Author Topic: Articles by Scientist Balbir Singh Rawat on Agriculture issues-बलबीर सिंह रावत ज  (Read 25941 times)

Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड में पशु चारा उत्पादन की सम्भावनायें 
 

                     -डा . बलबीर सिंह रावत

 




[भारत में उत्तराखंड में पशु चारा उत्पादन, हरिद्वार में पशु चारा उत्पादन, देहरादून में पशु चारा उत्पादन, पौड़ी में पशु चारा उत्पादन, टिहरी में पशु चारा उत्पादन, उत्तरकाशी में पशु चारा उत्पादन, उत्तरकाशी में पशु चारा उत्पादन, चमोली में पशु चारा उत्पादन, रुद्रप्रयाग में पशु चारा उत्पादन, नैनीताल में पशु चारा उत्पादन, उधम सिंग नगर में पशु चारा उत्पादन, अल्मोड़ा में पशु चारा उत्पादन, बागेश्वरमें पशु चारा उत्पादन, पिथोरा गढ़ में पशु चारा उत्पादन, चम्पावत  में पशु चारा उत्पादन लेखमाला ]

                दूध व्यवसाय के लिए अधक दूध देने वाली गाय, भैंस नस्लें पालने से ही लाभ मिलता है। अधिक दूध देने वाले जानवरों की खिलाई पिलाई भी समुचित रूप से होनी चाहिए। पशु को आहार तीन कामों के लिए चाहिए, 1. अपने शरीर को बनाए रखने के लिए, 2. शरीर के अलावा दूध बनाने के लिए , और 3. ग्याभन होने पर, बच्चे के बढाव के लिए। दिन भर की खुराक का अंदाजा लगाने के लिए पशु का वजन मालूम होना चाहिए। एक संकर गाय का भार 350-450 किलो, भैंस का भी इतना ही, देसी, पहाड़ी गाय का 250-350 किलो। चारे में सुष्क पदार्थ के आधार पर 2.5 किलो प्रतिप्रति 100 किलो वजन शरीर के लिए और इसके ऊपर दूध की प्रतिदिन मात्रा के हिसाब से और ग्याभन गाय के महीनो के हिसाब से अतिरिक्त खुराक देनी हिती है।
 चारे सूखे बी होते है, जैसे भूसा, कर्बी (मडुआ, कौनी झंगोरा के सूखे तनों पत्तियों का भाग) और जंगल से काटी सुखाई घास ( ऊला ) सूखे चारे में शुष्क भाग 90-95% होता है, और हरे चारे में 15-25 % . हरा चारा अगर बरसात में मक्की का है तो शुरू में 15 %, व बाद में 20 से 25 % तक। चूंकि शुष्क भाग की गणना से एक 450 किलो वजनी 15-20 किलो दूध देने वाले जानवर को 100 किलो तक हरी घास का राशन बनता है तो घास की मात्र कम की जाती है और उसकी आपूर्ति दाने से होती है। सही राशन का हिसाब लगाने के लिए नजदीकी पॉशुपालन विभाग की डिस्पेंसरी से संपर्क कर के चार्ट लेना श्रेयकर ही।

                 भारत में सन 2015 तक 3220000000 दुधारू जानवर होंगे . इसका सीधा अर्थ है कि  चारे की कमी बनी रहेगी और चारे से कमाई के स्रोत्र बढ़ेंगे . उत्तराखंड में चारे की खपत और पूर्ति में अधिक अंतर है . 2007 में चारा -मांग-पूर्ति में  अंतर इस प्रकार था

हरिद्वार - 41.64 % कमी

देहरादून -50 %कमी

पौड़ी -55.12 %कमी

 टिहरी -49.59 %कमी

उत्तरकाशी 17.88 %कमी

चमोली -34.90%कमी

रुद्रप्रयाग -51.91 %कमी

नैनीताल -50.72 %कमी

उधम सिंह नगर -10.1%कमी

अल्मोड़ा - 46.48 %कमी

बागेश्वर -43.56%कमी

पिथोरागढ़ 55.47%कमी

चम्पावत -46.64%कमी

अत : चारा उत्पादन नये किस्म का रोजगार दिला सकता है और कमाने का नया तरीका भी हो सकता है


                           उत्तराखंड के मैदानी भागों मे तो हरा चारा उगाया जाता है , जैसे बरसीम, जई जाड़ों (रबी) में और , मक्का, ज्वार गर्मी बरसात (खरीफ) में। पर्वतीय इलाकों में अधिक मात्र में हरा चारा उगाना इतना आसान नहीं है, क्यों की न तो सिंचाई पर्याप्त है और न ही खेती की जमीन इतनी बड़ी। इसी लिए परंपरागत पशु चारा हैं : सुखाई जंगली घास, पेड़ों के हरे पत्ते व कोमल डंठल, खेतो में लगाए गए भीमल, खडिक के इत्यादि के पेडौं से, जंगलों से बांज इत्यादि के हरे पत्ते ( अब धीरे धीरे वन बिभाग ग्रामीणों के बन अधिकार कम करते करते लगभग शून्य कर चुका है). इसके अलावा, गुडाई, नलाई के समय निकला हुआ हरा खर पतवार।

अनाज लवाई के बाद बचे अंश को भी, जैएसे क्व्देट, झुन्ग्रेट,गेहू का चिलाऊ, उरद दाल की भूस्सी, इत्य्यादि . यह भी परंपरागत रिवाज था कि सारे जानवर,चराने के लिए जंगल ले जाए जात थे और दूध केवल घर के लिए ही उत्पादित किया जाता था, क्योंकि प्राय: हर किसान घर गाय बैल अपने ही लिए पालता था ।




                                   जब से दूध बेच कर घर की आय बढाने का विकल्प खुला है तब से दूध उत्पादन एक व्यवसाय बन गया है और कम लागत से अधिक दूध उत्पादन की तकनीक, एक विज्ञान।. इस विज्ञान के अनुसार, पशु की नश्ल अदिक दूध देने वाली हो, उसे खूंटे से बंधा रखा जाय ( दूध उत्पादन अपने में ही बहुत बड़ी कररत है, और चराने ले जाने से दूध की मात्र कम हो जाती है। पशु के जीवन काल में, संकर गाय ढाई साल में (250 किलो वजन) में बियाह जानी चाहिए, और 310 दिन दूध में, 60-70 दिन सूखे, और फिर बियाह जाना, यह क्रम पूरे जीवन चलना चाहिए। भैंस साढ़े तीन साल में बिहाती है, इसके सूखे दिन 6-9 महीने होते हैं, हाँ इसके दूध में वसा 6% या अधिक होती है तो गाय के दूध से एक तिहाई अधिक दाम मिल जाते है।

 नश्ल और उत्पादकता का यह अंतर, खिलाई पिलाई में भी जरूरी होता है। जहां भैस सूखे भूसे और दाने से, अपनी नश्ल के अनुसार ठीक दूध देती है, वही गाय को, विशेष कर संकर गाय को, हरा चारा, कम से कम दस किलो रॊज तो देना ही चाहिए।

पर्वतीय क्षेत्रो में नदी की घाटियों में कुछ गर्मी रहती है, जाड़ों में तुषार न के बराबर पड़ता है तो वहाँ बरसीम अक्टूबर में बो कर, दिसंबर से मई तक ली जा सकती है। जई का चारा भी उगाया जा सकता है।

ऊचे ठन्डे इलाकों में बरसीम मार्च शुरू में बो कर मई से जुलाई तक उपलब्ध सो सकती है। मक्का , चारी तो घाटी चोटी दोनो क्षेत्रों में उगाई जा सकती है . इस हरे चारे के साथ, अगर साग सब्जी भी उगते हों तो फली निकालने के बाद बचे मटर के पौधे अच्छी खुराक देते हैं। गजराज घास एक बारामासी घास है, इसको को सीढी नुमा खेतों की मेंड़ों में लगा कर भी हरा चारा लिया जा सकता है। ये घास भूमि कटाव को रोकता है , तो इसेढलान वाले सार्वजनिक चरागाहों में भी लगाया जा सकता है। खेती की सारियों में अधिक से अधिक चारे वाले पेड़ों की संख्या भी बढाते रहने से चारे की उपलब्धि सुनिश्चित की जा सकती है।

दूध का व्यवसाय करने के लिए जंगल तथा घास क्षेत्रों (grass lands ) से काटी गयी हरी घास को जितना हरी काटेंगे, उतनी ही उसमे पौस्तिकता अधिक होगी। चूंकि यह घास बरसात में होती है तो सितम्बर मध्य से जब धुप अधिक मिलना शुरू होती है, इसे काट कर सुखाया जा सकता है। देर से, बीज और डंठल पक्का हो जाने पर इस उसुखायी घास की पौस्तिकता भी कम होजाती है और इसे पचाने के लिए पशु को अधिक उर्जा खर्च करनी पड़ती है , इसलिए घास काटने और सुखाने के ज्ञान को लेना (the technique of good hay making ) जरूरी है।

                               पार्वती क्षेत्रों में पशुओं की अच्छी खिलाई पिलाई करने के लिए, सुखी, हरी घास तथा संतुलितित दाने की मिली जुली व्यवस्था करना जरूरी है। और इतना ही जरूरी है पर्याप्त साफ़ पानी और खनिजों की आपूर्ति।

दूध का व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है जो सुबह 4 बजे से रात के 10 बजे तकाद्मी को व्यस्त रखता है। इसलिए शुरू करने से पाहिले सुनिश्चित करना ठीक रहता है की क्या पर्याप्त श्रम शक्ति है, और क्या इस व्यवसाय ने दिलचस्पी है? , .

बल्बिर सिंह रावत ..

