13
काग 0 - सुणौ गरुड़ यसलग सोचॉ धै, पाकी पकाई पकवान देखि उसिके मुखम पाणि ऐजॉ। जो तुमुहॉ खाओ जै कै द्यलो खाणै चाला! जब चारक्ला बिना लूणक बिना गूड़क भोजन कस लागल?। तसै मैल विचार करो। भगवान तो कौणे रई माङ - माङ कै। तू त भगती माङ। के कौणौ सरग पतावल!
कागकि - 3 हा- प्रभुकि किरप जो पाइ, खोजिन मिलि सुर साधु मुनि।
अविचइ भगती दीण प्रभु, वेद पुराणन गाइ ।। 13।।
प्रभु दयालु रघुराइ, सियावर राम चन्द्र की जै।।
कागकि - 4 पाई - तस्सै हौल ! कुनी रघुनाथा। अमिरत बचन सुणी सुख सॉथा।
सब सुख खाण भगति लिछ मॉगी। तेजस को दुसरो बड़-भागी।।
प्रगट - काग - तब मै थे श्री रामल कौ- आब् ते कणि मेरि माया नि सतालि, मै कणि भगत सदा पियार छन। भगति ज्ञान वैरागक ज्ञान तुकै हौल। मै, अब तिकणि आपण भजन करणक नेम बतानू।
आकाशवाणी वटी - 4 पाई श्री राम रिकार्ड पर
इज - बाबुक च्याल् कदुक प्रकारा। हुॅनि गुण कामाक् तौ सब न्यारा।
जो इज - बापुक सुख दुःख जाणू। तनरै सुख अपणै सुख मानूॅ।।
बापुक भगत बचन मन करमा। स्वींणा जाणुन दुसरो धरमा।
तो च्यल बापुक प्राण समाना। किलकि नि हो तौ सब सुॅ अयाना।।
मै सब संसारक मै - बापा। सबम बरोबरि छा म्यरि छापा।
100 रठा - जड़ चेतन हो कोइ, बाल-बुढव नारी पुरुष।
मै सूॅ तो प्रिय तौइ, कपट छाड़ि सतभाव भजॅु।।14।।
नौणि न, पाणि विलोइ, सियावर राम चन्द्र की जै।।
14
श्री राम प्रगट भाषा में रिकार्ड - यो सारै संसार। जॉ जॉ तक जीव जॉ, और देखॅू, तौ सब म्यरी मायाक उपजाई छा। किड़ किरमव तुकणि जै देखण में औं। जे देखण में - नि ओन उस जीव लग छन। हे काग! मेरि माया मेरि छाया और मेरि दाया, सबु परि बराबरि छु। एक बात और समज।
भूख - तीस - रीष - डाह - काम - प्रेम - परवार, सन्तान पालणक सब जीवों में बरोबरि ज्ञान छ।
देव गंर्धव भूत प्रेतों कणि, अपण कर्म फल भोगण तकै कैं, सुख दुःख मिलुं।
(गरुड़ और काग मुनव हलोवाल्) यैक कारण मैं कणि मनख जून अति प्रिय छा। और उन मनखों में जो धरमक मारग पर चलूॅ। औरन कणि चलॉ, उनुमें लग जो बैरागी छन, फिर उन बैरागीन में जो ज्ञानी छन। उन ज्ञानिन में जो विज्ञानी छ। जो म्यरि प्रकृतिकि खोज करुॅ। में तक पुजणकि धा पर रौछ।
तनु मजि, म्यर तन मन धनल जो म्यर भगत छ। सेवा और म्यरि भगति कणि दुसरन कणि द्यूॅछ उ अति प्रिय छा।
(काग मुनव हलोवल)
2 हा - मैं हुॅणि भगत छ प्राण प्रिय, कोंनूॅ तैहुॅणि काग।
आस भरोसो छोड़ि सब, सेवा पर मन लाग ।।15।।
मैं भजुॅ तौ बड़ भाग लाग काग चरणक शरणम्।
(काग ओर सब सिर नवाल)
कागभुसुण्ड़ि - हे गरुड़ मैं कणि भलि समजैबेर फिर खेल करण लागीं।
गरुड़ - हे काग! सुणाओ के खेल करीं फिर, श्री राम ज्यूल? म्यर मन मै सुणण हुॅ आतुरि लैरै।
15
काग0- श्री राम लुटपुट भाजण लागछीं, गुटुर - पुटुर - जाणि के के बुलाछीं। फिर एकाएक डाड़ हालण लांगी।
गरुड़- फिर तुमुल चुपाणैतै उनन कै खेल नि लगायो?
