Author Topic: Articles by Scientist Balbir Singh Rawat on Agriculture issues-बलबीर सिंह रावत ज  (Read 25939 times)

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
               उत्तराखंड में मेडिकल पर्यटन की संभावनाएं।



                        - डॉ बलबीर सिंह रावत





 ऐतिहासिक पुस्तकें तथ्य बताते हैं की प्राचीन समय से ही उत्तराखंड स्वास्थ्य पर्यटन का केंद्र रहा है.

उत्तराखंड की जलवायु स्वयम में स्वास्थ्य का पर्याय होने का बोध कराती है। शीतल और शुद्ध वायु, धरती से छन कर, विभिन्न जडी बूटियों के रस युक्त आता चश्मों का जल, हरेभरे पेड़ पौधों और धवल हिमालय की सुदूर तक फ़ैली चोटियों की नयनाभिराम दृश्यावलियाँ, ताजे फलों और साक-भाजियों का अद्वुत स्वाद। सारे ऐसे आयाम हैं जो हर व्यक्ति के मन को इतना प्रफुल्लित कर देते हैं की उसकी बायोकेमिस्ट्री स्वतः ही धनात्मक हो जाती है।

 

आज के युग में आयुष विग्यान ने अभूतपूर्व परगति कर ली है और चिकित्सकों, दवाओं, प्रणालियों तथा सुविधाओं को प्रचुर संख्या में हर स्थान में उपलब्ध कर दिया है। उत्तराखंड का सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र इन दोनों का अपूर्व संगम स्थल बनाया जा सकता हैं जहा रोगी उपचार के लिए, काम काजे लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए, खिलाड़ी और युवा वर्ग अपनी शारीरिक क्षमता बढाने के स्वर्णिम असर पा सकते हैं। पूरे का पूरा परिवार दिन भर साथ रह कर, आमोद प्रमोद में खुले मन से एक दूरसे को पहिचानने का और परस्पर लगाव को प्रगाढ़ करने का अवसर पा सकते हैं। दुखी मन वाले (असहाय और सामर्थवान दोनों), यहाँ प्रकृति की गोद में बैठ कर, अपने अंतर्मन से परिचित हो कर, अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति को सुदृढ़ करके पूर्ण आत्मविश्वास की प्राप्ति कर सकते हैं।

यहाँ,उन लोगों के लिए, जो औरों के भाग्यविधाता की भूमिका लिए हुए सर्वशक्तिमान बन गए हैं, भी बहुत कुछ है। देव भूमि में आकर वे अपनी उपलब्धियों को, शांत मन से अवलोकन करके, अच्छे बुरे की जो छलनी पाएंगे उसमे छान कर इनमे जो अंतर समझ पायेंगे, उसके बूते पर, अपने लक्ष्यों, आचार-व्यव्हारों में परिवर्तन करने का मार्ग दर्शन पा सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है स्वास्थ्य संबंधी पर्यटन नाना प्रकार के लाभ लेने के इच्छुक व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा क्र सकता है। इस दृष्टि से मेडिकल पर्यटन के निम्न वर्ग हैं:-

                             अ - भारतीयों हेतु उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवायें

1. बीमारियों का निदान : शीतल वायु और सुद्ध जल वाले दर्शनीय स्थानों पर सारी सुविधायों और विशेषज्ञ प्रवीण डाक्टरों युक्त अस्पतालोन की स्थापना . इसके लिए, स्थल और भूमि चयन करके, सम्बंधित सरकारी विभाग मीडिया में विज्ञापन दे कर निजी सेक्टर की आयुष संस्थाओं, व्यक्तियों को , इस

प्रकार के अस्पताल खोलने के लिए आमंत्रित कर सकती है। वास्तव में करना चाहिए। इस से ऐसे स्थानो में सड़क, पानी, बिजली और अन्य सारी

सुविधाओं का विकास इस प्रकार हो सकता हैं कि कालांतर में ऐसे स्थान एक सुव्यवस्थित छोटे शहर में विक्सित हो जायं




2. स्वास्थ्य लाभ के सनाटोरियम: इन स्थानों पर वे लोग आते हैं जो लम्बी बीमारी के ठीक होने पर शकिहीन हैं , या किसी अन्य कारणों से,

कमजोरी का भान कर रहे हों . यह स्थान भी स्वास्थ्य वर्धक जलवानु और दृश्यावलियों वाले स्थानों में ही सफल होंगे, साथ में यहाँ पर योग,

पौष्टिक खान पान, सुभह का धूप स्नान, हल्का भ्रमण, समूह में वार्तालाप, सांस्कृतिक प्रोग्राम , व्याख्यान मालाओं की व्यवस्था होने से बहुत

आकर्षक स्थलों में विक्सित किये जा सकते हैं। इनको हमारे उत्तराखंडी प्रवासी अपनी सह्कारी संस्था या कंपनी बना कर भी चला सकते हैं।

इन सनाटोरियमों में न्यूट्रीशनिस्टों और फिजियोठेरापिस्तों की अधिक और विशेषता युक्त डाक्टरों की कम आवश्यकता होती है तो खर्चे भी कम

होते हैं।




3. शारीरिक शक्ति और स्टेमिना बढाने के स्वास्थ्य्बर्धक स्थल: चूंकि यह आवश्यकता युवा वर्ग की होती है तो यह स्थल ऐसी जगहों पर ही उचित होते

हैं जहां पर भौगोलिक परिवेश मानवीय शारीरिक और मानसिक शक्तियों को चरम तक ले जा सकने के योग्य हों।जहां पर आधुनिक व्यायाम्शालों का

प्रबंध किया जा सके, हर एक व्यक्ति को उसकी क्षमता वर्धक खुराक की व्यवस्था के लिए समूची प्रबंध हो। प्रशिक्षकों से मार्गदर्शन की व्यवस्था हो।




4. सम्पूर्ण परिवार के लिए रिसोर्ट : ऐसे पर्यटन स्थलों में एक परिवार के लिए एक कुटीर और कई कुटीरों का पुंज एक ही, सजेसजाये स्थल पर हो। हलके

खेल जैसेबैडमिनटन, हेंडबोंल, कबड्डी, खोखो, शतरंज, कैरम , इत्यादि उपलब्ध हों, सभी अनजान परिवारों को एक दुसरे के करीब लाने के लिए कुछ

सामूहिक कार्यक्रमों, जैसे पिकनिक, लम्बी सैर, पास के गाँव में कोइ भी सुलभ सहभागिता, बृक्षारोपण, बच्चो के स्कूलों में कार्यक्रम, रात को कैंप

 फायर में संगीत, निर्त्य ,अन्ताक्षरी, स्थानीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों, इत्यादि का आयोजन इन्ही स्थलों में आधात्म्य संबंधी प्रवचनों का आयोजन भी

 स्थानीय गुरु लोग कर सकते हैं। ऐसे स्थलों पर स्थान विशिष्ट स्मरण प्रतीक वस्तुओं की दुकाने भी लाभ दायक होती हैं। अगर आसपास फलों के

बगीचे हैं तो वहाँ स्वयम तोड़ो, खरीदो, लेजाओं पद्धति की बिक्री का चलन शुरू किया जा सकता है। यह एक अति आनंद दायक पर्यटन गतिविधि है।




5. बृद्धावस्था देखभाल केंद्र: यह चलन भारत में तेजी से फ़ैल रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों के धार्मिक महत्व के स्थलों के नजदीक ऐसे कई रमणीक स्थान हैं

जहाँ ऐसे केंद्र सफलतापूर्वक चलाये जा सकते हैं . इन केन्द्रों में मेडिकल और परिचारिक सुविधाए अनिवार्य हैं। चूंकि वरिष्ट नागरिकों के कई आर्थिक

और सामाजिक वर्ग हैं, तो हर एक की अपेक्षाओं के अनुरूप सेवाए देने की व्यवस्था आवश्यक होती है। लेकिन सब को एक स्वास्थ्य वर्धक, लुभावने

 और आत्मिक शान्ति देनेवाले स्थान की परम आवश्यकता होती है। हमारी देवभूमि में ऐसे स्थलों की प्रचुरता है, केवल उन्हें पहिचान कर सजाने

सवारने की आवश्कता है।

                                        बी- विदेशी पर्यटकों हेतु उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवायें
विदेशों में धनी देशों में स्वास्थ्य सेवायें बहुत मंहगी हैं यथा एक आकलन

-हार्ट बाई पास व्यय अमेरिका में एक लाख तीस हजार रुपया;थाईलैंड में ग्यारह हजार रुपया; सिंगापुर में अठारह हजार रूपये और भारत में दस हजार रुपया है. इसी तरह हार्ट वाल्व रिप्लेसमेंट व्यय अमेरिका में एक लाह साथ हजार रूपये, सिंगापुर में बाढ़ हजार पञ्च सौ रूपये, थाईलैंड में दस हजार रूपये हैं जब की भारत में नौ हजार रूपये हैं।

भारत का विदेशियों हेतु मेडिकल टूरिज्म का विकास टेस प्रतिशत से अधिक है। भारत का मेडिकल टूरिज्म उद्यम सवा दो बिलियन डौलर प्रतिवर्ष का है

और इसी वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर मेडिकल टूरिज्म को उत्तराखंड में बढावा दिया जा सकता है -वेलनेस टूरिज्म; आयुर्वेदिक केंद्र,कोस्मेटिक सर्जरी, वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवायें, आधुनिक स्वास्थ्य सेवायें /एडवांस मेडिकल सेवायें

विदेशियों हेतु मेडिकल टूरिज्म के लिए निम्न बातों का ध्यान आवश्यक है

१- उत्तराखंडी समाज , सरकार और पर्यटन उद्यम सहयोगियों की मेडिकल टूरिज्म हेतु स्पष्ट -पारदर्शी व्यापार नीति, दूर दृष्टी और रणनीति

२-विभिन्न सरकारी विभागों में समन्वयता

३-अस्पताल/चिकित्सा प्रबंधन को आधुनिक बनाना

४-अस्पताल /चिकित्सा प्रबन्धन को विदेशी पर्यटन उद्यम के साथ जोड़ना

५-सही जगहों को मेडिकल टूरिज्म हेतु विकसित करना

६- आवश्यक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना

७- समाज को मेडिकल टूरिज्म हेतु प्रत्साहन देना व समाज का सरकार पर दबाब बनाना

८- विपणन में आधुनिकता लाना

आधुनिक मेडिकल प्रयटन उत्तराखंड में नया आयाम है, इसलिए इसकी व्यवस्था करना आसान है , हम इसे जो चाहें दिशा दे सकते हैं। सही दिशा देने के लिए व्यापक स्तर पर , सरकार, प्रवासी उत्तराखंडियों की संस्थाएं,स्थानीय प्रमुख अनुभवी विचारक, विशेषग्य इत्यादि के बीच संबाद से ही तय की जाय तो ही यह नया प्रयटन आयाम अपने उद्देश्य की पूर्ती कर पायेगा . इस व्यवसाय में अगर स्थानीय लोगों की हर प्रकार की भागीदारी शुरू से ही सुनिश्चित की जायेगी तो इसके सुखद परिणाम सुदूरगामी होंगे।

अंत में याद दिलाने के लिए, सड़क, बिजली, पानी, बैंक, संचार, द्रुत आवागमन , अम्बुलेंस , और गहर की सी उष्णता का वातावरण किसी भी प्रकार के प्रयत्न के लिए जीवन रेखा है।





 

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड  ग्रामीण पर्यटन के लिए सर्वोत्तम स्थल!



