Author Topic: Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख  (Read 19549 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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लोक संस्कृति--संरक्षण एवं संवर्धन।

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, संस्कृति व सभ्यताएं किसी भी राष्ट्र की धरोहर होती है. आंचलिक संस्कृतियों के एकीकरण से ही इसके समग्र राष्ट्रीय स्तर का निर्धारण होता है। यदि समय रहते हुए इसे सहेज कर नहीं रखा गया तो यह कुछ समय के बाद काल कवलित हो जातीं हैं। कुछ सभ्यताएं तो इतनी अधिक समृद्ध होतीं हैं कि भूगर्भ में समा जाने के बाद भी 'जीवंत' ही बनी रहती हैं और इसी के माध्यम से संस्र्कृतियाँ भी उभर कर धरातल के ऊपर आ ही जाती हैं। मेसोपोटामिया की सभ्यता तथा सिन्धु घाटी सभ्यता ऐसे ही उदहारण हैं। सिन्धु घटी में मिली प्राचीन लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जासकी है, जिस दिन यह लिपि पढ़ ली जाएगी, निश्चित तौर पर इतिहास व संस्कृति के नए पन्ने खुल जायेंगे. संस्कृति के श्रोतों में साहित्य का स्थान प्रमुख है। उत्तराखंड में साहित्य से संवंधित श्रोत बहुत कम हैं, पर जो भी हैं वह भी वर्गीय दुर्भावनाओं से ग्रसित होने के कारण बहुत सबल नहीं हैं। उदाहरण के लिए जिला गजेटियर को ही ले लें। इसके संपादक भले ही अंग्रेज थे, पर इनके वास्तविक लेखक अल्मोड़ा के कुछ गिने चुने लोग थे, जो अंग्रेजी शासन में सर्वे सर्वा भी थे। अंग्रेज यहाँ की भाषा व संस्कृति से पूर्णतया अनभिज्ञ थे, इसलिए स्थानीय लोगों ने जो लिख कर दे दिया, वही 'अनतिक्रमण वचनै प्रधान सामन्तैह' के सिद्धांत के अनुरूप ही गजेटियर में छप गया. 1911 का वाल्टन का गजेटियर ही ले लें, यह पूर्ण निष्पक्षता से नहीं लिखा गया। इसी प्रकार लक्ष्मी दत्त जोशी की बहुचर्चित पुस्तक--'द खस फॅमिली ला' को ही देखें, इस विषय पर इससे अच्छी पुस्तक कोई दूसरी नहीं मिलती, पर यह भी वर्गीय दोष से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कही जासकती। मेरे विचार से कुँमाऊँ में शिवानी से अच्छा कथाकार अब तक दूसरा कोई नहीं हुआ। कुछ मायनों में तो उन्होंने महादेवी वर्मा से भी अच्छा लिखा, पर स्वकुल की मिथ्यापूर्ण महिमा के गुणगान व परकुल के लिए गाली की हद तक प्रयुक्त किये गए शब्द व वाक्यों के कारण उनका समस्त लेखन ही दोषपूर्ण माना गया। नतीजा वही हुआ। बहुत कम लिखने के बाद भी शैलेश मटियानी को एक सुधी साहित्यकार माना जाता है, और इसके विपरीत ढेरों ढेर लेखन के बाद भी शिवानी को नहीं। यही हाल 'कगार की आग' का रहा। इस रचना में से वर्गीय दुर्भावना के अंश को निकाल दें तो यह विश्व स्तर की रचना है, पर इस दोष से मुक्त न होने के कारण यह पूरे कुमाऊँ में ही ठीक से नहीं पढ़ी गयी, पूरे देश में पढ़े जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। कुछ कारणों से संस्कृति के संरक्षण के लिए सबूत के तौर पर इस प्रकार के लेखन का सहारा नहीं लिया जा सकता. पर इस दिशा में आशा की एक किरण भी जगी है। कुछ युवा इस दिशा में बड़ी सक्रियता व निरपेक्ष भाव से काम कर रहे हैं।

Rajen

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रोचक एवं ज्ञानबर्धक जानकारी.  धन्यबाद. 



