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Articles by Scientist Balbir Singh Rawat on Agriculture issues-बलबीर सिंह रावत ज

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Bhishma Kukreti:
                                                                                              आँवला की खेती से सोना कमाइए।
                                                                                 लेखक : डॉ. बलबीर सिंह रावत ,  देहरादून।

आंवला, ऋषि च्यवन का प्रिय फल, जिन्हौने एक चिरायु पौष्टिक पदार्थ, च्यवनप्राश, का अन्वेषण करके मानव जाति को एक ऐसा स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक दिया जिसका उपयोग आज के प्रदूषित वतावरण में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।  जी हाँ , यह "तुच्छ" फल  इतने अधिक काम आता है की इस से लाखों परिवारों की रोजी रोटी चलती है। आंवले से जूस, अचार, मुरब्बा , चटनी, जैम , लड्डू, कैंडी  और चूर्ण बनाया जाता है क्यों की इन सब पदार्थों की खूब मांग है जो बढ़ती जा रही है।  परीक्षणों से पता चला है कि आंवले में 700 मिलीग्राम विटामिन सी, प्रति 100 ग्राम फल, होता है. विटामिन सी एक तगड़ा एंटी ऑक्सीडेंट है और यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढाता है।  चव्वन ऋषि को यह बात अपने अनुभवों से मालूम थी  तो उन्हौने च्यवनप्राश जैसा  चिरस्थायी अवलेह बना डाला । 

 आज कल के बाजारों में ताजा आंवला ३० से ३५ रुपये किलो  का भाव अपने मालिक के लिए कमा सकता है। दस साल की उम्र का पेड़ ५० - ७० किलो फल देता है।  एक एकड़ में २०० पेड़ लगाए जाते हैं जो साल भर में ३ लाख स ३ लाख ५० हजार रूपये की कमाई और २ से ३ लाख रुपये का शुद्ध लाभ कमाने का मौका देता है।  आंवला प्रायः हर  उस राज्य में उगाया जा सकता है जहाँ की मिट्टी में रेत की अधिकता न हों और औसत सालाना बारिश ६३० मिमी से ८०० मिमी के लगभग हो. जहाँ न अत्यंत अधिक ठंड पड़ती हो और न ही अत्यधिक गर्मी, वैसे आंवले का पौधा पानी जमा देनी वाली ठंड और ४६ डिग्री सेल्सियस की गर्मी सह सकता है लेकिन इन से उत्पादन पर असर होता है।  इसलिए समाकूल मिट्टी और आबोहवा का ध्यान रखना आवश्यक है।  उरराखण्ड की तराई से लगे पहाड़ी इलाके और नदियों की घाटियों के दक्षिणी,पश्चिमी ढाल आवले की खेती के लिए उपयुक्त जगहे हैं।

आवले की विकसित प्रजातिया हैं बनारसी, चमइया ,कृष्णा , कंचन,  भवानीसर -१ और NA 6 , NA 7 , NA 10 । आवले की इन में से किसी भी चाहित प्रजाति की कलम लगी पौध को लगाया जाता है।  पौध तौयार करने के लिए स्टॉक के बीज बो कर  पौधे उगाये जाते हैं. इस स्टॉक के पौधों पर बांछित प्रजाति के वांछित पेड़ों से आँखें  लेकर कर शील्ड बडिंग पद्धति से सायंन लगाया जाता है।  जब आँख बढ़ कर कोंपल में विकसित हो जाय तो पौधे लगाने तो तैयार होते हैं।  पौध लगाने के लिए जमीन में मई -जून में ४.५  x  ४. ५ मीटर की दूरी पर  १ x १ x १ मीटर गड्ढे खोदे जाते हैं, जिनको  तेज धुप में १२ से १५ दिन खुला रक्खा जाता है. फिर इन गडढ़ों में प्रति एकड़ बढ़िया गोबर खाद ५ टन,  नत्रजन खाद ९० किलो, फॉस्फोरस की खाद १२० किलो और पोटाश की खाद ४८ किलो को मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर गडढे भर देने चाहियें और इस मिश्रण को खूब दबा कर पानी देना चाहिए।  मानसून की पहिली बारिश के बाद पौध लगा देनी चाहिए। हर २५ दिनों में, जरूरत के अनुसार , सिंचाई भी कर देनी चाहिए 