                                     डा . बलबीर सिंह रावत










सुनने में कैसा लगा? नहीं यह कोई कल्पना की उड़ान नहीं है। भारतीय संस्कृति और संस्कार ग्रामीण परिवेश में अधिक देखने को मिलते हैं, वोह अतिथि सत्कार की भावना, अपरिचितों से घुलमिल जाना, सामूहिक रूप से परस्पर एक दुसरे से घनिष्टता बढ़ाना, जो है वही मिल बाँट कर, खाना, त्योहारों, उत्सवों, मेलों में, खुशियाँ मनाना, लोक नृत्य व् संगीत में सामूहिक रूप से शामिल होना। खाली खेतों में खेलकूद, चांदनी रातों में किशोर किशोरियों के सामूहिक नृत्य, संगीत, बड़ों की चौपालें, दादी नानियों की कहानियां। ग्रामीण प्रयटन कम आय वर्ग के शिक्षित लोगों के लिए सर्वोचित है।

दिन में दिनचर्या के कार्य, लकड़ी, घास, फसल, पशु , पानी, रसोई की व्यवस्था, में जंगल, खेत, पानी के सोते चश्मों की सैर, पास के कसबे से खरीददारी,

खुले में नहाना, अपने कपडे आप धोना, फलों के मौसम में पेड़ों में चढ़ कर फल तोड़ना, ताजे ताजे खा भी लेना, पेटियों में रखना, तोलना, बेचना , या घर लेजा कर सुरक्षित रखना।

किसी शिशु के जन्म पर या शादी व्याह के उत्सव पर कैसे सारा गाँव इकठ्ठा हो कर हर कार्य में शामिल होता है और खुशिया भी बाँटता यह गाँव के अलावा और कही नहीं मिलेगा।
 
कौन नहीं चाहेगा अन्य स्थानों के ग्रामीण रीति रिवाजों से परिचित होना? अगर मौका मिले तो। जी हाँ। ग्रामीण प्रयटन का यही उद्देश्य है की पूरे देश के विभिन्न क्षेत्रों के रीति रिवाजों से परिचित होना, दैनिक जीवन के क्रियाकलापों में शामिल होना, कुछ सीखना, कुछ सिखाना, राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए आपसी लगाव की उष्णता की अनोखी अनुभूति को प्रसारित करना ।
 
सामान्य प्रयटन से यह ग्रामीण प्रयटन भिन्न है। इसे हम participative tourism भी कह सकते हैं, जहा आप, रहने, सोने, खाने और अन्य सारी गतिविधियों में स्थानीय लोगों के बीच ही रहते हैं। पाहिले दो एक दिन अपरिचितों की तरह कुछ दूरी बनाए हुए, एक दुसरे को जानने का प्रयत्न करते हैं, इसके बाद जहां खुले, तो फिर वह अपनाये जाने के आनन्द की वही कल्पना कर सकता है जो इसकी ढूँढ में, दूर दराज के गाँव के बीच आ धमकता है।

  ग्रामीण पर्यटन से ग्रामीण उत्तराखंड को निम्न मुख्य फायदे हैं -

१-पर्यटन के कारण जनित ग्रामीण रोजगार से  ग्रामीण आय में सकारात्मक

२-पलायन की रोकथाम वृद्धि
 
३-विदेशी मुद्रा वृद्धि

४-ग्रामीण वस्तुओं की मांग बढ़ेगी

५-ग्रामें कृषि व जीवन यापन शैली में सही कामयाब, प्रतियोगी हिसाब से परिवर्तन
 
६-ग्रामीण संस्कृति को एक पहचान

७-ग्रामीण संस्कृति की सुरक्षा
                     भारत सरकार पर्यटन पर ध्यान दे रही है

 
 सन दो हजार सोलह  के  के लिए भारत सरकार ने बारह  मिलियन पर्यटकों का टार्गेट रखा हैजब की सन दो हजार ग्यारा  में करीब सात मिलियन पर्यटक आये । एक अनुमान के अनुसार भारत ग्रामीण पर्यटन से प्रति वर्स  में चार हजार करोड़ का ब्यापार कर सकता है
 अभी तो गाँवों में आगंतुकों के लिए कोइ अलग से रहने का, होटल, धरमशाला जैसा स्थान नहीं हैं। मेहमान अपने मेज्मानो के ही घरों में ठहरते हैं। अगर आप अपने किसी मित्र के साथ आये हैं तो कोई समस्या नहीं है। अगर आप दल बना कर आये हैं तो पहुचने से पाहिले, स्थानीय ग्राम सभा से, या स्कूल के अध्यापकों से इन्टरनेट द्वारा या मोबाइल से जानकारी ले सकते हैं की क्या उनके पास पंचायत भवन में, या कहीं अन्य स्थान में,कुछ दिनोके लिए ठहरने के व्यवस्था हो सकती है? यह तो हुवा व्यक्तिगत स्तर का प्रयास . लेकिन, अगर ग्रामीण प्रयटन को आकर्षक व्यवसाय बनाना है तो निम्न उपाय करना लाभदायक रहेगा :
 
1. दर्शनीय स्थलों में ऐसे गाँव की सूची बनाना, जिनमे काफी आबादी हो और वे अन्य स्थानों से आये युवाओं, जोड़ों, परिवारों, को स्वीकार करके, उन्हें अपनी जीवनशैली से परिचित कराने को उत्सुक हों। उनके आठ घुल मिल कर दीनिक कार्यों में उन्हें शामिल करने के उत्सुक हों।




2. ऐसे गाँव मोटर मार्गों के समीप हों, आसपास के दर्शनीय स्थलों, मंदिरों, मेलों, हांट-बाजारों में पैदल घूमे जाने के सुगम रास्ते हों।
 



3. गाँव में ठहरने के लिए, प्रवासियों के खाली पड़े मकानों में कुछ कमरे , मालिकों की सहमती से पर्यटन सीजन के लिए ठहरने की व्यव्स्था के लिए लिए किराए पर जा सकते हों। और उन में बिछौने,पानी, बिजली , गुसलखाने की सुविधा हो।मोटर साइकलों और कर पार्किंग के लिए स्थानं हों।




4. स्वादिष्ट भोजन पकाने वाले रसोइयों के लिए भी यह पर्यटन रोजगार के अवसर घर में ही ला सकता है। इसलिए पाक हुनर के 2 हफ्ते के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो तो चयनित गाँव के ही किसी इच्छुक व्यक्ति को प्रशिक्षित किया जा सकता है। सरयूल परिवार के लोग तो प्रशिक्षित होते ही हैं।
 



5.गाँव में/आसपास के गाँवोँ मेमे लोक संगीत और लोक नृत्य दलों का गठन किया जा सकता है, और पर्यटकों को आमंत्रित करके उन्हें स्थानीय संस्कृति के इस पहलू से परिचित किया जा सकता है।मेलों में ऐसी आयोजन अक्सर होते रहते हैं, इनको ग्रामीण पर्यटन से जोड़ा जा सकता है।
 



6. जब पर्यटन सीजन में कुछ फलों की फसलें तैयार होती हैं तब उस काल में, फल मेले, ग्रामीण खेल कूद, सांस्कृतिक गतिविधियां, जैसे कथायें, प्रवचन, निबन्ध लेखन, पुस्तक मेमे इत्यादि आयोजित किये जा सकते हैं।
 



ग्रामीण प्रयटन के पैकेज टूर अधिक आकर्षक होंगे, जिनमे रहने, भोजन , घूमने , सहभाग करने के खर्चों का प्रतिव्यक्ति सूचना हो और ऐसे पैकेजों का खूब प्रचार हो तो यह नए प्रकार का पर्यटन उद्द्योग काफी लोकप्रिय हो सकता है।                     

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
क्षेत्रीय भोज्य पदार्थों से उत्तराखंड पर्यटन विकास.



                                                               डा . बलबीर सिंह रावत







                      स्वादिष्ट भोजन का केवल विचार आया, और मुंह में पानी आ जाना स्वाभाविक है। स्वभाव से मनुष्य घुमंतू भी रहा है और चटोरा भी, जहां भी स्वाद की तीन में से दो इन्द्रियों,आँखों और नासिका की जोड़ी को कुछ अच्छा लगा, उनसे इशारा पाकर जीभ में राल आने लगती है और मस्तिष्क से तुरंत पैरों को आदेश होता है की चलो इस स्वाद स्रोत के पास। ऐसे ही पैदा हुवा आज का भोज्य पर्यटन जिसे अंग्रेज़ी में culinary tourism कहते है. ब्रिटेन का सालाना भोज्य पर्यटन 8 अरब डौलर का है.



                               अंतरराष्ट्रीय कुलिनेरी टूरिज्म एसोसिएशन के अनुसार "यह पर्यटन एक अद्भुत और यादगार खाने पीने की खोज में जाते रहने का शौक है, जो पर्यटक को अपने देश और विदेश के नए नए स्थलों की सैर करने को उकसाता है, लालायित करता है, प्रेरित करता है" . और पूरा करा के ही दम लेता है. इस प्रकार के पर्यटन में भोज समारोहों, खान पान प्रतियोगिताओं, पाक कला प्रशिक्षणों, स्वाद परीक्षण कौशल और नए व्यंजनों की लोकप्रियता की परख के आयोजन होते हैं . नए तरीकों को परखने के अवसर होते हैं। और एक ऐसी आन्तरिक तृप्ति की अनुभूति मिलने का दुर्लभ अवर होता है, जो केवल अनजान व्यक्तियों के साथ सामूहिक भोज्य क्रिया कलापों से ही प्राप्त हो सकती है. इसी अनुभूति के अतुलनीय एहसास की खोज करने के लिए समर्थ लोग सात समुन्दर पा जाने का " साहस" करते हैं .

हमारे उत्तराखंड के दैनिक और विशेष अवसरों के पाक पदार्थों की अपनी अनूठी विशिष्टता है . फिलहाल यह अपने मूल, अपरिस्कृत रूप में घर घर में अलग अलग क्षेत्रों में विद्यमान है और इसका इसी रूप में आकर्षण भी है. चूंकि पाक पदार्थों और कला का स्थानीय कृषि और पशुधन उत्पादों से गहरा सम्बन्ध रहा है तो भोज्य ओर कृषि पर्यटनों का आपसी सम्बन्ध पूरक रहा है और रहेगा . हमें सबको याद है दशहरा दीपावलियों की छुट्टियों में गाँव में जाते थे .नयें धान के च्युड़े, अखरोट और तिल का मिश्रित स्वाद, वोह भिगोये धान को हिन्सरों में भूनना, उठती खुशबू, गरम गर्म भुने धान को दो महिलाओं द्वारा एक ही उर्ख्याली में वजनदार गंजेलियों से एक सिद्ध, सधी ताल से कूटना, और साथ साथ गीत गाते रहना " उन्नि धारा उर्ख्याली, उन्नी डाँडा बथाऊँ, उन्नि भारी गंज्यली, उन्नी मौस्याणी सासू", किसी दुखियारी बहू के वेदना का गीत समाप्त भी नहीं हुआ की बच्चों की हथेलियों में गरम गरम ,लाल सट्टी के चमच्युड़े दादी ने रखे. क्या दिन थे. यही दिन पुनरजीवित किये जाते हैं भोज्य प्रयटन मे. बर्हद आकार में . इसलिए भोज्य , कृषि और सांस्कृतिक प्रयटन अपने आप में आपस में जुड़ कर, ग्रामीण प्रयटन को लुभावना बनाते हैं .

