[justify]बाग्स्यर, बागीशर, व्याघ्रेश्वर तथा उतरैणी पर्व
by Uday Tamta
मित्रो, उत्तरायणी के अवसर पर पूरे उत्तराखंड में, विशेष रूप से शिव तीर्थों पर भव्य मेले अज्ञात इतिहास काल से ही लगते आये हैं, तथा जिन स्थानों में भव्य मेलों का आयोजन लम्बे समय से होता रहा है, उनमें बागेश्वर का स्थान सर्वोपरि है। बागेश्वर गोमती तथा सरयू नदी के संगम पर स्थित है तथा इसी नाम से बनने वाले जनपद से पूर्व यह जनपद अल्मोड़ा की एक तहसील थी। प्राचीन अभिलेखों व शिलालेखों में इसे व्याघ्रेश्वर कहा गया है। कत्यूरी राजा असंतिदेव की प्रशस्ति, जो लगभग आठवीं सदी की होगी, में इसे व्याघ्रेश्वर, अर्थात् बाघ देवता का स्थान, ही कहा गया है। व्याघ्रेश्वर नाम पड़ने के सम्वन्ध में कई किंवदंतियाँ लोक जीवन व पौराणिक अभिलेखों में मिलती हैं, परन्तु इनमें से प्रत्येक के साथ कुछ मिथक भी जुड़े हुए हैं, जिन पर अधिकांश आस्थावान लोग विश्वास करेंगे ही, पर थोड़े बहुत वैज्ञानिक सोच व आधुनिक विचारों वाले लोग भी हैं ही, जो इन चमत्कारिक मिथकों पर कम ही विश्वास कर पायेंगे। इसीलिए उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए भी कुछ परिस्थितिजन्य सामग्री मिल ही जाएगी। इसके लिए तथ्यों के मूल में जाना होगा। इसमें जाने से पहिले इस नाम से संवंधित मूल प्रचलित शब्दों--बाग (बाघ) व स्यर पर जाना होगा। कुमाऊँ में 'बाग' शब्द बाघ या व्याघ्र के लिए प्रयुक्त होता ही है। जहाँ तक 'स्यर' शब्द का प्रश्न है, यह निर्विवाद रूप से नदियों के द्वारा छोड़ी गई समतल भूमि को कहा जाता है। जब बागेश्वर सघन वन क्षेत्र रहा होगा तो, घुरड़, कांकड़ तथा वन्य जीवों का इस स्थान पर पानी पीने के लिए आना स्वाभाविक ही था। और, जहाँ शिकार आता है, वहां शिकारी अर्थात् बाघ का आना आवश्यक सा ही है। इसलिए इस स्थान को बाग्स्यर नाम से जाना जाने लगा होगा, जो कालांतर में बागीसर, बागीश्वर व बागेश्वर में परिवर्तित हो गया होगा। इसी लिए शुद्ध भाषा में इसे व्याघ्रेश्वर नाम मिल ही गया। पर आज भी सामान्य जन आम बोलचाल में इसे शुद्ध कुमाँऊनी बोली में 'बाग्स्यर' ही कहते हैं।
मित्रो, बागेश्वर का सांस्कृतिक, अध्यात्मिक व पौराणिक महत्व होने के साथ साथ ऐतिहासिक महत्व भी बहुत अधिक है। कुमाऊँ में बिना किसी मजदूरी या मेहनताना के भुगतान के पर्वतीय दुर्गम स्थानों में बोझ ढोने के लिए ग्रामीणों को बाध्य किया जाता रहा है। यद्यपि इस प्रकार से उनका शोषण कत्यूरी व चंद शासन के युग में बहुत अधिक हुआ, परन्तु गोरखा शासन के पच्चीस वर्षों में यह उत्पीडन की हद से भी आगे तक होने लगा था। उनके समय में उत्पीडन की घटनाएं इस सीमा तक बढ़ गई थीं कि उन्होंने इस बेगार प्रथा से उन कुछ सम्मानित परिवारों को भी नहीं बख्शा, जिन्हें कत्यूरी व चंद शासन के समय सदाशयताबश इससे छूट मिलती रही थी। जब कभी किसी ने अपनी बेहतर सामाजिक स्थिति का हवाला देते हुए इससे मुक्ति की प्रार्थना की तो, गोरखा अधिकारीयों का कहना होता था --''तुम्हारे पैर पूजे जाते हैं, सिर नहीं। बोझ सर पर उठाना है, पैर पर थोड़े ही ।'' अपने इन कुतर्कों से उन्होंने किसी की भी इज्जत नहीं रखी। पराधीनता के उस घोर अँधेरे युग में व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सम्मान का कोई मूल्य ही नहीं रह गया था। बेवश होकर इस भयानक कष्ट व अपमान को चुपचाप सह लेने के अलावा किसी के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था--'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' अंग्रेजों के आने के बाद भी यह कुप्रथा जारी रही। तब तक इन मुफ्त भारवाहकों को अत्यंत अपमानजनक नाम कुली से ही पुकारा जाने लगा था। कुली प्रथा उठ जाने के बाद भी यह शब्द अभी तक नहीं उठ सका है।अब तक भी यह मजदूरों के लिए भी सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त होता ही है। बीसवीं सदी में आजादी के अन्दोलन ने गति पकड़ी। अतः इस कुली प्रथा के विरुद्ध भी समवेत स्वर उठने लगा। बागेश्वर में इसके लिए भीषण आन्दोलन की शुरुआत इसी उत्तरायणी मेले से हुई। इसी मेले को इस कुप्रथा के कुमाऊँ से हमेशा से उठ जाने का ऐतिहासिक श्रेय जाता है।[/justify]