानिवृति आयु में बढ़ोतरी करना उचित है क्योंकि विदेशों में भी यह ऊँची है| किन्तु राज्य सभा की समिति को शायद ज्ञान नहीं है की जहां पाश्चात्य देशों में औसत आयु 88 वर्ष है वहीं भारत में औसत आयु आज भी मात्र 64 वर्ष है अत: विदेशों से तुलना की कोई सार्थकता नहीं है| भारत में न्यायाधीशों का प्रारम्भिक वेतन औसत भारतीय की  आय से 10 गुना है जो किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है व संविधान के समाजवादी स्वरूप के ठीक विपरीत है किन्तु इसके पक्ष में देश के न्यायाधीश तर्क देते हैं कि इससे न्यायाधीश ईमानदार बने रहेंगे| किन्तु इस तर्क को वास्तविकता के धरातल पर परखा जाए तो यह नितांत खोखला है | फिर भौतिकवाद तो अशांति का जनक  है| देश में सुप्रिम कोर्ट के 95% न्यायाधीश उच्च आय वर्ग और उच्च मध्यम आय वर्ग से रहे हैं | क्या ये  सभी  ईमानदार होने का नाम अर्जित कर पाए हैं ? देश में 65 प्रतिशत  जनता गरीब है, क्या वे सभी बेईमान हैं ? क्या आर्थिक अपराधियों में बहुसंख्य लोग धनाढ्य नहीं हैं? भ्रष्टाचार की जड़ तो लालच में निहित है न की गरीबी में | देश में जहां गरीबों को न्याय सुलभ करवाने के लिए न्यायमित्र  को थोड़ी सी रकम दी जाती हैं वहीं सरकारी वकीलों को लाखों रूपये देकर रातोंरात मालामाल कर दिया जाता है | क्या यह कानून के समक्ष समानता है? जो सार्वजनिक धन लोक सेवकों के पास जनता की धरोहर के रूप में है उसका वे मनमाना और सरलता से विरासत में प्राप्त की तरह प्रयोग कर रहे हैं और सार्वजनिक  बर्बादी का खेल खेल रहे हैं |  बिहार राज्य में तो 50 लाख रुपयों में से मात्र 50  हजार रूपये गरीबों को सहायता दी गई और शेष रकम स्टाफ के खर्चों आदि में लगा दी गयी  और गरीबों को कानूनी सहायता के नाम क्रूर मजाक किया गया | कमोबेश यही हाल अधिकाँश राज्यों के हैं| न्यायिक सुधारों के लिए सरकारों द्वारा संसाधनों की कमी बतायी जाती है किन्तु सस्ती लोकप्रियता के लिए लैपटॉप, मोबाइल, साड़ियाँ बांटने और बागों में नेताओं की मूर्तियाँ व  प्रतीक चिन्ह के लिए संसाधनों की कोई कमी नहीं है| आश्चर्य तब और भी बढ़ जाता है जब कोई नागरिक इस अपव्यय को रोकने के लिए न्यायालय से आदेश चाहता है तो न्यायालय भी मदद नहीं करते | ऐसा लगता है हमारे न्यायाधीश, राजनेता ज्यादा और न्यायविद  कम  हैं |








Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
राजनीति  का अपराधीकरण  या अपराधियों का राजनीतिकरण देश सामने एक बड़ी चुनौती है |  ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश में एक अपराधी राजनेता को जनता के धन से सुरक्षा उपलब्ध करवाने का इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सामने विचारण हेतु आया | मामले के तथ्य इस प्रकार हैं कि याची डॉ. पंकज त्रिपाठी के पिता सिविल सर्जन थे और दिनांक 25 मई 1980 को उनकी मिर्जापुर (उ.