 

                     उत्तराखंड के भोज्य पदार्थ को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं, जैसे: १. दैनिक भोजन , २ . त्योहारों के भोजन, और ,३. पिकनिक के भोजन.



                          दैनिक भोजन में दिन मे प्राय: भात, चावल का या झंगोरे का, दाल उरद की, गहथ की , छीमी की या इनके मिश्रण की, या फिर भिगोई, सिल में हाथों से पिसी दालों का फाणा, या कोरी पिसी उड़द का चैन्सा, मौसमी सब्जी, चटनी, ताजे नीम्बू का रस। रात को सब्जी , रोटी, कुछ दूध में आते की लपसी , झंगोरा के चावलों की खीर, या गुड की डल्ली। सुबह के नाश्ते में मंडुये की रोटी , हरा धनिया, लहसुन, भुने तिलों की चटनी और ताजी नौणी, या खुशबूदार कंकरीला गाय घी . जिसे एक अंग्रेज ने घर को चिट्ठी में लिखा था " यहाँ के लोग काली प्लेट में सब्जी मक्खन रख कर मय प्लेट के सब खा जाते है।" हैं न मजेदार, 'प्लेट' को भी खा जाना? .



                             और सब से ऊपर , सारा खाना लकड़ी के चूल्हे में (कम तापमान में) बना। इसका स्वाद तो चूल्हे के चारो और बैठ कर खाने में ही आता है. इन खेतों में पैदा की गयी खाद्य वस्तुओं के अलावा प्रकृति की गोद में उगे साग, जैसे कन्डाली, बसिंगा, लिंगुड़ा,खुन्तड़ा च्यूं , घंनगोड़े इत्यादि अति पौष्टिक और स्वादिष्ट बनस्पति हैं।कन्डाली ( बिच्छू घास - nettle ), जो हर जगह उगी नजर आती है और अपने विशैले रोओं के कारण तुच्छ समझे जाती है, में बीमारियों से लड़ने के लिए प्रतिरोधक शक्ति और रक्त बढाने के लिए सात विटामिन,बारह खनिज और ओमेगा-३ , ओमेगा -६ और नौ अन्य आवश्यक तत्वों का खजाना है. इसकी धबडी और बाडी तो अपने आप में ही सम्पूर्ण पौष्टिक आहार हैं। क्रिस्टन हार्टविग अपनी पुस्तक में इस कन्डाली को केंसर से लड़ने की, रक्तचाप कम करने की , रक्त्शोधक शक्ति वाला खाद्य मानते हैं और इसे सूप की तरह, या शकरकंद के हलुए के साथ खाने को कहते है (उन्होंने हमारी धबडी नहीं खाई होगी). छछिंडा तो उत्तराखंड का विशेष खाना है, ओह भी लोहे की कढाई में बना लौह खनिज से युक्त.

बन फलों में काफल, हिन्सोले, किन्गोड़े, करोंदे, तिम्ला, बेडू , घिंगारू (शहतूत) कभी प्रचुर मात्रा में मिलते थे, अब भी इनकी उपज बधाई जा सकती है. हिन्सोलों की तो कनाडा में बाकायदा खेती की जाती है. इनमे सर्दी-जुकाम से, अलेर्जी से, खांसी से, गंठिया से और केंसर तथा डाइबिटीज से लड़ने की शक्ति होती है. तात्पर्य यह है की उत्तराखंड में नाना प्रकार के ऐसे दुर्लभ खाद्य पदार्थ पैदा करने की संभावना है जिनका स्वाद लेने के लिए दुनिया के हर कोने से प्र्यक्त आ सकते हैं, वशर्ते हम आकर्षक भोज्य प्रयत्न की अच्छी प्रकार से संगठित व्यवस्था कर सकें और आगंतुकों को इतना प्रभावित कर सकें की वे स्वयम तो दुबारा आयं , अपने मित्रों को भी लांय और हमारे प्रचार के स्वेच्छिक वौलेंटियर बने रहें .




                                           विशेष अवसरों के विशेष खाने हैं : स्वाले, उड़द, झिलंगी के भूड़े -पकोड़े , पूरी, खीर, कद्दू की सब्जी जिसमे भुनी लाल मिर्च साबुत पडी होती हैन. और झ्वल्ली तथा झंगोरे का भात, और झ्व्ल्ली- गुड़ का मीठा भात तो अब देश में भी अ गया है. अरसा पर्वतीय इलाकों का वोह विशेष, कई दिनों तक सामान्य तापमान में सुरक्षित रह सकने वाला पकवान है जिसके बनाने, बाटने , और खाने में सामाजिक, और पारिवारिक लगाव इतना घुल मिला होता है की इसकी मिठास की अनुभूति शब्दों में नहीं वर्णित की जा सकती . मूलत: अरसे बेटी की बिदाई पर साथ भेजी दूंण-कंडी का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन अब यह प्रवासी परिवारों के एक साथ आने के अवसर पर भी बनाया जाने लगा है.

 

                                    सरयूलों (उत्तराखंड के विशीष उच्च जाती के ब्राह्मणों से बने रसोइये) द्वारा बनाये गए सामाजिक कार्यों के भोज तो अपनी सानी नहीं रखते। वह ताम्बे के तौलों में बनाया गया मीठा भात, मालू के पत्तों की सुगंध वाला, साथ में गाढी , झ्व्ल्ली, गरम गरम भात और मसालों व ताजे घी से भरी उड़द की लोबडी दाल। और यह सब एक पंक्ति में , सब के साथ बैठ कर खाना। ऐसा मौक़ा जीवन में कुछ ही बार आता है, इसलिए यादगार होता है.




                                  पिकनिक के भोजनों में दाल-ढुंगला, तो प्रसिद्ध है ही, साथ एक पुराना , अब भुलाया जा चुका भोज्य पदार्थ भी है, गीली मिट्टी के आवरण में ढका कर हल्की आंच की भट्टी में भुना हुआ आलू, मसालेदार मछली , तीतर, मुर्गा, बटेर ,तथा बकरे का बारबेक्यू किया हुआ मान्स. गोबर के कंडों में , कन्द्लाऊ के पत्तों के बीच सिके ढुंन्गलों का आनन्द अबर्नीय है, इसलिए जानने के लिए बनाकर खाना ही पड़ता है.




                         और पर्वतीय जलस्रोतों के, जडी-बूटियों के रसयुक्त शीतल मीठे जल का अपना आकर्षण है. जिसमे बना हर भोजन जब बनाने , खिलाने वाले के हार्दिक स्नेह से स्नेह से भरा होता है तो आत्मिक आनद आना स्वाभाविक होता है. इस भोज्य प्रयटन को सुलभ बनाने के लिए, कुछ सुझाव है.:




१. ४.७५ करोड़ रूपये की लागत से अल्मोड़ा में जो फ़ूड क्राफ्ट संस्थान की स्थापना की जा रही है, उसमे पूरे उत्तराँचल के विशिष्ठ भोज्य पदार्थों के बनाने की रेसिपियों का मानकीकरण करके व्यावसायिक उत्तराखंडी भोज्य इकाइयों के लिए प्रशिक्षित और प्रवीन शेफ तैयार करना,




२. जो १६ टूरिस्ट सर्कल मँजूर हुए हैं , उनमे से प्रतेक पर, शुरूआत के लिए कम से कम ,एक पर्वतीय भोज्य स्थल की स्थापना और और विकास रक्खा जाय,




३. प्रसिद्ध सांस्कृतिक मेलों में, विभिन्न व्यावसायिक मेलों में, प्रदर्शनियों में पर्वतीय भोज्य सुविधा अनिवार रूप से हो,




४. फलों, के सीजन में फल मेलों का आयोजन शुरू किया जाय, और पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए, खेल कूद, सांस्कृतिक और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आयोजित करने की व्यवस्था की जाय।




५. आगंतुकों के रहने का प्रबंध आकर्षक गाँवों में, मेला स्थानो/फल बागानों के निकट स्थानीय लोगों के बीच हो तो और भी आकर्षक हो सकता है.




६. ऐसे मेलों का आयोजन गर्मियों की स्कूल कोलेजों की छुट्टियों के समय और दशहरा दीपावली के बीच के समय में सर्वोतम रहेगा .


डा . बलबीर सिंह रावत

dr.bsrawat28@gmail.com

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड  फिल्म उद्द्योग से पर्यटन को बढ़ावा



                                  डा बलबीर सिंह रावत




 

           सत्य जीत राय की फिल्मों ने बंगाल नाम के क्षेत्र को  दर्शकों से रूबरू कराया

 ज्वैल थीप फिल्म ने हमें भूटान की लुभावनी वादियों से परिचय कराया

यश चोपड़ा की कई फिल्मों ने जागृति पैदा की कि स्विट्जर लैंड कितना खुबसूरत  देस है और वंहा ट्यूलिप के फूल किस तरह मन्त्र मुग्ध करने में सक्षम हैं।

फिल्मों ने दार्जलिंग और कश्मीर की सुन्दरता को लोगों के मन में एक चित्र बनाया 

कान्स में जब फिल्म फेस्टिवल होता है तो फ़्रांस पर्यटन उद्यम को एक सम्बल मिलता है

हौलीवुड से अमेरिका के प्रसिधी में चार चाँद लगते हैं।

जब इडियन फिल्म अवार्ड मकाओ में होता है तो मकाओ के पर्यटन को नया आयाम मिलता है।

                फीचर फ़िल्में अपनी लोकप्रियता के कारण समाज के हर वर्ग द्वारा पसंद की जाती हैं। इन में काम कर रहे मुख्य कलाकारों को तो लोग इतना अधिक चाहते हैं कि उन्हें सेलेब्रिटी मान कर उनके दर्शनों को उतावले रहते हैं. उनकी एक झलक पाने के लिए क्या कुछ नहीं कर गुजरते हैं। उनको छूना चाहते हैं, उनसे दो शब्द सुनना चाहते हैं, उनके औटोग्राफ लेने का और उनके साथ फोटो अगर खिंचवाने का अवसर मिल जाता है तो समझते हैं की उन पर साक्षात भगवान की कृपा हो गयी है। और फ़िल्मी कलाकार भी अपना फैन दायरा बढाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं। फिल्मी भाषा में कहें तो "दोनों तरफ आग बराबर है लगी हुई ".