काग0- श्री राम ज्यूक रुण सुणिबेर - कौंशल्या ज्यू दौंड़नै आई। कूण लागी, अरे म्यर भाउ कैल मारौं? कि घुरिगो? कि भुख लैगे? पकड़ि बेर, च् च् च्! भुक लैगे भुक! अरे भौकैं भुख लैरै!
काग0- राग ललित - तीनलाल - गायन या वार्ता मैं:-
भौ की भाज भुका अब कैं छो।
मयड़ी भुकिं ली, गोदिम धरिंछो, ढकि ऑचल दूध पिवें छो।।भ0।।
झुलकै कनम उठै धरिं नाचीं। आंगण दौड़ी नचै छो।
उमत्ति रुण उमति खित हैसण, शैलज मति भरमै छो।।भ0।।
सुणौ गरुड़! यसि प्रभु की लीला, शारद कणि शरमें छो।।भोवा।।
काग0- 4 पाई
4 पाई0- गुपुत भेद सब तुमइ बतायो। मैं जस हरि मायाल नचायो।
राम किरप बिन गरुड़ गुसाई। रामकि महिमा जाणि नि जाई।।
का0 3 हा- बिन गुरु हूॅन न ज्ञान, ज्ञान निहॅुन बैराग बिन।
बिन हरि भगति न सुख मिलुॅछ, कोंनी वेद पुराण।।16।।
सैजन मिलिं भगवान, सियावर राम चन्द्र की जैं।।
4 पाई0- कौछ न मैं कुछ जुगुति बणाई। भुगती जो मैं तुमॅन सुणाई।
हे गरुड़ जी! ,हरि माया, सिसूॅणक पात। उल्ट सुल्ट द्वियै भॉत!
16
गरुड़ - हे कागभुसुण्डि ज्यू। मै परि यो कस रोग लाग -ः
एक कहावत छः- दुःख लाग कै कणि। पीड़ है कै कणि ।
गरुड़- 4 पाई - शंका स्यापल मै चटकायो। दुखकि लहर उठि कुतरक वायो।
कसि अणकसि भइ समजि न पायो। हरसिंग डॅस बिरसीङ उसायो।।
तुम जसि गारुड़ि दी, मै कागा! उतर सगल बिष भयॅु धन - भागा।
ज्ञान - ध्यान सब तुमरै पासा। श्री रामक छा तुम प्रिय - दासा।।
गरुड़ काग थे प्रगट-
हे काग भुसुण्ड़ि ज्यू! तुम इच्छा धारी छा, जब जस चॉछा उस रुप
धरि सकॅछा, पर पर तुमैल यो काग देह कसि पै? यो तुमन यतु प्यॉरि
किलकि छु? यो कथा सुणाओं, मै कन बड़ों अचरज है रौ।
मैल शिव ज्युक मुखल सुणौ कि - पर्ल्लय हॅूण पर लग नाश निहॅुन- तुमर!
काग 0 गरुड़ थें-4 पाई -
सुन्दर पवितर तै छ शरीरा । ज्यैल मजी जैसकिं रघुबीरा।
कारण तन छोडुॅ न इछि मरणा। भजन, बिना तन होइ न सकना।।
छुटि न जून यसि जनम न जायो। मैल गरुड़ घुमि घुमि करि पायो।
पैलि मोह पड़ि जनम बिताणी। राम विमुख सुख सिति न पराणी।।
100 रठा - कोंनू सुणौ खगेश, पैल जनम म्यर कसिक बित।
नाशणि सगल कलेश, उपजि पिरिति हरिचरण मजि।।17।।
साखी उमा महेश, सियावर राम चन्द्र की जैै।।!
17
काग प्रगट में - हे गरुड़! तुमरि मति हुॅणि धन्य छ। तुमरि बात बड़ि प्यारी लैगे, मैकणि आपणि, सब जनमों कि सुद ऐगे। आब् तुम मन लगैबेर सुणिया।
कदु जन्मोक पछा मैकन मनखी जून मिलि। वि में लै पैली बेर शूद्रक घर में म्यर जनम भय। सुणौं पेलिक तुमकणि शूद्रक भेद- समजानू-
पद - गायन
गारुड़! शूद्रक भेद बतानू।
सुणो! अपण मन गुणौ सभा सब, तुमरी शंक मिसानू।।टेक।।
मुख बामण छा हाथ छ छेत्री, पेटइॅ बणिया जाणौ।
खुट छन शूद्र सगल तन बोकणिं। सरग नरग को धाणौ।।गरुड़।।
वाणिक कपट, कुभोजन खाणी, मुख निछ ब्रह्म समाना।
तसै हाथ सब हूॅन न छेत्री, कदुकै हो बलवाना।।गरुड़।।
जो न बरोबरि करुॅ तन पोषण, वणियॉ पेट छ रोगी।
जो खुट कुवटॉ पड़ी सनातन। तैछ शूद्र - नर भोगी।।गरुड़।।
हे गरुड़! और लग सुणौ!:-
-: -
दुसरो गरुड़! सुणोंनू भेदा!
