Author Topic: Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख  (Read 60511 times)

Pooran Chandra Kandpal

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दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै,

 हमार द्वि पड़ोसि, पाकिस्तान और बांग्लादेश 

     अस्सी दसक क पूर्वार्द्ध  में कुछ कश्मीरी भाईयों क बीच रै बेर वांकि जनता कैं मील भौत करीब बै देखौ | एक बार म्यर एक कश्मीरी परिचित मीकैं भौत दिन बाद मिलौ | जब मील यैक कारण पुछौ तो वील बता, “जनाब, इण्डिया जै रौछी |” मील कौ, “इण्डिया त य ई छ, तू को इण्डिया जै रौछियै ?” उ हंसनै बलाय, “ आपूं ठीक कौं रौछा जनाब लेकिन हमरि आदत हैगे इण्डिया कौण कि | शकल -सूरत और भाषा ल पछ्याणी जाणी कश्मीरियों कि ‘हरीं झंड’ वालों क खबरनवीस एक- एक सांस कि खबर सीमा पार पुजै दिनीं |”
     उ बतूनै गो, “सांचि बतूं जनाब, यां त हाल य छ कि पाणी में रै बेर मगर दगै बैर कसिक ?” ईमान ल बतूं रयूं जनाब, हम भारतीय छ्यूं और हमूकैं भारतीय कई जाण भल लागूं | भारतीय फ़ौज कैं देखि बेर हमर हौंसल लै बुलंद रांछ | पाकिस्तान क कब्ज वाल कश्मीर कि बदतर हालत हाम जाणनूं | वादी में दहशत और अलगाव कि हाव सीमा पार बै चलाई जैंछ जैल यांक कुछ अलगाववादी नेता आपणि रवाट सेकण क लिजी हाव दिनी | आज बै ना, य १९४७ बै हूं रौछ जनाब | उ बखत क राज महाराज हरी सिंह ल  ‘विलय पत्र’ में दस्तख़त करण में देर करि दी और तब तली कबाइलियों क वेश में पाकिस्तान कि फ़ौज हरी सिंह क राज्य में घुस गेछी |”

     “एक बात और बतूनूं जनाब”, उ बलाने गोय, “दुनिया क कुछ ठुल चौधरी जनूमें उ लै छ जैल हमू पर राज करौ, भारत- पाकिस्तान कैं आपस में उलझाए धरण चानी ताकि भारत विकसित राष्ट्र नि बन सको और पाकिस्तान  प्रायोजित छद्म युद्ध में उलझिए रो | अगर पाकिस्तान विश्वास क साथ भारत दगै मितुर क सम्बन्ध धरनौ, कश्मीर कि वास्तविकता कैं समझनौ तो द्विनौ कै भल हुन | उल्टां उ भारत में हिंसक वारदातों कैं अंजाम दीण में लैरौ |” उ कश्मीरी आदिम क एक- एक शब्द आज लै सांच छ | वीक बाद हमूल १९९९ में कारगिल युद्ध देखौ और आज कि बिगड़ी हुयी हालत हमार सामणि छ | अगर दुनिया क चौधरि चाना तो पाकिस्तान कैं भौत पैलिकै उग्रवादी देश घोषित करि सकछी क्यलैकि उनार घर में लै उग्रवाद कि चोट पड़िगे | पर ऊँ यस नि करा क्यलैकि उनुकैं आपण दुकान में सजायी युद्ध क सामान बेचण छ | अगर शांति है जाली तो य मौत क समान कां बेचाल ?

     हमर दुसर पड़ोसी बंगलादेश छ जैक जन्म १९७१ क १४ दिन क युद्ध क बाद हमरि मदद ल हौछ | उ युद्ध में पकिस्तान कि ९३००० हजार हत्यारबंद सेना ल हमरि सेना क सामणी घुन टेकि दीं | शेख मुजीब कि भारत दगै मित्रता और कृतज्ञता उ दौर क बंगलादेशी लोग जरूर जाणन हुनाल | पाकिस्तान द्वारा सतायी गई एक करोड़ है ज्यादै बंगलादेशी (तब पूर्वी पाकिस्तान ) शरणार्थी बनि बेर भारत आयीं और एक वर्ष है ज्यादै समय तक भारत में रईं | भारत कि उ बखत कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ल दुनिय कैं य  समस्या क बार में बता | जब पूर्वी पाकिस्तान में पाक हुक्मरानों द्वारा अत्याचार नि थमी तो भारत ल उनरि डाड़ सुणी और मुक्ती संग्राम में मदद करि बेर दुनिय क नक्स में बंगलादेश बना |

     मात्र ४५ वर्ष है रईं, वांक कुछ अद्पगाल चहकी –बहकी लोग आपण जन्मदाता कैं भुलि गईं और भारत विरोधी आतकवाद वां पनपण फैगो | ऊँ लै हमर संयम, मितुरीभाव और आपस में मिलि-जुलि बेर रौण क संकल्प कैं नि समझि सक | यूं सिरफिरों कैं समझण चैंछ कि जो आकाओं क इशार पर वां भारत विरोधी तत्व पनपै रईं ऊँ आका वक्त पड़ण पर उनार काम नि आवा | यूं आकाओं हैं ‘बंगलादेश क बुचड़’ लै कई जांछ | उनुकैं सद्बुद्धि क साथ शेख मुजीब क दिखाई मितुरी बाट में हिटण चैंछ और भारत क बंगलादेश पर करी उपकार कैं नि भुलण चैन |

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
२२.०९.२०१६ 

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-११८ : आने दो बिटिया को १६.०९.२०१६

