Author Topic: Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख  (Read 61373 times)

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-112 :     प्रदूषण घटे, तेल बचे और  रूपया  हो मजबूत ।

   17 अगस्त 2013 को पोस्ट किये गए इस लेख की प्रसांगिकता आज तीन साल बाद भी बनी हुयी है । हमने कोई बदलाव स्वीकार नहीं किया । वर्त्तमान दिल्ली सरकार जो इस लेख के पोस्ट होने के बाद बनी उसने दो बार सम- विषम (ऑड -ईवन ) का  प्रयोग कर भी लिया है परंतु नियमित नहीं हो सका ।

     सरकार के भरसक प्रयास करने पर भी रुपए का गिरना जारी है। यह स्तिथि लगातार आयत के बढ़ने और निर्यात के घटने से उत्पन्न हुई । आयात की सूची में सबसे अधिक आयात कच्चे तेल का होता है। हम कुल खपत का 80 % तेल आयात करते हैं जिसकी कीमत डालर में देनी होती है।

     देश में सडकों पर कारों  की संख्या बहुत है जिसे घटाया नहीं जा सकता बलिक यह संख्या दिनोदिन बढती रहेगी।  वर्षों से यह अपील जारी  है कि  लोग कार -पूलिंग करें अर्थात एक ही गंतव्य स्थान तक जाने के लिए दो-चार व्यक्ति बारी-बारी से एक ही कार का उपयोग करें जिससे चार करों की जगह सड़क पर एक ही कार चलेगी। पेट्रोल भी बचेगा और सड़क पर वाहन भीड़ भी कम होगी।  इस अपील पर बिलकुल भी अमल नहीं हुआ। कार मालिक सार्वजानिक वाहन (बस ) की कमी और समय अनिश्चितता के कारण उसका उपयोग करना  पसंद नहीं करते।
          सरकार यदि यह क़ानून बना दे कि  सम और विषम संख्या की कारें बारी-बारी से सप्ताह में तीन-तीन दिन के लिए ही सड़क पर चलें अर्थात जिन कारों के अंत में 1, 3, 5 ,7 ,9  (विषम संख्या ) हो वें विषम तारीख को चलें और जिनके अंत में 2, 4, 6, 8, 0 (सम संख्या ) हो वे सम तारीख को चलें तथा रविवार को सभी वाहन चलें तो इससे सडकों पर वाहन संख्या घट कर आधी रह जायेगी, तेल का आयात घटेगा, प्रदूषण कम होगा और डालर भी कमजोर पड़ेगा।

पूरन चन्द्र कांडपाल, 23.08.2016


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-११३ : हमारे दो पड़ोसी, पाक और बांग्लादेश 

     अस्सी दसक के पूर्वार्द्ध  में कुछ कश्मीरी भाईयों के बीच रह कर वहां की जनता को मैंने बहुत करीब से देखा | एक बार मेरा एक कश्मीरी परिचित मुझे बहुत दिनों बाद दिखा | जब मैंने इसकी वजह पूछी तो उसने कहा, “जनाब, इण्डिया गया था |” मैंने कहा, “इण्डिया तो यही है, तुम कौन से इण्डिया गए थे ?” वह हंसते हुए बोला, “ आप ठीक कह रहे हैं जनाब लेकिन हमारी आदत हो गए हैं इण्डिया कहने की | शक्ल -सूरत और भाषा से पहचाने जाने वाले कश्मीरियों की ‘हरे झंडे’ वालों के खबरनवीस एक- एक सांस की खबर उस पार पहुंचाते हैं |”

     वह बोलते गया, “सच कहूं जनाब, यहाँ तो यह हाल है कि पानी में रह कर मगर से बैर कैसे ?” ईमान से बोलता हूँ जनाब, हम भारतीय हैं और  हमें भारतीय कहलाना अच्छा लगता है और भारतीय फ़ौज को देख कर हमारा हौंसला भी बुलंद रहता है | पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की बदतर हालत हम जानते हैं | वादी में दहशत और अलगाव की हवा उस पार से चलाई जाती है जिसे यहाँ के कुछ अलगाववादी नेता अपनी रोटी सेकने के लिए हवा देते हैं | आज से नहीं, यह १९४७ से हो रहा है जनाब | उस समय के राजा महाराज हरी सिंह ने देरी से ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर किये वह भी तब जब कबाइलियों के वेश में पाक सेना हरी सिंह के राज्य में घुस चुकी थी |”

     “एक बात और बताता हूँ जनाब”, वह आगे बोला, “दुनिया की कुछ बड़ी  ताकतें जिनमें वह भी है जिसने हम पर राज किया था, भारत- पाक को आपस में उलझाए रखना चाहती हैं ताकि भारत विकसित राष्ट्र नहीं बन सके और पाक प्रायोजित छद्म युद्ध में उलझा रहे | यदि पाकिस्तान विश्वास के साथ भारत से मैत्री करता, कश्मीर की वास्तविकता को समझता तो दोनों का हित होता | उलटे वह भारत में ही हिंसक वारदातों को अंजाम देने में लगा हुआ है |” उस कश्मीरी भाई का एक- एक शब्द आज भी सत्य है | उसके बात हमने १९९९ में कारगिल युद्ध देखा और आज की लहू-लुहान स्तिथि हमारे सामने है | यदि विश्व के चौधरी साहब चाहते तो पाकिस्तान को बहुत पहले ही उग्रवादी देश घोषित कर सकते थे क्योंकि उनके घर में भी उग्रवाद की चोट पड़ीं है | वो ऐसा कभी नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें अपनी दुकान में सजी हुयी युद्ध सामाग्री बेचनी है |

     हमारा दूसरा पड़ोसी बंगलादेश है जिसका उदय १९७१ के १४ दिन के युद्ध के बाद हमारे ही हाथों हुआ | शेख मुजीब की भारत के प्रति मैत्री और कृतज्ञता उस दौर के बंगलादेशी जरूर जानते होंगे | पाकिस्तान द्वारा सताए गए एक करोड़ से भी अधिक बंगलादेशी (तब पूर्वी पाक) शरणार्थी बन कर भारत आ गए थे | भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने विश्व को इस समस्या से अवगत कराया था | जब पूर्वी पाकिस्तान में पाक हुक्मरानों द्वारा अत्याचार नहीं थमा तो भारत ने ही उनकी चीत्कार सुनी और मुक्ती संग्राम में मदद करके विश्व के नक्से में बंगलादेश बनाया |