प्र.) में हत्या कर दी गयी थी व इस आशय की ऍफ़ आई आर दर्ज हुई और जांच के बाद प्रतिवादी विजय कुमार मिश्र के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किया गया| यह मामला न्यायालय में परीक्षण हेतु विगत 34 साल से बकाया है| विजय कुमार मिश्र अब सत्तासीन पार्टी से विधायक हैं|  याची डॉ. पंकज त्रिपाठी के जीवन को  ख़तरा समझते हुए राज्य ने उन्हें 28 अप्रेल से 27 अक्टूबर 2011 तक सुरक्षा उपलब्ध करवाई थी जो आदेश दिनांक 6 अप्रेल 2012 से वापिस ले ली गयी|  याची ने तत्पश्चात इलाहाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को कई प्रतिवेदन देकर सुरक्षा उपलब्ध करवाने की विनती की जोकि अभी तक बकाया रहे| दूसरी ओर  आदेश दिनांक 25 अक्टूबर 2013 से विजय कुमार मिश्र की पुत्री सीमा को एक्स श्रेणी की सुरक्षा मुहैया करवाई गयी और एक अन्य आदेश दिनांक 31 अक्टूबर 2013 से विजय कुमार मिश्र को वाई श्रेणी की सुरक्षा उपलब्ध करवाई गयी| राज्य सरकार के ऐसे आदेश से व्यथित होकर याची ने इलाहाबाद उच्च न्यालय में यह रिट याचिका दायर की| याचिका पर विचार करते हुए न्यायालय   ने पाया कि विजय कुमार मिश्र के विरुद्ध 60 आपराधिक मुक़दमे चल रहे हैं| न्यायालय ने राज्य सरकार को  निर्देश दिए कि वह राज्य स्तरीय सुरक्षा समिति की बैठकों के विवरण उपलब्ध करवाए जिनमें कि जीवन को खतरे की संभावना पर विचार किया गया हो| किन्तु यह पाया गया कि ऐसा कोई विचारण नहीं किया गया था| न्यायालय ने यह भी निर्देश प्रदान किये कि प्रतिवादीगणों को प्रदत्त एक्स व वाई श्रेणी की सुरक्षा तुरंत वापिस ले ली जाए | राज्य सरकार ने यद्यपि उक्त सुरक्षा वापिस ले ली किन्तु उसकी एवज में विजय कुमार मिश्र को उनके पद के अनुरूप एक बंदूकची व उनकी पुत्री को भी एक बंदूकची की सुरक्षा उपलब्ध करवा दी गयी| इस आदेश को याची द्वारा एक अन्य संशोधन आवेदन द्वारा चुनौती दी गयी|

न्यायालय ने आगे विचारण  में पाया कि याची के चाचा  प्रतिवादी विजय कुमार मिश्र के पिता की हत्या के अभियुक्त रहे हैं और दोनों परिवारों के बीच शत्रुता है| पुलिस रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हुआ कि विजय कुमार मिश्र के नाम 2 राइफल और 1 पिस्तौल हैं तथा  एक राइफल व एक रिवाल्वर उनकी माँ के नाम व एक डबल बेरल गन उनके  भाई के नाम भी हैं| न्यायालय के आदेश पर मूल रिकार्ड प्रस्तुत किये जाने पर ज्ञात  हुआ कि सरकार के आदेश दिनांक 25 अप्रेल 2001 से एक माह के लिए सुरक्षा उपलब्ध करवाई गयी थी जिसे अधिकतम तीन माह के लिये  आगे बढाया जा सकता था किन्तु इससे आगे मात्र सुरक्षा समिति की विशेष सिफारिश पर ही आगे बढ़े आजा सकता था| फिर भी राज्य सरकार के आदेश में खतरे की संभावना क्या है यह नहीं बताया गया था| राज्य सरकार के उक्त आदेश में यह भी बल दिया गया था कि ऐसे व्यक्ति को सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवाई जायेगी जो आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त है और सुविधा का उनके द्वारा दुरूपयोग किया जा सकता हो|