     मानव को जन्म देने वाली जननी की जन्मने से पहले ही बेख़ौफ़ ह्त्या के लिए हमारा संकुचित परम्परावादी समाज ही जिम्मेदार है | कन्याओं की गर्भ में ही ह्त्या कर हम मानवता को अंत की ओर ले जा रहे हैं | महिला रहित समाज की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती फिर भी हम यह कुकृत्य  कर रहे हैं | तकनीक ने हमें शैतान बना दिया, जो हम बीमारी की जानकारी देने वाली मशीन से ह्त्या के लिए कन्या भ्रूण ढूँढने लगे | कुकुरमुत्तों की तरह अवैध गर्भपात केन्द्रों तथा कसाईखाना बन गये नर्सिंगहोमों ने प्रकृति प्रदत मानव लिंग-अनुपात की चूल हिला दी है | (१०००/९४० वर्ष २०११ ) | यदि इन कसाईखानों को नहीं रोका गया तो बेटों के चहेतों को अपने कुंआरे लाडलों के लिए दुल्हन ढूंढ कर भी नहीं मिलेगी | देश के कुछ राज्यों में यह समस्या दस्तक दे चुकी है |

     लड़कियाँ पैदा होने से पहले ही क्यों मार दी जाती हैं ? जन्मी हुई बेटियां हमें भार क्यों लगती हैं ? हम पुत्रियों की तुलना में पुत्रों को अधिक मान्यता क्यों देते हैं ? हमें बेटा ऐसा क्या दे देगा जो बेटी नहीं दे सकती ? बेटे को चावल और बेटी को भूसा समझने की सोच हमारे मन-मस्तिष्क में क्यों पनपी ? इस तरह के कई प्रश्नों का उत्तर हमें अपनी दूषित -संकुचित मानसिकता एवं कथनी- करनी में बदलाव लाकर स्वत: ही मिल जाएगा | ‘लड़की ससुराल चली जायेगी, लड़का तो हमारे साथ ही रहेगा और सेवा करने वाली दुल्हन के साथ खूब दहेज़ भी लाएगा, जबकि लड़की को पढ़ाने में, फिर उसके विवाह में खर्च होगा और मोटा दहेज़ भी देना पड़ेगा | इतना धन कहां से आएगा ? दहेज़ का ‘स्टैण्डर्ड’ भी बढ़ चुका है | इससे अच्छा है दो-चार हजार ‘सफाई’ के दे दो और लाखों बचाओ | फिर बेटा तो सेवा करेगा, वंश चलाएगा, मुखाग्नि और पिंडदान देगा तथा श्राद्ध भी करेगा | लड़की किस काम की ?’ इस तरह की मानसीकता ने ही आज यह सामाजिक समस्या खड़ी कर दी है | कसाई बने चिकित्सकों को दोष भलेही दें परन्तु वास्तविक दोषी तो माता-पिता या दादा-दादी हैं जो दबे पांव कसाइयों के पास जाते हैं |

       पुत्र लालसा ने जनसँख्या के सैलाब को विस्फोटक बना दिया है | बढ़ती जनसंख्या में विकास ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसे लगने लगा है | शिक्षा के प्रसार से लोग इस बात को समझ रहे हैं कि लड़का- लड़की जो भी हो संतान दो ही काफी हैं | आज भी हमारे देश में एक आस्ट्रेलिया की जनता के बराबर जनसख्या प्रतिवर्ष जुड़ती जा रही है | ग्रामीण भारत तथा शहर के पिछड़े तबके में जनसँख्या वृद्धि अधिक है | हमें एक दोष जनसंख्या नीति अपनानी ही होगी जिसमें दो संतान के बाद ग्राम सभा से लेकर संसद तक की सभी सुविधाएं वंचित होनी चाहिए | पड़ोसी देश चीन ने नीति बनाकर ही जनसँख्या पर नियंत्रण कर लिया है |

       जनसँख्या नियंत्रण के आज कई तरीके हैं परन्तु अवैध शल्य  चिकित्सा द्वारा भ्रूण हत्या में महिला को पीड़ा के साथ –साथ बच्चेदानी के अंदरूनी पर्त के क्षतिग्रस्त होने की संभावना भी रहती है | उस समय गर्भ से छुटकारा पाने की जल्दी में ऐसी महिलाओं को वांच्छित पुनः गर्भधारण करने में रुकावट हो सकती है | क़ानून के अनुसार लिंग बताना तथा भ्रूण ह्त्या  करना अपराध है | कुछ ‘कसाइयों’ को इसके लिए दण्डित भी किया जा चुका है | दुख की बात तो यह है की अशिक्षित एवं गरीबों के अलावा संपन्न लोग भी लड़के के लिए भटक रहे हैं | काश ! इन लोगों को पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर आकाश की ऊँचाइयों को छूने वाली अनगिनत महिलायें नजर आती तो शायद ये अपनी बेटियों के साथ कभी अन्याय नहीं करते और दो बेटियों  के आने के बाद किसी लाडले की प्रतीक्षा में परिवार नहीं बढ़ाते | रियो से २०१६ में ओलम्पिक दो पदक लाने वाली सिंधु- साक्षी सबके सामने हैं |

    कविता संग्रह ‘स्मृति लहर’ में ‘नारी का ऋण’ कविता में मैंने एक दम्पति के शब्दों को कविता रूप दिया है, “बेटा, बेटा रह सकता है पुत्रवधू के आने तक; बेटी, बेटी ही रहती है अंतिम साँस के जाने तक |” अत: ‘बिटिया को आने दो, मारो मत |’ हमें कन्याभ्रूण हत्या से नहीं बल्कि कन्यादान से अपार सुकून, अनंत सुख और अविरल शांति आजीवन मिलती रहेगी | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, १६.०९.२०१६


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-११९ : लकीर की फकीरी में जी रहे हैं हम २०.०९.१६
 
