Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles By Shri Pooran Chandra Kandpal :श्री पूरन चन्द कांडपाल जी के लेख

<< < (86/86)

Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत १४५ : गांधी को क्यों नहीं मिला ‘नोबेल पुरस्कार’ ?

     मोहन दास करम चन्द गांधी (महात्मा गांधी, बापू, राष्ट्रपिता) का जन्म २ अक्टूबर १८६९ को पोरबंदर, गुजरात में हुआ | उनकी माता का नाम पुतली बाई और पिता का नाम करम चन्द था | १३ वर्ष की उम्र में उनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ | गांधी जी १८ वर्ष की उम्र में वकालत पढ़ने इंग्लैण्ड गए | वर्ष १८९३ में वे एक गुजराती व्यौपारी का मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए |

     दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने रंग- भेद निति का विरोध किया | ७ जून १८९३ को गोरों ने पीटरमैरिटजवर्ग रेलवे स्टेशन पर उन्हें धक्का मार कर बाहर निकाल दिया | वर्ष १९१५ में भारत आने के बाद उन्होंने सत्य, अहिंसा और असहयोग को हथियार बनाकर अन्य सहयोगियों के साथ स्वतंत्रता संग्राम लड़ा और देश को अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र कराया | ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गौडसे ने नयी दिल्ली बिरला भवन पर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी | इस तरह अहिंसा का पुजारी क्रूर हिंसा का शिकार हो गया | देश की राजधानी नयी दिल्ली में राजघाट पर उनकी समाधि है |

      पूरे विश्व में महात्मा गांधी का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है | संसार में बिरला ही कोई देश होगा जहां बापू के नाम पर कोई स्मारक न हो | परमाणु बमों के ढेर पर बैठी हुयी दुनिया भी गांधी के दर्शन पर विश्वास करती है और उनके बताये हुए मार्ग पर चलने का प्रयत्न करती है | विश्व की  जितनी भी महान हस्तियां हमारे देश में आती हैं वे राजघाट पर बापू की समाधि के सामने नतमस्तक होती हैं | इतना महान व्यक्तित्व होने के बावजूद भी विश्व को शान्ति का संदेश देने वाले इस संदेश वाहक को विश्व में सबसे बड़ा सम्मान कहा जाने वाला ‘नोबेल पुरस्कार’ नहीं मिला | क्यों ?

     नोबेल पुरस्कार’ प्रदान करने वाली नौरवे की नोबेल समिति ने पुष्टि की है कि मोहनदास करम चन्द गांधी नोबेल शांति पुरस्कार के लिए १९३७, १९३८, १९३९, १९४७ और हत्या से पहले जनवरी १९४८ में नामांकित किये गए थे | बाद में पुरस्कार समिति ने दुःख प्रकट किया कि गांधी को पुरस्कार नहीं मिला | समिति के सचिव गेर लुन्देस्ताद ने २००६ में कहा, “ निसंदेह हमारे १०६ वर्षों से इतिहास में यह सबसे बड़ी भूल है कि गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला | गांधी को बिना नोबेल के कोई फर्क नहीं पड़ा परन्तु सवाल यह है कि नोबेल समिति को फर्क पड़ा या नहीं ?”

     १९४८ में जिस वर्ष गांधी जी शहीद हुए नोबेल समिति ने उस वर्ष यह पुरस्कार इस आधार पर किसी को नहीं दिया कि ‘कोई भी योग्य पात्र जीवित नहीं था |’ ऐसा माना जाता है कि यदि गांधी जीवित होते तो उन्हें बहुत पहले ही ‘नोबेल शांति’ पुरस्कार प्रदान हो गया होता | महात्मा गांधी को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ भी नहीं दिया गया क्योंकि वे इस सम्मान से ऊपर हैं |

     सत्य तो यह है कि अंग्रेज जाते- जाते भारत का विभाजन कर गए | गांधी जी ने विभाजन का अंत तक विरोध किया | जिन्ना की महत्वाकांक्षा ने तो विभाजन की भूमिका निभाई जबकि भारत के विभाजन के बीज तो अंग्रेजों ने १९०९ में बोये और १९३५ तक उन बीजों को सिंचित करते रहे तथा अंत में १९४७ में विभाजन कर दिया | भारत में राम राज्य की कल्पना करने वाले गांधी, राजनीतिज्ञ नहीं थे बल्कि एक संत थे | गांधी को ‘महात्मा’ का नाम रवीन्द्र नाथ टैगोर ने और ‘राष्ट्रपिता’ का नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सम्मान के बतौर सुझाया था | आज भी दुनिया कहती है कि गांधी मरा नहीं है, वह उस जगह जिन्दा है जहां दुनिया शांति और अमन-चैन की राह खोजने के लिए मंथन करती है | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल, ०८.०२.२०१७   

Pooran Chandra Kandpal:
दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै 

 गांधी ज्यू कैं क्यलै नि मिल ‘नोबेल पुरस्कार’ ?