                               फ़िल्मी कलाकारों की यह लोकप्रियता जनसंपर्क का एक सशक्त माध्यम है। जब भी समाचार मिलता है कि कोई वर्तमान या पुराना फ़िल्मी कलाकार इलाके में आ रहा है, तो लोग, विशेष कर युवा वर्ग, सारे काम छोड़ कर उनके दर्शनों को निकल पड़ता है। और जब कहीँ फिल्म महोत्सव हो रहा हो तो क्या कहने। कई कई फिल्मों के दसियों हीरो, हीरोइने , निदेशक , कहानी लेखक, सब एक ही समय में एक ही स्थान पर उपस्थित. दर्शकों को तो मन माँगी मुराद मिल जाती है. और अगर कुछ विदेशी फ़िल्में भी प्रदर्शित हो रही होती हैं और उनके भी कलाकार शोभा बढ़ा रहे हैं तो लगता है कि सोने में सुगंध आ गयी है. यही जन समुदाय एक आकर्षक पर्यटक बन सकता है अगर इसे सारी पर्यटन सुविधाएं भी मिल जां तो।

भारत में तो मनोरंजन कराने वालों को पूजा जाता है, इसलिए फिल्म फेस्टीवल कहीं भी आयोजित हों , दर्शकों की, फैन्स की भीड़ जुटेगी ही। इसी भीड़, यानी मानव दल, को रहने, खाने,आराम, अन्य खाली समय में घूमने फिरने के लिए दर्शनीय स्थलों, यादगार स्थानों में अपनी फोटो विडियो बनाने की, आकर्षक वस्तुओं की खरीद दारी की, तथा अन्य प्रकार के मनोरंजनों की भी सुविधाएँ होंगी तो ही ऐसे फिल्म फेस्टिवल इतनी भीड़ जुटा पायेंगे जो पर्यटन की सुगढ़ व्यवस्था को लाभकारी बना सकेगॆ. फिल हाल मसूरी और नैनी ताल के अलावा ऐसा कोइ स्थान उत्तराखंड में नहीं है जहाँ सारी सुविधाओं का पेकेज मौजूद हो. यह काम सरकार, अपने और केंद्र के सांस्कृतिक मंत्रालय , फिल्म उद्द्योग से मिल कर करा सकते हैं। इसके लिए उत्तराखंड के फिल्म उद्द्योग को सक्रिय और जुझारू होना पडेगा। केवल भावना से काम नहीं चलने वाला है, यह शुद्ध व्यवसायिक मामला है, निर्णय लाभ हानि के बेलेंस शीट से ही होता है। प्रारम्भ के लिए क्षेत्रीय फिल्म फेस्टिवलों का सफल, आकर्षक और जनसमुदाय उमड़ने देने वाला आयोजन हो, उसमे देश के फिल्म उद्द्योग से जुड़े नामी प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और कलाकार, छायाकार आमंत्रित किये जांय तो कालान्तर में यह क्षेत्रीय फेस्टिवल ही राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रीय बनाए जा सकते हैं।



                    पारम्परिक फेस्टिवलों के अतिरक्त और भी जरिये हैं, फिल्मों द्वारा उत्तराखंड के पर्यटन को बढ़ावा देने के जैसे :-

१ . पूरे उत्तराखंड में जितने भी फिल्म शूटिंग के लिए आकर्षक स्थल हैं उनकी विडेओग्राफी करवा के , पूरे विवरण के साथ, कि सम्बंधित स्थानों में यूनिटों के रहने, खाने, के यातायात के, बैंकिंग , संचार और आमोद प्रमोद के कैसे प्रबंध हैं, इस प्रकार दर्शाए जायं की देखते ही उन्हें स्वीकृति मिले सके।




२. इन्ही स्थलों पर अगर क्षेत्रीय फीचर फिल्मो की भी शूटिंग होगी और उनका पूरा विवरण, कि यह स्थल कहाँ हैं , कैसे हैं , फिल्मों के टायटलों में होगा तो बड़े फिल्म उद्द्यों आकर्षित होंगे।




३. ऐसे स्थल अगर वर्तमान किसी पर्यटन केंद्र के आस पास हैं तो इन केन्द्रों में वे अन्य सुविधाएं स्थापित करने से दोहरा लाभ हो सकता है कि वहाँ पर पर्यटक अधिक संख्या में आयेंगे, अधिक दिनों तक टिकेंगे और अधिक खरीददारी करके उत्तराखंड के कुटीर और लघु उद्द्योगों को बढ़ावा देंगे।




४. उत्तराखंड के रीजनल फिल्म उद्द्योग की इस प्रयास में अहम भूमिका है . एक तो वह अपनी फिल्मों में ऐसे स्थानों को चर्चित करे, बाहर से आने वाले

यूनिटों को, उनकी आअश्य्क्ता और गुणवता वाला सारा साजो सामान किराए पर उपलब्ध करा सके, ताकि वे आराम से बिना किसी अतिरिक्त भार के,

यहाँ आकर अपना कार्य सम्पन्न कर पांय।




५ . आगंतुक यूनिटों के मार्ग दर्शन के लिए, सहायता के लिए, और आवश्यकता पड़ने पर विशिष्टता वाले अनुभवी आर्टिस्टों, जैसे, कैमरामेन, मेकअप असिस्टेंट, जूनियर आर्टिस्ट, स्थानीय भेष भूषा के कपडे , आभूषण इत्यादि वस्तुओं, की सेवा उपलब्ध कराने का प्रबंध भी हो तो और भी आकर्षण होगा




६ . इस प्रयास में हौस्पिटेलिटी उद्द्योग तथा सांस्कृतिक संस्थाएं भी जोड़ी जा सकें तो ऐसे स्थल अपने आप में एक परिपूर्ण फिल्म शूटिंग स्थल के साथ साथ समर्द्ध पर्यटन डेस्टिनेशन भी बन सकते हैं .




आवश्यकता है, दूरदृष्टि की, दृढ निश्चय की, जुझारूपन की और एक सम्पूर्ण टीम को चिन्हित कर के उसके गठन और संचालन की। जिस दिन यह हो जायगा उसी दिन से उत्तराखंड के फिल्म उद्दुओग के दिन राष्ट्रीय स्थल पर चमकने शुरू हो जांयगे। तो? देऱी किस बात की? .     
डा बलबीर सिंह रावत
 Balbir Singh Rawat

dr.bsrawat28@gmail.com,

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड में  बाइसिकल पर्यटन



                         डा . बलबीर सिंह रावत


[बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गढ़वाल में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गंगोत्री -जमनोत्री गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;रवाइं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; जौनसार गढवाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; जौनपुर क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; टिहरी गढ़वाल  क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;उत्तरकाशी , केदार घाटी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; बद्रीनाथ घाटी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; कोटद्वार क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; चमोली गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; रुद्रप्रयाग क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;नैनीताल कुमाऊं  क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; रानीखेत कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; हल्द्वानी कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; उधम सिंह नगर कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; बागेश्वर कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;चम्पावत कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; द्वारहाट कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; पिथौरागढ़ कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; अल्मोड़ा  कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;  कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; उत्तराखंड   क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं लेखमाला]

 


साइकिल एक ऐसी सवारी है जो हर एक को उपलब्ध है और इसको चलाने व रखरखाव में कोइ बड़ा खर्चा भी नहीं है। इसे हर उस जगह ले जाया जा सकता है, जहां मनुष्य पैदल जा सकता है, कभी साइकिल में चढ़ कर तो कभी उसे कन्धों में उठा कर। हवा भरने का पम्प और पंक्चर लगाने का सामान साथ में ही खरीदा जा सकता है। आज के युग में इस आकर्षक सवारी को कई कामों में लाया जाता है और तेज चलाने के लिए कई गियरों वाली, बोझ ढोने के लिए मोटे टायरों वाली , चढ़ाई और ऊबड़ खाबड़ रास्तों के लिए स्पेशल टायरों वाली,हर काम के लिए विशिष्ट प्रकार की साइकिलें उपलब्ध है. यानी आप अपने उपयोग के लिए उपयुक्त मॉडल की साइकिल ले सकते है। पहाड़ों में प्रयटन के लिए, मजबूत फ्रेम की, गियेर युक्त और समुचित टायरों वाली साइकिल सबसे उपयुक्त होगी। फिर भी अप अपनी पसंद और सुविधा वाला मॉडल ले कर आसानी से पहाड़ों में मोटर सड़कों के बिछे जाल से कहीं से भी कहीं पहुँच सकते हैं।

उत्तराखंड में आने के लिए चार मुख्य रेल से जुड़े द्वार हैं, पश्चिम में हरद्वार-ऋषिकेश, बीच में कोटद्वार, रामनगर और पूर्व में काठगोदाम-हल्द्वानी। मोटर सड़कों से पश्चिम में उत्तरप्रदेश से और हिमाचल पंजाब से देहरादून, हरद्वार के रास्ते, बीच में बिजनौर नजीबाबाद होते हुये, और आगे कोरबेट पार्क,मुरादाबाद-रामनगर, पंतनगर, बरेली से काठगोदाम- नानीताल के रास्ते अन्दर आने की सुविधाएं हैं। उत्तराखंड की मोटर सड़कें समुद्र तल से ३५० मीटर से ले कर २,५०० की ऊंचाइयों तक हैं, इनमे अनेकों बाल -पिन मोड़ हैं, लम्बी घुमावदार, समतल सड़कें, नदियों की घाटियों में और पर्वतों की पीठों पर भी हैं। ऐसी सड़कों पर साइकिल से चलना एक ऐसा अनुभव है जो तभी महसूस होता है जब उसे स्वयम लिया जाय. ढलानों और मोड़ों पर , बिना पैडल मारे, सरपट हवा से बाते करते हुए, नदी की घाटियों की समतल, घुमावदार सड़कों पर जितना तेज चला सको उतने चलने को जो ये सड़कें उकसाती हैं, और आप उनके उकसाव को स्वीकार करके, नदियों के बहाव के संगीत की सहायता से, अपनी क्षमता के चरम से रूबरू हो पाते हैं, यह अवसर आपको केवल पहाडी सड़कों में ही मिल सकता है. लेकिन आप इन सड़कों में अकेले नहीं होते, इन पर चलने वाली बसें, ट्रक , टेक्सियां , कारें, मोटर साइकलें , सब आपका उत्साह बढ़ाते हुए अपनेपन का एहसास दिलाते हैं . किनारे के गाँव के लोग हाथ हिला कर आप का स्वागत करते हैं, बच्चे आप के साथ साथ दौड़ कर आपसे आगे निकले के प्रयास में आप से पीछे छूट जाते हैं और आप को हंसने का अवसर देते हैं




जिन्हें शांत ,पहाड़ों की ऊचाइयों में, भीनी प्रकृति की महक के बीच शीतल समीर अकेले या समूह में , प्रकृति से बातें करने के अवसर चाहियें उनके लिए उत्तराखंड के उत्तर की सड़कें वह अकल्पनीय वातावरण देती हैं जो अन्य कही उपलब्ध नहीं है , आप को लगेगा की हिमाच्छ्दित पर्वत बस आप पहुँच में आने ही वाले हैं।

रात्रि विश्राम के लिए पर्यटन निगमों के और सरकार के बन और पी डब्ल्यू डी के डाक बंगले हैं, मोटर सडकों पर कुछ कस्बों के ढाबे हैं , गर्मियों में स्कूलों में भी रात बिता सकते हैं। सब से उचित होगा की आप गढ़वाल /कुमाऊं पर्यटन मंडलों से सूचना ले कर अग्रिम बुकिंग करा लें। अभी पिछले वर्ष ही कुमाऊं में एक दो निजी उद्द्य्मियों ने बाइसिकिल पर्यटन की सुविधा देने की संस्थाए बनाई हैं फिलहाल वे लघु स्तर पर हैं, उनके पते भी ये निगम दे सकते है. अपना , पसंद का साजो सामान, आप स्वयम ही लायेंगे तो अच्छा रहेगा। एक बार आयेंगे तो फिर बार बार आते रहेंगे।

बाइसिकिल पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं :-

१. साइक्लिंग के लिए सुगम और आकर्षक स्थान और सड़कें चिन्हित की जायेगी तो उन को केंद्र मान कर वहाँ पर अन्य प्रकार के संभव पर्यटन आयाम जोड़ कर लोकल उद्दयम केन्दों की स्थापना की जा सकती है जो कालान्तर में एक ऐसे हब श्रृंखला को जन्म दे सकती है जहा एक सम्पूर्ण स्वपोषित उत्पादन केंद्र बन सकता है.