नैणताल व नैना देवी मंदिर

by Uday Tamta on 9 January 2013 at 06:27 AM ·

मित्रो, बैरन एक अंग्रेज था, जिसकी शाहजहांपुर में एक छोटी सी डिस्टिलरी थी, जिसमें वह अंग्रेज अधिकारियों व कर्मचारियों के सेवन के लिए मामूली सी ब्रुअरी में शराब का उत्पादन करता था। व्यवसायी होने के साथ-साथ वह एक प्रकृति प्रेमी व अन्वेषक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। एक बार वह पहाड़ की यात्रा पर निकल पड़ा। शाहजहांपुर में लम्बे समय तक रहने के कारण वह हिंदी अच्छी तरह से समझता था तथा कुछ् कुछ बोल भी लेता था। वह साहसी तो था ही, कुछ मजदूरों के साथ रानीबाग से ही मार्ग विहीन जंगल से कठिन चढ़ाई पार करते हुए किसी तरह नैणताल, जिसे अब नैनीताल के नाम से जाना जाता है, के ऊपर के ऊंचे डांडे में पहुंच गया। उसने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो घने बाँझ वृक्षों की ओट में एक सुन्दर नीला तालाब नज़र आया, जिसके किनारे काई से पटे पड़े थे तथा चारों ओर पक्षियों का कलरव गूंज रहा था, जिसकी मधुर ध्वनि ऊँचे डांडे तक भी पहुंच रही थी। वहां से भी ताल तक कोई रास्ता नहीं था। वह किसी तरह पेड़ों की साख व बाभिला घास के सहारे नीचे उतरा। ताल की सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया। इस प्रकार 1840-41 में बाहरी दुनियां के लिए अज्ञात नैनीताल की 'खोज' बैरन के हाथों हो गई ! वहां पर उसे कोई आदमी नहीं मिला। नीचे उतरते हुए उसे किसी बस्ती के लोगों से उसे पता चला कि पूरे ताल व इलाके का मालिक नैनुवां उर्फ़ नैनसिंह नाम का कोई व्यक्ति था, जो नजदीक के किसी गांव में रहता था। उसनें नैनुवां से संपर्क किया। नैनसिंह हिंदी नहीं जानता था, और बैरन भी पहाड़ी नहीं समझता था। सो किसी हिंदी जानने वाले के माध्यम से उनमें कुछ बातचीत हुई। अगली बार फिर गर्मी के मौसम में बैरन एक बढई व एक नाविक को लेकर बनी बनाई, खुले हिस्सों वाली नाव के साथ वहां पहुंचा। उसने आदमी भेजकर नैनसिंह को बुलवाया। नैनसिंह को उसने अपने साथ नाव में बिठा लिया। उसने बीच ताल में पहुँच कर पूरा इलाका खरीदने का प्रस्ताव नैनसिंह के सामने रखा । यद्यपि नैनसिंह के लिए इस ताल व क्षेत्र का कोई आर्थिक महत्व नहीं था, तथापि वह पूर्वजों की इस थाती को बेचने को तैयार नहीं हुआ। इस पर बैरन ने उसे ताल में डुबा देने की धमकी दे डाली और पहिले से तैयार कागज में उसका अंगूठा लगवा लिया। इस तरह पहिले बैरन, फिर ईस्ट इंडिया कंपनी व कालांतर मे अंग्रेज सरकार इसकी मालिक बन गई। उसके बाद तो अंग्रेजों ने नैनीताल का जो जो किया वह सामने ही है। यहां पर नैना देवी का एक बहुत ही छोटा थान (देवस्थान, भव्य मंदिर नहीं) पहिले से ही था, जिसमें कुछ छोटे से त्रिशूल व लोहे के छोटे से दीये थे। यह थान वर्तमान मंदिर से ऊपर की पहाड़ी पर था। पुराना नैना देवी का उक्त थान 1880 के भयंकर भूस्खलन में नेस्तनाबूंद होगया था, जिसके कुछ दीये वर्तमान मंदिर के पास बरामद हो गए थे। अतः इसी स्थान पर पर 1882 को जेठ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन जगन्नाथ शाह व उनके सहयोगियों ने मंदिर की स्थापना की। मित्रो, यह तो रहा ऐतिहासिक विवरण। इसके सामानांतर ही नैनीताल की स्थापना के सम्वन्ध में मानस खंड, जिसे कुछ लोग स्कंद पुराण का ही एक भाग मानते हैं, में एक और ही कहानी चलती है। इसके अनुसार कहा जाता है कि एक बार सप्त ऋषियों में से तीन ऋषि--अत्रि, पुलस्त्य व पुलह ने हिमालय की यात्रा प्रारंभ की। उनको अत्यधिक प्यास लगी, परन्तु वह कोई जल श्रोत नहीं ढूंढ़ पाए ताकि अपनी पिपासा शांत कर सकें। प्यास से वह बहुत व्याकुल हो गये। उन्होंने अपने मन में पवित्र सरोवर--मानसरोवर-- का स्मरण किया तथा यहाँ पर कुछ गड्ढे खोदे। उनकी पिपासा को बुझाने के लिए यहाँ पर स्वतः ही तत्काल एक ताल का निर्माण हो गया !