     मोहन दास करम चन्द गांधी (महात्मा गांधी, बापू, राष्ट्रपिता) क जन्म २ अक्टूबर १८६९ हुणि पोरबंदर, गुजरात में हौछ | उनरि इज क नाम पुतली बाई और बौज्यू क नाम करम चन्द छी | १३ वर्ष कि उम्र में उनर ब्या कस्तूरबा दगै हौछ | गांधी ज्यू १८ वर्ष कि उम्र में वकालत पढ़ूं हैं इंग्लैण्ड गईं | वर्ष १८९३ में ऊँ एक गुजराती व्यौपारी क मुकदम कि पैरवी करूं हैं दक्षिण अफ्रीका गई |

     दक्षिण अफ्रीका में उनूल रंग- भेद निति क विरोध करौ | ७ जून १८९३ हुणि ग्वरां ल पीटरमैरिटजवर्ग रेलवे स्टेशन पर उनुकैं धक्क मारि बेर भ्यार निकाइ दे | वर्ष १९१५ में भारत वापस औण क बाद उनूल सत्य, अहिंसा और असहयोग कैं आपण हथियार बनै बेर सहयोगियों क दगाड़ स्वतंत्रता संग्राम लडौ और देश कैं अंग्रेजों कि गुलामी है स्वतंत्र करा | ३० जनवरी १९४८ हुणि  नाथूराम गौडसे ल नयी दिल्ली बिरला भवन क नजीक उनरि गोइ मारि बेर  हत्या करि दी | यसिक यौ अहिंसा क पुजारि क्रूर हिंसा क शिकार हौछ | देश कि राजधानी नयी दिल्ली, राजघाट पर उनरि समाधि छ |

      पुरि दुनिय में महात्मा गांधी क नाम भौत श्रद्धा ल लिई जांछ | दुनिय में शैद क्वे देश ह्वल जां गांधी ज्यू क क्वे स्मारक नि हो | परमाणु बमों क ढेर में बैठी हुयी दुनिय लै गांधी क दर्शन पर विश्वास करीं और उनार बताई  हुई रस्त पर चलण कि कोशिश करीं | दुनिया क जतू लै महान हस्ति हमार देश में औनी ऊँ राजघाट पर बापू कि समाधि क सामणि नतमस्तक हुनी | यश महान व्यक्तित्व हुण क बावजूद लै दुनिय कैं शान्ति क संदेश दिणी यौ  संदेश वाहक कैं दुनिय में सबू है ठुल सम्मान कई जाणी ‘नोबेल पुरस्कार’ नि मिल | क्यलै ?

     नोबेल पुरस्कार’ प्रदान करणी नौरवे क नोबेल समिति ल स्पष्ट करि है कि मोहनदास करम चन्द गांधी नोबेल शांति पुरस्कार क लिजि १९३७, १९३८, १९३९, १९४७ और हत्या हुण है पैली जनवरी १९४८ में नामांकित करी गईं | बाद में पुरस्कार समिति ल दुःख जता कि गांधी ज्यू कैं यौ पुरस्कार नि मिल | समिति क सचिव गेर लुन्देस्ताद ल २००६ में कौछ, “निसंदेह हमार १०६ वर्षों क इतिहास में यौ सबू है ठुलि भूल छ कि गांधी ज्यू कैं नोबेल शांति पुरस्कार नि मिल | गांधी ज्यू कैं बिना नोबेल सम्मान ल क्ये फरक नि पड़ पर सवाल यौ छ कि नोबेल समिति कैं फरक पड़ौ छ या नि पड़ ?”