सृष्टिक चारै जात बणाई, विधिक विधान अछेदा।।टेक।।
पिण्ड़ल, पिण्ड पराण- सिजानी, क्वे छन अण्ड पराणा।
भियॉ फोड़ि जनमनि फिर बियुॅ बणि, उद्भिज सृष्टि तु जाणा।।दुसरो।।
अन्न फूल फल, सब वन्सापति, धरतिक जनमण भाई।
जो पराणि जीवक तन जनमी। स्वेदज वेद बताई।। दुसरो0।।
बामण - क्षेत्री बणिया शूद्रछ, तन मन करम भितेरा।
इनर भेद को आरोपण करि, समजूॅ वीछ चितेरा।।दुसरो0।।
काग - तब म्यर नाम छी दुर्दंम्भि - जस्सै म्यर नाम, उस्सै गुण काम।।
18
हे गरुड़! अब तुमुकें आपणि आघिल कथा सुणानू।
गरुड़ - सुणाओ! हम सब पंछी - जात सुणहुॅ भैटी छन।
काग भुशूण्ड़ि
2 हा - भौते पैलिक आछ जब, कलिजुग पापक मूल।
धरमकि इछि, नारि न पुरुष, अधरम की बगि कूल।।18।। जैल - जैल - हिलै करम की चूल, सियावर राम चन्द्र की ।। जै।।
राग देश- में सारे ग मे प ध नि सो, सा नि ध प मे ग रे सा।
सारे सा ग मे रे नि सा, या पकड़ - रेग रे सा, नि सा ध नि रे सा।
4 पाई- तै कलिजुग कोंशल पुर जनमा। शुद्र बिचारुॅक मनखक जनमा।
मातौ धन जोभन बैचाली। चन्ट बुदिध हिरदी अति काली।।
तौ कलि कालम भइॅ कस हाला। कस करिं कुबुधिल म्यरा बिहाला।
3 हा-
लोभ हड़पि शुभ कर्म, भई लोग कसि भोग बस। टेक। लोभ ह0।।
ज्ञानवान तुम गरुड़ सुणौ, कस भई तौ कलि धर्म ।।19।।
जै कणि सुणि ऐं शर्म। सियावर राम चन्द्र की जै।।
4 पाई0- मारनि गै वादनि धरि भूखी। मति गोपालुॅ कि कसि ख्वरि रुखी।
नामक केशव, करम कसाई । लोभि धनाक् सब - धरम नशाई।।
गरुड़ - राम राम हे रामः- हे काग! मैकणि माता बताई जॉ, तब के राजल कैल के परबन्ध निकरों?
काग0- करो किलै निकर, उनल गोंरु - बाछाक। ।। व्यौपार पर रोक लगै। ताकि गैज्यान कसाई थे बचाई आवो।
गरुड़:- फिर के जो काम कसाइ्र करछी। उॅ खुद वी है लै
निर्दई किलै है - हुॅनाल? यो तौ महॉ पाप है गो-
राजक् - राजा तै लै, मनख तैं लग। के सन्त महात्मा लग चुप बैठी रयी?