मित्रो, इस ताल को पहिले लोग नैणताल अथवा नैनताल के नाम से ही जानते थे। बाद में इसे नैनीताल नाम दिया गया। नैनताल या नैनीताल नाम दो कारणों से पड़ा--पहला कारण यह है कि इसके स्वामी नैनुवाँ की वजह से लोग इसे नैनुवां का ताल तथा बाद में नैनताल कहने लगे होंगे। दूसरा कारण यहाँ पर नैना देवी का थान पहिले से ही होने के कारण इसे यह नाम मिला होगा।


विनोद सिंह गढ़िया

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आस्था व लोकजीवन के प्रतीक--छमासी, बैसी और चौरासी.

by Uday Tamta
 
मित्रो, भले ही हम ईश्वर, देवता या किसी अन्य नाम इसे पुकारते हों, पर अराध्य के रूप में एक शक्ति को मनुष्य आदिकाल से ही मानता आया है. ऐसे किसी अराध्य देव के अस्तित्व के विषय में विवाद रहा है, पर आस्था की विद्यमानता से कोई इंकार नहीं कर सकता. एक सहज विश्वास का ही दूसरा नाम आस्था है. उत्तराखंड में भी अत्यंत प्राचीन समय से ही आराध्य के रूप में पूर्व वैदिक कालीन प्राकृतिक देवताओं --सूर्य, अग्नि, बरुण व वायु इत्यादि कई देवताओं के साथ साथ उत्तर वैदिक कालीन व पौराणिक देवी देवताओं व ग्राम देवताओं की उपासना नाना विधियों से होती रही है. इन्ही विधियों में एक विधि के तीन रूप हैं--छमासी, बैसी, व चौरासी. इन तीनो उपासना पद्धतियों में केवल अवधि का अंतर है. छः माह तक चलने वाले जागरण या 'जागा' को छमासी, केवल २२ दिन या चार दिन चलने वाले देवोत्सव को क्रमशः बैसी तथा चौरासी कहा जाता है. कुमाऊँ में चलने वाले छमासी देवोत्सव का जिक्र सबसे पहिले करते हैं. इसमें किसी गावं के समस्त ग्रामीण मिलकर इसका आयोजन करते हैं. एक देवमंदिर में बनी धूनी में कोई सिद्ध डंगरिया बिलकुल ही सात्विक व सन्यासी का सा जीवन बिताते हुए छः माह की अवधि के लिए बैठता है. वह इस दौरान अपने पारिवारिक जीवन से बिल्कुल ही विरक्त रहता है. केवल स्वयं का तैयार किया हुआ सात्विक भोजन केवल एक ही बार ग्रहण करता है, परन्तु स्नान नियमित रूप से दो बार करता है. रोज प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके मंदिर की धूनी में अपने अराध्य देव की आरती करता है. सायंकाल में भी स्नान करके आरती उतारी जाती है. आरती में नित्य प्रति ढोल व दमुवे का वादन होता है. छः माह की अवधि के पूरा होने पर अंतिम चार दिनों में रोज ढोल नगाड़ों व दमुवों के बादन के साथ जागा का आयोजन होता है. यह चार दिन का महा उत्सव होता है. बाजगीर पूरे विधि विधान के साथ देवताओं की वीर गाथाओं के विभिन्न प्रसंगों के साथ डंगरियों में देवताओं का अव्ह्वान करता है. विभिन्न देवताओं के डंगरिये एक विशेष लय व ताल में नृत्य सा करते हुए 'अतरते' हैं, और लोगों को वरदान व आशीष देते हैं. गंगोली में मुख्यतः हरु, सैमगोल्ल देवताओं की छमासी होती है. छमासी की तरह ही केवल २२ दिन की अवधि के लिए मनाये जाने वाले देव पर्व को बैसी व चार दिन के लिए मनाये जाने वाले पर्व को चौरासी कहते हैं. यह तीनो तरह के देव पर्व बिना किसी व्यवधान के पूरी अवधि तक चलते हैं, केवल उसी अवस्था में इनको समाप्त किया जाता है, जब गावं में कभी दुर्भाग्यबस 'सूतक' की अवस्था उत्पन्न हो जाय. बैसी को बीस दिन की अवधि के बीच में पड़ने वाली अमवस्या के दिन भी समाप्त किया जा सकता है. यह देव पर्व आपसी भाई चारे का एक बहुत ही सुन्दर वातावरण बनाने में बहुत सहायक होते हैं. लोग इस अवधि में अपने रिश्तेदारों को भी बुला लेते हैं तथा घर के सदस्य जो रोजगार के सिलसिले में देश के किसी भी भाग में हो, इस देव महोतव के अवसर पर अवश्य ही घर पहुँचते हैं.