     १९४८ में जो साल गांधी ज्यू शहीद हईं नोबेल समिति ल उ साल लै यौ पुरस्कार यौ आधार पर कै कैं नि दी कि ‘क्वे लै योग्य पात्र ज्यौन न्हैति |’ यस मानी जांछ कि अगर गांधी ज्यू ज्यौन हुना तो उनुकै भौत पैलिकै यौ  ‘नोबेल शांति’ पुरस्कार प्रदान है जान | महात्मा गांधी ज्यू कैं देश क सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ लै नि दिई गोय क्यलै कि गांधी ज्यू क कद यौ सम्मान है ठुल बताई जांछ |

     सांचि बात त यौ छ कि अंग्रेज जाते- जाते भारत का द्वि दुकुड़ करि गईं जबकि गांधी ज्यूल विभाजन क अंत तक विरोध करौ | जिन्ना कि अथाणि (महत्वाकांक्षा) ल त विभाजन कि भूमिका निभै जबकि भारत क विभाजना क बीं त अंग्रेजों ल १९०९ में बो और १९३५ तक ऊँ बियां कैं खूब मुखुत है बेर पाणी खितौ और अंत में १९४७ में द्वि दुकुड़ करि देईं | भारत में राम राज्य कि कल्पना करणी महात्मा गांधी, राजनीतिज्ञ नि छी बल्कि एक संत छी | गांधी कैं ‘महात्मा’ क नाम रवीन्द्र नाथ टैगोर ज्यूल और ‘राष्ट्रपिता’ क नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ल सम्मान क बतौर सुझा | आज लै दुनिय कैंछ कि गांधी ज्यू मरि नि राय, ऊँ उ जागि पर ज्यौन छीं जां दुनिय शांति और अमन-चैन क बाट खोजण में मंथन करें रै |

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
रोहिणी दिल्ली  ०९.०२.२०१७   

Pooran Chandra Kandpal:
बिरखांत- १४६ : ऐसे बचेगी उत्तराखंड की भाषा,१५.०२.२०१७

     कुमाउनी और हिंदी के लेखक रतन सिंह किरमोलिया (हल्द्वानी, उत्तराखंड), ने हल्द्वानी से प्रकाशित पर्वत प्रेरणा साप्ताहिक समाचार पत्र (०५.१२.२०१६, संपादक सुरेश पाठक ) में प्रकाशित अपने लेख में उत्तराखंडी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए जनप्रतिनिधियों से आग्रह करते हुए अपने उद्गार व्यक्त किये हैं | लगभग इन्हीं बिन्दुओं पर आधारित प्रस्ताव आठवें राष्ट्रीय कुमाउनी भाषा सम्मेलन अल्मोड़ा (१२ – १४ नवम्बर २०१६) में भी सर्वसम्मति से पुनः पारित हुआ जबकि ऐसे प्रस्ताव पहले के सभी सातों सम्मेलनों में पारित कर राज्य सरकार को भेजे गए हैं | अपनी भाषा को बचाने के हित में उस लेख के कुछ अंश यहाँ उधृत कर रहा हूँ –

     स्कूली पाठ्यक्रम में कुमाउनी उर गढ़वाली को एक भाषा के रूप में शामिल किया जाए और इसे रोजगार से जोड़ा जाए | इन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाए जाने हेतु राज्य से केंद्र को प्रस्ताव भेजा जाए | सुप्त पड़े उत्तराखंड लोक भाषा संस्थान को सक्रीय  किया जाए ताकि वह अपनी सार्थक भूमिका निभा सके | स्कूली बच्चों के बीच भाषा लेखन कार्यशालाएं आयोजित की जाएं | इससे बच्चे भाषा में बोलना, लिखना, पढ़ना सीखेंगे | कार्यशालाओं में भाषा में ही बोलना अनिवार्य किया जाए | इसके बाद विविध प्रतियोगितायें आयोजित करवाई जाएं | बच्चों की तैयार रचनाओं को भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित क्या जाए |

     संस्थान द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों ( विगत कई वर्षों से नहीं दिए जा रहे हैं | ) में पारदर्शिता बरती जाए | कुछ वर्ष पहले जिस प्रकार पुरस्कारों की बंदरबांट हुयी और ‘पहले आओ – पहले पाओ’ जैसी परम्परा बनी, उससे बचा जाए | पुरस्कार वितरण में एक स्वस्थ एवं पारदर्शी परंपरा कायम की जाए | चार- पांच दशकों से लगातार लिखते आ रहे रचनाकारों को दरकिनार नहीं किया जाए | ऐसे रचनाकार न तो देहरादून के चक्कर लगा सकते हैं  और न उनकी कोई राजनैतिक सिफारिस होती है | भविष्य में यह भेदभाव नहीं होना चाहिए |