19
काग0- सब गैरक्षा पर लगी छी, पर सब विवश हैगों छी।
पापकि मार भारि हे गेछी। पुण्य छींण हुॅण, वीक कारण लोग
कॉ गना हुॅछि कॉ डाम, धरणाकाम करण रछी। यो छी असल कारण। कलिकालल - राजा परजा सवों की मत्ति हरण करि हालि छी। और - सुणौ:-
4 पाई0- पप - पुण्य मजि समछी ज्ञानी। ईष्वर जीव ही एक बतानी।
सुरा पान बामण लगिं करणा। हूॅन न करम सुरा बिन बरणा।।
नामकि भगतिछ मान इॅ पाणा। अन्ध पधानक बीच छ काणा।
फोकनि छार लगानी अंगा। जोगिक भेख कुगुरु कै संगा।।
गरुड़ - य तै बड़ै अज्ञानता है गे, लोगों में। फिर के हौ अघिल? उ कलिकाल में।
काग0 - गरुड़ तुम समजदार छा, मैं सबौक सार सार सुणॉल। कलिकालाक हाल
सुणण में जनम बितजाल् मनखियक्।
100 रठा- तुम सूॅ हम ठुल जाणि, अबुझ कुनी तब, बूझ हुॅणि। ।।टेक।।
ऑख दिखानी ताणि, जाणॅू ब्रह्म सो बामण ।।20।।
वी बड़ ब्रह्मक ज्ञानि, सियावर राम चन्द्र की जै।।
4 पाई 0- गिरस्थि गरीब छलरु धनवाना। गरुड़! खेल कलि गणीन जाना।
जैकौ पाखण्डॅुक निछ अन्ता। सब कौनी तै हुणि बड़ सन्ता।।
गरुड़ - राम राम हरे राम ! संन्त लग हराण भई। संन्तान बिगड़िगे हुॅनलि? राजा तो प्रजाकन धर्म पर चलान्? राजा संन्तरी मंतरी लग धर्मक विपरीत है, गोछिया? सब हाल सुणाऔ।
1 - बैसी - छमासी यैक उदाहरण लेइ जै सकनी, जागर लगूॅण लग यै रुप मै देखी जै सकॅू ।
20
काग 0- छनद - च्यल मानछिं बापु इजा तबलै। मुख देखि निभै तिय को जब लै।।
राज् पावि भई करिं धर्म न तौं। करनी नित तंग प्रजाकन ´ौं।।
यस तंत्र रचो मलि बै तलि कैं। सब लींछि चुहेड़ि तवै - पुर बै।
नत देखुॅन क्वे नत क्वे सुणनॉ। छॅन - ऑखिक अंध, भई कलि ऑ।।
धन लोभ बढौ उनमें उतुकै। राज् दीछि पगार बड़ै जदुकै।।
पर अन्त भलौ हुॅन ना तिनकौ। यस जाणि पछी, लत छूटि न तौ।
मिठि बाणि छुरी धरि धार लगै। दुनि मै इनरो अपणौ न सगै।।
गरुड़ - हे राम! हे शिवौ! बाड़ै खाण लागि उज्याड़। किलै बगि इनरि मत्ति गाड़।
फिर लै निमारी कैल डाड़?
काग0- क्याप्प कोंछाहा गरुड़! मुक मारमेर मै डाड़। मनमनें खनने रगै खाड़।।
उनर भरी मै लधौड़, चैनाचुपाड़, गुल्पिया ड्यौड़।।
-: -
2 हा0- सुणौ गरुड़ कलि कपट छल, इरिछा बैर जलेष।
लोभ मोह अर भोग मद, छाई कलिक कलेष।।29।।
दॅूनि न मिलुछ हरेष, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
छनद
मिलॅु आदर नें सुकवीन कथें। अकवी, कविता मिलु मान उथै।
कलि सालक साल अकाल पड़ी। बिन अन्न दुःखी मरी लोग सड़ी
गुड़ तेलक सागक दाम बड़ी। मिलॅु अन्न न पाणि तराहि पड़ी
वरसूॅ जल के सुक घोर पड़ुॅ। अति बर्खल कैं भुमि भ्योल रडॅू।
आखें होने पर भी जो अन्धे हो जाते है।
कान से बहरे यहॉ हो गये। खाल उधेड़ कर जैसे वे भी नीचे से उपर तक का तंत्र हो गया।
21
चलनै निछि वेदक मारग क्वे। करनी कणि देखि सुणि उछि र्वे ।। रु्वे।।
पुजि भूत - मसाण उॅना हरि कै। बड़ भक्ता छिया उई तौं दुनि में।।
3 हा0- जग्य हम बरत तप दान। करनी तामस धरम नर।
बरषॅू सरग, न धरणि पर। बोई जामिं न धान।।22।।
हला! यै छन कनि परमान, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
गरुड़ - हे काग! बड़ि लामि उमर हुॅनलि के कलजुग में उनार तै अकाव झेलण बड़ो कष्ट कारी हुॅनल, हे राम! गरीबों कि रच्छा करो! भगतों की रच्छा करो। अथवा - धर्मे कि रक्षा पापक नाष करो।