ऐसे ही एक अन्य मामले – गयूर हसन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य  में इसी न्यायालय ने धारित किया था  कि यदि कोई  व्यक्ति समाज विरोधी आपराधिक  गतिविधियों में संलिप्त है और इससे उसके जीवन व स्वतन्त्रता को कोई ख़तरा है तो इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है  तथा वह आम नागरिक के खर्चे पर सरकार से सुरक्षा की मांग नहीं कर सकता| हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई चाहे जो पद धारण करे उसे कर दाताओं की कीमत पर सुरक्षा उपलब्ध करवाने का कोई औचित्य नहीं है|  अन्यथा ऐसा करना समाज विरोधी गतिविधियों को प्रोत्साहन देना होगा| यह पाया गया कि सुरक्षा को खतरे का आकलन किये  बिना ऐसे आदेश मुख्यमंत्री स्तर से जारी किये गए| राज्य सुरक्षा समिति की बैठकों में ऐसी कोई विषय वस्तु उपलब्ध नहीं थी जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार का ख़तरा संभव है| श्रीमती सीमा मिश्र को एक्स श्रेणी की सुरक्षा महज इस कारण उपलब्ध करवाई गयी कि वह राजनैतिक क्षेत्र में उतर रही है अत: वह ख़तरा महसूस करती है| इस बारे में कोई जांच नहीं की गयी थी| विजय कुमार मिश्र को राजनैतिक शत्रुता के कारण वाई श्रेणी की सुरक्षा की सिफारिश की गयी थी| न्यायालय की लखनऊ पीठ ने पूर्व में भी नूतन ठाकुर बनाम  उत्तरप्रदेश राज्य में  भी धारित कर रखा है कि आपराधिक गतिविधियों वाले लोगों को प्रदत्त समस्त सुरक्षाएँ  वापिस ले ली जाएँ| न्यायालय ने यह भी पाया कि श्रीमती सीमा मिश्र चूँकि विजय मिश्र की पुत्री है और भावी उम्मीदवार है मात्र इस कारण सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवाई जानी चाहिए |
न्यायालय का विचार रहा कि ऐसे आधारों पर सुरक्षा उपलब्ध नहीं करवाई जा सकती | तदनुसार प्रदान की गयी सुरक्षा अवैध है| मात्र इस कारण कि आदेश उच्च स्तर  से जारी हुए हैं कर दाताओं के धन से ऐसा खर्चा नहीं उठाया जाना चाहिए| जब एक व्यक्ति को शस्त्र लाइसेंस दे दिया गया हो तो राज्य ने उसके जीवन की रक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध करवा दी है | राज्य को समाज में कुछ व्यक्तियों की बजाय  वृहत स्तर  पर समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करनी है| न्यायालय का विचार रहा कि  ऐसे व्यक्तियों को सुरक्षा उपलब्ध करवाने का अर्थ समाज के हितों के विरुद्ध ऐसे व्यक्तियों की गतिविधियों को बढ़ावा देना होगा| एक व्यक्ति जो हिंसा का रास्ता चुनता है और जिसके लिए  मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं हो उसे यह मांग करने  का कोई अधिकार नहीं है कि शत्रुओं से उसके  जीवन की रक्षा के लिए सरकार को विशेष उपाय करने चाहिए| तदनुसार रिट याचिका डॉ. पंकज त्रिपाठी बनाम उत्तर प्रदेश  राज्य अनुमत करते हुए उच्च  न्यायालय ने दिनांक 9 अप्रेल 2014 को आदेश दिया कि विपक्षियों को प्रदत्त समस्त सुरक्षा तुरंत प्रभाव से वापिस  ले ली जाए|







Mani Ram Sharma

  • Full Member
  • ***
  • Posts: 116
  • Karma: +4/-0