२. साइकिल पर्यटकों के रहने,खाने पीने और रहने की समुचित व्यवस्था के साथ साथ, स्थानीय दर्शनीय स्थलों की सैर कराने के लिए समोचित प्रशिक्ष्ण प्राप्त स्थानीय मार्ग दर्शकों को रोजगार दिया जा सकता है.

३. ऐसे स्थानों पर किराए में उचित मोडेलों की साइकिलें, मौसम के अनुसार, पहिनने के ऊनी वस्त्र , कम्बल, बिस्तर, कमरे , पर्वतारोहन / पैदल घूमने के सारे गियर , साइबर काफे, रात्रि को केम्प फायर , स्थानीय संगीत-नृत्य का आयोजन किया जा सकता है.

४. यह ऐसा उभरता आकर्षक प्रयटन है जो साधारण आय वाले युवाओं और घूमने के शौकीनों के लिए बहुत ही सुविधाजन है , ऐसे परवारों की संख्या देश में इतनी है की वे संख्याबल के बूते पर ही इस उद्द्योग को अति आकर्षक बना सकते हैं, इसलिए इस प्रबल संभावना के पूरे उपयोग के लिए सरकार को स्थानीय छोटे छोटे युवा उद्द्य्मियों को प्रोत्साहित कर के, पूरी ट्रेनिंग दे कर , सारे साजो सामान से लैस कराके स्थापित करना चाहिए, उनका पंजीकरण निगम के सम्बंधित विभाग के करा कर , उनके प्रचार प्रसार का उत्तरदायित्व लेना चाहिये.

५. अगर कल्पनाशील पहलू  के साथ, दूरदृष्टि से इस पर्यटन को ठोस नीव पर खडा किया जाता है तो उत्तराखंड एक आकर्षक साइक्लिंग डेस्टिनेशन चन्द सालों में ही बन सकता








Copyright@ Dr Balbir Singh Rawat, Dehradun, 2013
 dr.bsrawat28@gmail.com


 
 

बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गढ़वाल में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गंगोत्री -जमनोत्री गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;रवाइं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; जौनसार गढवाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; जौनपुर क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; टिहरी गढ़वाल  क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;उत्तरकाशी , केदार घाटी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; बद्रीनाथ घाटी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; कोटद्वार क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; चमोली गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; रुद्रप्रयाग क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; गढ़वाल क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;नैनीताल कुमाऊं  क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; रानीखेत कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; हल्द्वानी कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; उधम सिंह नगर कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; बागेश्वर कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;चम्पावत कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; द्वारहाट कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; पिथौरागढ़ कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; अल्मोड़ा  कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं;  कुमाऊं क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं; उत्तराखंड   क्षेत्र में बाइसाइकलिंग पर्यटन की सम्भावनाएं लेखमाला जीरी ...

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड में संगीत पर्यटन



                          डा . बलबीर सिंह रावत







संगीत मानव ह्रदय की भावनाओं की वह अभिव्यक्ति है जो स्वरों की लहरों के साथ मुंह से निर्झरित होती है. संगीत में वे सारे रस होते हैं जो मनुष्य की भावनाओं के अलग अलग रूपों को, यथोचित, अलग अलग ताल, अलाप दे कर गा कर सुनाये जाते हैं ताकि सुनने वाले समझ लें, अनुभव करें और साथ हो लें। अपनी इस कला को, आदमी ने कालान्तर में कई प्रकार से सुधारा, संवारा। प्रवीनो ने साधनाओं, शोधो और अनुभवों से शाश्त्रीय संगीत को जन्म दिया, तो आम जन ने लोक संगीत को। संगीत की यह दोनों धाराएं किसी भी समाज के आचार, व्यवहार और संस्कार का दर्शन कराती हैं। जहां शाश्त्रीय संगीत का पूरा आनंद लेने के लिए उसकी सारी धाराओं का मूल ज्ञान होना सहायक होता है, वहीं लोक संगीत के धुनें इतनी आकर्षक और धरातली होती हैं कि उनका आनंद हर कोई ले सकता है.

 

संगीत के इसी अद्भुत गुण के कारण संगीत समारोहों का आयोजन अब एक आम चलन हो गया है, और जहां कही भी भीड़ जुटानी हो, या भीड़ को बांधे रखना हो वहाँ संगीत बजाना तो जैसे एक धर्म सा ही हो गया है. पर्यटन उद्द्योग भी संगीत के महत्व को समझ कर पर्यटकों को लुभाने के लिए लोक संगीत को महत्वपूर्ण स्थान देने लगा है. और पर्यटक स्वयम ही जहां भी जाता है वहीं अपनी गायकी से लोगों को आकर्षित करना चाहता है और स्थानीय लोगो के लोक गीत भी सुनना चाहता है. उत्तराखंड के सन्दर्भ में अभी ऐसे प्रयटन स्थल विकसित होने रह गए हैं, जहां रात्रि विश्राम की सुविघाओं में संगीत को मुख्य आकर्षण का दर्जा दिया गया हो. हाँ केवल संगीत सभाओं का आयोजन संगीत प्रेमी करते रहते हैं और ऐसे आयोजनों का पर्यटन से कोइ सम्बन्ध नहीं होता है. चूंकि, पर्यटकों की रात्रि विश्राम व्यवस्था स्थापित है

और सगीत सभाएं भी आयोजित हो रही हैं, तो इनका मिलाप आसान हो सकता है, अगर दोनों के आयोजक साथ मिलकर काम करने का मन बना लें तो। आवश्यकता है संगीत को पर्यटन से जोड़ने की,इसके लिए पहल पर्यटन उद्द्योग को ही करनी होगी क्योंकि, एक तो वह व्यस्थित है, दुसरे जहां भी पर्यटकों के विश्राम की व्यवस्था है, सगीत आयोजन वहीं हो सकते हैं। हर स्थान में लोक संगीत के अच्छे गायक मौकों की प्रतीक्षा में हैं। इनको एक साथ लाना तो सरल है, लेकिन यह तय करना उतना आसान नहीं है की किस प्रकार के पर्यटकों को किस प्रकार का लोक संगीत पसंद आयेगा, और साथ साथ स्थानीय संस्कृति, रिवाजों का सही रूप कौनसा है जो आगुन्तकों को मेजमानों की जीवन शैली का सही परिचय दे पायेगा?




उत्तराखंड में पर्यटकों के तीन प्रमुख समूह आते हैं, एक तो धार्मिक है जिसमें ८० % से अधिक पर्यटक आते हैं, दूसरा घुमंतू है, जो अपनी दैनिक जिन्दगी के उबाऊ, थकाऊ वातावरण से अलग हो कर कुछ दिन आराम से, अपनी आत्मिक तथा शारीरिक शक्तियों को पुनर्रचित करना चाहते हैं, तीसरे प्रकार के पर्यटक हैं जो पर्वतों की विषमताओं से भिड़ कर अपने शारीरिक और आत्मबल से परिचित हो कर उसका विकास करना चाहते हैं। लोक संगीत में इन तीनो तरह के आगंतुकों के लिए, विशिष्ट तरह के गीतों नृत्यों की प्रचुरता है , आवश्यकता है, इसके ऐसे वर्गीकरण की कि तीनो तरह की पसंदों को यथोचित संगीत से परिचित और प्रोत्साहित किया जा सके। कौन करेगा यह वर्गी कर्ण,, कैसे करेगा और किस प्रकार विशेष सगीत दल तैयार होंगे, इसके लिए निम्न सुझाव हैं;-




1. धार्मिक पर्यटकों के लिए ऐसे गीत जो धर्म और आध्यात्म से सम्बंधित हों, साथ में स्थानीय संस्कृति से परिचित कराने वाले गीत ,




2. साहसिक पर्यटकों के लिए, जोश और उत्साह भरने वाले वीर रस के और धनात्मक शब्दों वाले गीत और मनोरंजन कररने वाले सौम्य गीत,




3. आराम और पुनर्रचित होने के लिए आये हुए पर्यटकों के लिए, मनोरंजन, संस्कृति और साहस वाले उत्साहवर्धक गीत ,




4. लोक गीतों-नृत्यों का उपरक्त प्रकार का वर्गीकरण करने और सांस्कृतिक सुचिता को बनाए रखने के लिए संगीतकारों,बौद्धिक समाज सुधारकों, और शाश्त्रीय संगीत तथा नृत्य कोरियोग्रेफ़ी के विशेषज्ञों की समिति का गठन आवश्यक है.समिति उत्तराखंड के पारम्परिक लोक गीतों और नृत्य शैलियों का पिछले कई दशकों के भूले बिसरे तथा आज के प्रचलित गीतों का संकलन करके उन्हें पुनर्जीवित कर सकती है.




5. सुरीले स्वरों वाले स्थानीय गायकों, गायिकाओं का चयन करके उनके स्थाई दल बना कर उन्हें प्रयटन व्यवसाय की आवश्यकताओं, गरिमाओं के लिए प्रशिक्षित कर के उनके स्थाई दल गठित करना ,




6. उत्तराखंड के लोक संगीत और लोकगीतों-नृत्यों पर शोध, और स्थानीय संस्कृति को उजागर कराने वाले नए आयाम जोड़ने के लिए एक लोक संगीत-नृत्य अन्वेषण संस्थान का गठन करने से ही लाभ होगा

सर्वाधिकार @ डा . बलबीर सिंह रावत


 dr.bsrawat28@gmail.com

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
कृषि पर्यटन; हल्द्वानी कुमाऊं में कृषि पर्यटन; नैनताल कुमाऊं में कृषि पर्यटन; अल्मोड़ा कुमाऊं में कृषि पर्यटन; चम्पावत कुमाऊं में कृषि पर्यटन; द्वारहाट कुमाऊं में कृषि पर्यटन; बागेश्वर कुमाऊं में कृषि पर्यटन;पिथौरागढ़ कुमाऊं में कृषि पर्यटन लेखमाला] 


 

हमारे देश में अब शहरों में ही पैदा हुई तीसरी चौथी पीढी के लोगों की संख्या बहुलता में है और वे जानना चाहते हैं की जो भोजन वे खाते हैं जिस दूध को पीते हैं, वह कहाँ और कैसे पैदा होता है? इस लिए वे गाँव में जाने, रहने और फ़सलों की कटाई, फलों की तुडाई, बिनाई में शामिल होने की इच्छा भी रखने लगे हैं .इसी इच्छा की पूर्ति के लिए कृषि पर्यटन का आयोजन किया जाता है. जहां विदेशों में ऐसा पर्यटन अंगूरों के लम्बे चौड़े फैले बागानों में अन्गूर्रों की बिनाई, रस निकलवाई और वाइन बनाने की प्रक्रिया में शामिल होने के' और बियर महोत्सवो के आयोजनों के अवसरों पर होता है, हमारे देश में हमें अपनी विशिष्टताओं के अनुरूप ही इस दिलचस्प और नए तरह के पर्यटन को प्रचलित करना पडेगा .