      निरंतर गतिमान कालचक्र ने हमें इक्कीसवीं सदी के दूसरे दसक में पहुंचा दिया | पिछले ६९ वर्षों की बात करें तो हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए | आजादी के समय देश की जो दयनीय दशा थी वैसी आज नहीं है भलेही गरीबी रेखा से नीचे अभी लगभग २५-३० % आबादी है | आज ग्रामीण भारत और शहरी झुग्गे- झोपड़ियों में टी वी – मोबाइल फोन देखे जा सकते हैं | बातचीत के साथ ही मिसकाल संस्कृति पनप गयी है | सड़क-किनारे बैठा चायवाला अपने इर्द- गिर्द मिसकाल संकेत से ही चाय पहुंचा रहा है | मजदूर या कामवाली के बच्चों के पैरों में भलेही जूते-चप्पल नहीं हैं परन्तु उनके हाथों में मोबाइल से फ़िल्मी गीत बज रहे हैं |
 
     बदलाव के इस दौर में कुछ बातों में हम लकीर के फ़कीर ही बने हुए हैं | वर्ष में एक बार आश्विन (असोज, सितम्बर-अक्टूबर) में हमारे देश के कुछ भागों में पितृपक्ष यह बता कर मनाया जाता है कि १५ दिन के लिए सभी पितर स्वर्ग से भूमंडल में आ गए हैं | इस दौरान १५ दिनों तक पितरों का शराद (श्राद्ध) करने की परम्परा है | ‘श्राद्ध’ शब्द ‘श्रद्धा’ से पनपा है | पितृपक्ष में कर्मकांडी पंडितों द्वारा यजमानों के घर पर श्राद्ध किया जाता है और यजमान को ब्रह्मभोज के साथ वस्तु एवं द्रव्यदान के लिए कहा जाता है | एक पंडित के अनुसार, ‘सोलह श्राद्धों के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराने के साथ यथा संभव दान देना चाहिए | यह ब्रह्मभोज तथा दान सीधे पितरों के पास स्वर्ग में पहुंचता है |’ एक ब्राह्मण ने तो श्राद्ध में दारु की बोतल भी यह कह कर मंगा डाली, ‘तुम्हारे पिताजी अमुक ब्रांड पीते- पिलाते थे | यदि श्राद्ध में अन्य वस्तुओं के साथ एक बोतल भी दान की जायेगी तो वह सीधे उनके पास पहुंचेगी जिससे उनकी तृप्त आत्मा आपको आशीर्वाद देगी |’
 
      श्राद्ध करना या न करना एक श्रद्धा का विषय है | समाज में श्रद्धा के नाम पर कुछ ऐसी परम्पराएं रोप दी गयी हैं जिसकी परिधि को तोड़ने के लिए साहस चाहिए | पहले तो स्वर्ग है नहीं | हमारे पितर स्वर्ग में हैं यह बात भी उन्हीं लोगों ने फैलाई है जो मृत्युपरांत संस्कार में यजमान से चांदी- सोने की स्वर्ग सीढ़ी मंगाते हैं | जो भी दान है वह ब्राहमणों को ही दिलवाया जाता है और आंशिक दान मंदिर के पुजारियों तक पहुंचाया जाता है | आज मंदिरों ने भी दुकानों का रूप ले लिया है जहां अंधविश्वास और लकीर की फकीरी ही बेची जाती है | अपवाद स्वरुप कुछ ही धर्मस्थल ऐसे होंगे जहां से राष्ट्र या समाज अथवा प्रकृति –पर्यावरण की बात होती होगी | मंदिर का पुजारी उस आगंतुक के प्रति भद्रता नहीं रखता जो दानपात्र में दान डालता है | दानपात्र से बाहर दान डालने वाले के प्रति पुजारी का व्यवहार भद्र होता है क्योंकि यह दान तुरंत ही पुजारी की जेब में पहुंचता है | पुजारी ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह भगवान् का एजेंट हो और वह भगवान् से सबकुछ करवा सकता है |
 
      हम इस सोच में कब तक लकीर के फ़कीर बने रहेंगे कि जो कुछ भी हमने मंदिर या श्राद्ध में चढ़ाया वह सीधे भगवान् या पितरों तक पहुँच गया ? हमारे सामने ही हमारा चढ़ाया हुआ धन-द्रव्य आदि सबकुछ पंडित ले जाता हे, उपयोग में नहीं आने वाली चीजों को वहीं छोड़ जाता है | गांधी जी आस्तिक थे, उनका ईश्वर में अटूट विश्वास था | वे केवल कर्म को ही पूजा समझते थे, कर्म भी वह जिससे देश- समाज का हित हो | कर्म से विमुख होकर हम जितनी भी पूजा कर लें, सब व्यर्थ है, आडम्बर है, दिखावा है | अपने जीवन में हम पितरों की सेवा करना तो दूर रहा, उनसे दो मीठे बोल बोलने से भी कतराते हैं और उनके मरते ही ब्राहमण द्वारा दी गयी लिस्ट के अनुसार सभी सामान ले आते हैं |
 
      हमें अंधविश्वास से वशीभूत लकीर की फकीरी से बाहर निकल कर दान को किसी अनाथालय, पुस्तकालय, विधवाश्रम, विद्यालय, अस्पताल, विकलांग सेवा, राष्ट्रीय आपदा कोष, राष्ट्रीय सुरक्षा कोष आदि को देना चाहिए या अपने पितरों के नाम पर कोई मेधावी छात्रवृति योजना चलानी चाहिए | कुछ लोग पूजा-पाठ, श्राद्ध- जागरण, अस्थि-विसर्जन, पटाखा- हवन आदि को नेक कार्य समझते हैं जबकि कुछ लोग पौध –रोपण, बीमारी या नशा के प्रति जन-जागरण या जरूरतमंद की मदद को नेक काम समझते हैं | इन दोनों में जो फर्क है उसे हमें समझना होगा, तभी हम लकीर की फकीरी से बच सकते हैं |
 
       अत: हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व और योगदान को समझने का प्रयास करें और व्यर्थ की बहस के बजाय अच्छे- बुरे की पहचान करें | हमें लकीर की फकीरी का समर्थन न करते हुए जन-हित की स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन करना या उन्हें जन्म देना चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और...
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, २०.०९.२०१६
 


Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१२० : लाडले दुर्योधनों के बीच ,२४.०९.२०१६

       महाभारत महाकाव्य के रचना में महर्षि व्यास जी ने कुछ ऐसे चरित्रों का वर्णन किया है जो आज भी हमारी इर्द- गिर्द घूमते हैं | ऐसा ही एक चरित्र है ‘दुर्योधन’ | कुरुवंश के राजकुमारों को जब आचार्य द्रोण शिक्षा देते थे तो इस पात्र को उनकी अवहेलना करते हुए बचपन में ही देखा गया | साथ ही इस पात्र ने न कभी बड़ों का सम्मान किया और न शिष्टाचार की परवाह की | महाभारत महाकाव्य का पौराणिक या राजवंशी कथानक जो भी हो इसमें पारिवारिक एवं सामाजिक मान-मर्यादाओं का विशिष्ट उल्लेख है | दुर्योधन ने पूरे महाकाव्य में अशिष्टता के पायदान पर चलते हुए बड़बोलेपन से अन्याय को गले लगाया | उसने कुल की मान-मर्यादाओं की खिल्लियाँ उड़ाते हुए नारी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का जो दुस्साहस किया, इससे बड़ा घृणित और पिशाचिक कुकृत्य कोई हो ही नहीं सकता | यदि अदृश्य योगेश्वर श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को वसन विहीन होने से नहीं बचा लिया होता तो भरी सभा में पांच पांडवों और अन्य महारथियों के साथ बैठे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और महात्मा विदुर कौन सा दृश्य देखते ?”

     वहाँ विद्यमान पारिवारिक बड़ों में धृतराष्ट्र भी थे परन्तु उनके पास तो अंधा होने का प्रमाण था | दुर्योधन के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को भरी सभा में बाल पकड़ कर घसीट लाया और निर्वस्त्र करने लगा तो उपरोक्त चारों महारथियों ने स्वयं को विवश पाया और गर्दन झुका ली | यहाँ कई प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि ये महारथी उस सभा से उठकर चले क्यों नहीं गए या उन्होंने दुर्योधन को रोका क्यों नहीं ? क्या ये चारों मिलकर भी दुर्योधन पर प्रहार नहीं कर सकते थे ? अकेले भीष्म ही काफी थे | आखिर ऐसी कौन सी विवशता थी जो इनके हाथ बंधे रह गए ? मैं काव्य के अन्तरंग पहलू पर नहीं जाता | कथानक से प्रतीत होता है कि दुर्योधन इन सबके नियंत्रण से बाहर हो गया था | वह जानता था कि भीष्म हस्तिनापुर से बंधे हैं, विदुर राजशाही के मंत्री हैं तथा दोनों आचार्य राजघराने में दखल न देना ही उचित समझते हैं | इस तरह दुर्योधन एक जिद्दी, निरंकुश, हठधर्मी, महत्वाकांक्षी एवं  अन्याय का पक्ष लेने वाला कुपात्र बन गया |

     क्या दुर्योधन को बाल्यकाल से ही पथभ्रष्ट होने से रोका नहीं जा सकता था ? धृतराष्ट्र अपने बेटे की गलती को अनसुना कर देते थे और मां गांधारी ने तो आँखों पर पट्टी बाँध ली थी | यदि उसे रोका जाता तो महाभारत काव्य का अंत कुरुवंश के नाश के साथ नहीं होता | आज हमारे घरों में भी दुर्योधनों की पौध उत्पन्न होने लगी है और हम सब लगभग धृतराष्ट्र- गांधारी बन गए हैं | हम अपने बच्चों के दोषों को अनदेखा करते हैं | बच्चों द्वारा अध्यापकों अथवा किसी अन्य की बुराई हम चुपचाप सुन लेते हैं | बच्चों की असभ्य भाषा और अमर्यादित व्यवहार पर भी हम चुप रहते हैं | बड़ों का आदर न करने, उनका मजाक उड़ाने तथा छोटों का उपहास करने पर हम आखें मूँद लेते हैं जो अनुचित है | घर के काम में हाथ बंटाने, सामाजिक और मितव्ययी बनने तथा अच्छी संगत करने की निरंतर सलाह बच्चों के लिए जरूरी है |

     बच्चों में देशप्रेम की उदासीनता, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस से  बेपरवाही, भोजन और पहनावे में मनमानी, भाई या बहन के प्रति खींझ आदि हम सब देख रहे हैं जो दुखदायी है | बच्चों का अड़ियल, असहिष्णु, असंयमी, संवेदना हीन होना और प्रत्येक बात में कुतर्क करना उनमें सार्थक व्यक्तित्व नहीं पनपने देगा | ‘गलती हो गयी’, ‘दोबारा ऐसा नहीं होगा’, ‘क्षमा करें’, ’मैं करता हूँ आप रहने दो’, जैसे शब्द बच्चों के मुंह से लुप्त हो गए हैं | वाणी में मिठास की जगह कर्कशता छा गयी है | कुछ बच्चे गुटका, धूम्रपान, पान- मशाला और शराब भी पीते देखे गए हैं | यहाँ तक कि स्कूल में भी कुछ बच्चों के बैग में शराब मिली है | मोबाइल में भी वे अश्लील देख रहे हैं |

     कबूतर की तरह आँख बंद कर लेने से हमारे बच्चे अंधकार में भटक जायेंगे | औलाद के मुंह से निकले कटु शब्द पीड़ा पहुँचाते हैं | हमें अपने  दिशाहीन बच्चों को पुचकार कर समझाने- सहलाने की राह अपनानी होगी | यदि हम डर गए या हार गए तो अंततः नुकसान हमारा ही होगा | हमें समय रहते अपने बच्चों पर चौकस निगाह रखनी ही होगी और अपना व्यवहार विनम्र रखना होगा ताकि एक दिन वे समझ सकें कि उनके माता- पिता उनके  भविष्य के लिए ही कबाब की तरह सिंकते –सिंकते सिकुड़ जाते हैं |