समय समय पर भारत की न्यायपालिका द्वारा शक्तियों के प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह उठते रहे हैं | यद्यपि समय समय पर देश की न्यायपालिका और उसके पैरोकार न्यायिक गरिमा का दम भरते हैं किन्तु हाल ही में जयललिता को जमानत देने और निर्णय पर रोक लगाने का मामला एक ताज़ा और ज्वलंत उदाहरण है| सोनी सोरी के मामले में न्यायपालिका की रक्षक भूमिका को भी जनता भूली नहीं है| एक  साध्वी को हिरासत में दी गयी यातनाएं के जख्म और जमानत से इंकारी  भी ज्यादा पुराने नहीं हैं |  अहमदाबाद के मजिस्ट्रेट द्वारा मुख्य न्यायाधीश के वारंट जारी करने का मामला भी 7 दिन के भीतर रिपोर्ट प्राप्त होने के बावजूद 10 वर्ष से विचाराधीन है| गंभीर बीमारियों से पीड़ित संसारचन्द्र  को जमानत से इन्कारी और तत्पश्चात उसकी मृत्यु भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह उपस्थित करते हैं जबकि संजय दत्त को उसकी बहन की प्रसव काल में मदद के लिए जमानत स्वीकार करना गले नहीं उतरता| तरुण तेजपाल के विरुद्ध बिना शिकायत के मामला दर्ज करना और जमानत से तब तक इंकार करना जब तक उसकी माँ की मृत्यु नहीं हो जाती और दूसरी ओर आम नागरिक की फ़रियाद पर भी रिपोर्ट दर्ज न होना किस प्रकार न्यायानुकूल कहा जा सकता है |   विकसित  देशों को छोड़ भी दिया जाए तो भी भारत की न्यायपालिका उसके पडौसी पाकिस्तान और श्रीलंका के समकक्ष भी नहीं मानी जा सकती |

एक टी वी द्वारा जयललिता मामले में बहस का प्रसारण भी वकील समुदाय द्वारा प्रतिकूल मानकर अवमान कार्यवाही की मांग दुर्भाग्यपूर्ण और लोकतंत्र व  विचार अभिव्यक्ति के अधिकार पर गंभीर कुठाराघात है|  जबकि अमेरिकी न्यायालयों की बहस ऑनलाइन इन्टरनेट पर सार्वजनिक रूप से भी उपलब्ध है| इंग्लॅण्ड का एक रोचक मामला इस प्रकार है कि एक भूतपूर्व जासूस पीटर राइट ने अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक लिखी| ब्रिटिश सरकार  ने इसके प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए याचिका दायर की कि पुस्तक गोपनीय है और इसका  प्रकाशन राष्ट्र हित के प्रतिकूल है| हॉउस ऑफ लोर्ड्स ने 3-2  के बहुमत से पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दी| प्रेस इससे क्रुद्ध हुई और डेली मिरर ने न्यायाधीशों के उलटे चित्र प्रकाशित करते हुए “ये मूर्ख” शीर्षक दिया| किन्तु इंग्लॅण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान पर ध्यान नहीं देते हैं| न्यायाधीशों का विचार था कि उन्हें विश्वास है वे मूर्ख नहीं हैं किन्तु अन्य लोगों को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है| ठीक इसी प्रकार यदि न्यायाधीश वास्तव में ईमानदार हैं तो उनकी ईमानदारी पर लांछन मात्र से तथ्य मिट नहीं जायेगा और यदि ऐसा प्रकाशन तथ्यों से परे हो तो एक आम नागरिक की भांति न्यायालय या न्यायाधीश भी समाचारपत्र या टीवी से ऐसी सामग्री का खंडन प्रकाशित करने की अपेक्षा कर सकता है| न्यायपालिका का गठन नागरिकों के अधिकारों और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए किया जाता है न कि स्वयं न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए| न्यायपालिका की संस्थागत छवि तो निश्चित रूप से एक लेख मात्र से धूमिल नहीं हो सकती और यदि छवि ही इतनी नाज़ुक या क्षणभंगुर हो तो स्थिति अलग हो सकती है| जहां तक न्यायाधीश की व्यक्तिगत बदनामी का प्रश्न है उसके लिए वे स्वयम व्यक्तिगत कार्यवाही करने को स्वतंत्र हैं| इस प्रकार अनुदार भारतीय न्यायपालिका द्वारा अवमान कानून का अनावश्यक प्रयोग समय समय पर जन चर्चा का विषय रहा है जो मजबूत लोकतंत्र की स्थापना के मार्ग में अपने आप में एक गंभीर चुनौती है|