     मात्र ४५ वर्ष हुए हैं, वहां के कुछ सिरफिरे अपने जन्मदाता को भूल गए और भारत विरोधी आतकवाद वहाँ भी पनप ने लगा है | वे भी हमारे संयम, मैत्रीभाव और सह-अस्तित्व के संकल्प को नहीं समझ सके | इन सिरफिरों को समझना चाहिए की जिन आकाओं के इशारे पर वहां भारत विरोधी तत्व पनप रहे हैं वे आका वक्त पड़ने पर उनके काम नहीं आयेंगे | उन्हें सद्बुद्धि के साथ शेख मुजीब के दिखाए मैत्री के रास्ते पर चलना चाहिए और भारत के उपकार को नहीं भूलना चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
२७.०८.२०१६

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत -११४  : गंगा की दुर्दशा कब तक ? ३१.०८.२०१६ 31.08.2016
 
   आज गंगा को साफ़ करने की खूब जोर-शोर से बात हो रही है. बहुत अच्छी बात है.  बात तो पिछले चार  दसकों से हो रही है लेकिन ढाक के तीन पात. निष्परिणाम का मुख्य कारण- काम कम शोर ज्यादा, कथनी-करनी में अंतर, वोट बैंक के नाराज होने का डर, अंधविश्वास से लगाव, अकर्मण्यता का दंश और ईमानदारी का अभाव.  पिछले चार दसकों से इस मुद्दे पर कई लेखकों की  कलम चल रही है.  मैंने भी अपनी पुस्तक 'माटी की महक, यथार्थ का आईना, सच की परख, उत्तराखंड एक दर्पण, उजाले की ओर' सहित कई पत्र-पत्रिकाओं एवं समारिकाओं के माध्यम से गंगा के संताप की बात विभिन्न तरीके से उठाई |

  गंगा की  लम्बाई २५२५ कि मी है. इसे यदि ५-५ कि मी के ५०५ भागों में इसे बांटा जाय और प्रत्येक ५ कि मी के हिस्से पर कड़ा पहरा लगाया जाय तो गंगा गन्दगी और अतिक्रमण से बच सकती है | भाषण में जोर है परन्तु क्रियान्वयन नहीं है |  गंगा में सभी प्रकार का विसर्जन बंद होना चाहिए |  आज भू-विसर्जन अर्थात सभी प्रकार के धार्मिक विसर्जन, पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन आदि को जमीन में दबाना चाहिए | शव दाह भी जहाँ सुविधा है सी एन जी फर्नेश में होना चाहिए |

     यदि हमने भू-विसर्जन की परम्परा अपना ली और सभी गंदे नाले गंगा में गिरने बंद हो गए तो गंगा स्वत: स्वच्छ हो जायेगी | अन्यथा बिना जमीन में कुछ किये ढोल-डमरू-डुगडुगी बजाकर शोर मच रहा है, मचाते रहो और बीच-बीच में धर्म को भी घसीटते रहो |  मदारी के जोर और डुगडुगी के शोर पर ही तो बन्दर नाचता है | गंगा की डाड़ राजनीति की गाड़ में हमेशा ही बहती रही है | धर्म- कर्म -पुण्य के नाम पर हम सब नदियों के रूप-रंग को बिगाड़ रहे हैं | हमें कौन रोकेगा? क्या सभी फेसबुकिये इस बात की चर्चा अपने घर, मित्रों एवं कर्मस्थान पर करेंगे? अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ३१.०८.२०१६





Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत -११५ : पत्थर मार परम्परा

     उत्तराखंड में पुरातन परम्पराएं आज भी जड़ जमाये हैं | बड़ी मुश्किल से पशु-बलि प्रथा अब कम हो रही है लेकिन चोरी-छिपकर खुकरी- बड्याठ अब भी चल रहे हैं | देवालयों में रक्तपात बहुत ही घृणित कृत्य हैं परन्तु जिन लोगों ने इसे उद्योग बना रखा है उनके बकरे बिक रहे हैं | जेब किसी की  कटती है और पिकनिक कोई और मनाता है | हम किसी से शिकार मत खाओ नहीं कह सकते परन्तु देवता- मसाण- हंकार के नाम पर किसी की जेब काटना जघन्य पाप ही कहा जाएगा | मांसाहार के लिए बुचड़ के दुकानें गुलज़ार तो हैं ही |

   परम्परा के नाम पर उत्तराखंड में आज भी मानव –रक्त बहाया जा रहा है  | इस बार भी १८ अगस्त को रक्षाबंधन के दिन जिला चम्पावत में वाराहीधाम देवीधुरा के खोलीखाड़- दूबाचौड़ मैदान में पत्थरों की बारिश हुई | एक दूसरे पर पत्थर बरसाने वाले चार खामों के लोग बड़े जोश से मैदान में कूद पड़े | इस पत्थरबाजी को बग्वाल भी कहा जाता है | अपराह्न में मदिर के पुजारी की शंख बजाते ही पत्थरबाजी शुरू हुई और सात मिनट तक पत्थरों की वर्षा से कई लोगों का खून बहने लगा | जब पुजारी को यकीन हो गया कि एक व्यक्ति के खून के बराबर रक्तपात हो चुका है तो उन्होंने ने युद्ध बंद करा दिया | इस युद्ध में दर्शकों सहित करीब एक सौ व्यक्ति घायल हुए जिनका बाद में उपचार किया गया |

     यह परम्परागत पाषाण युद्ध वर्षों से चला आ रहा है | इसी प्रकार का पत्थर युद्ध जिला अलमोड़ा के ताड़ीखेत ब्लाक स्तिथ सिलंगी गाँव में भी वर्षों पहले बैशाख एक गते (१४ अप्रैल ) को प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता था जिसमें स्थानीय लोगों की दो टीमें ‘महारा’ और ‘फर्त्याल’ भाग लेती थीं | सूखे गधेरे में एक स्थान (खइ ) तय किया जाता था जिसे पत्थरों की वर्षा के बीच हाथ में ढाल लेकर पत्थरबाज छूने जाते थे | जो इस स्थान पर पहले पहुँच जाय उसे विजेता माना जाता था | यहाँ भी कई लोग घायल होते थे जिनका उपचार किया जाता था या खाट में डाल कर रानीखेत अस्पताल में ले जाया जाता था | पत्थरबाजी से खून बहाने को ‘देवी को खुश करने’ की बात मानी जाती थी | लगभग २०वीं सदी के ५वें दसक ( ६०-६५ वर्ष पहले ) के दौरान नव-युवकों ने इस पाषण युद्ध को बंद करवा दिया और उस स्थान पर झोड़े  (खोल दे देवी, खोल भवानी, धारमा केवाड़ा ...आदि ) गाये जाने लगे | अब झोड़े भी बंद हो गए हैं क्योंकि कौतिक एक नजदीकी स्थान पर होने लगा है, झोड़े वहीं होने लगे हैं | पत्थरमार युद्ध बंद होने से न कोई रोग फैला और न कोई अनहोनी हुई जैसा कि पुरातनपंथी भय दिखाकर प्रचारित करते थे |