पूरन चन्द्र काण्डपाल,२४.०९.२०१६

Pooran Chandra Kandpal

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                                                                                           दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै,

                                                                                              गंगा क कंकाव
 
     आज गंगा कैं साफ़ करण कि बात खूब जोर-शोर ल हूंरै | भौत भलि बात छ | बात त पिछाड़ि चार दसकों बटि चलि रै लेकिन ढाक क तीनै पतेल | क्ये लै परिणाम नि निकउण क खाश कारण- काम कम शोर ज्यादे, कथनी- करनी में अंतर, वोट बैंक क नाराज हुण क डर, अंधविश्वास दगै लगाव, अकर्मण्यता क दंश और ईमानदारी क अभाव | पिछाड़ि चार दसकों बटि य मुद्द पर कएक लेखकों कि कलम घिसाई चलि रै | मील लै आपणि किताब 'माटी की महक, यथार्थ का आईना, सच की परख, उत्तराखंड एक दर्पण, उजाले की ओर, मुक्स्यार’ सहित कएक पत्र-पत्रिकाओं एवं स्मारिकाओं क माध्यम ल गंगा क संताप कि बात अलग- अलग तरिक ल उठै |

    गंगा क उद्गम उत्तराखंड में चमोली जिल्ल स्थित गंगोत्री ग्लेशियर में गोमुख नामकि कि जाग बटि छ | गंगा कि लम्बाई २५२५ कि मी छ | अगर य लम्बाई कैं पांच- पांच कि मी क ५०५ भागों बराबर बांटी जो तो हरेक हिस्स ५ कि मी क बनल | हरेक हिस्स पर ठीक ढंग ल चौकीदारी करी जो तो गंगा गन्दगी और अतिक्रमण है बचि सकीं | भाषण में जोर छ पर क्रियान्वयन में पट्ट | गंगा में सबै किस्म क विसर्जन बंद हुण चैंछ | आज देश में सबै नदियों क हालत भौत खराब हैगे | कएक नदी त गंद नाव बनि गईं जसकि दिल्ली में यमुना नदी जैक रंग यां बिलकुल पनाण क पाणी जस कावपट्ट हैगो | आब हमूल जल में विसर्जन की प्रथा कैं बदलि बेर भू-विसर्जन अर्थात सब किस्म क धार्मिक विसर्जन, पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन आदि कैं जमीन में दबूण चैंछ | अगर जां सुविधा छ तो मुर्द लै सी एन जी क फर्नेश में फुकण चैंछ जस कि दिल्ली क निगमबोधघाट में कुछ लोग य विधि कैं अपनू रईं |
 
    अगर हमूल भू-विसर्जन कि परम्परा अपनै ली और सब गंद नाव् गंगा में मिलण बंद है जाल तो गंगा आफी साफ है जालि | अन्यथा बिना जमीन क्ये काम करिए ढोल –डमरू -डुगडुगी बजै बेर शोर मचें रौ, मचाते रौ और बीच-बीच में धर्म कैं लै घसीटते रौ | मदारी क जोर और डुगडुगी क शोर परै बानर नांचों | गंगा कि डाड़ राजनीति कि गाड़ में हमेशा ई बगि जींछ | धर्म- कर्म -पुण्य क नाम पर हम सब नदियों क रूप -रंग कैं बिगाड़ रयूं | हमूकैं को रोकौल ? कए सब पाठक य बात कि चर्चा आपण घर, आपण मितुरौं दगै और आपण कर्मस्थान पर कराला ?
 
‘गंगा क कंकाव’ कि चर्चा मेरि किताब ‘मुकस्यार’ बै कुछ लैन देखो –
 
म्यार किनारा पर अणगणत झुग्गी बसते जारीं,
कतू कारखाण मीकैं आपण जहर ल डसते जारीं;
 
जीवनदायिनी क किनार धोबि घाट खुलि गईं;
कैं मरी डंगर कैं अद्जगी मुर्द म्ये में बगू रईं,
 
रंग- रसायन भरी मूर्ति म्ये में खूब धकूं रईं;
ठुल-थुल शहरों में म्यार घाट गंदंगी ल भरी गईं;
 
सब किसमक धार्मिक कुड़ ल म्यर रूप बिगड़िगो,
म्यर पाणि क रंग कैं गजवैन कैं काव हैगो ;
 
म्यर अस्तित्व तब बचल जब म्ये में विसर्जन रोकला,
पाणी में विसर्जन कि प्रथा बदलि भू-विसर्जन कराला |
 
पूरन चन्द्र काण्डपाल, २९.०९.२०१६
 


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                                                                            बिरखांत-१२१ : कैसे कहूं दर्द नहीं है ?

     पहले की ही तरह इस बार भी न पहाड़ में ठंडी हवा मिली और न ठंडा पानी | पहाड़ों के दर्शन भी नहीं हुए | प्रत्येक वर्ष की तरह, इस बार भी पहाड़ के जंगलों में भीषण आग से भरी क्षति हुयी थी | धुएं की घनी परत काठगोदाम से ही नजर आने लगी थी | पहाड़ों की ऊँची चोटियों से भी चारों और धुँआ ही दिखाई दे रहा था | लोगों ने बताया, ‘इस बार भयंकर आग लगी या लगाई गयी | धुंए में धूल के कणों के मिल जाने से घना कोहरा बन गया है | यह धुंध तभी हटेगी जब पहाड़ों के बीच तेज हवा के साथ लगातार बारिश होगी |’ जंगलों को निकट से देखा तो घास और छोटे-छोटे पौधे तथा जड़ी-बूटियाँ जल चुकी थी | राख और कालख के ऊपर पीरुल (चीड़ की सूखी पत्तियां) के पर्त जम चुकी थी | चीड़ के अधजले पेड़ बता रहे थे कि यह एक साधारण आग नहीं बल्कि दावानल था | ‘पहाड़ में हर साल आग क्यों लगती है या क्यों लगाई जाती है और आग बुझाने में देरी क्यों की जाती है?’ ये प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं |

      पेयजल की कमी से लगभग सभी गाँव त्रस्त थे | जिन जलस्त्रोतों को नलूँ द्वारा गांवों से जोड़ा गया था वे सूख चुके थे | चीड़ के जंगलों को इसका जिम्मेदार बताया जा रहा है | लोग मीलों दूर से पीने का पानी लाने में व्यस्त थे | सुबह से सांय तक पानी की ही बात | पानी के अभाव में मौसमी साग- सब्जी की पौध रोपाई की प्रतीक्षा कर रही थी | विद्युत पूर्ती में भी एकरूपता नहीं थी | यह बात अलग है कि उत्तराखंड से अन्य राज्यों में विद्युत् आपूर्ति की जाती है | रोजगार के अभाव में पहाड़ से पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा | शिक्षित- अशिक्षित सभी का रोजगार की तलास में शहरों की और जाना जारी है | किसी के बीमार होने पर गावों में चार आदमी डोली पर लगने के लिए उपलब्ध नहीं हैं, जो उसे सड़क तक पहुंचा सकें |

     पहाड़ में एक बदलाव अवश्य आया है, अब शादियां दिन में ही हो रही हैं तथा बारात बसों के बजाय जीपों में जा रही है | सुबह बारात जाती है तथा सायं तक दुल्हन लेकर वापस आ जाती है यदि शराबियों का सहयोग रहा तो | शराबखोरों की बढ़ती हुयी संख्या के कारण शादियाँ दिन में हो रही हैं | सूक्ष्म शादी की रश्म, फेरे और बिदाई सभी दिन में ही पूरी हो जाती हैं | रात की शादी में शराब बरात को आधी रात से पहले दुल्हन के द्वार तक नहीं पहुंचने देती थी  | दिन की शादी में भी शराब खूब बह रही है परन्तु बड़े फसाद होने का भय कम रहता है | बरेतिये ही नहीं घरतिये भी शराब में डूबे रहते हैं |

      पहले भी शादी के हफ्ता- दस दिन के बाद दूल्हा दुल्हन को घर छोड़ कर चला जाता था और आज भी यह सिलसिला जारी है | शादी की उम्र में तनिक परिवर्तन आया है | अब बाल- विवाह नहीं हो रहे हैं | पहले विवाह होते ही दूल्हे के पलायन करने पर दुल्हन को रोते- बिलखते नहीं देखा जाता था क्योंकि वह बचपन के भोलेपन में खोयी रहती थी परन्तु अब शादी के उपरान्त ही पति के विछोह का दर्द सिसकियों से सनी न थमने वाली अश्रुधार स्वयं प्रकट कर देती है | सिसकियाँ पलायन को नहीं रोक सकती क्योंकि रोजगार का प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहता है | विवाहोपरांत दुल्हन को घर छोड़ना वहाँ के नियति बन गयी है जो पलायन थमने से ही थम सकती है |

      परंपरा, परिस्थिति और रोजगार के चूल में पिसता यह प्रश्न मन को बोझिल कर देता है | शादी नहीं करना इसका उत्तर नहीं है | नवदुल्हनों की इस व्यथा पर बड़ों का विशेष ध्यान नहीं जाता है | उनका कथन है, ‘यह कोई नहीं बात नहीं है | हम भी तो ऐसे ही रहे | रोजगार की तलाश में पहाड़ के पुरुष बाहर जाते रहे हैं | नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या ?’ घर से बाहर गए पुरुष साल- छै महीने में घर आते हैं और कमाई का एक बड़ा भाग आने- जाने में खर्च हो जाता है | घर आकर वह दीन- क्षीण पत्नी एवं छाड़- छिटके, दुबले, बीमार एवं समुचित शिक्षा से वंचित बच्चों को देखकर स्वयं को कसूरवार समझते हैं | उधर वृद्ध होते माँ –बाप के मूक चहरे भी कई प्रश्न  पूछते हैं | परिस्थितियों के इस भंवर में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिखाई देते | नवविवाहित जोड़े का शादी के दिन से ही विरह में रहना बहुत अखरता है | शादी के बाद दुल्हन का दूल्हे के साथ न रह पाना, यह दूल्हा- दुल्हन दोनों के लिए नाइंसाफी है | काश ! पहाड़ में रोजगार उपलब्ध होता तो विरह- वेदना के इन दर्द भरे दिनों से विवाहित युगलों को नहीं गुजरना पड़ता | इस दर्द को वर्तमान मोबाइल फौन हल्का करने के बजाय और अधिक बढ़ा देता है | इस दर्द की छटपटाहट किसी दवा से भी कम नहीं हो सकती | साथ रहना ही इसका एकमात्र निदान है | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,२८.०९.२०१६ 


Raje Singh Karakoti

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आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय कांडपाल जी इतने सुन्दर एवं शिक्षाप्रद लेख को प्रकाशित करने के लिए अन्यथा अकारण ही लंबे-लंबे एवं अर्थहीन लेख पोस्ट किये जाते है इस फोरम में I

धन्यवाद सहित
राजे सिंह कराकोटी

Raje Singh Karakoti

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आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय कांडपाल जी इतने सुन्दर एवं शिक्षाप्रद लेख को प्रकाशित करने के लिए अन्यथा अकारण ही लंबे-लंबे एवं अर्थहीन लेख पोस्ट किये जाते है इस फोरम में I

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राजे सिंह कराकोटी


Pooran Chandra Kandpal

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          बिरखांत – १२२  : आसान नहीं है गांधीगिरी,०२.१०.२०१६