 उत्तराखंड में ऐसे पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं, और इसके प्रचालन के लिए दो प्रकार के व्यवसायों, कृषि उत्पादन और टूरिज्म,को मिला कर तिगुना लाभ लिया जा सकता है.




1. कृषि में ऐसी फसलें उगाना जो बाहर से आने वालों को आकर्षित करती हैं, जैसे, स्ट्रोबेरी के लम्बे दूर तक फैले खेत, सेव, खुमानी, नाशपाती, आडू , आलूबुखारा, चेरी, शहतूत के पूरे के पूरे गावोँ में फैले बागान, नई फसलों में हिन्सालू (केसरिया उर जामुनी रंग के) किन्गोड़े, करोंदे , ब्लू बेरी, हेजल नट, जैतून, अंगूर इत्यादि की खेती। इन फलों को तोड़ने, साफ़ करने, इनके रस निकालने/जेम बनाने और पेकिंग की सुविधा एक ही स्थान पर हो तो पर्यटक स्वयम, किसी जानकार विशेषग्य की देखरेख में , सारे काम करके, उपज, सामान और सारे अन्य खर्चे दे कर, अपने बनाए पदार्थ अपने साथ घर ले जा सकेंगे ।




2. कृषि पर्यटन अति पलायन के अभिशाप को वरदान में बदल सकता है, अगर प्रवासियों के खेत किराए, लीज या ठेके पर ले कर पर्यटन-आकर्षक कृषि को व्यवसायिक स्तर पर स्थापित किया जा सकता है.

इस के लिए सरकार का ही मुंह ताकने से काम नहीं चलेगा. इच्छुक, साहसी यवाओं को आगे आ कर अपनी, संस्था/ इकाई बना कर वैज्ञानिक रूप से ऐसी कृषि को जन्म देने से ही काम बनेगा .




3. इन्ही प्रवासियों के ऐसे मकान भी किराए पर ले कर पर्यटकों के रहने का अच्छा प्रबंध भी किया जा सकता है. जहां यह संभव न हो वहाँ, बांस के टूरिस्ट हट्स या लॉज बना कर इन बगीचों के बीचो बीच टूरिस्ट कोलोनी बनाई जा सकती है. अगर ऐसे स्थान किसी रमणीक क्षेत्रों में होंगे तो वहाँ पर घुमने, पिकनिक के , संगीत, लोक नृत्य और धार्मिक कार्यक्रम भी किये जा सकते हैं। समीप कोई नदी, झील हो तो सोने में सुहागा.




4. उगाई फसलों के अलावा वनों से बुरांस के फूलों को तोड़कर लाने, रस निकाल कर संरक्षित करके बोतलों, कैनो में पैक करके ले जाने की सुविधा से युक्त केद्रों में पर्यटकों को लुभाया जा सकता है.




5. इस कृषि पर्यटन को अगर ग्रामीण, साहसिक क्रीडा और हनी मून पर्यटन से जोड़ दिया जाय तो नए प्रयटन के इस अवतार से स्वरोजगार के हजारों व्यवसाय कुछ ही सालों में स्वपोषित हो कर नए प्र्वेषियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र बन सकते हैं .




इस समय यह भले ही एक सकारात्मक कल्पना की उड़ान लगता रहा हो , लेकिन यह सम्भव है और किसी कर्मठ सृजनशील और कल्पनाशील व्यक्ति/संस्था की बाट जोह रहा है. इस से पाहिले की कोइ निजी उद्यमी बाहर से आ कर यह सब कर डाले , उताराखंड के ही नवयुवा आगे आयेंगे तो अनेको संस्थाए/ सरकारी विभाग उनकी साहयता, मार्गदर्शन, और प्रशिक्षण और स्थापन के लिए आगे आ सकते हैं, सरकार को भी मनाया जा सकता है, कोइ पहल तो करे.




6 . कालान्तर में इस में भेड़ों की उन कटाई, उन की धुलाई, रंगाई, मधुमक्खी के छत्तों से शहद निक्लाई, सफाई इत्यादि के और अनेकों अन्य तरह के मेले भी इस से जोड़े जा सकते हैन. आवश्यकता है खुले मन से, आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की . और यह नेक काम युवा आसानी से कर सकते हैं . 
 Copyright@ डा . बलबीर सिंह रावत


dr.bsrawat28@gmail.com

 उत्तराखंड में कृषि पर्यटन; गढ़वाल में में कृषि पर्यटन; कुमाऊं में कृषि पर्यटन; पौड़ी गढ़वाल में कृषि पर्यटन; रुद्रप्रयाग गढ़वाल में कृषि पर्यटन; चमोली गढ़वाल में कृषि पर्यटन; टिहरी गढ़वाल में कृषि पर्यटन; उत्तरकाशी गढ़वाल में कृषि पर्यटन; देहरादून गढ़वाल में कृषि पर्यटन; हरिद्वार में कृषि पर्यटन; उधम सिंह नगर कुमाऊं में कृषि पर्यटन; रानीखेत कुमाऊं में कृषि पर्यटन; हल्द्वानी कुमाऊं में कृषि पर्यटन; नैनताल कुमाऊं में कृषि पर्यटन; अल्मोड़ा कुमाऊं में कृषि पर्यटन; चम्पावत कुमाऊं में कृषि पर्यटन; द्वारहाट कुमाऊं में कृषि पर्यटन; बागेश्वर कुमाऊं में कृषि पर्यटन;पिथौरागढ़ कुमाऊं में कृषि पर्यटन लेखमाला jari...
 


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड में इकोटूरिज्म
 
                                                                                      डा .बलबीर सिंह रावत










एको टूरिज्म पर्यटन की वोह शाखा है पर्यटकों को किसी ऐसे स्थानों से परिचय कराता है जहां का सकल बनस्पति, प्राणी , जीवाणु, जल, वायु , मिट्टी जगत बिकुल प्राकृतिक अवस्था में, एक दुसरे के पूरक के रूप में, अब भी विद्यमान हो और जहां मनुष्य और उसका रहन सहन, जीवन यापन के तौर तरीके , संस्कृति  प्रकृति से मेल खाती हुई,बननाते हुए विद्यमान हो. इक्कीसवीं सदी में ऐसे स्थान बहुत कम रह गए  हैं  और इसीलिये उनका महत्व और भी बढ़ गया है. ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है जो प्रकृति को उसके मूल रूप में देखना चाहते हैं। ऐसे ही जिज्ञासु लोगों के लिए इको टूरिज्म की व्यवस्था  हर उस देश में की जाती है जिनके यहाँ कहीं न कही ऐसे प्राकृतिक स्थान अब भी मिलते हैं। इन स्थानों के मूल रूप को सुरक्षित रखने और संवारने के लिए  यथिचित नियम, कायदे भी बनाए गए हैं और ऐसे स्थान मनुष्य के हस्तक्षेप से सुरक्षित रखने के लिए प्राय: हर ऐसे स्थान को राष्ट्रीय उद्द्यान ( नेशनल पार्क ) के नियमो के अनुसार चिन्हित कर दिया गया है.




उत्तराखंड ऐसा पर्वतीय क्षेत्र है जहां तराई और नदी घाटियों में उप भूमध्यीय जलवायु और शिखरों में तथा धुर उत्तर में टेम्पेरेट जलवायु मिलती है तो यहाँ हर प्रकार की बनस्पति, पशु पक्षी, और जलवायु  कुछ ही किलोमीटरों के दायरे में मिल जाते है. जहां तराई के नेशनल पार्कों, राजाजी और कोर्बेट , में हाथी, बाघ, हिरन , बन्दर, लंगूर और नाना प्रकार के पक्षी मिलते हैं, साल, शीशम, खैर के घने जंगल हैं, वही उत्तर में ठंडी जलवायु के जानवर, जैसे तेंदुआ, हिरन, घ्वीड़ ,काकड़ (बार्किंग डिएर), सुअर, बन्दर, लंगूर, लोमड़ी , खरगोश, जंगली, बिल्ली, सेही , पक्षियों में  नाना प्रकार के रंगीन और मधुर संगीत गाने वाले पक्शियों के झुन्ड। उत्तराखंड का प्रतीक मोनाल पक्षी, हिमालय के ऊंचे पर्वतं में ही मिलता है, जिसकी सुन्दरता मोर से कम नहीं है.




वनस्पतियों से उत्तराखंड इतना हरा भरा है की हर पौधे का नाम तो किसी बनस्पति शाश्त्र की पुस्तक से ही जाना जा सकता है. बसंत ऋतु की आहट देने वाली, सबसे पाहिले खिलने वाली प्युन्ली, जाड़ों के पाले से मुझाई धरती को, फरवरी अंत से ही पीले आवरण में ढांकना शुरू कर देती है, बच्चे खुशी खुशी फूल्देइ का त्योहार मनाते हैं, घर घर प्युन्ली के फूल पहुंचाते है.   और उसके पीछे पीछे आडू,,चेरी, खुमानी, प्लम (आलूबुखारा),सेव के बगीचों में फूल आने शुरू होते है जंगलों में भी मेलू,(सेव का मूल बृक्ष जो केवल उत्तराखंड में ही पाया जाता है),  किन्गोड़े और हिन्सालू के पीले और गुलाबी फूलों की छटा  देखने लायक होती है. और इस रंगीन प्रकृति में  दूर से आती चरवाहों के गीतों की मधुर धुन तो मन को इतना मंत्रमुग्ध कर देती है, की नर्म ताजी घास में लेट कर देखने सुन ने का आनंद लेने के अलावा और कुछ भाता ही नहीं है. 

जैसे हे यह फलदार पेड़ों के फूल समाप्ति पर आते हैं, वैसे ही बनो में बुरांस के लाल फूल ऐसे खिल उठते हैं जैसे की धरती लाल साडी पहिन कर पक्षिओं को आकर्षित करते हुए मधुमखियों को प्रेरित कर रही हो की आओ , मेरे शहद से अपने छत्ते भरो, अपने बच्चे पालो , और बदले में मेरे पराग से मेरी बंश बृद्धि में भागीदारी करो. प्रकृति का यह संतुलन, की जो मेरा भला करने आयेगा उसे भी कुछ मिलेगा ही मुझ से. और इसी देने - लेने के सम्बन्ध से वह भोज्य श्रृंखला बनी है जिससे इस धरती का एकोलोजिक्ल सिस्टम स्वचालित रहता है. कितना सुकून देता है यह सब अपनी आँखों के सामने घटित होता हुआ देखने से. और फूलों की घटी तो दुनिया में अपनी सानी नहीं रखती . न ही ब्रह्म कमल कही और मिलता है. और भोज पत्र के बृक्ष?  गौमुख और अन्य आकर्षक ग्लेसियर भी यही हैं अपनी पूरी छटा के साथ.