  [भारत में उत्तराखंड में पशु चारा उत्पादन, हरिद्वार में पशु चारा उत्पादन, देहरादून में पशु चारा उत्पादन, पौड़ी में पशु चारा उत्पादन, टिहरी में पशु चारा उत्पादन, उत्तरकाशी में पशु चारा उत्पादन, उत्तरकाशी में पशु चारा उत्पादन, चमोली में पशु चारा उत्पादन, रुद्रप्रयाग में पशु चारा उत्पादन, नैनीताल में पशु चारा उत्पादन, उधम सिंग नगर में पशु चारा उत्पादन, अल्मोड़ा में पशु चारा उत्पादन, बागेश्वरमें पशु चारा उत्पादन, पिथोरा गढ़ में पशु चारा उत्पादन, चम्पावत में पशु चारा उत्पादन लेखमाला   जारी             

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  पशु चारा उत्पादन
                                                                               
                                                                  -  डा . बलबीर सिंह रावत
 


दूध व्यवसाय के लिए अधक दूध देने वाली गाय, भैंस नस्लें पालने से ही लाभ मिलता है। अधिक दूध देने वाले जानवरों की खिलाई पिलाई भी समुचित  रूप से होनी चाहिए। पशु को आहार तीन कामों के लिए चाहिए, 1. अपने शरीर को बनाए रखने के लिए, 2. शरीर के अलावा दूध बनाने के लिए , और 3. ग्याभन होने पर, बच्चे के बढाव के लिए।  दिन भर की खुराक का अंदाजा लगाने के लिए पशु का वजन मालूम होना चाहिए। एक संकर गाय का भार 350-450 किलो, भैंस का भी इतना ही, देसी, पहाड़ी गाय का 250-350 किलो। चारे में सुष्क पदार्थ के आधार पर 2.5 किलो प्रतिप्रति 100 किलो  वजन शरीर के लिए और इसके  ऊपर दूध की प्रतिदिन मात्रा के हिसाब से और ग्याभन गाय के महीनो के हिसाब से अतिरिक्त खुराक देनी हिती है।
चारे सूखे बी होते है, जैसे भूसा, कर्बी (मडुआ, कौनी झंगोरा के सूखे तनों पत्तियों का भाग) और जंगल से काटी सुखाई घास ( ऊला )  सूखे चारे में शुष्क भाग 90-95% होता है, और हरे चारे में 15-25 % . हरा चारा अगर बरसात में मक्की का है तो शुरू में 15 %,  व बाद में 20 से 25 % तक।  चूंकि शुष्क भाग की गणना से एक 450 किलो वजनी 15-20 किलो दूध देने वाले जानवर को 100 किलो तक हरी घास का राशन बनता है तो घास की मात्र कम की जाती है और उसकी आपूर्ति दाने से होती है। सही राशन का हिसाब  लगाने के लिए नजदीकी पॉशुपालन विभाग की डिस्पेंसरी से संपर्क कर के चार्ट लेना  श्रेयकर ही।

उत्तराखंड के मैदानी भागों मे तो हरा चारा उगाया जाता है , जैसे बरसीम, जई  जाड़ों (रबी) में और , मक्का, ज्वार गर्मी बरसात (खरीफ) में। पर्वतीय इलाकों में  अधिक मात्र में हरा चारा उगाना इतना आसान नहीं है, क्यों की न तो सिंचाई पर्याप्त है और न ही खेती की जमीन इतनी बड़ी। इसी लिए  परंपरागत पशु चारा हैं : सुखाई जंगली घास, पेड़ों के हरे पत्ते व कोमल डंठल, खेतो में लगाए गए भीमल, खडिक के इत्यादि के पेडौं से, जंगलों से बांज इत्यादि के हरे पत्ते ( अब धीरे धीरे वन बिभाग ग्रामीणों के बन अधिकार  कम करते करते लगभग शून्य कर चुका है). इसके अलावा, गुडाई, नलाई के समय निकला हुआ हरा खर पतवार। 
अनाज  लवाई के बाद बचे अंश को भी, जैएसे क्व्देट, झुन्ग्रेट,गेहू का चिलाऊ, उरद दाल की भूस्सी, इत्य्यादि . यह भी परंपरागत रिवाज था कि सारे जानवर,चराने के लिए जंगल ले जाए जात थे और दूध केवल घर के लिए ही उत्पादित किया जाता था, क्योंकि प्राय: हर किसान घर गाय बैल अपने ही लिए पालता था ।

जब से दूध बेच कर घर की आय बढाने का विकल्प खुला है तब से दूध उत्पादन एक व्यवसाय बन गया है और कम लागत से अधिक दूध उत्पादन की तकनीक, एक विज्ञान।. इस विज्ञान के अनुसार, पशु की नश्ल अदिक दूध देने वाली हो, उसे खूंटे से बंधा रखा जाय  ( दूध उत्पादन अपने में ही बहुत बड़ी कररत है, और चराने ले जाने से दूध की मात्र कम हो जाती है।  पशु के जीवन काल में, संकर गाय ढाई साल में (250 किलो वजन) में बियाह जानी चाहिए, और 310 दिन दूध में, 60-70 दिन सूखे, और फिर बियाह जाना, यह क्रम पूरे जीवन चलना चाहिए। भैंस साढ़े  तीन साल में बिहाती है, इसके सूखे दिन 6-9 महीने होते हैं, हाँ इसके दूध में वसा 6% या अधिक होती है तो गाय के दूध से एक तिहाई अधिक दाम मिल जाते है।
 नश्ल और उत्पादकता का यह अंतर, खिलाई पिलाई में भी जरूरी होता है। जहां भैस सूखे भूसे और दाने से, अपनी नश्ल के अनुसार  ठीक दूध देती है, वही गाय को, विशेष कर संकर गाय को, हरा चारा, कम से कम दस किलो रॊज तो देना ही चाहिए।
पर्वतीय क्षेत्रो में नदी की घाटियों में कुछ गर्मी रहती है, जाड़ों में तुषार न के बराबर पड़ता है तो वहाँ बरसीम अक्टूबर में बो कर, दिसंबर से मई तक ली जा सकती है। जई का चारा भी उगाया जा सकता है।
ऊचे ठन्डे इलाकों में बरसीम मार्च शुरू में बो कर मई से जुलाई तक उपलब्ध सो सकती है। मक्का , चारी तो घाटी चोटी दोनो क्षेत्रों में उगाई जा सकती है . इस हरे चारे के साथ, अगर साग सब्जी भी उगते हों तो फली निकालने के बाद बचे मटर के पौधे अच्छी खुराक देते हैं।  गजराज घास  एक बारामासी घास है, इसको को सीढी नुमा खेतों की मेंड़ों में लगा कर भी हरा चारा लिया जा सकता है। ये घास भूमि कटाव  को रोकता है , तो इसेढलान वाले सार्वजनिक चरागाहों में भी लगाया जा सकता है। खेती की सारियों में अधिक से अधिक चारे वाले पेड़ों की संख्या भी बढाते रहने से चारे की उपलब्धि सुनिश्चित की जा सकती है।
दूध का व्यवसाय करने के लिए जंगल तथा घास क्षेत्रों (grass lands ) से काटी गयी हरी घास को जितना हरी काटेंगे, उतनी ही उसमे पौस्तिकता अधिक होगी। चूंकि यह घास बरसात में होती है तो सितम्बर मध्य से जब धुप अधिक मिलना शुरू होती है, इसे काट कर सुखाया जा सकता है। देर से, बीज और डंठल पक्का हो जाने पर इस उसुखायी घास की पौस्तिकता भी कम होजाती है और इसे पचाने के लिए पशु को अधिक उर्जा खर्च करनी पड़ती है , इसलिए घास काटने और सुखाने के ज्ञान को लेना (the technique of good hay making ) जरूरी है।
पार्वती क्षेत्रों में पशुओं की अच्छी खिलाई पिलाई करने के लिए, सुखी,  हरी घास तथा संतुलितित दाने की  मिली जुली व्यवस्था करना जरूरी है। और इतना ही जरूरी है पर्याप्त साफ़ पानी और खनिजों की आपूर्ति। 
दूध का व्यवसाय एक ऐसा व्यवसाय है जो सुबह 4 बजे से रात के 10 बजे तकाद्मी को व्यस्त रखता है। इसलिए शुरू करने से पाहिले सुनिश्चित करना ठीक रहता है की क्या पर्याप्त श्रम शक्ति है, और क्या इस व्यवसाय ने दिलचस्पी है?                   ,     .                 
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उत्तराखंड में  पुष्प उत्पादन उद्द्योग संभावनाएँ

                                                      Floriculture in Uttarakhand




                                        डा बलबीर सिंह रावत





[ Floriculture in Uttarakhand; Floriculture in Haridwar-uttarakhand,Floriculture in Dehradun,uttarakhand;Floriculture in Uttarkashi, Uttarakhand; Floriculture in Tihri Garhwal,Uttarakhand;Floriculture in Pauri Garhwal, Uttarakhand;Floriculture in laindown  Garhwal, Uttarakhand; Floriculture in Dwarihat, Uttarakhand;Floriculture in Udham Singh Nagar, Uttarakhand;Floriculture in Haldwani, Uttarakhand;Floriculture in Ranikhet, Uttarakhand;Floriculture in Nainital, Uttarakhand;Floriculture in Almoda,  Uttarakhand;Floriculture in Champavat, Uttarakhand;Floriculture in Bageshwar,Uttarakhand;Floriculture in Pithoragadh, Uttarakhand series]


मन को हर्षित कर देने वाला शब्द फूल , पुष्प ,रंगौ, सुगंधियों से भरपूर . जिसको दो उसको हर्षित कर के अपने हित में मिला लो। भगवान् को चढाओ, बर माला बनाओ, जन्म दिन में, सालगृह में,स्वागत समारोहों में, मेल मुलाकातों में, भोजनालयों, होटलों की मेजों में, घर के गमलों में,श्र्धांज्लियों में,हर जगह फूल ही फूल। कहने का तात्पर्य यह है कि हर मौके के लिए तरह तरह के फूलों की मांग है, और जैसे जैसे, लोगों की आमदनी और रूचि बढ़ती रहेगी, वैसे वैसे फूलों के मांग हर मौसम में बढ़ती रहेगी . यही बढ़ती मांग है जो पुष्प उत्पादन के व्यवसाय को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त है।

 

 वैश्विक स्तर पर फूल उद्योग 10 प्रतिसत प्रतिवर्ष  बढ़ रहा है याने कि फूल उद्योग दिनों दिन फल फूल रहा है . एक आकलन के हिसाब से सन 2015 में फूल उद्योग  9 लाख करोड़  का हो जाएगा। .जर्मनी ,अमेरिका, ब्रिटेन , फ़्रांस ,हौलैंड और स्विट्जर लैंड दुनिया के अस्सी प्रतिशत फूल आयात कर्ता देश हैं . ग्लोबल मार्केटिंग के कारण आज तेल अवीव ,दुबई और कुनमिग फूलों के नये विक्री वितरण केंद्र बन गये हैं .