     गांधी जी का जन्म २ अक्टूबर १८६९ को पोरबंदर गुजरात में, १३ वर्ष की उम्र में कस्तूरबा से विवाह, १८ वर्ष में वकालत पढ़ने इंग्लैंड गए, १८९३ में मुक़दमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए, वहां रंग -भेद का विरोध किया, ७ जून १८९३ को गोरों ने पीटरमैरिटजवर्ग रेलवे स्टेशन पर उन्हें धक्का देकर बाहर निकाला, १९१५ में भारत वापस आए, सत्य-अहिंसा-असहयोग के अमोघ हथियार से स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा, १५ अगस्त १९४७ को भारत आजाद हुआ और ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गौडसे ने उनकी ह्त्या कर दी परन्तु बापू मरे नहीं, राजघाट दिल्ली में आज भी वे  विराजमान हैं | दुनिया राजघाट आती है और ‘वैष्णव जन तो..’ भजन में बापू को महशूस करती है |

       गांधी ने जो कुछ कहा और जिस तरीके से उसका क्रियान्वयन किया उसे दुनिया ‘गांधीगिरी’ कहती है | गांधीगिरी आसान नहीं है और न यह सबके बस की है | जो लोग ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ कहते हैं यह उनकी कुत्सित सोच है | दुनिया जानती है कि गांधी ने फिरंगी को खदेड़ा और यूनियन जैक की जगह तिरंगा फहराया | जिन्होंने ने गांधी को ट्रेन से धक्का मारा, गांधी ने उन्हें अपने देश से धक्का मारा |  दुनिया के सभी विवादों का अंत बातचीत के गांधी दर्शन के अनुसार ही समझौतों तक पहुंचता है |

        गांधी जी की सीख जिसे अब ‘गांधीगिरी’ कहा जाता है वह है- ‘गाली देने वाले की तरफ मुस्करा कर देखो--वह देर-सबेर शर्मिंदा होगा; समस्या का समाधान झगड़े से नहीं प्यार से निकालो; गुस्सा और अहंकार से दूर रहो; हिंसा में विश्वास नहीं रखो; अभद्र से भद्रता से पेश आओ; क्षमा करना कमजोर इंसान के बूते की बात नहीं है; जिन्दगी ऐसे बिताओ मानो कल ही मौत की तारीख तय है; कथनी और करनी में अंतर मत करो | गांधी ने कई बार कहा, ‘एक गलत कभी भी सच्चाई का स्थान नहीं ले सकता है भलेही उसका कितना ही प्रचार क्यों न किया गया हो | गांधी ने  यह भी कहा था, “ जब हिंसा और कायरता में से एक को चुनना होगा तो मैं  हिंसा का चुनाव करूंगा |” गांधी के ‘दूसरी गाल में थप्पड़’ और ‘ तीन बन्दर’ वाली बात का जो लोग सही विश्लेषण नहीं करते उन्हें गांधी के दर्शन को समझना और उसका पुन: मंथन करना चाहिए |

       गांधी ने छुआछूत का किस तरह विरोध किया, एक प्रसंग – एक बार गांधी जी को एक सभा में बोलना था, उसमें सफाई कर्मियों को नहीं आने दिया गया | गांधी को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने सभा के आयोजकों से कहा, ‘आप लोग अपनी मालाएं और अभिनन्दन पत्र अपने पास रखिये | मैं उनके पास जाकर भाषण दूंगा | जिन्हें मेरी बात सुननी हो वहाँ आ जाए’ | गांधी जी उनके पास चले गए और आयोजकों को वहां जाना पड़ा |गांधीगिरी में बहुत दम है बस ज़रा विनम्रता से प्रयास करने की देर है | विज्ञान का युग आया, परिस्थितियां बदली परन्तु गांधीगिरी की आज अधिक जरूरत है | मेरा दावा है जो बच्चा ‘शाम- दाम- दंड- भेद’ से नहीं मानता वह गांधीगिरी से मान जाता है | किन्तु-परन्तु मत कहिये, करके देखिये |

        आज के इस पुनीत अवसर पर देश के दूसरे प्रधानमंत्री, ‘जय जवान  जय किसान’ नारे का उद्घोष करने वाले भारत रत्न लाल बहादुर शास्त्री जी जिनका जन्म २ अक्टूबर १९०४ को हुआ था, को भी हम श्रधा सुमन अर्पित करते हैं | गांधी जी की प्रेरणा से वे स्वतंत्रता संग्राम में कूदे थे और १८ बार जेल गए | वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री और नेहरू कबीनेट में रेल मंत्री थे | नेहरू जी की मृत्यु के बाद वे ९ जून १९६४ से ११ जनवरी १९६६ तक एक  वर्ष ७ महीने देश के प्रधानमंत्री रहे | उनके नेतृत्व में १९६५ के युद्ध में हमारी सेना ने पकिस्तान को बुरी तरह से हराया था | आज ही हम उत्तराखंड राज्य आन्दोलन में शहीद हुए रामपुर तिराहे के शहीदों को भी नमन करते हैं | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०२.१०.२०१६   

Pooran Chandra Kandpal

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बिरखांत-१२३ : बुढ़ापा ! चल हट (१),०६.१०.२०१६

      आपके और मेरे पूर्व परिचित चनरदा अब वरिष्ठ नागरिक हैं जबकि वे ऐसा नहीं मानते | उन्हें बुड्ढा, बूढ़ा. बुड़बू, बुड़ज्यू, वृद्ध, बुजुर्ग आदि शब्दों से चिढ़ है | हाँ, इस कैटेगरी के लोगों को वरिष्ठ नागरिक या सीनियर सिटीजन कहना उन्हें अच्छा लगता है | जीवन के साठ से अधिक बसंत देख चुके चनरदा साठ के भी नहीं लगते | उनकी सेवा निवृति का पता लगने पर लोग पूछते हैं, “यार लगते तो नहीं हो, हमें तो यकीन नहीं होता कि तुम साठ पार कर गए हो |” मुस्कराहट को छिपाकर चनरदा पूछते हैं, “तो फिर कितने का लगता हूँ ?” जवाब मिलता है, “यही कोई पचास-बावन के |” चनरदा का जबाब, “अरे भईया रहने दो मुझे जमीन पर, पुदीने के पेड़ पर मत चढ़ाओ | सेवानिवृति के लिए चमकता मुखड़ा नहीं कागज़ का टुकड़ा देखा जाता है जिसमें उम्र का रिकार्ड होता है |”