उत्तराखंड के सुदूर उत्तर में , हिमाच्छादित पर्वतों की गोद में प्रकृति अब भी अपने अनछुए रूप में देखने को मिलती है. गंगोत्री यमनोत्री एको जोन, नंदा देवी हैबिटाट,पिंडर क्षेत्र के बुग्याल,कौसानी से उत्तर की पर्वत शृंख्लायें, मुनस्यारी से उत्तर के बन , यानी गंगोत्री से लेकर नेपाल की सीमा तक, कहीं भी जाइये , आपको प्रकृति अपने पूरे बैभव  में दिखेगी जहां हर प्रकार का सूक्ष्म से ले कर बड़े घासाहारी पशु, तेंदुए, लोमड़िया,हिमालयी लेपर्ड और गीत गाते रंग विरंगे पक्षी आपका स्वागत करेंगे।  निडर हो कर. किसी भी नदी में उतर जाइये, मछलियां आपके पैर चूमने तुरंत, आजाएंगी, बेखोफ़. यही वोह क्षेत्र है जहाँ आप पशुओं से मित्रता कर सकतें हैं  अगर आपकी शारीरिक भाषा से मित्रता का संदेश जाता है तो. पहिचाना चाहेंगे अपनी यह शक्ति को कि कैसे आप पशुपक्षियों के बीच रह कर ईश्वर को अपने आस पास होने का परमानंद स्वयम को दे सकते है. तो आइये उताराखंड की लम्बी, चौड़ी, गहरी और अपने मूल स्वरूप्प में विद्यमान प्रकृति के इस संतलन को संचालित करते रहने की प्रकिया को देखने , समझने और उसका अलोकिक आनंद लेने . सब से उत्तम समय है अप्रैल से अक्टूबर तक, हर ऋतु का अपना अलग ही आकर्षण है. अपनी पसंद की ऋतु में आइये. प्रकृति आपके स्वागत में वहाँ विद्यमान है.




अगर आपको प्रकृति के इस मूल स्वरुप के दर्शन करने अहिं तो आपको इसी के अनुरूप अपने सोने खाने और प्रयोग के बाद  बची सामग्री को वापस बाहर लाने के सारे प्रबंध करके आना भी आवश्यक है. छोटे छोटे दलों में आयगे तो अकेलेपन का भय नहीं सताएगा . आने से पहिले चुने गए स्थानों के बारे में अध्यन करके, और राज्य के पर्यटन निगमों से सलाह ले कर ही आइये . एक बार आये तो बार बार आने को मन करेगा आपका

Copyright@ डा .बलबीर सिंह रावत Dehradun 2013


 dr.bsrawat28@gmail.com

Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
होटल विपणन से  उत्तराखंड पर्यटन  विकास
                                                                                           

                                    डा . बलबीर सिंह रावत  (देहरादून )                                                   







होटल व्यवसाय और पर्यटन व्यवसाय एक दुसरे के पूरक ही नहीं , अभिन्न अंग भी हैं। हर पर्यटक अपने घर से दूर, किसी उद्दयेश को ले कर जाता है , चाहे वह केवल नईं जगहों की दृश्यावलियों  का आनंद लेने जा रहा हो, या  धार्मिक स्थलोँ की यात्रा  करने, या व्यावसायिक काम से या किन्ही अन्य  कारणों से। उसे वहां ठहरने, खाने पीने , आराम करने , आने जाने  और खाली समय में आमोद प्रमोद की सुविधाएँ चाहिये होती हैं , वह भी अपनी मन पसंद की .

होटल व्यवसाय का यह उद्देश्य रहता है कि वह पर्यटकों को वे सारी सुविधाएं प्रदान करें जो उन्हें इतना प्रसन्न कर दें कि भविष्य में स्वयम तो वहीं आंय , अपने सारे परिचितों को भी वहीं ठहरने की राय, स्वेच्छा से, दें। यानी आपकी सेवावों से इतने प्रभावित हो जांय की वे आपके होटल के स्वेच्छिक प्रचारक बनें।




ऐसी विपणन व्यवस्था के लिए हर होटल व्यवसायी को कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना होता है , प्रमुख बातें इस लेख में नीचे दी गयी हैं .     

१. उत्तराखंड में पर्यटक मुख्यतः धार्मिक कारणों से आते है और उनके आने के रास्ते हृषिकेश, कोटद्वार,रामनगर,और काठगोदाम/हल्द्वानी से हैं। हवाई यात्री  देहरादून , पंतनगर और सेनिखैनी से आगे जाते हैं . यहाँ से ही जाते हैं वे अपने गंतव्यों , चारधाम, हेमकुंड साहेब  और कैलाश के लिए मोटर मार्गों द्वारा  ही जाते हैं . कई नवयुवक अपनी मोटर साइकिलों से, और परिवार वाले गाड़ियों, और बसों से भी आते हैं .

दुसरे प्रकार के पर्यटक  सैलानी पर्यटक  हैं , इनके गंतव्य स्थान मुख्यत: मसूरी, नैनीताल होते हैं,  फूलों की घाटी के अलावा कुछ अन्य स्थान भी उभर रहे हैं। साहसिक खेलों में से अब तक केवल रिवर राफ्टिंग ही प्रचलित हो पाया है और वह भी कुछेक स्थानों पर हॆ.     




२. आगंतुकों की आर्थिक क्षमता के वर्ग, उनकी उम्र , उद्द्येश्य और  प्रयटन में आने का बजट ही होटल व्यवसाय की आय निर्धारित करता है. यह ऐसा माँना हुआ सत्य है कि जिस भी होटल व्यवसायी ने इस सत्य को पूरी तरह से पहिचान लिया और उसी के अनुसार अपने व्यवसाय की स्थापना करके उसे बढाया,  वह ही अधिक सफल हुआ है।




३. होटल उद्द्यामियों के अपने उदेश्य , कि पर्यटन सीजन में ही अपने साल भर की अपेक्षित आय का प्रबंध करें , उपरोक्त जानकारियों से ही प्रभावित होते हैं, कि उद्द्यमी किस प्रकार, कैसी सेवाएँ  देकर ,अपना उद्देश्य प्राप्त करने के साथ साथ अपनी साख भी स्थापित कर पाने में सफल हो सकते हैं . कैसे अपनी सेवाओं को इतना उत्कृष्ट बना सकते हैं की हर आगंतुक पाहिले उनके होटल में आने का इच्छुक हो. इसके लिए होटल के सभी सुविधाएं, सेवाएँ , आचरण, वातावरण,  मनोहर हों , यादगार हों और उद्यमियों, कर्मचारियों के लिए उत्साह बर्धक हों।




४. उपरोक्त मूल भूत जानकारियों/आवश्यकताओं  के समुचित निर्णयों के बाद यह  निर्धारित करना आवश्यक है होटल कहाँ स्थापित हो, उसका आकार कितना बड़ा हो, उसमें क्या क्या सुविधाएं हों ,  जैसे यथोचित पार्किंग व्यवस्था , सुरक्षा, स्वास्थ्य (डाक्टर ),साफ़, लुभावने कमरे, बिछौने, सुन्दर बनावट, स्वादिष्ट भोजन, आमोद प्रमोद की ऐसी सुविधाएं, जो हर आगंतुक वर्ग के पर्यटन उद्द्येश्य से मेल खाती हों, बाहर लॉन , फुलवारियां , बैठने की लिए आरामदायक स्थान, और स्थानीय कुटीर और लघु उद्द्योगों में उत्पादित लुभावनी वस्तुओं का विक्रय केन्द्र , साथ में आस पास के दर्शनीय स्थलों के विडियो क्लिपों को दिखाने की ,समुचित यातायात /आवागमन व्यवस्था के लिए अपनी या निर्धारित किराए पर टैक्सिया/मिनी/बड़ी आरामदायक बसें,प्रशिक्षित मार्ग-दर्शक (गाइड ) की , आने पर स्वागत और बिदा होने पर यादगार मेंमेंटो, लुभाने वाला व्यवहार करना ही इस उद्द्योग की स्थायी सफलता की शर्त है.




५. अब अंत में आता है ओह सबसे महत्व पूर्ण काम जिसके बिना उपरोक्त सारे प्रबंध अधूरे ही रह जाते हैं। यह है होटल उद्द्योग की विपणन  कुशलता।

विपणन के लिए आजकल नाना प्रकार के साधन उपलब्ध हैं जैसे होटल के अपनी वेब साईट, ऐसे  टी भी  चैनलों तथा अखबारों, पर्यटन संबंधी प्रकाशनों में विज्ञापन  जो लक्ष्यित पर्यटकों को यथोचित समय पर, प्रभावी रूप से , आकर्षित कर सकें .  यह सारे प्रचार साधन , होटल के उद्द्येशों के अनुरूप,  राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय या क्षेत्रीय/स्थानीय  स्तर के हो सकते हैं . एक प्रचलित तरीका यह भी है कि  ऐसी सारी  होटल इकाइयों का संगठन बना कर, स्थल-विशेषों पर  होटल  उप्लाधियों और सुविधाओं का विस्तृत व्योरा दिया हो और सारी इकाइयों के नाम वर्णित हों . ऐसे सम्मिलित विज्ञापनो के खर्चे भी कम होते हैं. 