  जहां तक भारत का प्रश्न है यह उद्योग हर साल तीस प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रहा है . सन 2015 में भारत का फूल निर्यात 8000 करोड़ रूपये का हो जाएगा . गुलाब का फूल सबसे अधिक निर्यात होता है अभी भारत में कर्नाटक भारत का 75 प्रतिशत पुष्प निर्यातक प्रदेश है . इसके बाद क्रमश: महाराष्ट्र , तमिलनाडु, बिहार ,पश्चिम बंगाल ,उत्तरप्रदेश ,हरियाणा,पंजाब , जम्मू-कश्मीर ,आन्ध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश  का नम्बर आता है .

    पुष्प उद्योग में जहाँ तक उत्तराखंड का प्रश्न  है अभी इसमें प्रगति नही हुयी है . डा निशंक ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में 2000 रूपये प्रति वर्ष का टार्गेट रखा था .

एक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखंड में 300 प्रकार के निर्यातगामी फूल उगाये जा सकते है .इसके  उत्तराखंड में और  भारत में भी अंतर्देशीय उपभोक्ता हैं . भारत में 10000 करोड़ के फूल बिकते हैं याने की आतंरिक खपत भी फूल उद्योग वृद्धि को प्रेरित करता है 

               इस तरह हम पाते हैं कि उत्तराखंड में पुष्प उद्योग की अपार संभावनाएं हैं और प्रतेक उत्तराखंडी को इन संभावनाओं से लाभ लेना ही चाहिए .   
 

            पुष्प उत्पादन , कृषी के अन्य उत्पादनों से भिन्न है। भिन्न इसलिए है कि इसके उत्पादों को अन्तिम उपभोक्ता तक उसी सुन्दर रुप में पहुचाना पड़ता है, जिसमे रूचि और मौके के अनुसार आकर्षण हो, यानि, पुष्पों में रंग पूरे, ताजगी पूरी और आकर्षण पूरा सुरक्षित रहना चाहिए जो उसका प्रमुख नैसर्गिक गुण है। इन्ही विशेष कारणों से पुष्प उत्पादन व्यवसाय की एक अपने में अलग ही विशेष विशेषग्यता है।

सब से पाहिले यह जानना जरूरी है की आपके इलाके में कौनसे पुष्प सब से अच्छे उगाये जा सकते हैं। यह सलाह आपको प्रदेश के बागवानी और फ़्लोरिकल्चर विभाग से मिलेगी। कृषि विश्व विद्य्यालय से भी जानकारी तथा पर्शिक्षण मिल सकता है। किसी सफल पुष्प कृषक के फार्म में जा कर देख पूछ कर व्यवसाय की जानकारी मिलती है। इन सब प्रार्थमिक सूचनाओं के आधार पर आप अपना बिचार व्यवहार में ला सकते है।पुष्प उत्पादन में दो शाखाये हैं, फूल जैसे के तैसे बेचने का और सुगन्धित फूलों से इत्र बनाने का . दोनों साथ साथ भी चल सकते हैं।




इस व्यवसाय को शुरू करने के लिए पर्याप्त पूंजी , समुचित तकनीकी ज्ञान, दक्ष श्रम शक्ति और नियमित स्थाई बाजार का होना आवश्यक है । खेत की मिट्टी की जांच करा लीजिये, जैविक खाद और उर्वरकों का प्रबंध कर लीजिये, सिचाई की नियमित व्यवस्था जरूरी है। बीज/पौध का प्रबंध,समय पर बुआई, रोपाई , नियमित सिंचाई (सब से उत्तम है ड्रिप तरीका ), गुडाई, पौध संरक्षण के लिए जो रसायन चाहियें, सुनिश्चित कर लीजिये की वे नियम कायदों के अनुरूप हों, बाजार के फुटकर विक्रेताओं की सलाह पर न चलिए, वे अपने मुनाफे को ध्यान में रखते हैं, आपके और ग्राहकों के हित को नहीं। तो सरकारी या विश्वविद्यालयों के विज्ञान केन्द्रों से ही सलाह लीजिये और केवल मान्यता प्राप्त उत्पादक संस्था के ही रसायन उपयोग में लाईये। कुछ महंगे अवश्य होंगे परन्तु आपकी विस्वशनीयता बनी रहेगी, जो इस धंदे के लिए परम आवश्यक है। खेत खुले और पोली हाउस तरह के हो सकते हैं।ये भी ध्यान रहे कि फूलों के पौधों को धूप की पूरी रोशनी मिलती रहे। खाद, उर्वरक, कीट और फफूंद नाशक द्रव्यों का समयानुसार छिडकाव, समुचित (न कम न अधिक) सिंचाई, निर्धारित समय पर निर्धारित मात्रा में होती रहे। फूल जितने कोमल होते हैं उनकी देख रेख भी उतनी ही कोमलता से करनी होती है। यह व्यवसाय अधिक निवेश और ध्यान माँगता है, और अधिक लाभ तो देता ही है , अधिक संतुष्टि भी देता है। {रबीन्द्र नाथ टेगोर ने अपनी एक कविता में कहा भी है कि (भावार्थ) जब निराशा घेर ले तो पुष्प उगाओ , खिलते पुष्प को देखने से जो आनंद मिलता है उससे निराशा भाग जाती है ।}




जब फूल खिलने लगते हैं  तो उन्हें उसी समय , ऐसी लम्बाई और आकार में , काट कर पौधों से अलग करना चाहिए जिस आकार और स्तिथि में वे बाजार के फूल बिक्रेता की दूकान पर पहुंच जाय। यह

ध्यान में रखना होता है कि कटा भाग अब भी ज़िंदा है और वोह बढ़ भी रहा है, मरा नहीं है। अंतिम ग्राहक के पास पहुचने तक उसे उस रूप में होना चाहिए जिसमे उसे ग्राहक चाहता है। फूलों का यह कुछ समय तक जीवित और बढ़ते रहने का गुण अलग प्रजाति का अलग अलग होता है . इसी कारण पुष्प उत्पादन में दक्षता पूरी होनी चाहिए कि किस फूल को कब काटना है, और किस बाजार के लिए काटना है। नजदीक के,, दूर के, विदेश के। कैसे साधन से भेजना है ? यह सारी विशेषताए मायने रखती हैं, आपकी विश्वसनीयता और मुनाफे के लिए।

पौधों से अलग करने पर फूलों को इस प्रकार पैक करना होता है की उनके किसी भी भाग को कोई खरोंच तक न आय। इसलिये पाकिंग और लदान, ढुलान के लिए विशेष प्रकार के कागज़ , कपडे, बक्शे, कंटेनर, जो भी आवश्यकता होती है, उसे पूरी करना चाहिए क्योंकि इन जरूरतों के साथ छोटी से छोटी भी लापरवाही भी महंगी पड़ती है। पूरा का पूरा माल वापस तो आएगा ही, आगे का धंदा भी हाथ से जा सकता है।

कटे फूलों के अलावा फूलों के बीज, कलमें, गांठें,तने, जिस से भी ने पौधा बनता है ओह, उगे पौध, खिलते फूलों के पौधे भी आसानी से बिकते हैं। ऐसे व्यापार के लिए प्रशिक्षित श्रम शक्ति अधिक चाहिए , केवल खानदानी माली होने से ही काम नहीं चलता ,अनुभव महत्व पूर्ण है। इसलिए माली लगाने से पाहिले उसकी पृष्ठ भूमि जाचना हितकारी होता है।

आर्थिक दृष्टि से उचित आकर के क्षेत्र में ही फूलों की खेती करनी चाहिए। येआ आकर इस पर निर्भर करेगा की बाजार में आपके कौन कौन से फूलों की कितनी मांग है, और उसी खेत्र में कितने और उत्पादक हैं। इसलिए पूरा समय लीजिये, सारी छन बीब कर के संतुष्ट होनर पर ही शुरू कीजिये। प्रारम्भिक झटके होते हैं, उनसे पार पाने के रास्ते समय पर आप निकाल सकें, इसके लिए सचेत रहिये। यह व्यवसाय पर्याप्त लाभ और प्रसन्नता देने वाला है।