काग0- हे गरुड़! जीव की अपणै करम पिड़ानी जो समजण रई हम पाप करबेर लग मौज में छॉ। यों के पाप निकरणाय? बड़ा दुःखी छैं विचार! यो लग हमन देखि यसै करलात् मौज कराल्। पर बात कुछ और छ। जो उनरै करमाक् फल छन।
छनद
बचणों कदु वर्षक पॉच - दषा। जुगलै निमरुॅ छु गुमनि यसा।
सुख शान्ति दया मन सॅू निकसी। रिष रोष गुमान मजी रकसी।।
छन जेवर सैणिन की झॅकरी। बुझनी निछ पेट की भूख मरी।
मनख्ींण भई तन नें सगता। कदु जॉत कुजात भई मंगता।।
धनहीनॅन थे ममता अति भै। लिन गै कस गोबर पुच्छीड़ रै।
मनखी कलि काल बिहाल भई। करनी पर जार गई सनकी ।।
1- पाठान्तर:- करनी पर जार उॅ सन्कि गई।।
22
करि बौल कमानि रुपें जदुका। लटकी सुरपी टटकै उदुका।।
घर नानुॅ तिना घरवालि भुकी। मुन फोड़ि ल्युछा करुॅ परवार दुःखी।
तन पालण को बस धर्म रयो। बुड़ - बाड़िक -इज बापुक पेट त घुत्ति गयो।
भलमेंसि गई, सुविचार गया। कलिकालक हाल बिहाल गया।
गरुड़ - कलिजुग के भलिबात निहुॅनि के? यो लग बताओ।
100 रठा- धरि अवगुण द्वी चार, बड़ बिगाड़ मनखक हुॅछो।
लागुॅ थ्वड़इ में पार,गुण कलिजुग का मौत छन।।
जो भगतिक ल्यॅूछ सधार, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
2 हा0-
सत जुम त्रेता द्वापर, हुॅनी जग्य जय जोग।
कलिफल मिलनी कलि हरि- नामल पानी लोग।।24।।
- सुख सम्पत्ति करि भोग, सियावर राम चन्द्र की।।जै।।
गरुड़- हे काग ! जुगौक् लच्छण लग बताते जाओ न?
काग0- हे गरुड़ महॉराज! जुगौक परमाण आपुकणि बतानू। एक जुग समयाक् चक्कराक अनुसार लाखों वर्षो कि आयु हैं। पर मनखाक मन पर यों दिनमान में चार बेर घूमते रौनी।
तुम समझो! जे दिन भरि, सत कामों में लागी रओ उदिन वीक सत जुग में बितिगो। समझो।
जो दिन कुछ भल कामों में कुछ नक काम है पड़ी यानी येक चौथाई दिन के कि बुराई में न्है गो, वि तुम त्रेता समझो।
जैक दिन आदु आद भलाई और बुराई में जॉ उथै द्वापर समझो।
1- अंगूठे में जावे! मता पिता ये भाव है। बड़े बूढों पेट भाड़ में जावे।
23
जो दिन, क्वेलग भलकाम निहॅुन समझो घोर कलजुग ऐगो। नतर एक चौथाई सत रौछ। कलजुग में लै धरती सन्तहीन निहुॅनि। तीन चौथाई झूट कपट ठगण घूस खोरी खुलि आम हौलि समझो कलजुगक लछण छन
गरुड़ - कलिजुग बढॅु जब पापक मारा मनख जून कसि लागलि पारा। कस करि मनख सेज सुख पाला। सो उपाय बतलाव द्याल।।
काग0-
राग0 - जय जय वन्ती - तर्त्र अनहित तारे प्रिया के हि थीन्दर।
आ0/ अब- सा ध नि रे रे ग म प नि सां। सा नि ध प ध ग रे सा पकड़- रे ग रे सा नि सा ध नि रे। अवराहे नि म वर्जिव।
कलिजुग ज्ञान न जग्य न जोगा। करि हरि भजन सुखी हॅुनि लोगा।
सब भरौस पलिख्याड़ि सिय रामा। धरि हिय भगत भजॅू हरि नामा।
समयानुसार: हरिकीर्तन
जय राम श्री राम जय जय राम ।।टेक।। 108-1008 नाम जप।
3 हा0- जो नर करुॅ विष्वास, कलिजुग जस जुग दुसर निछ।
राम भजन करि मनख सब, करि संसा दुःख नाष।।25।।
वी करि पाप हरास। सियावर राम चन्द्र की।।जै।।
4 पाइ्र0-कलिभजि ज्ञान न जग्य न जोगा। करि हरि भजन सुखी हुॅनि लोगा।
सब भरौस पलि ख्यड़ि, सिय रामा। धरि हिय भगत भजूॅ हरि नामा।।
100रठा- सॉच दया तप दान, चार चरण छन धर्म का।
दान करुॅ कल्यान, जसिक तसिक जदु करि सकॅू।।26।।
गरुड़ - हे काग! जो गरीब छ, भूख मरन् छ, वी दान पुण्य के करि सकुॅ!? उलग बताओ।
कसिक वीक कल्याण हौल!