     सरकारी एवं गैर- सरकारी संस्थाओं के पुस्तकालयों, वाचनालयों एवं ग्राम पंचायतों तक हमारी भाषा में प्रकाशित साहित्य और पत्र- पत्रिकाएं पहुंचाई जाएं | इससे जहां लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा, वहीं भाषा एवं संस्कृति को भी फूलने –फलने का अवसर भी मिलेगा | साथ ही भाषा की पत्र-पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग भी दिया जाए | हमारी भाषा के रचनाकारों की पांडुलिपि को सरकार प्रकाशित करे और लेखकों को रायल्टी दी जाए | विश्व- विद्यालयों के पाठ्यक्रम में हमारी भाषा को एक अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाए और इन पर शोध कार्य सुनिश्चित हों |

     देहरादून में एक रचनाकार गैलरी और रचनाकारों का एक सन्दर्भ कोष या डाइरेक्टरी तैयार की जाए | प्रत्येक रचनाकार की चुनिन्दा रचनाओं का दस्तावेजीकरण या डाक्यूमेंटेशन किया जाए | वरिष्ठ रचनाकारों को रेल एवं यात्री बसों में मुफ्त यात्रा पास उपलब्ध कराये जाए | विभिन्न मेलों, उत्सवों या खेलकूद रैलियों के अवसर पर भाषा की प्रतियोगितायें आयोजित करवाई जा सकती हैं जिनमें प्रतिभागी उत्कृष्ट बच्चों को पुरस्कृत कर प्रोत्साहित किया जाए तथा प्रतिवर्ष भाषा के रचनाकारों का एक वृहद् सम्मेलन भी अनिवार्य रूप से आयोजित किया जाना चाहिए  |

     लेखक किरमोलिया जी एवं ‘पर्वत प्रेरणा’ के संपादक सुरेश पाठक जी को साधुवाद देते हुए कहना चाहूंगा कि अब तक हमें सभी दलों के सभी नेताओं ने कोरे आश्वासन ही दिए हैं | सभी नेता चुनावों में हमारी भाषा बोलकर वोट माँगने की जादूगरी करते हैं | ईजा, बाबू, कका, काखी, ठुलीजा, ठुल्बौज्यू, दीदी, भुला, च्यला, च्येली, बुवा आदि सम्बंध जोड़कर हमारे आगे से मुनव कनाते हैं | कभी तो गंभीरता से अपनी भाषा के बारे में सोचिये | मुठ्ठी भर बोडो लोगों की भाषा संविधान में है जबकि एक करोड़ बीस लाख उत्तराखंडियों की भाषा को भरपूर साहित्य और दो सौ से अधिक साहित्यकार होने के बावजूद अभी तक मान्यता नहीं मिली है | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
१५.०२.२०१७                           

                         

     

Pooran Chandra Kandpal:
दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै
यसिक बचलि उत्तराखंड कि भाषा, १६.०२.२०१७

     कुमाउनी और हिंदी क लेखक रतन सिंह किरमोलिया (हल्द्वानी, उत्तराखंड), ल हल्द्वानी बटि प्रकाशित पर्वत प्रेरणा साप्ताहिक समाचार पत्र (०५.१२.२०१६, संपादक सुरेश पाठक ) में प्रकाशित आपण लेख में उत्तराखंडी भाषा और संस्कृति कैं बचूण क लिजि जनप्रतिनिधियों हैं आग्रह करनै आपण मन कि बात भ्यार निकाई | करीब करीब यूं ई मुद्दों पर आधारित प्रस्ताव आठूँ राष्ट्रीय कुमाउनी भाषा सम्मेलन अल्मोड़ा (१२ – १४ नवम्बर २०१६) में लै सर्वसम्मति ल दुबार पास हौछ जबकि यास प्रस्ताव पैलिका क सबै सातों सम्मेलनों में लै पास करि बेर राज्य सरकार हैं भेजी गईं | आपणि भाषा कैं बचूण क बाबत उनर लेख बटि कुछ अंश यां शामिल करण रयूं |