--डॉ। बलबीर सिंह रावत.. BK OO6/25.12. ,                                 
dr.bsrawat28@gmail.com
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पहाड़ों में व्यापारिक खेती                                                                           डा . बलबीर सिंह रावतकिसी भी व्यवसाय की सफलता इस बात पर निर्भर होती है की उत्पादन की लागत न्यूनतम हो, बिक्री के खर्चे भी कम रहें और अधिक से अधिक मूल्य पर उत्पादित वस्तुएं बिकती रहें। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि आपके अपने साधनों के अनुरूप आपके लिए क्या सबसे अच्छा रहेगा। जब बिचार कर रहे हों तो 4-5 विकल्प सामने रखिये। जैसे, क्या साग सब्जी उगायं , या जडी बूटी, या दलहन,या तिलहन, या फिर दूध उत्पादन . हर व्यवसाय की बारीकिया जाचने और तुलना करने पर ही निर्णय लेना हितकर होता है कि आप को कौन सा सबसे अच्छा, सबसे सुगम और सब से अधिक सुविधाजनक लगता है,जरूरत हो तो प्रशिक्षण/मार्गदर्शन भे लेलीजिये।व्यवसाय के चुनाव के बाद, उसे स्थापित करने की आवश्यकताओं को विस्तार से सूचीबद्ध कीजिये,उनकी गुणवत्ता, मूल्य, उपलब्धि की सुगमता, प्रयोग में लाने की तकनीकियाँ, श्रम शक्ति की आवश्यकता  का आंकलन कने के बाद एक प्रोजेक्ट बनाइये और उसकी संम्भाव्ना रिपोर्ट  (feasibility report) बनाईये। ये शब्द नए हैं जरूर, लेकिन आप अपने आप बना सकते हैं अगर पाहिले से खेती करते आ रहे है तो। हाँ अगर बैंक से कर्ज लेना है तो किसी जानकार से ही बनवानी पड़ेगी।उपरोक्त सारी बातें तभी सार्थक हैं जब खेतों का आकार आर्थिक रूप से लाभदायक खेती करने के लिए सामान्य आकर का हो। मान लीजिये आपको सालाना 600,000 की शुद्ध आमदनी करनी है, और जो भी फसल आप उग रहे हैं उससे प्रति क्विंटल 200/- शुद्ध लाभ हो रहा है तो आपको 3,000 क्विंटल उत्पाद उगाने होंगे। प्रति बीघा अगर उपज 10 क्विंटल है तो 310 बीघा (10 बीघा  बिपरीत सम्भाव्नाओं के संतुलन के लिए रखिये)।  उपज अगर आधी है तो भूमि का अकार दुगुना होगा। या फिर मुनाफे का लक्ष्य घटाना होगा। इसी उपज:भूमि:लाभ के अनुपात से कुल आवश्यक जमीन का हिसाब लगा कर और मिल सकने का पता कर लीजिये। पूरी भूमि एक ही स्थान पर हो तो उत्तम रहता है, उत्पादन लागत कम आयेगी। लेकिन पर्वतीय खेत्रों में यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि वहाँ  एक ही स्वामित्व के भूमि के टुकड़े सीढी नुमा खेतों में पूरी सारियों- डंडों में फैली होती हैं। आजकल सरकारी प्रोत्साहन से स्वेच्छिक चकबंदी का काम चल रहा है , या तो इसे अपना कर, या फिर प्रवासियों की भूमि लम्बे काल के लिए किराए/ बटिया  (पहाड़ों में इसे तिहाड़ पर देना/लेना कहते हैं), यह परम्परागत व्यवस्था है और सरकार को इसे मान्यता देकर, विधिक रूप से सम्भव बना देना चाहिए, वैसे भी कोई कानूनी अड़चन इसमें नहीं होनी चाहिए।   अगर आप ने कोइ प्रसंस्करण उद्द्योग लगाना है , जैसे साग सब्जी, का, जडी बूटी का, फलों के रस, जेम इत्यादि का, तो अप ठेके पर इलाके किसानो से खेती करवा सकते हैं या केट ही ठेके पर ले कर एक फ़ार्म की तरह उपजें ले सकते हैं।  हमारे परंपरागत प्रसंस्करण उद्द्योग थे सब्जियों के सुक्से , दाल की बड़ी इत्यादि। इन्हें ही आधुनिक टेक्नोलोजी से डिहाइडरेशन प्लांट लगा कर मूला, करेला , लौकी, गोभी , पालक, प्याज, मेथी , राई, इत्यादि सब्जियीं के सयंत्र लगा सकते हैं।  लेकिन ताजे उत्पादों का बड़े स्तर पर एक ही स्थान में उत्पादन करने के लिए या तो सारे किसान, या फिर सब के खेतो को किराये, बतिया, ठेके पर ले कर खेती कर भी और करवा भी सकते नैन। संभावनाएं हैं , उद्द्य्मिता का हौसला होना चाहिए। हाँ व्यापार को चरणों में भी बाधा सकते हैं। जैसे जैसे  अनुभव और विश्वाश बढ़ता जाएगा आप व्यवसाय का आकार भी बढायेगें तो आपकी सफलता देख कर अन्य किसान आप से स्वयम जुड़ना चाहेंगे, या आसानी से जुदाए जा सकेंगे।       dr.bsrawat28@gmail .com,                  के

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पहाड़ों  में  औद्योगिकीकरण



                                      डा . बलबीर सिंह रावत



 मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ की अभी तक उत्तराखंड की औद्योगिक संभावनाओं का कोई सार्थक आंकलन ही नहीं हुआ है। केवल मैदानी भागों में सिडकुल बनाने को ही पूरे राज्य का औध्योगीकर्ण समझा जा रहा है। मेरे बिचार से उत्तराखंड की उद्योग संबंधी संभावनाए निम्न क्षेत्रों में हैं:

1. नईं टेक्नोलोजी के: हलके वजन वाले बड़ी कीमत के उत्पाद, जैसे बिभिन्न इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के चिप, महंगे और प्रेसिजन ऑप्टिक्स उत्पाद, सर्जरी के नाना प्रकार के उपकरण,सौर ऊर्जा के उपकरण इत्यादि।

2. घरेलू और उद्योग में काम आने वाले ऊंची दामों वाले साजो सामान, तथा कल पुरजे, अति धन्याड्यो हेतु कुटीर वस्तु उत्पादन

3.उन उद्द्योग , ऊनी कपडे और बुनाई वाले वस्त्र जो गुणवता में सर्वश्रेष्ट हो (खाड़ी बोर्ड वाले निम्न श्रेणी के माल बनाते हैं) इसके लिए उच्च परिस्कृत टेक्नोलोजी का समावेश,
 4. फल उद्द्योग की इतनी सम्भावानाये हैं कि आधे भारत को विभिन्न प्रकार के मौसमी और बेमौसमी फलो से पूरी आपूर्ति की जा सकती है, बशर्ते की प्रति पेड़ उत्पादकता को आज के 2710 किलो प्रति हेक्टेयर के स्तर से दुगुना कर पाय। फल प्रसंस्करण उद्द्योग की असीम संभावनाए है। इसी तरह, सब्जियों और फूलों की खेती और प्रसंस्करण भी खासे अच्छे क्षेत्र हैं, जैतून , हजेल नट और अन्य प्रजातियों के नए भूमध्यसागरीय जलवायु वाले उत्पाद भी उगाये जा सकते हैं। सब्जियों के सुक्से ( vacuum dehydrated ) बना कर अच्छी कीमत पर बेचे जा सकते हैं।

5. बीज और पौध उत्पादन को भी औद्द्योगिक स्तर पर स्थापित किया जा सकता है। और यह एक प्रचलित कृषि आधारित कुटीर उद्योग के रूप में फैलाया जा सकता है।

6.सगन्ध के फूल, पत्ते और सुगन्धित तेलों का उत्पास्दन प्रसाधन और फार्मेसी उद्द्योगों के लिए बनाए जा सकते हैं

7.खेती से जडी बूटियाँ उगाकर, और जंगलों से इकट्ठा कर के आयुर्वेद की दवायें बनाने के उद्द्योग, बिभिन्न प्रकार के अचार, मुर्र्ब्बे , जेम, अवलेह इत्यादि के उद्द्योग लगाकर प्रदेश को स्वास्थ्य प्र्यत्तन से जिदा जा सकता, है।

8.पशु पालन में भेड़ मरीनो, अंगोरा खरगोश तथा तिब्बती बकरी से उन उद्द्योग, संकर गायों से दूध उद्द्योग की अपार संभावनाएं हैं , इसी तरह शहद उद्द्योग, मत्स्य उद्दोग ( शीतल जल की ट्रोट समेत) भी बढे लाभ दायक धंदे बनाए जा सकते हैं। .