24
काग0- हे गरूड़ गरीब हुॅजाक कदु कारण छन,
दुर्व्यसन- बेइमानी, कामक-निउज्जीपन, कम काम करिबेर सकर धन कामंणक मन हुण जस चोरी चारी लुट पाट मार काट करिबेर धन हड़पाण, अपु ऐसे करण परिवारक भुक मरण आदि पाप कामोक हुंछ। गरीबीक उपाय लग, यदि िहरिभजन जथा लाभ तथा सन्तोष में परिवार लगी हो तो भगवान वीक रक्षा करनी, (कहावत हेगरूड़!उॅभरमत्त!दुसरैकैलैभरमानी, उनुकैक्वेनिफुरम्यातउॅ आफीमर्जीजानी)
चौपाई-
दुरिछ लोभ कलि काल सुभावा, मामुत मोहल ज्ञान नशावा।
श्री रामकि मायाबलवपना, धिरमि धरनि ज्ञानिक लग ज्ञना।।
राम हिरदं धरि कॅरू सब कामा, मन-मति-गति गुण जपुँ सिय रामा,।
जुगक धरम तैकणि भरमानी, जैकी लोभ-मोह-मति सॅानी।।
गरूड़! ध्यानल सुणो!
जस मदारी खेल दिखॅा वि दगडि ववीक जमूरा हुॅछ.
आब तुम समजो वीक जो कला छ, जैहै हम जाददू करिहै, या दिखा कॅानु, याहमारि डीढ मुनण करण बतौनूॅ, वीक बाता कणि वीक जमूरा भलिकै जाणु, तसै तुम समजौ।
श्री राम मदारी छन, उनरि जो जादूगरनी कि जादूगी छ।
उ माया छ, उ माया कणि उनर भगत जो जमूरा छ उ भली भॅात जांनु।।
राग देश-
चौपाई.झ नट श्रीराम कि नटनि छ माया, भगत जमूरा जाणु सुभाया।
डीठ मुनण करि हैं कुॅनि लोगा, जाणन निकू खेलक तौ जोणा।।
दोहा-झ
रामकि माया विकट बड़ि, मोहि छ तपसी ज्ञानी।
भरमें मन इन्द्रिन कणि, दीछ करम मजि सॉनि ‘‘27‘‘
लेग सुएानि भुलि जानि, सियावर रामचन्द्र की जै
25
हे गरूड ! श्री राम माया ल बडी सुख दिणी हजैं, जब ?
भगताक विगडी काम लग सिध हैं जानी। आघिल सुण
गरूड- बीच में-
ळे का! त्ुमन हूॅ धन्य छन! त्ुमल हमर अन्यार् मन में
उज्जवल करिहालौ। पर एक बात बताओ, लोग समजि
बरे फिर उल्ट-सुल्ट काम के करला- ? या फिर सुबहौ जाल।
यो बाज मैं मनखियॅाक विषय मै पुछणयूॅ।
हम प्शु पंछी किड पिटुड. तो अपणै करमोंल परवस
छॅन। हम, पर-जीव भक्षी, आपसै में गजोइ गयूॅ। हमन्तें चौरासी
लाख जून मै कॉ मनख जून धरिराखी।
ळे काग! हम चौरासी में फसियै रैजौलं भयॉ।
काग भुशुण्डि-
चौपाई- रामकि माया हइछ सुखाली। कारज सिद्धि विधनदिहं टाली।
श्री रामकि माया को खेला। भोगण विष-फल, अमिरत-बेला।।
सदा-भत हित, पापिन सादी। कैकजिखोलीछ कैकणि बादी।
यो सब अनुभव अपण सुणाई। नाचूॅ कस मायाक नचाई।।
काक0 पद- राग. बागेश्री तीन तक-हे गरूड़
सब सुख साज समावनि रामा!
सुख-दुख, माया-मामुत, झंजट, छोड़ि भजनि जो रामक नामा।। टेक
शम्भु भजनि, भजि जैकणि, गौरी, हिरदिम इष्ट थपाई।
गरूड़! देबुॅका देव महेश्वर जाणनि राम-रमाई ।।सब0।।
देव दैत नर नाग विवचारन, जैकणि राम नचानी।
‘‘शैलजा‘‘ तनुॅकणि भाजि तेरी, मति किलकी पगलानी।।
अबतो समझ समझ मन मुरूखा। त्यर सुखसाज समाइल रामा।
सब सुख साज समावनि रामा। सुख दुःख‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘।।
26
गरूड़- श्री राम और श्रीराम कि माया हुॅणि प्रणाम छ।
हे काग। आब् आघिनें काथ् सुणाओं।।
काग भुसुण्डि-
काग भुसुण्डि.गरूड़ थें- प्रकटः-
हे गरूड़! जा मेजास। उस समयाक पापि रैला वॉ भेल जै केहला!