न्यायालयों में सुनवाई के सार का  सही एवं विश्वसनीय रिकार्ड, फाइलिंग एवं सक्रिय सहभागिता  एक सशक्त , पारदर्शी  और विश्वसनीय न्यायपालिका की कुंजी है | 1960 के दशक से ही पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विकसित देशों में आंतरिक रिकोर्ड रखरखाव की प्रक्रिया की प्रभावशीलता में सुधार के लिए मांग उठी| सामान्यतया अधिक लागत वाली श्रम प्रधान (हाथ से संपन्न होने वाली) प्रक्रिया की तुलना में स्वचालित रिकार्ड करने और स्टेनोग्राफी के उपकरणों की ओर परिवर्तन को उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के बाहर एक चुनौती के रूप में देखा जाता है| विकसित राष्ट्रों में  न्यायालयों को सशक्त सूचना संचार तकनीक ढांचे और कुशलता का लाभ मिलता है जिससे रोजमर्रा की कार्यवाहियों का ऑडियो वीडियो रिकार्ड, स्टेनो मशीन और बहुत से अन्य कार्य कंप्यूटर प्रणालियाँ के माध्यम से करना अनुमत है |

विकासशील और संघर्षरत राष्ट्रों में तकनीकि ढांचे का सामान्यतया अभाव है| इसलिए स्वस्थ न्यायिक तंत्र के निर्माण या पुनर्निर्माण में अन्तर्वलित महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दों के अतिरिक्त विकासशील और संघर्षरत राष्ट्रों को न्यायसदन में रिकार्डिंग प्रणाली में सुधारों को प्रभावी बनाने हेतु तकनीकि ढांचे में भी सुधार करने चाहिए| आज अमेरिकी राज्यों सहित नाइजीरिया, बुल्गारिया, कजाखस्तान और थाईलैंड में मशीनीकरण पर भूतकालीन और चालू अनुभव  के आधार पर अध्ययन करने वाले निकाय हैं| मशीनीकृत रिकार्डिंग प्रणाली वाले न्यायसदन स्थापित करने और विकसित करने का ज्ञान रखने  वाले  निकाय दिनों दिन बढ़ रहे हैं| इन अध्ययनों में पश्चिमी विकसित  और विकासशील -दोनों- देशों में कुशल न्यायसदन रिकार्डिंग प्रणालियाँ स्थापित करने में चुनौतियाँ उभरकर सामने आई हैं | इन अध्ययनों में विकासशील राष्ट्रों की न्यायसदन में हाथ से  रिकार्डिंग की प्रणाली से अधिक दक्ष स्वचालित रिकार्डिंग प्रणाली की ओर परिवर्तन में सहायता करने के महत्त्व की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है और इससे होने वाले लाभों की सूची भी दी गयी है|

विकसित, विकासशील और संघर्षरत राष्ट्रों में इस उच्च तकनीकि परिवर्तन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है जैसे – लागत में वृद्धि, सामान्य कानून एवं सिविल कानून में साक्ष्य रिकार्डिंग के भिन्न –भिन्न मानक, उपकरणों के उपयोग के लिए प्रारंभिक एवं उतरवर्ती प्रशिक्षण, सुविधाओं का अभाव और मशीनीकरण के कारण बेरोजगारी| उच्च तकनीकि रिकार्डिंग प्रणालियाँ स्थापित करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ साथ पर्याप्त वितीय संसाधनों की आवश्यकता है| दूसरे राष्ट्र  ऊँची लगत वाली उन्नत रिकार्डिंग मशीनों की लागत वसूली के लिए संघर्ष करते रहते हैं| अमेरिका में मेरीलैंड राज्य में और कजाखिस्तान गणतंत्र में  राजनैतिक इच्छाशक्ति और  वितीय संसाधन दोनों ही विद्यमान थे तथा वहाँ परंपरागत रिकार्डिंग प्रणाली से नई उन्नत तकनीक की ओर  परिवर्तन सफल रहा |