आंवला  ६ वें साल से फल देने लगता है और अपने चरम  उत्पादन  में १० वे साल में ही पहुँच पाता है।   इसलिये अगर हर साल पूरे क्षेत्रफल के १/५ में पौदे लगें तो एक तो सलाना खर्चों कमी आएगी , दुसरे बाग़ की देख रेख करने का अनुभव भी मिलता रहेगा ,  चूंकि आवले के बाग़ में धूप काफी मिलती है तो इसके साथ अन्य फसले, जैसे हरे , काले,  सुफद चने , मटर , मसूर जैसी दो दली फैसले ली जा सकती हैं , इस से अतिरिक्त आय भी हो जाती है, खेतों में नत्रजन भी फिक्स होतो रहती हैं।

आंवले के तने पर सुंडियो का हमला हो सकता है और पत्तियों पर लाल फंगस का । सुंडियों केलिए ०.०५ % एण्डोसल्फोन या ०. ०३ % मोनो फोटोफोस को इंजेक्शन की श्रिन्ज से छेदों में डाल कर छेदों को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए।  फंगस के लिए इण्डोफिल M 45 के ०.३ % के घोल का छिड़काव करने से बीमारी पर काबू पाया जाता है।

फल फरवरी में तोड़े जाते हैं।  तोड़ने से पहिले अगर आवला प्रसंस्करण करने वालों से सम्पर्क करके, भाव तय कर लिया जाय तो रोजाना मंडी के चक्क्रर लगाने से बचा जा सकता है. इसके प्रसंस्करण कर्ता  वे हैं जो आंवले से आचार, , मुरब्बा, जैम , चटनी, जूस, स्क्वेश, कैंडी, लड्डू , चूरन , औषधि ,  बाल धोने का शैमम्पू , और च्यवनप्राश बनाते हैं। , अगर ताजे आंवले बेचने दिक्कत हो तो फलों को उबाल कर, गुठलियाँ हटा कर , सुखा कर और अच्छे तरह पैक करके बाद में भी बेचा जा सकता है।  सूखे आंवले का ७० -७५ रूपये प्रतिकिलो का भाव मिल सकता है।

आश्चर्य की बात है की इतने लाभदायक फल पर अब तक किसी भी अनुसंधानशाला में रिसर्च नहीं हुयी है जिस से आवले से कोई ऐसा उत्पाद बनाया जा सके जो च्यवन प्राश को टक्कर देने वाला एन्टीऔक्सिडेंट हो और अधिक स्वादिष्ट और सस्ता हो।  क्या हमारे उत्तराखंड की यूनिवर्सिटियां और विज्ञान के परास्नातक कॉलेज इस और ध्यान देंगे या किसी अमेरिकन युनीवर्सिटी से पेटेंट खरीदवायेंगे  ( एक में तो च्यवनप्राश की टेक्नॉलॉजी पर काम हो भी रहा है ).  उत्तराखंड के पंचायती बनों और बन पंचायतों की जमीनों में , और बन विभाग के नदी तटों के जंगलों में आंवले की खेती  को स्ररकारी कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। )

अधिक जानकारी के लिए प्रादेशिक सम्ब्नधित विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क करें।     

Bhishma Kukreti:
         Tulip (floriculture )  Farming in Uttarakhand

   ट्यूलिप उत्पादन से सम्पन्न, समृद्ध, साहूकार बनिए  !
                             डॉ.  बलबीर सिंह रावत , देहरादून। 