तबै तो उसालों साल अयोध्या में लग, भारी अकाव पड़िगो।
लोगूॅकि आपण टोपुलि दकणि धे हैंगे।
तब मैं लग आपण नानतिनाक् तें, उधर-पधर, ठगि-ठागि बेर धरि, दूर परदेश उजैनी में गयूॅ।
वॉ मैल मेहनत मजूरी करि-अपुॅ खै निखैं, परवार हैलै भेजने रैयूॅ। और कु बचत ले करने रयूॅ तब म्यर पास कुछ धन लै जाम् हैं गोछी। हे गरूड़--
जतुकै मुखक बडौ मिठ छी मनक उतुकै तित छी।
मनमनें इरिछा जलेशी सुभावा कणि क्वे भापि नि पॉछी म्यर।
जैल मै सब काम सबुहै आपण निकाइ लिछि।
गरूड़- यै मजि भलि बात मैं अवगुण दिखैं नि भया यो बड़ि तिख पनै बात मै। पर तबलै यो बात कैन के जरूर दिखॉ है छो तो सुणाओं।
काग-
चौपाई- जब कुछ सम्पत ले जुडाई । शम्भु भजन मन लेछ रमाई।
बामण एक करछि शिव पूजा। और काम मकी तिन निछि सुजा।।
साधु सुभावा बड़ै उपकारी। शिव-हरि भगत, समान बिचारी।
अति भल देखि सुभावा। मैकन च्यल कसि जजाणि बुझाावा।
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मै रोज शिव मंन्दिर मैं जप करछी। शिव हैवेर दुसर कणि बिल्कुल निमानन
हरि ब्रहमा आदि दृप्ताकि बड़ाई सुणि बेर मै कणि जलड. दहा उठछी। बिष्णुदेखि मेकणि खारै लागछी। कुलक नीचव मतिक छीन।
वच्छ विचार मै हरि भगतों-दयाखि जइ मरछी।
यो सब जाणिबै मगुयल मैं कणि भौत समजा, मै उनार पिछाड़ि बुराई करण मै नि चुकॅुछी उॅ गुरूदेव मै भें कोछी---
चौपाई- एक राम छछन असरण सरणा। सब मुमण खानि भगति, ददुख हरणा।।
शम्भु भजति सिय रामइ ताता। को कॅरू देवॅन की बाता।।
शिव कन हरि की भगत बतायो। म्यर हिय जलड़ दहा पड़ि आयो।
यस कुजाति मै विद्या पाई। बड़ू स्याप जस दूध पिवाई ।
हे गरूड़ ! मैं यस कुबुद्धि कुजाति छी , कि जो गुय म्यर सदा हित चाछी, ममै उनरि काट करछी।
गुरू यो सब जानते हुये लग। यैक कसी भल हवो। यै सोचि बेर मैं कणि सॉच् बाट पर चलॉछी। जबकि बुद्धिवान लोग मेजास लोगों कि संगत छाड़ि बुलाणैं निचान।। में पर लागण ििनचान।। कै यैक अवगुण हमु पर नि ऐं जों, कैं यैक अशुद्ध अशोच शरीराक किठाणु, यैक अशुद्ध विचार रूपी रेग फैलण निपावों।
हे गरूड़ ! एक दिन मैं शिवज्यूक ध्यान में मगन छी मगर गुरू ऐगई योे बोध है गोछी मैल उठि बेर उनॅन प्रणाम निकर।
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गुरू जीक न मै लग यस के भाव निछि.