   चम्पावत की इस पत्थरबाजी के खून –खराबे में भाग लेने वाले जोश से सराबोर खामों को आपस में मिल-बैठ कर सर्वसम्मति से इस पाषाण युद्ध को बंद करवाना चाहिए | इसकी जगह कोई खेल की टूर्नामेंट आरम्भ की जानी चाहिए जिसमें चार खामों की चार टीम या अन्य स्थानीय टीमें भाग लें और साथ में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी करायें | पुरस्कार के लिए ट्रॉफी रखें |  ऐसा करने से उत्तराखंड में खेलों को प्रोत्साहन भी मिलेगा | हमें समय के साथ बदलना चाहिए | देश में पत्थरबाजी की कोई प्रतियोगिता नहीं होती | बग्वाल का जोश खेलों में परिवर्तित होना चाहिए | ‘देवी नाराज हो जायेगी’ का डर ग्राम सिलंगी में भी था जो एक भ्रम था | रुढ़िवाद को सार्थक कदम उठाकर और सबको साथ लेकर समाप्त करते हुए खेल भावना युक्त नूतन परम्परा आरम्भ करने की पहल होनी चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल. ०४.९.२०१६

   

Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै

यै हुणि ‘इज्जत लुटिगे’ नि कौ

    समाज में नरपिसाचों कि संख्या दिनोदिन बढ़नै जांरै | उनुकैं सजा या क़ानून क डर न्हैति | नानि गुड़िय जसि भौ बटि बुढी स्यैणि तक इनरि करतूत क शिकार बनै रईं | बलात्कार क रोजाना नईं कांडों ल हैवानियत लै शर्मसार हैगे | रात छोड़ो दिन में लै स्यैणि- जात सुरक्षित न्हैति | दुष्कर्मी बेखौप घुमें रईं | यूं वहशियों क आपण क्वे नात-रिश्त नि हुन | यूं नरपिसाच देखण में आम मैंसों जास देखिंनी जो आपण लोगों क बीच में लै हुनी पर इनरि पछ्याण करण भौत मुश्किल हिंछ | बलात्कार क मर्ज नरपिसाचों कि हैवानियत ग्रस्त लाइलाज बीमारी छ तबै त यूं एक छोटि गुड़ी जसि भौ बटि अस्सी वर्ष कि बुढ़िय तक कैं आपण शिकार बनै दिनी |

     आज हम सद्म में छ्यूं, हम दुखित छ्यूं, हम डर ल कापैं रयूं क्यलै कि हमार इर्द- गिर्द रोज बलात्कार कि घृणित घटना होतै जां रईं जनूं में दस घटनाओं में बै केवल एक ही घटना कि रिपोट पुलिस तक पुजीं | समाज विज्ञानियों क मानण छ कि ९०% रेप केस पुलिस अविश्सनियता, न्याय में देरी और सामाजिक सोच (सोसियल स्टिग्मा) क कारण चुपचाप घुटन में छटपटानै हरै जानीं | देश कैं २००५ क दिल्ली गेट रेप काण्ड, २०१० क दिल्ली धौलाकुआ दुष्कर्म केस, २०१२ क दिल्ली निर्भया हैवानियत काण्ड, य बीच अणगणत रेप कांडों और २९ जुलाई २०१६ क बुलंदशहर हाइवे रेप- लूट काण्ड ल सबूं कैं दहलै बेर धरि दे |

     दिनोदिन बढ़णी रेप केसों क मध्यनजर पुलिस या क़ानून कि तरफ देखि बेर दुःख और निराशा हिंछ | बताई जांरौ कि २९ जुलाई २०१६ की रात जो हाइवे पर य घृणित कुकृत्य हौछ उ रात पुलिस रजिस्टर में उ क्षेत्र में छै पीसीआर वाहन ड्यूटी पर छी | अगर यूं वाहन ड्यूटी पर हुना तो यसि जघन्य बारदात नि हुनि | नरपिसाचों कैं पुलिस क रवइय और अकर्मण्यता क पत्त हुंछ तबै ऊँ बेडर है बेर यस संगीन अपराध करनीं | पत्त नै य हमरि कुम्भकरणी नींन में स्येती पुलिस कब जागलि ? चाहे ज्ये लै कारण हो हमार देश में न्याय में देरी लै एक अभिशाप छ | दिसंबर २०१२ क निर्भयाकांड क चार वर्ष बितण बाद लै उ काण्ड में लिप्त नरपिसाच सजा मिली बाद लै फांसी पर नि चढ़ि राय | कभैं अपील, कभैं दुबार उखेलापुखेल, कभैं लूपहोल क लाभ ल्हीनै न्याय मिलण में देरी होतै जींछ | निर्भया ल २९ दिसंबर २०१२ हुणि तड़पि- तड़पि बेर दम तोड़ दे पर वीकि आत्मा कि आवाज आज लै हमार कानों में गूंजीं, मानो उ हमूं हैं पूछें रै, “कभणि मिललि ऊँ दरिंदों कैं फांसि ? कभणि मिलल मीकैं न्याय ?” 

     बलात्कार कि शिकार स्यैणि- जात क असहनीय शारीरिक और मानसिक पीड़ है मुक्ति मिलण भौत कठिन छ | यै है लै ठुल छ सामाजिक पीड़ क दंश | हमार समाज में क्वे ले स्यैणि या नानि दगै यसि घटना हुण पर ‘इज्जत लुटिगे’ कै दिनी जो भौत गलत बात छ और शर्मनाक छ | य सामाजिक दंश कि पीड़ यतू भयानक और अकल्पनीय छ कि कएक पीड़ित त आपणी कपोघात (आत्म-हत्या) तक कर ल्हीनी | य ठीक बात न्हैति | यस नि हुण चैन | य समाज क लिजी भौत शर्म कि बात छ | पीड़ित क यै में क्ये लै  दोष नि हय फिर उ आपूं कैं सजा क्यलै द्यो ? अगर उ टैम पर उ य दंश क  सद्म है उबरि जो तो उ आत्म- हत्या है बचि सकीं | उ बखत उकैं सामाजिक, डाकटरी और मनोवैज्ञानिक उपचार कि भौत ज्यादै जरवत हिंछ |