                              ट्यूलिप , जिसे हिंदी में कंद-पुष्प या नलिनी कहते हैं, मूल रूप से  भूमध्य सागर के पूर्वी इलाकों में उगने वाला पुष्प है जिसकी गिनती संसार के १० सब से अच्छे फूलों में होती है।   इसकी १५० प्रजातीय पाई जाती हैं लेकिन केवल  सफेद और उसके प्यारे अक्ष, पीले, नारंगी, गुलाबी, लाल, कासनी बैंगनी रग सब से अधिक लोक प्रिय हैं।  कई यूरोपीय देशों में ट्यूलिप उत्सव मनाये जाते हैं  और ट्यूलिप यात्रा टर्की शरू हो कर हॉलैंड तक जाती है। बसंत ऋतू सबसे पहिले टर्की में आती है तो ट्यूलिप सब से पहिले वहीं खिलता है।  तुर्की में इस फूल को लाले बोलते हैं तो उत्सव का नाम भी लाले उत्सव है।  जैसे जैसे बसंत उत्तर की ओर बढ़ता है तो  ट्यूलिप का लाले उत्सव भी उसी रफ़्तार से आगे बढ़ता हुआ हॉलैंड में पूरा होता है। 

अब  इस फूल को  कई दिवस-उत्सवों, जैसे वैलेंटाइन डे , मदर्स डे इत्यादि से जोड़ने के कारण इसको उगाने की तकनीकियों ने इसे दिसंबर से लेकर मई अंत तक उपलब्ध करा दिया है।  इन विदेशी उत्सवों और ट्यूलिप की विशिष्टाओं के  कारण  भारत में भी अब काश्मीर और हिमांचल प्रदेश में ट्यूलिप की खेती होने लगी है।  काश्मीर  में ट्यूलिप की खेती, श्री गुलाम अन्वी आजाद की पहल पर, २००८ में शुरू हुई और अब वहाँ एशिया का सबसे बड़ा ट्यूलिप बाग़ स्थापित हो चुका है. कई काश्मीरी  किसान ट्यूलिप की खेती से लाभ कमा रहे है, उनके ट्यूलिप के फूल दिल्ली , मुंबई, बंगलुरू, और हैदराबाद में खूब बिकते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक फूल को उगने , बेचने की  लागत २० -२२ रूपये आती है और बिक्री से ३५ रूपया मिल जाता  है तो प्रति  फूल १० -१५ का शुद्ध लाभ मिल सकता है।  इसी कारण फूल उगाने के लिए जो गंठियां ( बल्ब ) चाहिए होती हैं उनका व्यवसाय  फिलहाल फूल उगने से अधिक लाभदायक है। नया नया ट्यूलिप बाग़ लगाने के लिए ये गंठियां खरीदनी होती है, जिनका प्रबंध , सरकारी पुष्प उद्यान विभाग को करना चाहिए।  चूंकि ये गंठियां महँगी बिकती हैं  ( यूरोप में  १. ७५ डॉलर -  ११५/- रु  प्रति दर्जन , यानी १२ रुपये की एक ), तो  नए नए उत्पाादकों को  थोड़ी सी गंठियां खरीद कर अपनी ही गंठियां उगानी चाहियें।   

ट्यूलिप ठंडी जलवायु का पौधा है इसलिए  इसकी खेती उत्तरी उत्तराखंड में ही हो सकती है  जहाँ बसंत ऋतू  फ़रवरी अंत में शुरू हो जाती है जिसका आभाष प्यूंली के फूल  दे देते हैं, जो दक्षिण से उत्तर को, ऊषणता के साथ साथ, खिलते जाते हैं।  ट्यूलिप को खेती के लिए समतल/हल्के ढलान वाले खेत,  हल्की अम्लीय मिट्टी ( पी एच  ६ - ७ ),  और अच्छी जल निकासी जरूरी है।  खेतो में बढ़िया गोबर की खाद , प्रति  १०० वर्ग मीटर ५०० किलो, अच्छी तरह जोत कर मिळा लेना होता है। फूलों के लिए  परिपक्व गंठियों का साइज १०-१२ सेंटी मीटर परिधि का होना चाहियें।  गंठियों को १५ सेंटीमीटर की दूरी पर ३० सेंटीमीटर दूर की  कतारों में लगाना चाहिए। लगाने का उपयुक्त समय नवंबर दिसम्बर है।  फूलों वाले बगीचे की गांठिया ४.-५ पत्तिया देती है और इन पर फूल मार्च अंत से आने शुरू हो जाते हैं।  जो गंठियां  कच्ची, कम उम्र की , होती हैं इन पर  एक ही पत्ती आती है और उन पर कोई फूल नहीं आते।  वे परिपक्व होने की अवस्था में होती हैं।