मित्रो, सब कुछ अच्छा होते हुए भी इस पर्व के साथ एक दुखद पहलू भी जुड़ा हुआ है--वह है पशुबलि. इसकी पूर्णाहुति पर बड़ी संख्या में बकरों की बलि दी जाती है. अब धीरे धीरे लोगों में चेतना आने लगी है. अब पशु बलि कम हो रही है.

विनोद सिंह गढ़िया

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उत्तराखंड की भांग संस्कृति

by Uday Tamta on 11 January 2013 at 07:26 AM ·

मित्रो, यूँ तो आज भांग, जिसके लिए अंग्रेजी शब्द हेम्प तथा वानस्पतिक नाम कैन्नाविस सैटिवा है, एक प्रतिवंधित उपज है तथा एनडीपीएस एक्ट में इसकी खेती करना पूरी तरह से वर्जित है, परन्तु इसकी पैदावार देशभर में अत्यंत प्राचीन काल से ही होती रही है। न जाने कैसे, इससे निर्मित गांजा व चरस को भगवान शंकर से भी जोड़ा गया है। इसीलिए इसको शंकर की बूटी भी कहते हैं। वाराणसी व मथुरा में तो इससे बनने वालीं 'ठण्डक' का बहुत ही बड़ा महत्व है। मैदानी भागों में इसकी खेती करने वालों को संस्कृत साहित्य में 'पणि' कहा गया है। भारत में भले ही तमाखू व लाल मिर्च का उपयोग मध्यपूर्व से आये विदेशी शासकों के द्वारा ग्यारहवीं सदी के बाद ही प्रारंभ हुआ, परन्तु भांग तथा इसके उत्पादों का प्रयोग वैदिक काल से भी पहिले ही होता रहा है। वैसे वेदों में जिस सोमरस का बहुत बहुत ही बार प्रयोग हुआ है, और इससे संवंधित बहुत सी ऋचाएं व मंत्र विद्यमान हैं, उसे एक बेल से बनाये जाने का उल्लेख मिलता है, परन्तु ऐसी किसी बेल को आज तक चिन्हित नहीं किया जासका है। इसी लिए कुछ विद्वान मानते हैं कि सोमरस का उत्पादन विशेष पद्धति से भांग से ही होता होगा। उत्तराखंड में भी भांग की खेती अति प्राचीन काल से ही होती रही है। इस पौधे के हर भाग का उपयोग, तथा सीमित मात्रा में कुछ् दुरुपयोग भी होता रहा है। इसके रेशे से चमोली जिले में बहुत ही मुलायम कम्बल तथा वस्त्र बनाये जाते थे। कुमायूं के दानपुर में कुथले (बोरे) बनाने का काम अभी हाल ही तक बहुत होता था। यह उनकी रोजी का प्रमुख साधन था। इसकी खेती प्रतिवंधित होने तथा जूट से कारखानों में बने सस्ते बोरे आजाने से यह कारोबार तवाह होगया। इस पौधे की पत्तियों पर एक विशेष नशीला पदार्थ उत्पन्न होता है, जिसे मसलने पर हाथों में लेप की एक् मोटी परत जम जाती है, जिसे अत्तर या चरस कहा जाता है। मसली हुई पत्तियों को सुखाकर इससे गांजा बनाया जाता है। इस प्रकार इसका मुख्य उत्पाद तो बीज ही है, परंतु सहउत्पाद चरस व गांजा हैं। अंग्रेजों के आने से पहिले तक इसकी खेती उत्तराखंड में बेरोक टोक होती थी। अंग्रेजों ने इसकी खेती को तो प्रतिवंधित नहीं किया, परन्तु चरस व गांजे के कारोबार को अपने हाथ में ले लिया और काशीपुर में इसके लिए एक कारखाना ही खोल दिया।
मित्रो, मुझे आबकारी विभाग से संवंधित अद्यतन जानकारी तो नहीं है कि अब आबकारी ठेकेदारों को चरस व गांजा बेचना अनिवार्य है कि नहीं परन्तु, कुछ समय पूर्व तक यह विसंगति विद्यमान थी कि भांग की खेती तो प्रतिवंधित थी, पर ठेकों पर इसके उत्पादों का बेचना आवश्यक था  !