     दुष्कर्म पीड़िता कैं य सोचि बेर हिम्मत बादण पड़लि कि उ आपूं कैं क्ये लिजी सजा द्यो ? वील त क्वे कसूर नि कर और न वीक क्ये दोष | सिर्फ स्यैणि -जात हुण क कारण वीक शिकार हौछ | उकैं खुद आपूं कैं समझूण पड़ल कि उ एक नरपिसाच रूपी भेड़िये कि शिकार बनीं | उकैं आपणि पीड़ कैं सहन करनै, टुटि हुयी मनोबल कैं दुबार जगूण पड़ल और नरपिसाचों कैं सजा दिलूण में क़ानून कि मदद करण पड़लि जो बिना वीक सहयोग दिए संभव नि है सका | उसी लै जंगली जानवरों द्वारा बुकाई जाण पर हम इलाजै करनू | हादसा समझि बेर य घटना कैं भुलण क दगाड़ यूं भेड़ियों क आक्रमण है बचण क हुनर लै आब हरेक स्यैणि कैं सिखण पड़ल और हर कदम पर आपणि चौकसी खुद करण पड़लि | बलात्कारियों कैं जल्दि है जल्दि कठोर दंड मिलो, य पीड़ित कि पीड़ कैं कम करण में एक मलम क काम करल | आब टैम ऐगो जब समाज क बुजर्गों, बुद्धिजीवियों, धर्म- गुरुओं, पत्रकर- लेखकों, सामाजिक चिंतकों और महिला संगठनों कैं जोर-शोर ल य कौण पड़ल कि यै हुणि ‘इज्जत लुटिगे’ या ‘इज्जत तार तार हैगे’ जसि बात नि समझी जो और नि कई जो | यूं शब्दों है मीडिया- टी वी चैनलों कैं लै परहेज करण पड़ल ताकि पीड़ और निराशा में डूबी हुई पीड़ित कैं ज्यौन रौण बाट मिलि सको |

पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
 २५ .०८.२०१६   



Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै

दलित क्यलै बनै रईं रॉबर्ट और अली

      एक समाचार चैनल क अनुसार दक्षिण भारत क एक राज्य में कुछ दलित आपण धर्म यैक वजैल बदलण रईं क्यलैकि उनुकैं मंदिर में प्रवेश हुण है वंचित करी जांछ | ज्यादैतर मंदिर हिन्दुओं क द्वारा संचालित करी जानीं जबकि दलित जो कि हिन्दू छीं पर उनुकैं चौथू वर्ण क हिन्दू मानी जांछ | संविधान में त सब बराबर छीं पर आज लै दलित सामाजिक न्याय क लिजी तरसै रईं | जब यूं दलितों कैं हिंदू सम्प्रदाय वाल राम कि चार अंग्वाव किटण त दूर, राम क मंदिर (या क्वे लै मंदिर) में नि जाण द्याल तो पै यूं कां जाल ? व्यथित-दुखित है बेर ऊँ आपण धर्म बदलि बेर ‘रॉबर्ट या अली’ बनण हैं मजबूर ह्वाल | जब आपण धर्म में उनुकैं अछूत समझी जाल तो ऊँ उ धर्म में क्यलै रौल ? आजादी क ६९ वर्ष बाद लै यास किस्माक कएक शर्मनाक घटना हमार देश में आये दिन हूं रईं |

     हिमाचल प्रदेश क राज्यपाल देवव्रत आचार्य नशा मिटाओ, बेटी बचाओ और हरियाली बनाओ क बाद अब राज्य क मंदिरों में दलित प्रवेश क बीड़ा उठूँ रईं जां दलितों कैं मंदिरों में पुज करण कि मनाही बतायी जैंछ | बतायी जांछ कि राजनीति है दूरी बनै बेर धरणी आचार्य रुढ़िवादी परम्पराओं कैं टोणण क लिजी मशहूर छीं | यसिक्ये उत्तराखंड में लै कुछ दिन पैली एक मंदिर में दलित परिवार कैं प्रवेश नि हुण दि जै पर जिलाधिकारी ल कानूनी कार्यवाही क आदेश देछ | कुछ महैण पैली चित्रकूट में लै एक मूर्ति कैं छुंगण  पर एक दलित स्यैणि कैं प्रताड़ित करी गो | देशा क क्वे लै हिस्स में आयेदिन यास किस्माक शर्मनाक घटना समाचार पत्रों और समाचार चैनलों कि मुख्य सुर्खि बनते रौनी |

     प्रवचनों में त शबरी और निषाद कि चार दलितों दगै अंग्वाव किटण कि बात हम सुनते रौनू पर जमीन में आजि तक सामाजिक न्याय भौत दूर छ | देश में दलित आबादी हमरि कुल जनसँख्या क लगभग १६ % छ जमें ४५ % अनपढ़ और ५४ % गरीब –कुपोषित छीं | हम सब देखै रयूं कि कुं, मंदिर, घर, चौखट और चौपाल है दलितों कैं दूर धरी जांछ | दलितों में एक वर्ग मैल (मल- मूत्र ) उठूण क काम लै करूं जो आज लै य विज्ञान क युग में हमार लिजी भौत शर्म कि बात छ | एक आन्दोलन इनार लिजी लै क्यलै नि चलाई जान ? देश में कएक यात्रा लै निकलते रौनी | एक यात्रा इनार नाम पर लै निकालो, मिलि बेर इनार पक्ष में लै आवाज त उठौ | धर्मा क सच्च रक्षक निर्दोषों पर अमानवीय व्यवहार कभैं नि करन पर हम य सब देखैं रयूं |

     य दौरान एक सुखद क्षण कि लै आछ जब ३२ वर्ष बै ख्वार में मैल उठूण कि कुप्रथा कैं ख़तम करण क लिजी आन्दोलन करणी कर्नाटक क पचास वर्ष क बेजवाड़ा विल्सन कैं रेमन मैग्सेसे पुरस्कार- २०१६ (एशिया क सबूं है प्रतिष्ठित पुरस्कार ) ल सम्मानित करीगो | विल्सन क अनुसार, ‘ख्वार में मैल उठूण भारत में मानवीयता पर कलंक छ | मैल उठूण शुष्क शौचालयों बै मानव मल-मूत्र कैं हाथ ल उठै बेर, उ मल- मूत्र कि टोपरियों कंअ ख्वार में उठै बेर निर्धारित निपटान स्थलों पर ल्ही जाण क काम छ जो भारत क ‘अस्पृश्य’ दलित उनार दगै हुणी संरचनात्मक असमानता क मद्देनजर करनी |’

      मैल उठूण एक वंशानुगत प्यश छ और जैकैं देशा क १.८ लाख दलित परिवार देश भर में करीब ७.९ लाख सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत शुष्क शौचालयों कैं साफ़ करनी | मैल उठूण में ज्यादैतर स्यैणिय या च्येलिय छीं जनुकैं भौत कम वेतन दिई जांछ | संविधान एवं क़ानून शुष्क शौचालयों और ख्वार में मैल उठूण पर प्रतिबन्ध लगूंछ पर य क़ानून लागु नि हय | ख्वार में मैल उठूण क काम करणी लोगों कैं आब य अमानवीय कर्म कैं त्याग बेर आपण गुजार क लिजी क्ये दुसरि मजूरी करण क प्रण करण पड़ल तबै ऊँ य   कलंक है छुटकार पै सकनी | दगाड़ में समाज क सबै वर्गों- सम्प्रदायों कैं  दलित समाज क दगाड क्वे लै घृणित व्यवहार नि करण चैन ताकि क्वे दलित राबर्ट या अली बनण कि नि सोचौ |

पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिनी दिल्ली ०१.०९.२०१६   





Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-११६ :  पहले इंसान बनें हम

     जो लोग समाज के सौहार्द को बिगाड़ते हैं वे कबीर, रहीम, बिहारी, रसखान आदि कालजयी कवियों को नहीं जानते हैं या जानकार भी अनजान बने रहते हैं | इन महामनीषियों ने मनुष्य को इंसान बनाने के लिए, समाज को अंधविश्वास से बाहर निकालने के लिए तथा सामाजिक सौहार्द को बनाये रखने के लिए अथाह प्रयत्न किये | हमारे पुरखों ने स्वतंत्रता संग्राम भी मिलकर लड़ा | महत्वाकांक्षा के अंकुरों ने सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ दिया और इस अंकुर को हमें गुलाम बनाने वाला जाते- जाते मजबूती देकर देश को खंडित कर गया | इस खंडन से मजबह की दीवार को मजबूती मिली और कुछ असामाजिक तत्वों ने नफरत की नर्सरी में अविश्वास के पौधे उगाकर यत्र- तत्र रोपना शुरू कर दिया | उसका जो परिणाम हुआ उसकी चर्चा करने की आवश्कयता नहीं है क्योंकि सबकुछ हम आये दिन देख रहे हैं |

     हमारे समाज में सौहार्द को सींचने वाले भी मौजूद हैं | कुछ दिन पहले कानपुर में गंगा नदी के बैराज पर नौ युवक घूमने गए | एक युवक सेल्फी लेते हुए फिसल कर गंगा नदी में गिर गया और डूबने लगा | उसे बचाने एक के बाद एक सभी दोस्त नदी में कूद पड़े परन्तु डूबने लगे | डूबते हुए युवकों का शोर सुन पास ही में रेत पर बैठा हुआ एक युवक उन्हें बचाने नदी में कूद गया | इसी बीच कुछ नाविकों ने तीन युवक बचा लिए परन्तु वह युवक भी मदद करते हुए नदी में समा गया | बाद में गोताखोरों ने सात शव बहार निकाले | अपनी जान गंवा चुका रेत पर बैठा युवक इन नौ युवकों को नहीं जानता था फिर भी वह इन्हें बचाने के लिए नदी में कूद पड़ा और उन युवकों को बचाते हुए डूब गया | बाद में पता चला कि उसका नाम मक़सूद अहमद था जो एमएससी में अध्ययनरत छात्र था |

     जब मक़सूद अहमद गंगा में नौ युवकों को बचने कूदा होगा उस क्षण उसके मन में हिन्दू- मुसलमान की बात नहीं रही होगी | वह एक मुस्लिम युवक था जिसे उन नौ युवकों के बारे में कुछ भी पता नहीं था | वक्त की मांग पर वह इंसानियत के नाते नौ इंसानों को बचाने के लिए नदी में कूदा  और स्वयं भी जल में समा गया | बात-बात में हिन्दू- मुस्लिम कहने वालों को यह बात समझनी चाहिए कि हम सबसे पहले इंसान हैं, बाद में कुछ और | मक़सूद के साथ अन्य छै का डूब जाना बहुत दुखदायी है | बाद में पता चला कि सभी छै मृतक युवा हिन्दू सम्प्रदाय के थे | एक सेल्फी ने सात अमूल्य जान ले ली | लोगों को चौकन्ना होकर सेल्फी लेनी चाहिए |

     इसी तरह १८ नवम्बर १९९७ को सुबह सवा सात बजे स्कूली बच्चों को ले जारही एक बस यमुना नदी पर बने वजीराबाद पुल की रेलिंग तोड़कर यमुना नदी में गिर गई | इस बस में ११३ बच्चे और २ अध्यापक थे | इस दुर्घटना में २८ बच्चे डूब कर मर गये और ६७ बच्चों को अस्पताल में भर्ती किया गया | इन बच्चों को जगतपुरी दिल्ली निवासी गोताखोर अब्दुल सत्तार खान ने पानी से बहार निकाला | सत्तार ने लगातार ५ घंटे तक ठंडे पानी में डुबकी लगाई और ५० बच्चे बचाए तथा मृत बच्चों के शव बहार निकाले | इतने परिश्रम और ५० बच्चों का जीवन बचाने के बाद सत्तार ने कहा, “अल्लाह ने हुनर दिया तभी बच्चे बचाए | मुझे २८ बच्चों को नहीं बचा पाने  का बहुत मलाल है |” सत्तार मुसलमान था परन्तु वह जीवित बचाए गए बच्चों के लिए एक “इंसान नहीं फ़रिश्ता बन कर आया था”, ये शब्द उन अभिभावकों के थे जो अपने जीवित बच्चों को गले लगाते हुए कह रहे थे |  काश ! हम सबसे पहले एक अच्छे इंसान बन कर सामाजिक सौहार्द को सींचने का काम कर सकते ! अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल ०८.०९.२०१६

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-११७ : वह भूत नहीं था |
 
      वर्ष १९९५ में मेरा पहला उपन्यास ‘जागर’ हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘प्यारा उत्तराखंड’ अखबार में किस्तवार छपा भी | जिसने भी इसी पढ़ा उसे अच्छा लगा | एक दिन महानगर दिल्ली में बड़े सवेरे उपन्यास का एक पाठक रेशम मेरे पास आकर बोला, “कका आज दिन में तीन बजे हमारी घर भूत की जागर है, मेरे पत्नी पर भूत नाच रहा है | एक कमरे का मकान है, बैठने की जगह नहीं है इसलिए केवल आपको और एकाध सयानों को बुला रहा हूँ | डंगरिया आएगा, दास नहीं है | वह बिना ढोल-हुड़के के ही हात –पात जोड़कर जाच जाता है | आप जरूर आना |” तीन वर्ष पूर्व रेशम की शादी हुयी थी | पांच लोगों के इस परिवार में माता-पिता ,एक भाई और पति-पत्नी थे | परिवार शिशु के लिए भी तरस रहा था |
 