मेरीलैंड के अध्ययन से प्रदर्शित होता है कि नई रिकार्डिंग मशीन प्रणाली लगाने की एकमुश्त लागत प्रतिपूर्ति करने वाले दीर्घकालीन लाभों- वेतन भत्तों में कमी  आदि - को देखते हुए न्यायोचित है| अन्यथा एकमुश्त लागत एक चुनौती ही रहती है| कजाखिस्तान जैसे कई राष्ट्रों ने वितीय चुनौतियों पर विजय पाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से साझेदारी भी की गयी है| दीर्घकालीन लाभों को देखते हुए मुख्य न्यायालयों में उच्च तकनीक वाली रिकार्डिंग प्रणाली लगाया जाना तुलनात्मक रूप में वहनीय हो सकता है| किसी भी सूरत में  समस्त विकासशील या संघर्षरत देशों में राजनैतिक इछाशक्ति, आधारभूत ढांचा और या साझी संस्थाओं के साथ नवीन प्रणाली स्थापित करने के संबंधों का अभाव है| वर्तमान में युद्ध–जर्जरित लाइबेरिया में न्यायाधीश सुनवाई हेतु  बैठने के लिए स्थान पाना मुश्किल पा रहे हैं| ढांचे –विद्युत शक्ति सहित- को स्थिर करना भी एक समस्या है|

वितीय पहलू के अतिरिक्त न्यायालय अपने ऐतिहासिक परम्पराओं के कारण भी एक चुनौती का सामना कर सकते हैं| परंपरागत आपराधिक कानून मौखिक साक्ष्य और मौखिक रिकार्ड को उच्च प्राथमिकता देता है जबकि सिविल न्याय मौखिक रिकार्ड को कम महत्त्व देता है| गवाह न्यायाधीश के सामने साक्ष्य देते हैं (भारत में व्यवहार में न्यायाधीश की अनुपस्थिति में भी साक्ष्य चलता रहता है), और न्यायाधीश इसका सार  रजिस्ट्रार को देता है जोकि इसे टाइप करता है| पक्षकार/साक्षी को समय-समय पर इसे पुष्ट करने के लिए कहा जाता है कि क्या  यह सही है और पक्षकार को जहाँ कहीं वह उचित समझे दुरुस्त कराने के लिए प्रेरित किया जाता है| आडियो वीडियो प्रणाली से अवयस्कों और उन लोगों का भी परीक्षण संभव है जो मुख्य न्यायालय में सुनवाई में उपस्थित नहीं हो सकते हैं|

फ़्रांस में न्यायालय क्लर्क न्यायाधीश और पक्षकारों के मध्य विनिमय किये गए समस्त रिकार्ड का लेखाजोखा रखने के दयित्वधीन है| वहाँ कोई मौखिक रिकार्ड नहीं रखा जाता है |इस प्रकार फ़्रांसिसी सिविल मामलों में मौखिक परीक्षण का रिकार्ड रखने के बजाय परीक्षण कार्यवाही के सार पर बल दिया जाता है | आपराधिक मामलों में फ़्रांस में दृष्टिकोण थोडा भिन्न है| इन मामलों में न्यायाधीश ऑडियो वीडियो रिकार्ड की अपेक्षा कर सकता है | फ़्रांस में आपराधिक मामलों में ऑडियो वीडियो रिकार्डिंग स्वतः नहीं है अपितु न्यायाधीश के विवेक पर है| ऐसी रिकार्डिंग जो स्पष्टतया अनुमोदित नहीं हो मुख्य न्यायाधीश द्वारा 18000 यूरो से अन्यून दंडनीय है| ऐतिहासिक मामलों में ऑडियो वीडियो रिकार्डिंग संग्रहालय में भी संधारित की जाती हैं| उदाहराणार्थ  उक्रेन में मामले  के दोनों अथवा एक पक्षकार द्वारा आवेदन करने या न्यायाधीश द्वारा पहल करने के अतिरिक्त कार्यवाही की रिकार्डिंग नहीं की जाती है| परिणामस्वरूप अधिकांश कार्यवाही पुराने परंपरागत ढंग से स्टेनो, टाइप आदि द्वारा जारी रहती है| सामान्यतया न्यायाधीशों द्वारा भी इस नवीन प्रणाली का प्रतिरोध किया जाता है| जहाँ कहीं भी नए कानूनी प्रावधान मौखिक रिकार्डिंग के पक्ष में हैं न्यायाधीश परिवर्तन का विरोध करते हैं|