9.बन उद्द्योग ओह क्षेत्र है जहां उत्तराखंड में अन्य उद्योगों से अधिक संभावनाए हैं, और येही क्षेत्र सबसे अधिग उपेक्षित भी हो रक्खा है। हम बजाय गोले और बालन की लकड़ी बेचने के अगर प्रसंस्करण और फर्नीचर उद्योग लगा कर, knocked down स्तिथि में उच्च कोटि का फर्नीचर बनाने के मध्यम स्तर के उद्द्योग लगा ले तो कई कई हजारों परिवारों को स्थायी रोजगार मिल सकता है। पेड़ कटान, ढुलान और पुनह वनीकरण अपने आप में एक उद्द्योग बनाया जा सकता है। वन उत्पाद जैसे गीन्ठी, तैड़ू, डंफू,पत्यूड पात का एकत्रीकरन व् विपणन और वन रिफार्म आवश्यक है     

10. पर्यटन  उद्द्योग ने प्रदेश में जड़ें जमा तो ली हैं परन्तु अभी प्रति प्रयत्त्क शुद्ध आय बहुत कम है। इस उद्द्योग को कुटीर व हस्तशिल्प उद्द्योग तथा साहसिक खेल और घुमंतू उद्द्योगों से जोड़ दिया जाय तो प्रति आगंतुक 2500-3000 रुपये अधिक की ऐसी आय हो सकती है जिसके 80-90% भाग प्रदेश में ही रुका रहेगा।

11.जल संसाधन उद्द्योग से मेरा आशय छोटे छोटे घराट स्तर के विदुत उद्द्योग से है, जिसकी 100% बिजली आस पास के 2-3 गाँव की अपनी हो और इस बिजली से कुटीर और लघु उद्द्योगों की इकाइया चलाई जा सकें और किसान अपने खाली समय में परिवार की आय बढ़ा सकें। इसी बिजली से सिंचाई और पेय जल समस्या का समाधान भी आसानी से हो सकता है।

अब सवाल बाधाओं का है। सबसे बड़ी बाधा है, half hearted approach की . औली का स्की क्षेत्र याद कीजिये। किसी अग्रिम सोच और पहल करने वाले नौकरशाह के दिमाग की उपज आज दुनिया के शीत कालीन खेल जगत में प्रचलित नाम है। लेकिन एक ही हुआ फिर वही "10 से 5" की ( केवल वेतन लेने की मनोबृति)। जब संकल्प ले कर कुछ नया, कुछ लाभदायक, कुछ हर एक के लिए , वोह सब कुछ , जिससे बृहद रूप से प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों का औद्द्योगीकरण तेजी से हो जाय, की मानसिक स्थिति और team work की भावना नहीं होगी बाधाएं बढ़ती रहेंगी।

तो मित्रो , मनन कीजिये, सुझाव दीजिये , जोडिये-घटाइये और अपने अपने स्तर पर ग्रामसभा के सरपंच से ले कर मंत्रियों, सचिवों, निदेशकों तक हर संभव साधन से पहुचाइये अपनी-हमारी बात . यही इंटरनेट का सार्थक उपयोग है।

बलबीर सिंह रावत   
dr.bsrawat28@gmail.com

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उत्तराखंड में पर्यटन उद्द्योग



                        डा . बलबीर सिंह रावत




"अतिथि देवो भव" की भावना भारतीय संस्कृति में बहुत प्राचीन है। आज के सन्दर्भ में अतिथि वोह है जो किसी के घर आता है और जो किसी क्षेत्र में आता है वो प्र्यट्टक कहलाता है। जहां तक आगंतुक के स्वागत और सत्कार का प्रश्न है , दोनों में कोई भेद नहीं है। प्र्यट्टन अब एक उद्द्योग बन गया है और इसके दो मुख्य वर्ग हैं, अंतरराष्ट्रीय और घरेलू . घरेलु, यानी डोमेस्टिक, प्रयट्टन के भी अपने उपवर्ग हैं, जैसे धार्मिक, सैलानी ,खेलकूद/साहसिक , स्वास्थ्य और घुमंतू/मनोरंजन । इन उपवर्गों के अपने उद्दयेश हैं , अपनी अपनी आवश्यक्ताएं हैं , और मेजमान क्षेत्र का यह उद्देश्य रहता है की आगंतुकों को हर प्रकार की सुविधाएं मिलें, उन्हें अपने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कोई कष्ट न हो। वे इतने प्रसन्न हों की क्षेत्र की यादें संजोने के लिए, अपनी अपनी सामर्थानुसार, क्षेत्र के प्रतीतात्मक साजो सामोन की खरीददारी भी जम कर करें । इस सब का अर्थ हुआ कि प्रयट्टन अब केवल धर्म या शौक नहीं रह गया है, यह एक बहुत बड़ा उद्द्योग हो गया है। इस उद्द्योग के कई स्वाधीन घटक हैं, जो अपने अपने दायरे में तो स्वाधीन हैं, लेकिन प्रयट्टकों और क्षेत्र के हितों की दृष्टि में एक दुसरे से सम्बन्धित हैं, हर एक घटक के सफल और आकर्षक संचालन के सम्मिलित प्रभाव से की दोनों की संतुष्टि का आकार निर्धारित होता है। ये घटक हैं :-




1.परिवहन व्यवस्था :अब भी लगभग 90% प्रयटक रेल से ही उत्तराखंड के चार रेल द्वारों तक आते हैं, यहाँ से आगे वे बसों, टेक्सियों द्वारा ही आगे की यात्रा पर जा पाते हैं। यह व्यवस्था भले ही कुछ सुधरी है है लेकिन, अब भी यात्रियों की चहेती नहीं बन पायी है। सुबह सुबह लम्बी लाइनें, अनिश्चितता, भीड़ के कारण सूचनाओं तक न पहुंचपाना, और इस कारण उत्पीडन की सम्भावना, परिवार के सदस्यों की चिंता . कई दिल की धड़कने बढाने वाली शंकाओं से (उत्तराखंडी लोगों के भले आचरण के बदौलत) निजात पाने पर आगे बढ़ने पर सड़कों के मोड़, रास्ते में कम समय का ठहरना, और शाम तक गंतव्य पड़ाव में रुक कर रात्रि विश्राम का प्रबंध करना , वोह भी किसी अनजान जगह पर।

आज की इलेक्ट्रोनिक सुब्धा के प्रयोग से आवागमन, रात्रि विश्राम, आगे की यात्रा और वापसी की यात्रा सब क ही टिकेट में हो सकती है। तो क्यों न यह अतिथि सत्कार का महत्वपूर्ण अंग बना दिया जाय?

दुसरे, इस धार्मिक याता के रास्तों में कई अन्य महत्व पूर्ण स्थल भी पड़ते हैं। क्यों न इनको भी मुख्या यात्रा का हिस्सा बना कर, इच्छुक यातियों को वहां रुकने, पूजा पाठ करने तथा उस स्थल पर बिभिन्न सांस्कृतिक कार्य कर्म दिखाए जायं ? इन स्थलों पर उत्तराखंड के हस्तशिल्प की वस्तुएं और स्थानीय महत्व के प्रतीक मेमेंटो बना कर अतिथियों को बेचने की व्यवस्था कर सकते है।

चूंकि, बसें, टेक्सिया , तेल पेट्रोल डीजल, सब बाहर से आता है, तो उत्तराखंड में केवल चालाक, परिचालक का वेतन ही रुकता है इस परिवहन उद्द्योग से तो इसके साथ हस्तशिल्प, कुटीर और लघु उद्द्योगों और सांस्क्रतिक कार्यक्रमों को जोड़ कर प्रति आगंतुक अधिक आय की जा सकती है।

2.सांस्कृतिक कार्यक्रम : रात्रि में हर पड़ाव, चट्टी में धार्मिक सान्स्कृतिक कार्य कर्म आयोजित किये जा सकते हैं, स्थानीय सांस्कृतिक दल सगठित करके, ऐसे कार्यक्रम बनाना, संचालित करना आसन काम है, बसरते की स्थानीय प्रमुख लोग दिलचस्पी लें और परिवहन व्यवस्था सा थे दे और जो यात्री ऐसी सुविधा का लाभ लेना चाहते हों उन्हें प्रोत्साहित किया जाय।

3.स्थानीय महत्व के मेंमेंटो : ए प्रतीक फोटो, वाल हैंगिंग, ऊनी/सूती/रेशमी वस्त्र, बांस/रिंगाल/ नलई, धातु इत्यादि, स्थानीय उपलब्ध सामानों से बनाए जा सकते हैं। हाँ, ए उत्पाद आकर्षक और स्थानीय मोतिभों से सुअज्जित होंगे तो ही आकर्षक होंगे, और बिक सकेंगे।

4.हस्त शिल्प , कुटीर और लघु उद्द्योग : उत्तराखंड को प्रकृति ने इतनी बहुलता से नाना प्रकार की आकर्षक बनस्पतियों, रंग बिरंगे फूलों पत्तियों और नदी पर्वतों के लुभावने दृश्यों से परिपूर्ण किया हुआ है की इन में से अति सुन्दर और लुभावने आकारों को उपरोक्त उद्दोग्यों की वस्तुओं में उकेर कर बड़े पैमाने में उत्पादन करके हर आगंतुक से औसतन 3,000/- की अतिरिक्त आय अर्जित की जा सकती है लेकिन इसके लिए पहल सरकार को ही करनी होगी क्योंकि, इस प्रदेश के लिए ऐसा स्वरोजगार नया नया है तो प्रवेश की झिझक अर्कार ही मिटा सकती है। एक बार यह नईं व्यवस्था चल पड़े तो फिर कई कई स्थानीय उद्द्यमी अपने आप इसे आगे बढायेंगे। हाँ इस में डिजाइन, रंग बस्तु का आकर, वजन, और उपयोगिता का समिश्रण विशिष्ट और आकर्षक होना जरूरी है।

5.प्रयट्टक गाइड और एस्कोर्ट दल: आदर्शनीय तो यह होता की जिन प्रदेशों से अधिक संख्या में यात्री आते है उनके पमुख अखबारों, व अन्य मीडिया में उत्तराखंड के दर्शनीय धार्मिक और अन्य स्थानों में अधिक से अधिक संख्या में आने का आमंत्रण, समय से कुछ पाहिले शुरू क्या जाय और वहीं से उनके ग्रुप बना कर उनके साथ उत्तराखंड के एस्कोर्ट आयन जो रास्ते में ही सबब को सूचित करें और उनकी यात्रा में सहयोग के लिए परिवहन व्यवस्था से तालमेल इस प्रकार बिथायं की उत्तराखंड के रेल स्टेशनों पर आते ही उन्हें गाइड मिलें और गंतव्य तक पहुचाने में सहायक बने। ऐसी व्यवस्था में श्री बद्रीनाथ, केदारनाथ मंदिर कमेटियां , कैलाश यात्रा प्रबंधक, नंदा देवी राज जात संयोजक और अन्य सभी सम्बंधित संस्थाएं तथा दोनों विकास निगम मिल कर , हाथ मिला कर, व्यवस्था करने की पहल करें तो हर आगंतुक बार बार आना चाहेगा।