       मैं ठीक तीन बजे वहाँ पहुँच गया | वहाँ इन पाँचों के अलावा पड़ोस के दो जोड़ी दम्पति और डंगरिया मौजूद थे | धूप-दीप जली, डंगरिया दुलैंच में बैठा और रेशम के पिता जोड़े हुए हाथों को माथे पर टिका कर गिड़गिड़ाने लगे, “हे ईश्वर-नरैण, ये मेरे घर में कैसी हलचल हो गयी है ? कौन है ये जो मेरी बहू पर लगा है | गलती हुयी है तो मुझे डंड दे भगवन, इसका पिंड छोड़ |” डंगरिया कापने लगा और बहू भी हिचकोले-हिनौले खेलने लगी | बहू की तरफ देख रेशम के पिता जोर से बोले, “हम सात हाथ लाचार हैं, तू जो भी है इसे छोड़, मुझे पकड़, मुझे खा |” वे डंगरिये की तरफ देख बोले, “तू देव है, दिखा अपनी करामात |” इस बीच बहू बैठे- बैठे सिर के बाल हिलाती हुई डंगरिये ओर बढ़ी | डंगरिये ने उसे बभूत लगाना चाहा जिस पर वह बेकाबू घोड़ी की तरह बिदक पड़ी मानो वह उस पर झपट पड़ेगी | डंगरिया बचाव मुद्रा में आ गया और डरी हुयी आँखों से मुझे देखने लगा |
 
      सभी इस दृश्य से दंग थे | रेशम मेरी तरफ देख कर बोला, “यह तो हद हो गयी | इसका कोई गुरु- गोविंद ही नहीं रहा | ऐसा डंगरिया नहीं मिला जो इस पर सवा सेर पड़ता | परिवार की परेशानी देख मेरे मन में एक विचार आया और मैं उठकर बहार जाने वाले दरवाजे के पास बैठ गया | मैंने गंभीर मुद्रा बनाते हुए जोर से कहा, “बिना गुरु की अंधेरी रात ! बोल तू है कौन ? किस गाड़- गधेरे से आया है ? खोल अपनी जुबान | आदि-आदि..” मेरी भाव-भंगिमा और बोल सुन कर सभी समझने लगे कि मैं उस डंगरिये से बड़ा डंगरिया हूँ | मेरी ओर देखकर रेशम की पिता बोले, “परमेसरा रास्ता बता दे, मेरा इष्ट –बदरनाथ बन जा |” मैंने उन्हें संकेत से चुप कराया | मैं रेशम की पत्नी की तरफ देख कर बोला, “तू बोलता क्यों नहीं ? नहीं बोलेगा तो मैं बुलवा के छोडूंगा | मसाण- भूत का इलाज है मेरे पास |” वह नहीं बोली | मैंने रेशम के ओर देखकर जोर से कहा, “धूनी हाजिर कर दे सौंकार |” रेशम- “परमेसरा यहाँ धूनी कहाँ से लाऊँ ?” मैं- “धूनी नहीं है तो स्टोव हाजिर कर दे |” रेशम तुरंत रसोई से स्टोव, पिन और माचिस ले आया | मेरे संकेत पर उसने स्टोव जलाया | मैं- “चिमटा हाजिर कर दे सौंकार |” वह भाग कर चिमटा ले आया | सभी मुझे देव अवतार में समझ रहे थे जबकि ऐसा नहीं था | मैं स्वयं डरा हुआ था | मैंने ठान रखी थी, यदि रेशम की पत्नी ने मुझ पर आक्रमण कर दिया तो दरवाजे से बाहर खिसक लूँगा |
 
      मैंने स्टोव की लपटों में चिमटा लाल करते हुए रेशम की पत्नी की तरफ देख कर कहा, “जो भी भूत, प्रेत, पिसाच, मसाण, छल, झपट तू इस पर लगा है, अगर तेरे में हिम्मत है तो पकड़ इस लाल चिमटे को, वर्ना मैं स्वयं इस तेरे शरीर पर टेक दूंगा |” मैं उसे डराने के लिए बोल रहा था | लाल चिमटे को देख रेशम की पत्नी का हिलना बंद हो गया और सिर पर पल्लू रखते हुए वह धीरे से उठ कर पीछे बैठ गयी | अब मैं निडर हो गया और बुलंदी से बोला, “जो भी तू इस पर लगा था आज तूने इस धूनी-चिमटे के सामने इसका पिंड छोड़ दिया है | आज से इसका रूमना- झूमना, रोना-चिल्लाना, चित्त-परेशानी, शारीरिक-मानसिक क्लेश, रोग-व्यथा सब दूर होनी चाहिए |” इतना कहते हुए मैंने स्टोव की हवा निकाल दी |

      जागर समाप्त हो चुकी थी | आये हुए डंगरिये ने मुझे अपने से बड़ा डंगरिया समझ कर हाथ जोड़े | रेशम पत्नी को आगे लाया और मुझ से उसे बभूत लगवाया | बभूत लगाते हुए मैंने उससे कहा, “आज से तुम निरोग हो, निश्चिंत हो और निडर हो | खुश रहो, अपने को व्यस्त रखो, अध्ययन करो, खाली मत बैठो | भूत एक बहम है, कल्पना है | खाली बैठने से अवांच्छित, उल-जलूल विचार मन में पनपते हैं | इसीलिये खाली दिमाग को भूत का घर भी कहते हैं | जीवन का एक मन्त्र है कर्म करना, व्यस्त रहना और इश्वर में विश्वास रखना बस |” इतना कह कर मैं उठा और चला आया |
 
      यह कोई सोची समझी योजना नहीं थी | सबकुछ अचानक हुआ | कई लोग मुझे भूत साधक समझने लगे | जब भूत है ही नहीं तो साधूंगा क्या ? यह एक भ्रम -रोग है जो यौन वर्जना, वहम, आक्रामक इच्छाओं की अपूर्ति से कुंठाग्रस्त बना देता है और दमन करने पर भावावेश में यह रूप प्रकट होता है | मनुष्य से बड़ा कोई भूत है ही नहीं जो सर्वत्र पहुँच चुका है | रेशम की कहानी हमें यही बताती है की उसकी पत्नी पर कोई भूत नहीं था | अंधविश्वास की सुनी- सुनाई बातों के घेरे में वह कुंठित हो गयी थी | अगले ही वर्ष उनके घर शिशु का आगमन हो चुका था | हमें फल की इच्छा न रखते हुए कर्म रूपी पूजा में व्यस्त रहना चाहिए | अंधविश्वास का अँधेरा कर्मयोग- प्रकाश के आगे कभी नहीं टिक सका है | (मेरी पुस्तक ‘उत्तराखंड एक दर्पण’ के आधार पर उधृत ) | अगली बिरखांत में कुछ और...
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, १२.०९.२०१६
 
 

Raje Singh Karakoti

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Very rightly written note on bad practice followed in our Devbhumi Uttrakhhand Pandit Ji.
Lord Krishna himself said to Arjuna that "हे अर्जुन तू अपने समस्त सांसरिक कार्यो को करते हुए भी मेरा ध्यान एवं सुमिरन कर और जब प्रत्येक शिष्य को श्रीकृष्ण रूपी सद्गुरु मिल जाते हैं जो उसे यह ज्ञान अथवा युक्ति प्रदान कर देते है जिसे हमारे शास्त्र ग्रंथो में "ब्रह्मज्ञान" कहा गया तभी उसका प्रत्येक कर्म पूजा बन पता है "