     इस्कूली पाठ्यक्रम में कुमाउनी और गढ़वाली कैं एक भाषा क रूप में शामिल करी जो और यैकैं रोजगार दगै जोड़ी जो | यूं भाषाओं कैं संविधान कि आठूं अनुसूची में शामिल करूणा क लिजि राज्य बटि केंद्र हैं प्रस्ताव भेजी जो | बांज पड़ी उत्तराखंड लोक भाषा संस्थान कैं फिर कमन करी जो ताकि उ आपणी सार्थक भूमिका निभै सको | इस्कूली नना क बीच भाषा लेखण क लिजि कार्यशाला आयोजित करी जो | यैल नान आपणि भाषा बलाण, लेखण, पढ़ण सिखाल | कार्यशालाओं में आपणि भाषा में ई बलाण अनिवार्य करी जो | यैक बाद अनेक प्रतियोगिता आयोजित करवाई जो | नना कि रचनाओं कि लै किताब प्रकाशित करी जो |

     संस्थान द्वारा दिई जाणी पुरस्कारों ( विगत कएक वर्षों बटिक नि दिई जां राय | ) में पारदर्शिता बरती जो | कुछ साल पैली जसी वर्ष पुरस्कारों कि लुटालूट हैछ और ‘पैली औ – पैली लिजौ’ जसि परम्परा बनी, उहै बची जो | पुरस्कार बाटण में एक स्वस्थ और पारदर्शी परंपरा कायम करी जो | चार- पांच दशकों बटि लगातार लेखते औणी रचनाकारों कैं दरकिनार नि करी जो | यास रचनाकार न तो देहरादून क चक्कर लगै सकनी और न उनरि क्वे  राजनैतिक सिफारिस हिंछ | भविष्य में यौ भेदभाव नि हुण चैन |

     सरकारि और गैर- सरकारि संस्थाओं क पुस्तकालयों, वाचनालयों और गौं पंचैतों तक हमारि भाषा में प्रकाशित साहित्य और पत्र- पत्रिका पुजाई जो | यैल जां एक तरफ लेखकों कैं प्रोत्साहन मिलौल, वै भाषा और संस्कृति कैं लै फुलण –फलण क मौक मिलौल | दगाड़ में भाषा कि पत्र-पत्रिकाओं कैं आर्थिक सहयोग लै दिई जो | हमरि भाषा क रचनाकारों कि पांडुलिपि कैं सरकार प्रकाशित करो और लेखकों कैं रायल्टी दिई जो | विश्व- विद्यालयों क पाठ्यक्रम में हमरि भाषा कैं एक अनिवार्य विषय क रूप में शामिल करी जो  और इनू पर शोध कार्य सुनिश्चित करी जो |

     देहरादून में एक रचनाकार गैलरी और रचनाकारों क एक सन्दर्भ कोष या डाइरेक्टरी तैयार करी जो | हरेक रचनाकार कि खाश रचनाओं क दस्तावेजीकरण या डाक्यूमेंटेशन करी जो | वरिष्ठ रचनाकारों कैं रेल और यात्री बसों में मुफ्त यात्रा पास दिई जो ये | सब म्याल, उत्सव या खेलकूद रैलियों क अवसर पर भाषा कि प्रतियोगिता आयोजित करी जो जमें भाग ल्हीणी होश्यार नना कैं इनाम दी बेर प्रोत्साहित करी जो और हर साल भाषा क रचनाकारों क एक ठुल सम्मेलन लै अनिवार्य रूप ल आयोजित करी जो |

     लेखक किरमोलिया ज्यू और ‘पर्वत प्रेरणा’ क संपादक सुरेश पाठक ज्यू कैं साधुवाद दिनै कौण चानू कि आज तक हमुकैं सबै दलों क सबै नेताओं ल केवल क्वार आश्वासन देईं | सबै नेता चुनावों में हमरि भाषा बलै बेर वोट माँगण कि जादूगरी करनीं | ईजा, बाबू, कका, काखी, ठुलीजा, ठुल्बौज्यू, दीदी, भुला, च्यला, च्येली, बुवा आदि सम्बंध जोड़ि बेर हमार अघिल मुनव कनूनी | कभै त गंभीरता ल हमरि भाषा क बार में सोचो | मुठ्ठी भर बोडो लोगों कि भाषा संविधान में छ जबकि एक करोड़ बीस लाख उत्तराखंडियों कि भाषा भरपूर साहित्य और द्वि सौ है ज्यादै साहित्यकार हुण क बावजूद आजि तक मान्यता नि मिलि रइ |

पूरन चन्द्र काण्डपाल, रोहिणी दिल्ली
१६.०२.२०१७                           


Navigation

[0] Message Index

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version