6.स्थानीय एक दो घंटे के ट्रिप; हमारे मुख्य यात्रा मार्गों पर कई आत्यन्त दश्नीय स्थल पड़ते है उनतक जाने के लघु काल व्यवस्था की जा सकती है , विशेष कर ऐसे यात्रियों के लिए जो अपने छोटे बड़े वाहनों से आते हैं . उन्हें सूचना और मार्गदर्शन चाहिए, और इसकी व्यवस्था आक्रना मूषिक काम नहीं है।

7.स्वास्थ्य सुविधा : इस दिशा में सरकार सचेत है, फिर भी, अगर दिन रात की सेवा व्यवस्था और उसका प्रचार भली भांति हो, अम्बुलेंस और अस्पताल में तुरंत इलाज का प्रबंध हो तो हर यात्रे आश्व्स्थ हो कर यात्रा का पूरा आनंद ले सकेगा।




अन्य प्रकार के प्रयट्टन: इन क्षेत्रों के आगंतुक, सैर सपाटे, मनोरंजन,खेल कूद और रिक्रिएशन के लिए आते हैं। साहसिक खेलों में पर्वता रोहन और राफ्टिंग के अलावा कई और खेल हैं जिन्हें उत्तराखंड में लाना है। उदाहरण के लिए हेंग ग्लाइडिंग . गहरी नदी घाटियों के आस पास ऐसे कई पर्वत शिकार हैं जहां से ग्लाइडर कूद कर उड़न भ सकता है और गह्न्तो पूरी घाटी के लुभावने दृश्य देख सकता है।

इसके अलावा एक अति आकर्षक, अनछुवा क्षेत्र है, "शामिल हो जाओ " प्रयटन . टूरिस्ट लोज होते हैं जो बांस से भी बनाए जा सकते हैं, और आस पास स्ट्रॉबेरी इत्यादि मौसमी फलों के खेत, अतिथियों को फलों की पंग्तिया , या प्रति किओ के हिस्सा बी से स्वयं तोड़ कर लाओ, लेजाओ , करके, बेचा जाता है। बांधों और झीलों के आस पास मत्स्य आखेट को भी आकर्षक बनाया जा सकता है . बाकी समय में आस पास के क्षेत्रों में घूमना, फोटोग्राफी करना, पिकनिक मनाना इत्यादि मनोरंजन के कार्य आयोजित होते हैं। रात को केम्प फायर में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। एक दल हफ्ते दो हफ्ते के लिए आता है। फलो के बाग़ स्थानीय किसानो के हो सकते हैं और अप्रैल से सितम्बर तक तैयार होने वाले फलों के बाग़ विभिन्न प्रजातियों के फलों के लगाए जा सकते है। ऐसे पर्यटक स्थलों पर खेलकूद की प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जा सकती हैं।

आजकल उत्तराखंड कई स्थानों पर 70-80 कमरों के टूरिस्ट लोज यहाँ वहाँ बन रहे है और इसकी खबर टूरिस्ट विभाग को शायद ही होगी। ऐसे सभी आकर्षक - अनाकर्षक लोजों में आधार भूत सुवोधाओं का यथोचित मान दंड, जैसे, स्वच्छ जल, मल मूत्र की, कूड़े कछ्दे की सही निकासी और आस पास की सुन्दरता को बनाए रखने का, होना चाहिए। पर्यटकों की और क्षेत्र प्रदेश और देश की सुरक्षा के प्रबंध, विशेष कर सीमान्त मंडलों तथा बांधों, पुलों, सैनिक और पुलिस ठिकानों इत्यादि महत्वपूर्ण स्थानों की सुरक्षा का समुचित प्रबंध इन लौजों पर होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए इनका टूरिस्ट, पर्यावरण और आंतरिक सुरक्षा विभागों में पंजीकरण कराया जाना और नक़्शे पास कराया जाना अनिवार्य रूप से आवश्यक होंना चाहिए।

ऐसे उभरते आकर्षक स्थलों में से चुन कर भावी स्थानीय औद्द्योगिक केन्द्रों की स्थापना भी हो सकती है और आने वाले समय में ये छोटे शहरों का भी आकार ले सकते हैं,बशर्ते की आयोजक शुरू से ही इन्हें आकार लेने में सुनियोजित रूप से मार्गदर्शक और सहायक हों।

स्वास्थ्य प्रयट्टन भी एक अत्यंत आकर्षक व्यवसाय हो सकता है, बशर्ते इसे , जगह, सुविधा, लाभ और शान्ति की संभावनाओं को देने वाला उद्योग बनाया जाय। एक बार देश के इच्छुक लोगों का विश्वास जम जाय तो लाभ स्वयम ही पीछे पीछे आयेगा।

अंत में : उपरोक्त सुझाओं पर गंभीर मनन और उसमे वांछित नए आयाम जोड़ कर यदि एक सम्पूर्णता की प्लानिंग करके बृहद स्तर पर शुरू किया जाय तो निसंदेह उत्तराखंड का प्रयटन संसार भर का चहेता आकर्षक क्षेत्र बन सकता है।

डा . बलबीर सिंह रावत।           

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उत्तराखंड की नयी औद्योगिक नीति



                           -प्रस्तावक: डा .बलबीर सिंह रावत







किसी भी प्रदेश के विकास के लिए उद्द्योग और कृषि दो प्रमुख क्षेत्र हैं जिन को संतुलित महत्व देना आवश्यक है। उत्तराखंड के परिपेक्ष में औद्योगिक विकास ही वोह प्रयास है जिस से अधिक आशा है और सही औद्योगीकरण से इस उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है।




उत्तराखंड ऐसा प्रदेश है जिसमें अधिकांस भाग पर्वतीय है . और पर्वतीय भाग में मैदानी उद्द्योग विकास नीति से सिडकुल और बड़े बड़े कल कारखाने नहीं लगाये जा सकते। मैदानी भागो के उद्द्योग केवल नौकरी देते हैं, और वोह भी कानून के जोर से की एक निश्चित प्रतिशत जगहें उत्तराखंडियों को ही दी जांय। इस से पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बढ़ता जा रहा है। कच्चा माल अधिकतर बाहर से आता है, उत्पादन कर केन्द्रीय सरकार ले जाती है। तो उत्तराखंड के हिस्से में क्या आता है?




पर्वतीय क्षेत्रों में नाना प्रकार के कच्चे माल हैं, विशिष्ट प्रकार की कृषि और प्राकृतिक उपजें हैं, असीमित मात्रा में काष्ट है, विश्व प्रसिद्ध मंदिर हैं, जलवायु है, अत्यंत प्रभावशाली और आकर्षक द्र्श्यावालियाँ हैं। स्वास्थ्य वर्धक आबोहवा है। लगनशील मानव संसाधन है , सड़कों का जाल है , बिजली बना सकने की असीमित संभावनाएं हैं। और इन्ही के बूते पर और इन्ही के गलत दोहन और पर्वतीय मानव संसाधन की अव्ह्व्लना के कारण पलायन करने की विवशता की मार न झेल पाने के कारण ही तो प्रथक राज्य का सफल आन्दोलन चला था।

राज्य बन गया, 12 साल हो गए। पर्वतीय विकास में औद्योगिकीकरण को नकारा ही गया है क्यों हुआ ऐसा, क्यों हमारे अपने ही नेता , मंत्री , सब वही देसी मॉडल के पीछे भाग रहे हैं? क्यों का उत्तर आप ढूँढिये । मेरे निम्न सुझाव है:-

1- हर ब्लोक स्तर पर , जहां सबसे सुगम और सुविधाजनक हो, एक औद्योगिक केंद्र बने जहा से घर घर तक कुटीर उद्द्योग के प्रशिक्षण, उत्पादन और संकलन की व्यवस्था हो हो।




2- प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षक प्रशिक्षण केंद्र और , हो सके तो एक वोकेशनल हांई स्कूल भी हो जिसमे इच्छुक जूनियर हाई स्कूल पास विद्यार्थी पढ़ सकें,हो , यही पर महिला उद्योग प्रशिक्षण की सचल व्यवस्था भी हो जो उन्हें मशीनो से आकर्षक डिजाइनों वाली बुनाई कढाई सिखा सके, स्थानीय कच्चे मालों से प्रयट्टकों के और अन्य बाजारों के लिए हाथों हाथ बिक सकने वाली वस्तुएं बना सकें। उद्देश्य होना चाहिए की प्रति परिवार सालाना आय 100,000 रुपये के स्तर से ऊपर जा सके। तभी पलायन रुकेगा और राज्य बनाने का सपना पूरा होगा।




3- प्रशिक्षण, टेक्नोलोजी के लिए अवकास प्राप्त विशेषज्ञों की सेवा ली जा सकती है और देश के नामी गरामी संस्थानों से सहभागिता की जा सकती है।




4- इसी प्रकार लघु उद्द्योग भी गाडी सड़कों के साथ साथ यथोचित स्थानों में , स्थानों की विशिष्टताओं के अनुरूप लगाए जा सकते हैं, जिनमे हर वोह उद्द्योग लग सकता है जिसका कच्चा मॉल आस पास बहुलता में उपलब्ध है या कराया जा सकता है