ॐ श्री सद्गुरु देवाय नमः

बिरखांत-११७ : वह भूत नहीं था |
 
      वर्ष १९९५ में मेरा पहला उपन्यास ‘जागर’ हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘प्यारा उत्तराखंड’ अखबार में किस्तवार छपा भी | जिसने भी इसी पढ़ा उसे अच्छा लगा | एक दिन महानगर दिल्ली में बड़े सवेरे उपन्यास का एक पाठक रेशम मेरे पास आकर बोला, “कका आज दिन में तीन बजे हमारी घर भूत की जागर है, मेरे पत्नी पर भूत नाच रहा है | एक कमरे का मकान है, बैठने की जगह नहीं है इसलिए केवल आपको और एकाध सयानों को बुला रहा हूँ | डंगरिया आएगा, दास नहीं है | वह बिना ढोल-हुड़के के ही हात –पात जोड़कर जाच जाता है | आप जरूर आना |” तीन वर्ष पूर्व रेशम की शादी हुयी थी | पांच लोगों के इस परिवार में माता-पिता ,एक भाई और पति-पत्नी थे | परिवार शिशु के लिए भी तरस रहा था |
 
       मैं ठीक तीन बजे वहाँ पहुँच गया | वहाँ इन पाँचों के अलावा पड़ोस के दो जोड़ी दम्पति और डंगरिया मौजूद थे | धूप-दीप जली, डंगरिया दुलैंच में बैठा और रेशम के पिता जोड़े हुए हाथों को माथे पर टिका कर गिड़गिड़ाने लगे, “हे ईश्वर-नरैण, ये मेरे घर में कैसी हलचल हो गयी है ? कौन है ये जो मेरी बहू पर लगा है | गलती हुयी है तो मुझे डंड दे भगवन, इसका पिंड छोड़ |” डंगरिया कापने लगा और बहू भी हिचकोले-हिनौले खेलने लगी | बहू की तरफ देख रेशम के पिता जोर से बोले, “हम सात हाथ लाचार हैं, तू जो भी है इसे छोड़, मुझे पकड़, मुझे खा |” वे डंगरिये की तरफ देख बोले, “तू देव है, दिखा अपनी करामात |” इस बीच बहू बैठे- बैठे सिर के बाल हिलाती हुई डंगरिये ओर बढ़ी | डंगरिये ने उसे बभूत लगाना चाहा जिस पर वह बेकाबू घोड़ी की तरह बिदक पड़ी मानो वह उस पर झपट पड़ेगी | डंगरिया बचाव मुद्रा में आ गया और डरी हुयी आँखों से मुझे देखने लगा |
 
      सभी इस दृश्य से दंग थे | रेशम मेरी तरफ देख कर बोला, “यह तो हद हो गयी | इसका कोई गुरु- गोविंद ही नहीं रहा | ऐसा डंगरिया नहीं मिला जो इस पर सवा सेर पड़ता | परिवार की परेशानी देख मेरे मन में एक विचार आया और मैं उठकर बहार जाने वाले दरवाजे के पास बैठ गया | मैंने गंभीर मुद्रा बनाते हुए जोर से कहा, “बिना गुरु की अंधेरी रात ! बोल तू है कौन ? किस गाड़- गधेरे से आया है ? खोल अपनी जुबान | आदि-आदि..” मेरी भाव-भंगिमा और बोल सुन कर सभी समझने लगे कि मैं उस डंगरिये से बड़ा डंगरिया हूँ | मेरी ओर देखकर रेशम की पिता बोले, “परमेसरा रास्ता बता दे, मेरा इष्ट –बदरनाथ बन जा |” मैंने उन्हें संकेत से चुप कराया | मैं रेशम की पत्नी की तरफ देख कर बोला, “तू बोलता क्यों नहीं ? नहीं बोलेगा तो मैं बुलवा के छोडूंगा | मसाण- भूत का इलाज है मेरे पास |” वह नहीं बोली | मैंने रेशम के ओर देखकर जोर से कहा, “धूनी हाजिर कर दे सौंकार |” रेशम- “परमेसरा यहाँ धूनी कहाँ से लाऊँ ?” मैं- “धूनी नहीं है तो स्टोव हाजिर कर दे |” रेशम तुरंत रसोई से स्टोव, पिन और माचिस ले आया | मेरे संकेत पर उसने स्टोव जलाया | मैं- “चिमटा हाजिर कर दे सौंकार |” वह भाग कर चिमटा ले आया | सभी मुझे देव अवतार में समझ रहे थे जबकि ऐसा नहीं था | मैं स्वयं डरा हुआ था | मैंने ठान रखी थी, यदि रेशम की पत्नी ने मुझ पर आक्रमण कर दिया तो दरवाजे से बाहर खिसक लूँगा |
 
      मैंने स्टोव की लपटों में चिमटा लाल करते हुए रेशम की पत्नी की तरफ देख कर कहा, “जो भी भूत, प्रेत, पिसाच, मसाण, छल, झपट तू इस पर लगा है, अगर तेरे में हिम्मत है तो पकड़ इस लाल चिमटे को, वर्ना मैं स्वयं इस तेरे शरीर पर टेक दूंगा |” मैं उसे डराने के लिए बोल रहा था | लाल चिमटे को देख रेशम की पत्नी का हिलना बंद हो गया और सिर पर पल्लू रखते हुए वह धीरे से उठ कर पीछे बैठ गयी | अब मैं निडर हो गया और बुलंदी से बोला, “जो भी तू इस पर लगा था आज तूने इस धूनी-चिमटे के सामने इसका पिंड छोड़ दिया है | आज से इसका रूमना- झूमना, रोना-चिल्लाना, चित्त-परेशानी, शारीरिक-मानसिक क्लेश, रोग-व्यथा सब दूर होनी चाहिए |” इतना कहते हुए मैंने स्टोव की हवा निकाल दी |

      जागर समाप्त हो चुकी थी | आये हुए डंगरिये ने मुझे अपने से बड़ा डंगरिया समझ कर हाथ जोड़े | रेशम पत्नी को आगे लाया और मुझ से उसे बभूत लगवाया | बभूत लगाते हुए मैंने उससे कहा, “आज से तुम निरोग हो, निश्चिंत हो और निडर हो | खुश रहो, अपने को व्यस्त रखो, अध्ययन करो, खाली मत बैठो | भूत एक बहम है, कल्पना है | खाली बैठने से अवांच्छित, उल-जलूल विचार मन में पनपते हैं | इसीलिये खाली दिमाग को भूत का घर भी कहते हैं | जीवन का एक मन्त्र है कर्म करना, व्यस्त रहना और इश्वर में विश्वास रखना बस |” इतना कह कर मैं उठा और चला आया |
 