भारत में भी सिविल मामलों में यद्यपि गवाह  द्वरा बयान शपथ पत्र द्वारा वर्ष 1999 से ही अनुमत किया जा चुके हैं किन्तु अभी भी गवाहों को बयान के लिए कठघरे में बुलवाने की परम्परा जारी है| मार्क्स ज़िमर के अनुसार सिविल न्यायाधीश ऐसी पारदर्शिता से भयभीत हैं जो  मौखिक परीक्षण रिकार्डिंग से उद्भूत होती हो और वे मामले के पक्षकारों को ऐसी पारदर्शिता से होने वाले  सामाजिक लाभों  को ही विवादित करते हैं| सिविल न्यायाधीश मानते हैं कि पारदर्शिता से अपीलों की संख्या और न्यायाधीशों के विरुद्ध अनाचार के व्यक्तिगत मामले – दोनों में वृद्धि होगी| यद्यपि आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ये भय न्यायोचित हैं अथवा निर्मूल हैं| वर्तमान में कजाखस्तानी न्यायाधीश मौखिक साक्ष्यों की रिकार्डिंग की ओर बदलाव कर रहे  हैं| मौखिक साक्ष्यों की रिकार्डिंग की स्वीकार्यता में उनके मानसिक परिवर्तन और शुद्धता, पारदर्शिता, और अन्ततः सुरक्षा जो मौखिक रिकार्ड से न्यायाधीश एवं पक्षकार दोनों को उपलब्ध हो रही है| दक्षिण अफ्रीका में भी साक्ष्यों की ऑडियो रिकार्डिंग पर्याप्त समय से प्रचलन में है और इस उद्देश्य के लिए वहाँ अलग से स्टाफ की नियुक्ति की जाती है जो ऐसी प्रतिलिपि को सुरक्षित रखता है| न्यायालयों में प्रयोज्य उपकरणों के दक्ष उपयोग के लिए प्रारंभिक और लगातार प्रशिक्षण आवश्यक है| प्रत्येक प्रशिक्षण का वातावरण भिन्न होता है और समयांतराल से परिपक्व होता है|
जिन राष्ट्रों में न्यायालयों में काफी ज्यादा स्टाफ है उनमें मशीनीकरण से बेरोजगारी उत्पन्न होने का भय विकसित राष्ट्रों के बजाय ज्यादा है| न्यायालय स्टाफ को नवीन प्रक्रिया के योग्य बनाकर, स्वेच्छिक सेवा निवृति, अन्य विभागों में स्थानांतरण करके अथवा सेवा निवृतियों को ध्यान में रखकर चरणबद्ध मशीनीकरण कर इसका समाधान किया जा सकता है| स्वतंत्रता से पूर्व देशी राज्यों  के मध्य आयात पर जगात (आयात कर) लगता था | स्वंत्रता के उपरांत जगात  समाप्त कर स्टाफ का राज्यों द्वारा विलय कर लिया गया था| इसी प्रकार हाल ही में चुंगी समाप्त कर स्टाफ का समायोजन किया जाना एक अन्य उदाहरण है|  न्यायालयों में सारांशिक कार्यवाही के योग्य सिविल एवं आपराधिक मामलों का दायरा बढाकर भी त्वरित न्याय दिया जा सकता है| वैश्वीकरण के बहाव में कुछ वर्ष पूर्व कम्प्यूटरीकरण, दक्षता एवं लाभप्रदता में वृद्धि के लिए बैंकों और अन्य सार्वजानिक उपक्रमों में स्वेच्छिक सेवा निवृति और निष्कासन योजना को प्रोत्साहन दिया गया था| यद्यपि इस योजना का श्रम संघों द्वारा विरोध किया गया था किन्तु न्यायालयों एवं विधायिका दोनों द्वारा इसे उचित ठहराया गया था| अतः इसे अब न्यायालयों में लागू करने में भी कोई बाधा प्रतीत नहीं होती है|