5- जल विद्युत् के छोटे छोटे स्टेशन हर नदी पर, 3-4 गाँव के समूह के लिए , 10-10 या 15-15 किलोमीटर की दूरी पर लगाए जा सकते हैं, जिससे कुटीर और लघु उद्द्योगों को पावर दी जा सकती है, यह 60% गाँव के लिए और 40% प्रदेश के लिए के नियम से होना चाहिए।




6- धार्मिक प्रयट्टन के साथ रास्ते के अन्य मंदिर, दर्शनीय स्थल, और सांस्कृतिक कार्यक्रम को भी जोड़ने से इस उद्द्योग को बढ़ावा मिल सकता है।




7- अन्य प्रयट्टनो को मेलों, खेलकूद प्रतियोगिताओं, फेस्तीव्लों और फल मौसम में "तोड़ो खरीदो" के तथा अन्य आकर्षणों से समर्द्ध किया जा सकता है।




8- काष्ठ उद्द्योग की अपार सम्भावनाये हैं, बशर्ते कि नयी औद्योगिक नीति में काष्ठ प्रसंस्करण से ले कर नौक्ड डाउन रूप में बिभिन्न प्रकार के फर्नीचर बनाने के कारखाने, लकड़ी बहाव वाले नदी किनारों में लगाए जा सकें . यह बिलकुल नया क्षेत्र है उत्तराखंड के लिए और इसमें देहरादून के बन अनुसंधान संस्थान में एक वुड तेक्नोलोजी का , W. Tech डिग्री स्तर की पढाई का प्रबंध किया जा सकता है। और कई कोर्स चलाये जा सकते हैं।




9- आवश्यकता है गम्भीर्ता से पर्वतीय औद्योगिकीकरण की नीति बनाने की और उसमे सम्बंधित बैज्ञानिको , विशेशाग्याओं की सलाहकार समितियां बना कर उनसे मार्गदर्शन लेने की, अकेले राजनीतिज्ञ और नौकरशाह यह काम नही कर सकते क्योंकि वे किन्ही दुसरे क्षेत्रों के विशेषग्य है .




10- पर्वतीय औद्योगिकीकरण एक महा अभियान है और इसमें जिससे जितना योगदन हो सकता उसका स्वागत और समावेश होने से ही उद्द्येश्य की पूर्ती होगी , केवल प्रतीतात्मक विकास का कुअसर सब जगह नजर आ रहा है। आगामी 5 सालों में नयी पर्वतीय विकास नीति का सुप्रभाव हर गाव मे नजर आएगा तो हे नीति को सफल माना जाएगा।

डा। बलबीर सिंह रावत।

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मुनस्यारी को स्कीइंग स्थल बनाने हेतु सामजिक दबाब आवश्यक

 

                                        डा. बलबीर सिंह रावत







                         पिथौरागढ़ में स्तिथ मुनस्यारी पर्वत श्रृंखलाएं और इधर उधर फैलीं हलके ढालों वाली , बर्फ से ढकी पहाड़ियां। लगता है जैसे उन्हें खुली बाहों से बुला रही हों, जिन्हें अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को चरम तक ले जा कर, उन शक्तियों से परिचित होने का जूनून है। जी हाँ, स्कीइंग ऐसे कुछेक गिने चुने साहसिक खेलों में से एक है जो खिलाड़ी से उस सब का सामना करवाता है, जिस से उसे अपने पूरे शरीर के सभी अंगों का पूरा जोर लगाने के लिए इतनी अनगिनत संभावनाए देता है कि बिस्वास करने के लिए देखना ही पडेगा।
 
मुन्सियारी , यानी हिम का घर, उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में,गौरी गंगा के तट पर , 2,200 मित्र की ऊचाई पर बसा कस्बा है। एह रमणीक स्थान भारत, चीन और नेपाल की सीमाओं के बीच, पांच हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों, पंचुली , की सुनहरी गोद में बैठा हुआ, एक तेजी से उभरता हुआ प्र्यट्टन स्थल है। यहाँ से बिभिन्न ग्लेसियरों तक ट्रेकिंग के छ: रास्ते हैं जिनकी सम्मिलित लम्बाई 59 किलोमीटर है। हर साल गर्मियों में सितम्बर तक यहा पर ट्रेकिंग में जाने वालों की भीड़ लगी होती है।

यह स्थान दिल्ली से सड़क मार्ग से 612 किलोमीटर दूर है। काठगोदाम रेल स्टेशन से 261 किमी , नैनीताल से 288 किमी और नैनी सैनी हवाई अड्डे से केवल 128 किलोमीटर दूर है। यहाँ पर ठहरने , खाने पीने का अच्छा प्रबंध है , अभी पांच सितारा होटल तो नहीं हैं, लेकिन कुमाऊँ विकास मंडल इस दिशा में सक्रिय है। सभी मेहमान यहाँ से खुश हो कर जाते हैं, क्योंकि, स्थानीय लोगों की हार्दिक मेजवानी उन्हें गदगद करने के लिए भरसक प्रयत्न करती है।
 
यह स्थान उन बिरल स्थानों में से है जहां आप, रेल, सड़क और हवाई मार्गों का एह ही यात्रा में आनंद ले सकते हैं और प्रकृति की शीतल गोद में अपनी क्षन्ताओं की स्वयं ही वोह परीक्षा ले सकते हैं जो आप को न तो कोई जिम , और न कोई अन्य खेलकूद दे सकता है।




                                    मुन्सियारी के हिमाच्छादित क्षेत्र हर श्रेणी के स्कियेर को हर प्रकार के ढलान देता है। नवसिखियों को हलके, सीख चुके लोगों को थोड़ा तेज, घुमावदार और सुरक्षित ढाल , और साहसिक खेल का आनंद लेने वालों को , तेजी, आकस्मिक आश्चर्य , तुरंत split second में निर्णय लेने , तथा बीच में रास्ता अचानक बदलने की और इन कारणों से उत्पन्न मुश्किलों में ठन्डे दिमाग से, अकेले ही ,सही निर्णय लेने का अभ्यास करने की अपार संभावनायें देता है . यह वे सभी गुण हैं जो एक बड़े व्यावसायिक संस्थान को उत्कृष्ट तरीके से चलाने के लिए आवश्यक हैं। इस लिए यह केवल शरीर ही नहीं, दिमागी शक्ति का भी वर्धक खेल है।

मुनस्यारी को अंतराष्ट्रीय स्तर का स्कीइंग स्थान हेतु आन्दोलन आवश्यक


उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में औद्योगीकरण में पर्यटन उद्योग का महत्व सर्वाधिक है और स्कीइंग सरीखे खेल को बढाना एक आवश्यकता है। पहाड़ों के विकास हेतु डेवलपमेंट स्तागेस मुनस्यारी जैसी जगह का स्कीइंग खेल हेतु विकास एक महत्वपूर्ण कदम है
 
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मुनस्यारी को स्कीइंग स्थान हेतु निम्न आवश्यकताएं हैं 1-


1- मुनस्यारी स्कीइंग हेतु बिजिनेस मॉडेल बनाना व फण्ड/फाइनेंस/संसाधनों का का समुचित प्रबंध व विपणन रणनीति

2-तकनीकी अनुकूलन- मुनस्यारी क्षेत्र को स्कीइंग हेतु विकसित करना (कंटूरिंग,स्मूथिंग, लैंड स्केपिंग, बुल्डोजिंग आदि ),

3- नौन स्कीइंग पर्यटन का विकास जैसे- जो स्कीइंग नही करते उनके लिए कई तरह के लुभावने तरीके अपनाना

5- स्थानीय लोंगों व पिथौरागढ़ के प्रवासियों क ओ इस पर्यटन उद्यम में लाना

6- टूरिज्म को नया आयाम देना

इसके लिए पहाड़ी समाज को सरकार पर अत्यधिक दबाब बनाना आवश्यक है।

मेरी राय है कि शुरुवात इन्टरनेट के सोसल मीडिया से की जाय और प्रत्येक सोसल ग्रुप को मुनस्यारी स्कीइंग विकास की आवाज उठानी चाहिए .
 
लेखकों को चाहिए कि वे उत्तराखंड के समाचार पत्रों में मुनस्यारी स्कीइंग विकास की बातें स्थाने पत्र पत्रिकाओं में उठायें

स्थाने जनता को जगाया जाय जो जिला परिषद, विधायकों व सांसदों पर भारी दबाब बनाएं

dr.bsrawat28@gmail.com डा. बलबीर सिंह रावत

Bhishma Kukreti

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खिर्सू  , एक समृद्ध हनीमून पर्यटन स्थल!