जब केवल गांठिया ही लेनी हों तो परिपक्व गंठियों में जब फूल वाली कोंपल आने लगती है तो उन्हें तोड़ दिया जाता है ताकि अतिरिक्त गांठिया पैदा होने लगें।  गंठियों के ग्राहक उगाने वालो से सम्पर्क करते है जब की फूलों को बेचने के लिए उगाने वालों को बेचने वाले फ्लोरिस्ट ढूंढने पड़ते हैं।

नए पुष्प उत्पादकों को पांच किस्म के रंगों के कम से कम १०० , १०० गंठियां फूलों के लिए एयर ५० , ५० गंठियां ,  अतिरिक्त गंठी उत्पादन के लिए लगानी चाहिए, ताकि साल  दर  साल बाग़ का क्षेत्र  बढ़ाने में आसानी हो।

दुनिया भर में ट्यूलिप के रंगीन बागों को प्रयट्टन से जोड़ा गया है तो उत्तरखंड में इसकी खेती को प्रोत्साहंन देने के लिए राज्य सरकारों, शहरों की म्युनिसिपालटियों, रेस्ट , गेस्ट हाउसों के प्राधिकरणों और मालिकों , झीलों , चरागाहों  के स्वामी बन विभाग को, कृषि विश्व विद्यालय के शीत जलवायु कृषि परिसर को ( जिसका उत्तराखंड में होना अनिवार्य होना चाहिए )  देश विदेश से  इसकी गंठियों को भारी मात्रा में ला कर  इसकी खेती को प्रारम्भ करना चाहिए।

अधिक जानकारी और ट्यूलिप की खेती की तकनीकियों का प्रशिक्षण लेने का प्रबंध करने के लिए जिला राज्य बागवानी विभाग ( फ्लोरीकल्चर), कृषि विश्वविद्यालय से सम्पर्क कीजिये।
                                                                                                                                                 --०००o०००--       

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  स्वच्छ भारत ! स्वच्छ भारत ! बुद्धिमान भारत ! 
 Tulip (floriculture) Farming in Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Uttarkashi Garhwal, Pithoragarh Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Chamoli Garhwal, Dehradun Garhwal, Nainital Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Pauri Garhwal, Almora Kumaon Uttarakhand;  Tulip (floriculture) Farming in Rudraprayag Garhwal, Champawat Kumaon Uttarakhand; Tulip (floriculture) Farming in Tehri Garhwal, Bageshwar Kumaon Uttarakhand; 
 

 
 


Bhishma Kukreti:
                 बटन  मशरुम उगाओ -  बैंक बैलेंस बढ़ाओ
                  -- डॉ. बलबीर सिंह रावत , देहरादून।

मशरुम , गढ़वाली में च्यों , एक प्रकार की फफूंदी है जिसकी पौष्टिक गुण , दूध दही, मीट मुर्गा  व फल सब्जी को ललकारते हैं।  इस में न तो स्टार्च होता है न ही किसी प्रकार की चीनी और वसा ।  इमे पाये जाने वाले खनिजों में फॉस्फोरस और मैग्नीशियम  महतव रखते हैं। इस में जो प्रोटीन होती है उसमे सभी अमाइनो अम्ल होते हैं, जो दूध की प्रोटीन के अलावा और किसी  एकल स्रोत में एक साथ नहीं होते।  मुशरूम  सुपाच्य है तो इसे बच्चे, युवा, बृद्ध , शुगर की बीमारी वाले , मोटापा घटाने वाले  और अन्य सभी खा सकते हैं।   इसको उगाने के लिए  शुरू शुरू में थोड़ा सा  ही स्थान चाहिए  ,केवल १० x १२ फ़ीट का , १० फ़ीट ऊंचा एक  कमरा ही काफी होता है। नए नए  स्वरोजगारी मशरुम उत्पादकों को छोटे स्तर से शुरू करना चाहिए।  बड़े व्यवसायी तो विशेषज्ञों और प्रशिक्षित कार्मिकों को  रख कर बड़े स्तर के उत्पादन फ़ार्म बना लेते हैं ।