      मैंने चनरदा से पूछा, “बूढा होते हुए भी बूढ़ा न दिखने का राज क्या है ?” वे झट से बोले, “मुझे बूढ़ा मत कहो | मुझे सख्त नफरत है इस शब्द से | सबकुछ तो मैं कर रहा हूँ फिर काहे का बूढ़ा ? वैसे भी हमारे समाज में लोगों को वरिष्ठ नागरिकों से बात करने की ज़रा भी तमीज नहीं है जबकि हमारी संस्कृति वृद्धजनों को शीर्ष पर रखने की है और देश के साठ वर्ष से ऊपर वाले आठ करोड़ वरिष्ठ नागरिक इस संस्कृति की चाह रखते हैं जो कभी पूरी नहीं होती | रोबीले चेहरे वाले खुशमिजाज अंदाज में लिपे- पुते चनरदा से मैंने  पूछा, “तो तुम ये बात तो मानोगे नहीं कि तुम बूढ़े हो गए हो ?” वे आँखे चढ़ाते हुए बोले, “तुम्हीं बताओ, क्या मैं तुम्हें बूढ़ा जैसा लग रहा हूँ ?” सच बताना, एकदम सच |” मैंने कहा, “बूढ़े जैसे लग तो नहीं रहे, परन्तु हो जरूर गए हो | ठीक है मैं तुम्हें ‘यंग ओल्ड मैन’ मान कर चलता हूँ |” चनरदा मुस्कराते हुए बोले, “कह लो यार जो कहना है फिर भी ‘ओल्ड यंग मैनों’ के बीच में ‘यंग ओल्ड मैन’ कहना मेरे लिए टानिक का काम करेगा |”

     ऐंठन, जलन और टैंशन से दूर, हास्य-व्यंग्य की मीठी सौंठ के धनी चनरदा से मैंने पूछा, “यंग ओल्ड मैन जी, अपने जवान दिखने का राज तो बता देते |” चनरदा बोले, “बड़ा सरल है ! अनुशासन की रस्सी में स्वयं को बांधे रखो | अपने को हमेशा जवान महसूस करो | ऐसा सोचो कि तुम अब भी जवान हो  | दिल से दिमाग तक समझो कि शरीर का कोना- कोना अभी जवान है | जवान दिखने की कोशिश करो | योग- कसरत, घूमना- फिरना जारी रखो, शरीर पर जंग मत लगने दो, प्रात: शैया त्याग जल्दी करो | चुस्त-दुरुस्त पोशाक, छोटा चश्मा, स्टाइल की मूंछें (व्हाट डू यू वांट वाली) और छोटी हेयर कट रखो | दांत चमका कर रखो और यदि दन्त चल बसे हैं तो नए लगवाओ | खाना- दाना ठीक खाओ | शराब, धूम्रपान, गुटखे से दूर रहो फिर बुढापा क्यों और कैसे आएगा?”

      चनरदा जवान रहने का नुस्खा बताते गए, “पैंट के साथ बेल्ट, पालिश किया जूता और टाइट इलास्टिक वाला जुराब आपको चुस्ती देगा | मूंछों –बालों में हल्का कलर या मेहंदी से ताजगी दो | महंगाई मत देखो, पहले की हुई कंजूसी भूल जाओ, अब खुलकर अपने पर ध्यान दो | कुछ दिन पहले मैं  एक लड़के की शादी में गया | बरात जाने की तैयारी हो रही थी परन्तु दूल्हे का बाप नजर नहीं आया | पूछने पर पता चला की पार्लर गया है | मैंने सोचा, शादी बेटे की हो रही है या बाप की ? जब वह पार्लर से आया तो मैं उसे पहचान नहीं पाया | वाह ! इसको कहते हैं बुढापे में जवान दिखने का जोश | मैंने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, “भई वाह, सबका नंबर काट दिया तुमने |” वह बोला, “होते होंगे दूल्हे के बाप बूढ़े, आपन तो अभी जवान हैं |” मेरी ओर आँख दबाते हुए वह फिर बोला, “वैसे तुम भी कम नहीं लग रहे हो |” उसकी हौसला अफजाई सुनकर मेरा चेहरा और तमतमा गया |”

      चनरदा आगे बोलते गए, “हाँ, तो मैं स्मार्ट दिखने की बात कर रहा था | झलरवे- फलरवे, घिसे-पिटे कपड़ों को अब चलता करो | अब और कितना रगड़ोगे इनको ? सोबर ड्रेस पहनो | लुरकिया- लंगड़िया, घतघती- मतमती बेढंगी चाल में लल्लू बन कर मत चलो | सीधी गर्दन, सीना ताने, स्मार्ट होकर दाई मुट्ठी में मोबाइल दबा कर चलो और मोबाइल को फुर्ती से ओपरेट करना सीखो | बहुत कुछ है इसके अन्दर | नहीं जानते हो तो बच्चों से पूछो | बच्चे नहीं बताते तो टॉलफ्री नंबर पर बैठी पिकबयनी से पूछो | वह अपनी सुमधुर आवाज में ऐसे बतायेगी कि फिर कभी नहीं भूलोगे | पत्नी से मत पूछना, खाना खराब होने का जोखिम हो सकता है | फिर मत कहना बताया नहीं | बहुत बड़ा राज बता दिया तुमको |” इतना कह कर चनरदा हँसते हुए अगली बिरखांत में मिलने के लिए कह गए.... ( बुढ़ापा ! चल हट, का शेष भाग बिरखांत १२४ में ...)

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०६.१०.२०१६

 

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