६. एक और असरदार तरीका भी है कि हर होटल अपनी विशेषताओं का ऐसे सही और लुभावने वर्णन पुस्तिकाये छपायं और उनमे  होटल की सारी खूबियों का वर्णन हो , होटल तक पहुँचने का नक्शा  और यातायात की सुविधा को  (अगर होटल की अपनी गाड़ियाँ हैं तो उनका भी) पहिचानने का जिक्र भी हो। इन पुस्तिकाओं को राज्य के अन्दर आने वाले प्रवेश स्थानों पर, हर बस में, हर टैक्सी या निजी वाहनों सवारियों में वितरित करने की समुचित व्यवस्था होने से  सूचनाये सही रूप में सही लोगों तक पहुंचाई जा सकती है।




७. यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि कहीं अतिशयोक्ति न हो ,स्वस्थ प्रतिस्पर्धा  हो, और जो कुछ भी  विपणन में दर्शाया गया है वोह वास्तविक हो , सरल भाषा में हो, आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हो और  हो सके तो जिस क्षेत्र के पर्यटक आ रहे हों , उनकी ही भाषा में हो तो एक लगाव उत्पन्न हो जाता है। लगाव ही होटल व्यवसाय की सफ़लता का मूल मन्त्र है। अगर आगंतुक आपके होटल को "अपने घर से दूर, अपना घर" जैसा पाता है तो आप सफल होटल व्यावसाई बन जाते हैं।

                         
Copyright@ डा . बलबीर सिंह रावत  (देहरादून


dr.bsrawat28@gmail.com


Bhishma Kukreti

  • Hero Member
  • *****
  • Posts: 18,808
  • Karma: +22/-1
उत्तराखंड में रोजगार परक शिक्षा



                                                                                डा . बलबीर सिंह रावत







शिक्षा का उद्द्येश्य है मनुष्य को अज्ञान के अँधेरे से निकाल कर ज्ञान के प्रकाश में लाना . ज्ञान से ही मानव जाति ने इतनी उन्नति और प्रगति कर ली है कि  जहां एक और मानवीयता और मानव अधिकारों को व्याक्खित करके अन्तराष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार में लाया जा रहा है, वहीं, दूसरी और मंगल ग्रह में पानी होना ढूंढ लिया है। और इन दो छोरों के बीच बहुत बड़ी खाई भी उत्पन्न हो गयी है। विज्ञान के और धन-जन-संसाधन प्रबधन के ज्ञान से जहां कुछेक लोग ख़रब पति बन बैठे हैं, वहीं दुनिया के आधे से अधिक लोग भर पेट खाना भी नहीं पा रहे हैं . यह विषमता कहीं अधिक है तो कहीं कम। हमारे उत्तराखंड के संदर्भ में ऐसी विषमता कम तो है लेकिन घट भी नहीं रही है . भले ही उत्तराखंड में लगभग हर बालक बालिका स्कूल जाने के साधन रखता /रखती है, लेकिन स्नातक डिग्री लेने पर भी बेरोजगार है। क्यों कि आज की शिक्षा ने उसे केवल नौकरी करने लायक ही बनाया है . कुछेक डाक्टरों के अलावा सारे के सारे, यहाँ तक की इंजीनियर, पौलीटेक्नीक और आई टी आई के डिप्लोमा धारक भी बिना नौकरी के बेरोजगार घूम रहे हैं .




इस स्थिति के, मुझे, तीन मुख्या कारण लगते हैं: एक , शिक्षा के विषयों का ऐसा चुनाव की उनसे ज्ञान तो मिलता है लेकिन व्यावहारिक हुनर नहीं मिलता। दुसरा, शिक्षा का धरातलीय प्रसार तो तेजी से हुआ लेकिन अब भी ज्ञान प्रसार उथला, बहुत ही पतला है, और तीसरा हुनर शिक्षा तो आवश्यकता के सौंवे भाग की भी नही हो रही है. जो कुछेक आई टी आई, पोलीटेक्नीक हैं उनमे  केवल ४-६ हुनर ही सिखाये जाते हैं, उन में न तो साजो सामान पूरा और आज की जरूरतों का है और न ही प्रशिक्षित शिक्षक ही पूरे  हैं.  कुछेक मेडिकल कालेज हैं जहा की ऊंची फीस उत्तराखंडी नहीं दे सकते तो उनमे बाहर के विद्द्यार्थी अधिक हैं, यही हाल इंजीनियरिंग कोलेजों का है , देहरादून, हल्द्वानी के टेक्नीकल कोलेजों का है.  हाँ बी एड कोलेजों की बाढ़ आ राखी है और उनसे पढ़ कर इतने अधिक शिक्षक निकल रहे हैं की ये प्रशिक्षित, या यूँ कहूं, डिग्री धारक, गुरु ब्रिंद भी बेरोजगार हैं .

 फलत: आज की शिक्षा बेरोजगारों की फ़ौज बढ़ा रही है. एक अनुमान के हिसाब से उत्तराखंड में पांच लाख से अधिक पंजीकृत बेरोजगार हैं, और इनमे हर साल सवा लाख और जुड़ रहे हैं। सरकार और निजी उद्द्योग हर साल , मुश्किल से दस पंद्रह हजार युवाओं को नौकरी दे पाते हैं। इस स्थिति को कोई  सुधरने का ठोस प्रयास तो दूर, सही नीति तक बनाने की नहीं सोच रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के गाँव के गाँव खाली हो चुके, हैं, खेती उजड़ रही है, जंगली जानवरों की बेतहासा बढ़ती संख्या ने, खेत रौंद डाले हैं, फसलें चौपट कर दी हैं , तेंदुए और हाथी हर रोज, औसतन, एक जान ले रहे हैं।




 मोटर सड़कों का जाल बिछ रहा है, आधारभूत सुविधाएं भी बढ़ रही हैं, नहीं बढ़ रहा है तो स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप हुनर-प्रशिक्षण। केन्द्रीय सरकार ने इसको बड़ा ही सुन्दर नाम दिया है: "स्किल डेवलपमेंट" लेकिन निर्धारित कुछेक हुनरों में से  तीन चार ही उतराखंड  में उपलब्ध कच्चे मालों को प्रयोग में लाने के हैं  और वोह भी नौकरी के लिए। इसी तरह का एक और कर्णप्रिय नाम का प्रजेक्ट भी केंद्र ने सुझाया है " टेक्नोलौजिक्ल नर्सरीज" की स्थापना का. इस के लिए भी मार्गदर्शिका है और उसमे पर्वतीय विशिष्टताओं  को कोई स्थान  नहीं मिला है.  और हमारी सरकार दोनों स्कीमों को "ऊपर से आये हुक्म" मान कर ही चलती है.  इस कारण न तो स्किल ही डेवेलप हो पा रहा है और न ही स्थानीय विशिष्टताओं के अनुरूप आवश्यक तेक्नोलोजियों का चयन। यह दोनों काम तो केवल उपलब्ध पोलितेक्नीकों और आई टी आई में ही करने वाली है सरकार। कितने प्रशिक्षित निकाल पायेंगे ये गिनती के संस्थान? ४ हजार, ५ हजार सालाना? क्या इतने से ही पलायन रुकेगा?  यही कारण है ये सड़कें भी पलायन को ही बढ़ा रही हैं। बढ़ता पलायन से पर्वतीय क्षेत्र उपेक्षित हो कर उजड़ने के कगार पर आ पहुंचा है. स्थिति अब नहीं तो फिर कभी नहीं वाली आ चुकी है.   




अगर हर साल सवा लाख अतिरिक्त बेरोजगार युवा जुड़ रहे हैं तो पलायन रोक पाने के लिए इतने तो नए प्रशिक्षित स्वरोजगारी काम धंदे हर साल बढ़ने चाहियें कि पलायन की बढ़ती गति को रोका जा सके. कैसे होगा यह सब? इसलिए सरकार के प्लानिंग कमीशन को पूर्ण रूप से राज्य की विशिष्टताओं के अनुरूप ही सारे विकास कार्य करने चाहियें। सारे पारंपरिक उत्पादन के काम , जैसे बडियां देना, च्यूडे बनाना , मरसे  के बीज भून  कर और भुने तिल पीस कर लड्डू बनाना, मूली, कंकोरों, के सुक्से बनाना और इसी प्रकार के अनगिनत अन्य पुराने और नए उत्पाद व्यापारिक स्तर पर बनाए जा सकते हैं। अगर इटली की गरीब स्त्री द्वारा, उले हुए, बासी आटे के ऊपर बची बासी सब्जियों के साथ चीज की बची कतरने डाल कर, अंगीठी (ओवेंन ) में भून/पका कर अपने बच्चों को खिलाना, आज का पिज्जा बन सकता है तो हमारी उड़दियां,मरसे के लडडू इत्यादि क्यों नहीं, हम कई सब्जियों के ताजे कटे टुकड़ों को  वेकुअम ड्राई करके सुक्से भी बना सकते हैं। ऊनी वस्त्रों की बुनाई  में गुणवता और विशिष्ट उत्तराखंडी मोइव दाल कर , और हम एल्क्त्रोनिक चिप सरीखी हल्की और मूल्यवान उत्पाद बना कर हजारों स्वरोजगार की इकाइयां हर साल लगा सकते हैं। आवश्यकता है इन जैसी सैकड़ों अन्य हुनर  तकनीकियों को  शोध द्वारा परिस्कृत करके ,मशीनीकरण की सहायता से कुटीर और लघु उद्द्योग में शामिल करने की।




मेरा सुझाव है कि आज की कक्षा ९ और १० में भोकेश्नल हुनरों के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, और यह विषय स्वेच्छिक हों। इन हुनरोन्मुखी विषयों का चयन  धरातलीय तथ्यों से परिचित लोगों हो न कि कसी  सुदूर, वातानुकूलित कमरों की शान बढाने वाले तथाकथित ऐसे शिक्षा विशेषज्ञों द्वारा, जिन्होंने  कभी पहाड़ी गाँव में एक रात भी नहीं बिताई होगी .

शुरू करने के लिए हर ब्लौक में एक गाँव में ऐसी वोकेशनल शिक्षा का प्रबंध हो, इनमे हुनर प्रशिक्षण के लिए सम्बंधित विभागीय विशेषग्य, अवकास प्राप्त उत्तराखंडी विशेषग्य और आवश्यकता होने पर देश के अन्य भागो से आमंत्रित /चयनित प्रशिक्षक लाये जायं . स्थानीय पोलीटेक्नीक,कृषि विज्ञ्यान केन्दों के विशेषग्य, टेक्नीकल विभागों के विशेषग्य अधिकारी ,इस प्रशिक्षण कार्य में लगाए जा सकते है.

दीर्घ काल के लिए, कम से कम एक बी एड (तकनीकी) विद्यालय शुरू करके, इन में सम्बंधित विषयों के स्नातकों को २ साला तकनीकी प्रशिक्षण कोर्स करा कर उपरोक्त वोकेशनल स्कूलों में प्रशिक्षण/पाठन  के लिए नियुक्त किया जा सकता है.

जो प्रस्तावित टेक्नीकल नेर्सैयों को शुरू करने की स्कीम है, उसे भी इस अभियान से जोड़ कर इस नवीन कार्य को गति दी जा सकती है

जो स्वरोजगारी इकाइयां सफलता से संचालित होने लगें, उनमे इन प्रशिक्षुओं की प्रक्टिकल ट्रेनिंग की जा सकती है.

उत्पादित वस्तुओं की गुणवता , और विपणन के लिए इन्ही इकाइयों की सहकारी संस्थाओं और सम्बंधित सरकारी विभागों के विशेषज्ञों की परामर्शदाता संस्था बनाई जा सकती है.

इन वोकेशनल स्कूलों को चलाने के लिए प्रवासी लोगों के मक़ान , खेत  किराए पर लिए जा सकते हैं, महाविद्यालयों और विश्वविद्द्यालयों में शोध और तकनीकियों का मानकीकरण करने का काम दिया जा सकता है।अवकास प्राप्त प्रशिक्षकों को लगाया जा सकता है.   

एक बार जनसहयोग से कुछ नया, कुछ आवश्यक, कुछ सम्भव , कुछ दीर्घगामी सुप्रभाव छो सकनेवाली पहल अगर सरकार की तरफ से हो जाय तो  उत्तराखंड का पर्वतीय जीवन स्विटजरलैंड की तरह खुशहाल बनाया जा सकता है . इसके लिए मौलिक सोच, साकार योग्य कल्पनाशीलता और कुछ नया कर गुजरने की ललक होनी चाहिये.

dr.bsrawat28@gmail.com

 

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22