      यह कोई सोची समझी योजना नहीं थी | सबकुछ अचानक हुआ | कई लोग मुझे भूत साधक समझने लगे | जब भूत है ही नहीं तो साधूंगा क्या ? यह एक भ्रम -रोग है जो यौन वर्जना, वहम, आक्रामक इच्छाओं की अपूर्ति से कुंठाग्रस्त बना देता है और दमन करने पर भावावेश में यह रूप प्रकट होता है | मनुष्य से बड़ा कोई भूत है ही नहीं जो सर्वत्र पहुँच चुका है | रेशम की कहानी हमें यही बताती है की उसकी पत्नी पर कोई भूत नहीं था | अंधविश्वास की सुनी- सुनाई बातों के घेरे में वह कुंठित हो गयी थी | अगले ही वर्ष उनके घर शिशु का आगमन हो चुका था | हमें फल की इच्छा न रखते हुए कर्म रूपी पूजा में व्यस्त रहना चाहिए | अंधविश्वास का अँधेरा कर्मयोग- प्रकाश के आगे कभी नहीं टिक सका है | (मेरी पुस्तक ‘उत्तराखंड एक दर्पण’ के आधार पर उधृत ) | अगली बिरखांत में कुछ और...
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, १२.०९.२०१६
 
 


Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै १५.०९.२०१६

मिनकिटॉव (भदु, टेडपोल ) चिठ्ठी
 
      चनरदा कभै कभैं आलोचक क रूप में लै नजर औनी | उसी आलोचना सही हो, प्रेरक हो, गलतियों कैं रेखांकित करणी हो, जागृत करणी हो तो य भलि बात हइ | अगर आलोचना केवल गटर ढूँढण ( जानबुझि बेर कमी निकाउण ) क लिजी करी हो उ आलोचना क नाम पर बेकार क बतंगड़ बनूण वालि बात हइ | आलोचक कैं सई बात सामणी ल्यौण चैंछ, उ लै सुधार करि बेर | चनरदा ल बता, “बचपन कि बात छ | गाँव बै थ्वाड़ दूर एक छोटि गाड़ में कुछ हमउम्र नान मांछ मारें हैं गाय | सबै नना ल आपण –आपण कोशिश ल थ्वाड़ मांछ मारीं | उ गाड़ में नान- ठुल कएक किस्माक मांछ छी |”
 
      बखत क पईय कैं पिछाड़ि हूं धकूनै चनरदा बतूनै गाय, “मांछ मारण बाद जब नान घर पुजा तो सबूल आपणि- आपणि इज कैं मांछ देखाय जनू कैं सबूल मिलिजुलि बेर देख | नना क पकड़ी छ्वाट- छ्वाट मंछां देखि सबै मैई ख़ुशि हाय | एक नान ल मांछ समझि बेर मिनकिटॉव (भदु, मिनुका क बच्च ) पकड़ी हाय | भदुव कम पाणी में गाड़ क किनार पर मिलि जानी | जब औरूं क मै नूं ल उ नान कि मै हूं कौ, “त्यर च्यल त मिनिकिटॉव ल्येरौ” तो उ नान कि मै झट बलै, “म्यार च्यला क मिनकिटॉव भाल” | एक दुसरि मै बलै, “ठीक छ त्यार च्यल ल कोशिश त करी पर उकैं मांछ और भदुव क फरक समझै दे नतर उ हमेशा भदुव पकड़ि ल्याल |’’
 
      थ्वाड़ रुकि बेर गंभीर मुद्रा में भृकुटी ताननै चनरदा ल बात कैं मुद्द कि तरफ मोड़नै कौ, “मांछ और मिनकिटॉव वालि बात सब जागि लागु हिंछ और साहित्य लेखण में लै य ई बात हइ | सब लोग लेखि नि सकन | मन करूं पर भाषा में पकड़ कि कमी क कारण या खिल्ली उड़ण कि डर कलम कैं कागज़ पर टिकण नि दिनि | एक आदिम साहित्य कि क्वे लै विधा में कुछ शब्द लेखूं | लेखण क बाद उ वीक द्वारा मान्य क्वे लेखक क सामणि ऊँ शब्दों कैं धरूं | य लेखक में अगर ऊँ शब्दों कैं परखण क ज्ञान ह्वल तो उ सांचि बताल कि य मांछ छ या मिनकिटॉव | मै ल त मिनकिटॉव कैं मांछ बतै बेर आपण लाड़िल च्यल कैं निराश नि करण चाय जबकि उ लै जाणछी कि वीक च्यल मांछ ना भदुव पकड़ि ल्याछ | एक भल पारखी कैं नौसिखिय आदिम कैं निराश नि करते हुए सांचि बात त बतूण पड़लि | उ नान दुसार दिन भदुओं कि जागि कैं कित्ती- पिद्दी छ्वाट- छ्वाट मांछ ल्ही बेर आपणि इजा क हाथ में धरनै बला, “ य लै इजा, आज मिनकिटॉव ना, मांछ छीं, पर छीं छ्वाट |”
 
        चनरदा मांछ और मिनकिटॉव कि कहानि ल एक सांचि बात कैं समझूण क प्रयास करि गईं | अच्याल हर क्षेत्र में लोग चानी कि ऊँ रातों- रात शिखर पर पुजि जाण पर यस नि है सकन | अभ्यास करन- करनै एक मूर्ख लै ज्ञानी है सकूं जसिके कुंव क पाथर पर रस्सी कि रगड़ ल निशान पड़ि जानि (‘करत करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान, रसरी आवत- जात से सिल पर पड़त निशान’), य बात हमूं है पैलिकै क्वे कैगो | साहित्य में लै य ई  बात लागु हिंछ | कुछ लोग चानी कि ऊँ क्ये लै लेखण, उकैं उतकै स्वीकार करी जो और उ पर कवि, लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, गायक क लुप्प या ठप्प लागि जो भलेही वीक शब्दों में साहित्य क पुर्ज ( रस, अलंकार, समास, कहावत, मुहावरे, शैली आदि ) हो या नि हो | हरेक हलवाई आपणि जलेबी कैं भलि बतूंछ | कुर्सी या स्टूल त लकड़ा क टुकड़ ठोक- ठाक करि बेर जुगाड़ ल लै बनि जांछ पर सही स्टूल तो तबै बनल जब उ सही लाकड़ कैं भली-भांत मिलै- सजै रंध लगै बेर बनायी जाल | उत्तमता कि सीमा नि हुनि | यूं पंक्तियों क लेखक ल विगत तीन दसकों में जो लै कलम घिसाई करी उमैं  सुधार या उत्तमता कि गुंजैस आज लै महसूस हिंछ |
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल,
१५.०९ .२०१६
 
 

 

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