 

                  डा . बलबीर सिंह रावत









एक पुरानी धारणा रही है की नवविवाहित जोड़ा एक साल तक रोमांच के आकाश में उड़न भरने का समय चाहता है। तब मुख्यत: ग्रामीण परिवेश होता था , संयुक्त परिवार होते थे, सब हर समय एक दुसरे की नज़रों में रहते थे, तो कुछ पल , अकेले में मिलने के लिए खोजने का रोमांच ही अलग होता थ। धीरे धीरे एक दुसरे को समझने का, तालमेल बिठाने का, सहायक बनने का, पूरक बन पाने का सिलसिला चलता रहता था। तब जीवन की गति इतनी तेज नहीं थी। न ही अकेले कहीं जा कर कुछ सप्ताह बिताने की इच्छा होती थी, न चलन होता था और न ही धन। कब साल बीत गया पता भी नहीं चलता था और नव दम्पति होने का रोमाँच समाप्त हो चुका होता था।



समय बदला, संयुक्त परिवार बिखरे, शहरी सभ्यता से परिचय हुआ, वैश्विक हवा चलने लगी, वेतन पाने के चलन और बढ़ती आय , और व्यस्त जीवन शैली ने "मधु मास " का चलन शुरू कर दिया। इसी चलन के कारण पर्यटन उद्द्योग में एक नया आयाम जुडा और खोज हुयी ऐसे रमणीक स्थानों की जहां प्रकृति ने अपनी नाना प्रकार की सुन्दरता से रोमांचित हो जाने के बिरल गुण एक ही स्थान पर दिए हों। इसी प्रकार का एक स्थान है खिर्सू . खिर्सू उत्तराखंड के पौड़ी मंडल में, पौड़ी शहर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर बसा है। गढ़वाल के शुरू शुरू के इने गिने रेजिडेंसल मिडल (जूनियर हाई स्कूल) स्कूलों में से एक, अन्ग्रेजौं के जमाने में बना था . आज यह स्कूल एक कोलेज है।

खिर्सू जिस तरह लम्बे फैले हिमाच्छादित हिमालय की ख़ूबसूरती का पनोरामा दर्शक के सामने लाता है, ऐसे स्थानं पूरे मध्य हिमालय में बहुत कम हैं। लगभग 1,700 मीटर ऊचाई पर बसा यह साफ़ सुथरा

कस्बा उन सारी सुभिधाओं से लैस है जो एक आगंतुक अतिथि को चाहियं। यहाँ पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का डाक बंगला है जिसमे 600/- से ले कर 1400/- प्रतिदिन के हिसाब इसे कमरे ओन लाइन लिए जा सकतें हैं। अच्छे भोजन की भी व्यवस्था है। और सब से अच्छा है इसकी साफ़ सुथरी, हरे भरे पेड़ों की कतारों के बीच पक्की सुनसान सड़कें, जिनमें अकेले पैदल चलने का आनंद और कहीं नहीं मिल सकता, जगह जगह छोटी छोटी झाड़ियों के झुरमुट,हल्की ढलानों वाले हरे भरे खुले क्षेत्र, सामने बर्फीली चोटियों के अभिराम लुभाने वाले दृश्य, एक शुष्क ह्रदय में भी रोमांस का रोमांच भरने की शक्ति रखते हैं ।




देश के मैदानी शहरों से इतने नजदीक बसा यह स्थान किसी ऐसे मसीहा की प्रतीक्षा में है जो इसे हनी मून पर्यटन स्थल में रूपांतरित कर दे। इसके लिए निम्न सुझाव हैं




1. उचित, हवादार . धूप और खुले स्थानों पर दम्पति कुटीर-झुण्ड, हर कुटीर में एक सजा हुआ कमरा, बरामदा , रसोई, स्नान घर चलता पानी, बिजली,की विश्वसनीय व्यवस्था हो। एक झुण्ड में 10 के लगभग कुटीर हों, जो बांस की या अन्य मजबूत सामग्री से बनी हों। 10 कारों, मोटर सायकलों की पार्किंग व्यवस्था हो, कुटीर गोला कार बृत में हों और बीच में सांझा मिलन स्थल हो, खुले आकाश के नीछे 300-400 मीटर की दूरियों पर ऐसे कई कुटीर-पुंज बनाने की सुविधा हो जहां पर मांग बढ़ने के साथ साथ अन्य पुंज भी बनाने की व्यवस्था, शुरू से ही सुनिश्चित करने के लिए खिर्सू पर्यटन विकास समिति का गठन किया जा सकता है जो किसी लैंड स्केप प्लानर से एक प्लान तैयार करा सके . यह काम विकास निगम या पंचायत या दोनों मिल कर कर सकते हैं। क्षेत्र के प्रवासी भी जोड़े जा सकते हैं।

2- पौड़ी गढ़वाल पर्यटन बैंक खोला जाय जो प्रवासियों के निवेश हेतु कार्यरत भी हो   

3. इन कुटीरों को बनाने संचालित करने के लिए स्थानीय युवाओं और प्रवासी लोगों को आमंत्रित करके, उन्हें, प्रशिक्षण, वित्तीय सहायता, ऋण ,इत्यादि की आरम्भिक प्रोत्साहन व्यवस्था होनी चाहिए।

4. इस हनी मून पर्यटन स्थल का हर प्रकार के मीडिया में जोरशोर से प्रचार करने से ही स्थायी लाभ होगा . .

5. किसी भी व्यवसाय को लम्बे समय तक फलता फूलता बनाए रखने के लिए उत्कृष्ट सेवा दे कर एक ऐसी प्रतिष्ठा अर्जित करना ही उद्धेश्य हो तो, फिर जो एक बार आये वे ही व्यवसाय के सबसे प्रभावशाली प्रचारक बन जांय , यह मूल मन्त्र जिसने याद रखा वोह ही सफल हुआ।

6'. हर पुंज स्थल पर, और जगह जगह नाना प्रकार के रंग बिरंगे फूलों की क्यारियाँ हों, छाया में बैठ कर एकांत में गपशप करने के कुञ्ज हों , हो सके तो तैराकी के लिए एक पूल भी हो, तो स्थल अबिस्म्र्नीय हो जाएगा।

7. आख़िरी सुझाव, एक शोपिंग सेंटर हो जहां पर उत्तराखंड के हस्तशिल्प, उद्द्योग और सीन सीनारियों के प्रतीक मेमंटो बिक्री के लिए हों, इन्टरनेट वाला कम्पुटर किराए पर मिल सके और किराए पर, कैमरे, ऊनी कम्बल, जैकेट इत्यादि उपलब्ध हों . और बिदाई के समय हर जोड़े को कुछ यादगार भेंट देने का चलन हो, नहीं तो कुछ फूल ही सही। आत्मीयता ही हनी मून पर्यटन की जान है।

8- स्थानीय लोक  संगीत, लोक नृत्य व अन्य लुभावने भौतिक सुविधाओं  का होना लाजमी है


अब अंत में GMVN को एक अमूल्य , बिना मुल्य की सलाह, : क्रपया अपनी वेब साईटों में स्थानों की ख़ूबसूरती , खूबी और आकर्षणों की ऐसी तस्वीरें, वर्णन , और सूचनाये दीजिये, नक्शों सहित की डाउन लोड करके, पर्यटक सीधे अपनी गाडी में बैठे और आपके नक़्शे के सहारे सीधे गंतव्य तक पहुँच जाय। GPS का ज़माना मोबाइल में भी आज्ञा है। लगना चाहिए की निगम एक अच्छा मेज्मान है, नाकि कोरा व्यवसाई जिसे अपने किराए के अलावा और किसी चीज से कोइ मतलब ही नहीं है। प्रचार,आकर्षक सेवा, लगाव की उष्णता देने वाला व्यवहार ही किसी भी प्रकार के पर्यटन की सफलता की कुंजी है। , , ,

dr.bsrawat28@gmail.com       

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Bhishma Kukreti

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This is in resposnse to dr rawat's write up about Khisrsu as Honeymoon tourist place

                       दीपा / दीबा डांडा , एक अन्य पर्यटन स्थल


गढ़वाल में पट्टी खाटली व पोखाडा  के बीचो बीच स्तिथ दीपा डांडा /दीवा डांडा एक सुरभ्य पर्यटन स्थल है। जो भविष्य में उत्तराखंड का एक परसिद्ध टूरिस्ट सेंटर बंद सकता है।

 यहाँ पर माँ भगवती दीबा का मंदिर है। जो रामनगर -बीरोंखाल - पौड़ी - श्रीनगर रोड पर पड़ता है। रोड से करीब आधा किलोमीटर ऊपर है। यंहा से उत्तर को  दूधातोली पर्वत जो की हमेशा हिमाच्छादित रहता है दिखता है। पट्टी खाटली का सेंटर बीरोंखाल व आस पास के कई गाँव यहाँ से दृष्टि गोचर होते है। ठीक नीचे में खटलगड  नदी जो बाद में नयार में मिलती है , बहती है। इसके पहले धुमाकोट, जडावूखांड  व ठीक बाद में मैठाणाघाट नामक टाउन (नगर) पड़ते है। इस चोटी से दक्षिण में भाबर का मैदान साफ़ दिखाई पड़ता है।
 
यह हनीमून स्थल ही नहीं बल्कि उच्च कोटि का तीर्थ स्थल व पर्यटन स्थल बन सकता है। यंहां अनेक प्रकार के पेड़ पौधे मिलते है। मुझे याद है, हम जब बीरोंखाल में पढ़ते थे तो बॉटनी बिषय के लिए यहाँ से कई छोटे छोटे बेल पत्र आदि इकठा करने हमारे गुरूजी के साथ सुबह सुबह जाते थे व शाम को लौटते थे।
 
कहते है यहाँ पर शेरनी की पद चिन्हों पर चले तो दीबा माता के मंदिर में आराम से पंहुच जाते है। हम ने खुद यह अनुभव किया है। यहाँ से नीचे खडल गढ़ नदी तक एक सुरंग होने की भी बात है जिसमे सुना पांडू लोग गए थे।
 
यहाँ पर्यटन की अपार सम्भावनाये है। यहाँ पर टूरिस्ट हाउसेस बनाये जाएँ व विकास किया जाय तो यह स्थान स्विटज़र लैंड व स्वर्ग से भी बढ़ कर हो सकता है।

उत्तराखंड की पर्यटन व सांस्कृतिक मंत्री को इस और ध्यान देना जरूरी है। इस समय की मंत्री श्रीमती अमृता रावत जो की रामनगर व बीरोंखाल से बिधायक भी है इस और ध्यान देना चाहिए। जनता को भी इस पर विचार कर उत्तराखंड सरकार को आगाह करना चाहिय।
 



खुशहाल सिंह रावत , खाटली पट्टी,  मुंबई

 

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