मशरुम उगाने के लिए  आद्रता ९०- ९५ % और तापमान २४ से २८ डिग्री सेल .  के बीच ठीक रहता है।  इसलिए मैदानी इलाकों में केवल १ या २ और पर्वतीय इलाकों में ४-५ फसलें ली  जा सकती हैं। सामान्य आकार की ट्रे में कुल ८किलो तक मुशरर्ों उगाये जा सकते हैं। इनको साफ़ करके पैकेटों  का मंडी भाव ४० रु प्रति किलो भी अगर मिल सकता है तो एक फसल में , एक कमरे से  ६,००० रुपये  मुशरूम बिक्री से कमाए जा सकते  हैं, जिसमे शुद्ध लाभ ३००० रपये का हो सकता है।   
आवश्यक साजो सामान  :  . कक्ष में दीवारो के सहारे ट्रे रखने के रैक , वांछित संख्या में उचित लम्बाई, चौड़ाई और गहराई के ट्रे ,  सबस्ट्रैट  ( उप आधार )   बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा  में गेहू का भूसा, या  धान की पयाली, या मुलायम सूखी घास, या मक्की के भुट्टों का चूरा , अमोनियम नाइट्रेट या यूरिया , अन्य खनिज तत्व , फावड़ा, बेलचा,  बालटियां , साफ़  मुलायम कपड़ा, मशरुम धोने, रंग साफ़ करने और पैकिंग तथा पैकेजिंग का सामान , चाक़ू, दस्ताने, ताजे  शुद्ध पानी की व्यवस्था।  और अंत में   विश्वास योग्य स्रोत से स्पॉन  ( बीज) की सप्लाई।