मैक ध्यान ममें दोखे सायद उनल लै यो के विचार निकट। पर शिव अन्तयार्मी जाणि गइ
गुस्स में मै कन शराप दि दे। तब आकाष वाणी हैं गे।
4 पाई - ओरे! मुरुख अंध अभिमानी। कपटी त्विल गुरु महिमा न जाणी।
जब की त्यर गुरु मन न कुरोधा। अति द्यालु गुरु सम चित बोधा।।
भैटि रयै अजगर जस पापी। होलैसरप कुमति कै च्यापी।
जनम हजार नरक सड़ि जाकै। अपण कुकरणिक तू फल पालै।।
3 हा0- सुणौ विखट षिव शाप, करनी हा हा कार गुरु।
देखौ कॉपन गुरुल मै, दुखित भई तब आपु।।28।।
कसिक कटनि त्यर पाप! सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
100 रठा - करनी डण्ड प्रणाम, षिव सनमुख हाथन जोड़ि,
गुरु दयालु, जस नाम, समजि कुगति म्यरि विनति करि।।29।।
षिव! द्रिणि रति मति काम, सियावर राम चन्द्र की ।।जै।।
हे गरुड़! तब गुरु दयालुल, रुद्र कणि यो अइवाड़ि चढै,
अस्तुति करी। मंतर रुप में - लग यो मनखों दुख
भुजंगप्रयातम् - हरणी छा।
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पैली उपांषु मंत्र जाप करते हुये यो, भुजंग प्रथातम्
हाथ जोड़ि - तर्ज -शरण में सदा षिव के आये हुये हैं। करो नाथ रक्षा सताये हुये हैं।
उपांष मंत्र- ऊॅ नमो, नमो! गुरु को आदेषा,
उपांषु त्रिलोकी को डीठो धर्नी महेषा!।।
पाठ - नमस्कार शम्भू सदा मोक्ष मूलम्।
तुमें वेद ब्रह्नमा,तुमें शान्त रुपम्।
निराकार साकार ओम्कार रुपम्,
महॉकाष वासम् बिनाषम्-त्रिषूलम्।।1।।
अपॅू आप रुपी महॉदेव शम्भू। न भावो न भक्ति, जयूं नित्त शम्भू।
बडै़ बिक्कराल्छा, महॉकाल भारी।
तुमें तीन कालौक बन्धॉक हारी।।2।।
सुकीलों हिंवालक् जसो छा शरीरा।
कदू कोटि सूर्जोक ज्योति गॅभीरा।
षिरोमथ्थि छाजीं जगत्मात गंगा।
दुतीया - दुतीया कि चान्ना छजीं बाई अंगा।।3।।
हलन् कुन्डला भौह ऑखी सुछाजीं।
हॅसन् मुक्ख का नील कंठी बिराजीं।
लपेटी छ बागम्बरी छाल न्यारी।
जयूॅ नाम मैं नित्त कल्याण कारी।।4।।
तुमें तीन लोकौक संहार कारी।
रटॅू मै सदा शाम्ब शम्भू पुरारी
कला सोल पूरण छन्यारै सरुपम्।
सदा शान्त शम्भो छिमाषील रुपम्!!5।।
1- वाक् - अम्बर ही जिनका वस्म- छाल आवरण - न्यारी विषेष है।
यहॉ कही व्याध्र चर्म से अर्थ नहीं हैं।जो गलत किया हैं। जो उनके पशु पति होने को अर्थ का समूह विनाष करता है अर्थ लेना ठीक नहीं।
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करीकल्प को अन्त रौद्रावतारी।
सदा सज्जनों का प्रभो मान धारी।
तुमें सच्चिदानंन्द, मोहा विनाषी।
महादेव रक्षा करो काषि वासी।।6।।
भजॅू जोन गौरी पती भाव भीजी।
नशौलोक पर्ल्लोक् करी पुण्य छीजीं।
न ऊ हौं सुखी वीक संन्ताप नाषीं
प्रषन्न प्रभो यैक् हरौ दुःक्ख राषी।।7।।
न जाणू जपो जोग पूजा न भक्ति।
नमस्कार शम्भू! नमस्कार शक्तिः।
दुखी,यौक, दुक्ख प्रभु ताप भारी।
करो रच्छ्य शम्भू कृपा डीठि मारी।।8।।
उपांषु भाव में हाथ जोड़ि बेर -
क्षेपक प्रसंग:-
म्यरी छा य भक्ति गुरु की छ शक्ति।
गई मत्ति फेरी, पड़ी आन तेरी।
शब्द सॉचा पिण्ड़ काचा।
सत्फुरो मंत्र इष्वरो वाचा।।
ऊॅ ऊॅ ओम्कार सत्त नाम हरि ओम तत्सत्।।
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श्लोका - अठवाड़ी रुद्र भक्तिमा, जपला,तीर गंग-या-।
शिवालया कि घर माजी, रक्तै व्यालकि सन्दिमा।।1।।
भूत - बात सबै दोषा - छाया दुष्टकि- ऑखि की।
निशंक नााषिला सब्वै, सो वेर सिद्व लै करी।।2।।
नौ वेर भक्ति भावैल रोखाई करि रोगि की।
साखी सदा षिव ज्यू छन, माजीं दोष सवै लगी।।3।।
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इति श्री विष्णु दत्त जोषी शैलज रचित रुद्राउठवाड़ी स्तोत्र काग-भुसुण्डि थापोछार मंत्र पुरो भययै।।
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तिसरो दिन