कजाखिस्तान, बुल्गारिया, बोस्निया, हेर्ज़ेगोविना और अन्य बहुत से राज्यों में मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के सकरात्मक परिणाम मिले हैं| इनमें समय की बचत ,पारदर्शिता एवं शुद्धता में वृद्धि, न्याय सदन की उन्नत प्रक्रियाएं, न्यायपालिका में विश्वास में वृद्धि ,अपील प्रक्रिया का अधिक दक्ष उपयोग  आदि प्रमुख हैं| दृश्य श्रव्य (ऑडियो-वीडियो) और उच्च तकनीकि न्यायालय रिकार्डिंग मशीनों से उच्च पारदर्शिता आती है क्योंकि वे सुनवाई का अच्छी तरह से सही और सम्पूर्ण रिकार्ड प्रस्तुत करती हैं| इससे से भी आगे कि परीक्षण न्यायालय का रिकार्ड अपीलीय न्यायालय द्वारा आसानी से अवलोकन किया जा सकता है| अधिकांश मामलों में रिकार्डिंग मशीनों द्वारा तैयार रिकार्ड असंपादित होता है, शब्दशः रिकार्ड जिसकी अपेक्षा करने पर मूल रूप में न्यायाधीश और पक्षकार दोनों द्वारा समीक्षा की जा सके| सही एवं शुद्ध रिकार्ड न्यायालय की प्रक्रिया में सुधार लाते हैं क्योंकि दावे के समस्त पक्षकार और न्यायाधीश सभी जानते हैं कि उनका व्यवहार रिकार्ड पर है |


दृश्य श्रव्य रिकार्डिंग से न्यायिक प्रक्रिया का संरक्षण होता है क्योंकि इससे सभी पक्षकारों  को वास्तविक कार्यवाही के प्रति जिम्मेदार ठहराये जाने के लिए इसे मोनिटरिंग उपकरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है| न्यायिक प्रक्रिया और प्रोटोकोल का सही सही एवं संकलित और पूर्ण विवरण  प्रदान करने से यह प्रणाली नागरिकों को अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति प्रेरित करती है जिससे  अंततोगत्वा न्यायसदन में न्यायाधीश और पक्षकार दोनों के निष्पादन में सुधार आता है| यह ज्ञात होने पर कि इसे न्यायाधीश द्वारा विस्तार से देखा जा सकता है पक्षकार अधिक स्पष्ट और सही बयान देंगे| न्यायिक आचरण भी इससे मोनिटर किया जा सकता है और इससे अपील के आधारों की स्पष्टता और प्रमाणिकता बढती है |परिणामतः इससे निर्णय देने और मामला प्रस्तुत करने सम्बंधित प्रोटोकोल और व्यावसायिकता का निर्णयन में सही उपयोग करने को प्रोत्साहन मिलता है| न्यायाधीशों की  समयनिष्ठा एवं अनुशासनबद्धाता के साथ-साथ न्यायिक प्रक्रिया में  दुरभिसंधियों पर भी इससे अंकुश लगता है| भारत में यद्यपि एक लाख बैंक शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण  का कार्य दस वर्ष में पूर्ण कर लिया गया किन्तु 1991 में प्रारम्भ की गयी इ-कोर्ट योजना के अंतर्गत अभी तक 20 हाई कोर्ट भी पूरी तरह कम्प्यूटरीकृत नहीं हो पाए हैं और उनके आदेश एवं निर्णय तक उपलब्ध नहीं हैं| मद्रास हाई कोर्ट द्वारा तो आज भी निर्णय की प्रति पुरानी  टाइप मशीन से ही टाइप करके दी जाती है|  उक्त तथ्य देश की न्यायपालिका से जुड़े लोगों की निष्ठा और समर्पण पर गंभीर प्रश्न उठाते हैं चाहे वे भाषण में कुछ भी कहते रहे हैं  | 

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22