 तैयारी के चरण :-   पहिले चरण  में  मशरुम उगने के लिए  कम्पोस्ट तैयार की जाती है। उसे बनाना अपने में एक महत्वपूर्ण काम है।  भूसे को , या जो भी वस्तु ल गयी हो  लिया हो, अच्छे तरह से भिगो कर उसमे नमी ७५ % के लगभग होनी चाहिए, फिर इस सामग्री को सड़ने के लिए छोड़ दिता जाता है।  सड़ने की प्रक्रिया के दौरान  गर्मी पैदा होती है और अमोनिया तथा  कार्बन डाई ऑक्साइड गैस पैदा होती है, इस लिए कक्ष में हवा का आना जाना सुबिश्चित करना होता है।
दुसरे चरण में    इस कम्पोस्ट को कुछ दिनों बाद खूब  सान कर अंदर का बाहर और बाहर का अंदर करके मिल्या जाता है और  इसे फिरसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है।  जो गर्मी पैदा होती हैउससे इसका पास्चरीकरण हो जाता है, यानी उसके अंदर के सारे नुक्सान दायक कीटाणु, जीवाणु  नष्ट हो जाते हैं। यह तापमान ७० डिग्री सेल. तक पहुँचता है।  जब इसमें गर्मी  का निकलना कम होना शुरू हो जाता है तो समझो कम्पोस्ट तैयार है. इन दो चरणो में लगभग २७-२८ दिन  लगते हैं
तीसरे चरण में  इसे ठण्डा    कर के  २५ -२६ डिग्री सेल. तक लाया जाता है और तब इसमें स्पॉन  को अच्छीे तरह से मिलाया जाता है। कुछ आपूर्ति कर्ता मशरुम के स्पोरों से बना स्पॉन बेचते हैं , इस काले रंग के तरल स्पान से पैदावार उतनी नही होती जितनी किसी अनाज के छोटे बीजों में उगाये गये स्पोरों के माइसीलियमों को बोने से होती है।  अगर यह उपलब्ध हो तो   इसे ही  लेना चाहिए ।
चौथे चरण में  इस स्पॉन मिले कम्पोस्ट को ट्रेयों में डाल कर  कमरे में बने रैकों में रखा जाता है , ध्यान रहे कि रैक इतन ही ऊंचे हों की उन तक आसानी से पहुंचा जा सके और अन्य क्रियाएँ की जा सकें। एक नया सस्ता तरीका भी है, बजासस्य टीन की ट्रे के   तैयार कम्पोस्ट को डेढ़ फ़ीट व्यास क मजबूर प्लास्टक के थैलों में भर कर जमीन में रक्खा जाता है जिसका फर्श साफ़ और कीटाणु , जीवाणु रहित कर दिया गया है।   
पांचवें चरण में    इन ट्रेयों के ऊपर  कम्पोस्ट की महीन परत रक्खी  जाती है और  उन पिनो के उगने की  प्रतीक्षा की जाती है जिनके सिरे पर मशरुम खिलते हैं।  इस में १८ से २१ दिन  लगते हैं।
छठे  चरण में    बटनों की बिनाई होती है।  परिपक्वता आने पर मुशरूममें स्पोर बनने लगते हैं, इसलिए इन्हे कच्चे ही तोड़ देना  चाहिए , करीब डे ढ़ इंच के व्यास के आकार के हो  जाने पर। साधारणतः एक ट्रे से १० दिनों तक मुशररूम मिलते रहते  हैं अनुभव हो जाने के उपरान्त इन्हे ४० दिनों तक मिलते रहने का पबंध किया जा  सकता है। मशरुम की तुड़ाई के लिए बटन के सिरे को दस्ताने पहिंने हाथ के अंगूठे और पहिली उंगली से हलके पकड़  कर घुमा देने के साथ साथ उठा देना चाहिए।  इसके नीचे  जड़  भी आएगी जिसे किसी तेज चाक़ू से काट कर  अलग कर देना चाहिए. ध्यानं   रहे की जड़ और कम्पोस्ट की मिट्टी  ट्रे के मशरूमों में न पड़े और नहीं फर्श पर।  इसके लिए एक बाल्टी साथ में रखनी चाहिए और मशरुम को अलग  ट्रे में। जब दिन के सारे मशरुम ले लिए जायँ तो इनको पोटाशियममेटाबायसल्फाइट के ५ ग्राम को १० लीटर पानी के घोल में डूबा कर धोने से एक तो इनमे सफेदी आ  जायेगी दुसरे जो भी कम्पोस्ट या अन्य बाहरी कण रह गए हों वे धूल जाएँहेगे।  फिर इनको साफ़ स्वच्छ पानी से धो कर अगर ८ घंटे के लिए ४-५ डिग्री से पर ठंडा  कर दिआ जाय तो बाजार में ये अधिक समय तक टिके रह सकते हैं। ( अंनधोये मशरुम भले ही चिट्ट सफेद न हों वे अधिक समय तक ताजे रहते हैं )
सातवें चरण में   बाजार के लिए तयारी।   प्रायः ग्राहक २०० ता ४०० ग्राम ही एक समय में खरीदते हैं तो २०० ग्राम के पैकेट , साफ़ विशेष प्रकार की प्लास्टिक की  थैली में  पाक किये जाते हैं और इन पैकेटों को एक मजबूत ट्रे में बाजार भेजा जाता है. थोक के भाव अलग अलग शहरों में  अलग अलग भाव मिलते हैं  जो ४० से ८० रुपये प्रति किलो होते हैं. मंडी की नीलामिमे और भी काम भाव मिलेंगे। इसलिए अगर हो सके तो अपने ही खुदरा व्यापारी तय कर लेने चाहियें।  अगर आप मकिसी घने बस्ती  के नजदीक हैं तो अपने घर से ही रिटेल भाव में बेच सकतेहैं ,लोग आ कर स्वयं ही ले  जाएंगे..
अंत में एक सलाह.  अगर आपने यह धंदा शुरू करना  है तो किसी अच्छे प्रशिक्षण केन्द्र से प्रशिक्षण ले कर पूरा आत्मविश्वास हासिल कर लेना चाहिए।  इसके लिए जिला हॉर्टिकल्चर अधिकारी. प्रादेशिक मशरुम उत्पादक संस्था  से या फिर
राष्ट्रीय मशरुम केंद्र , चम्पाघाट, सोलन , हिमांचलप्रदेश १७३ २१३ से डाकद्वारा या ( ०१७९२) ३०४५१और ३०७६७ पर सम्पर्क कर के सलाह ले  सकते हैं।                   
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Regards
Bhishma  Kukreti

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