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]मालू गीत (पतरौल गीत)

by Uday Tamta

मित्रो, आज तो अति उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में भी मोबाईल फोन, टी.वी., वी.सी.डी. रेडियो और न जाने कितने ही मनोरंजन के साधन उपलव्ध हैं, परन्तु पचास के दसक तक या उससे पहिले वहां पर इनमें से कोई भी साधन थे ही नहीं. युवक व युवतियां केवल झोडा, चांचरी, न्योली इत्यादि लोक गीतों को गाकर अपना तथा औरों का मनोरंजन करते थे. वह लोग जब भी घास या लकड़ी के लिए जंगल में जाते थे तो ऊँची लयवद्ध आवाज में न्योली या जोड़ गाते थे. उस ज़माने में सरकारी कर्मचारियों में केवल पटवारी व पतरौल (वन रक्षक) ही गाँवों में रहते थे. पटवारी का तो तब बहुत ही खौफ था, परन्तु पतरौल के साथ स्थानीय युवतियों के रूमानी किस्सों की बहुतायत रहती थी. इसीलिए इस संवंध में कई लोक गीत भी चल पड़े थे. कई छोटी पुस्तिकाएं भी पतरौल गीतों की छप गईं थीं, जिन्हें लोग बड़े ही मनोयोग से पढ़ते व गाते थे. पचास के दसक में गंगोलीहाट व उसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में एक बहुत ही मशहूर मालूगीत चल पड़ा था, जो एक युवा ग्रामीण घस्यारी युवती व पतरौल के बीच संबाद के रूप में था. गीत के बोल कुछ इस तरह से थे--
   पतरौल ---पारवे भिड़ा कोछू घस्यारी, रे तू मालू नि काटा मालू,  मालू कटियाँ को पाप लागुन्छो, मालू रे तू मालू नि काटा मालू.

  घसियारी---वार का डाना की में छुं घस्यारी, मालू रे तू मॉल काटन दे माल. वी पारा गोंकी में छुं मुं रे बाना, मालू रे तू मॉल काटन दे मालू.                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 इस तरह से अलग अलग तर्कों व बहस के साथ लम्बे गीतमय संवादों का आदान प्रदान होता है. यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया था कि रामलीला के मंच में या अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इसे अवश्य ही प्रस्तुत किया जाता था. एक पुरुष पात्र पतरौल के रूप में गाता था तथा दूसरा पुरुष घस्यारी युवती के रूप में. गीत में पिरोई गई कहानी कुछ इस प्रकार थी ---पतरौल जंगल की देखभाल के लिए एक पानी के तेज बहाव वाले गधेरे के पार एक डांडे में था, जबकि घस्यारी गधेरे के दूसरी ओर के डांडे में. पतरौल जब उस युवती कोमालू की चारे के लिए मालू के बेल की पत्तियां काटते (तोड़ते )हुए देखता है तो वह उसे उक्त गीत सुनाते हुए मालू नहीं काटने की हिदायत देता है. युवती भी नाना तर्कों से मालू काटने की जिद करती है. वह दोनों काफी दूरी में होने के कारण एक दुसरे को बिलकुल नहीं पहचान पाते. गीत-संवाद के लम्बे दौर के चलते चलते वह धीरे धीरे एक दूसरे के पास ही पहुँच जाते हैं और तब पता चलता है कि वह दोनों ही आपस में सगे जीजा व साली हैं. तब वह उसे मालू काटने देता है-----                                                                                                   

पतरौल ------पारा वे भिड़ा जो छै हो भागी, मालू रे तू मालू काटी ले मालू.                 
     
घस्यारी------ तू मेरो भीना, में तेरी साईं, मालू रे में मालू काटूंलो मालू.                                                                        ***                                                                                                                                                       उन दिनों गंगोलीहाट के समीप के गावं लाली में प्रताप सिंह कार्की नाम के एक विद्वान अध्यापक थे, जो गंगोलीहाट व चहज की रामलीला में रावण के पात्र का बहुत ही जीवंत अभिनय करते थे. इस मालू गीत में भी वह पतरौल का अभिनय बड़ी ही जीवन्तता से करते थे और उनकी आवाज बहुत मधुर तो थी ही, साथ ही उनका कंठ भी बहुत अधिक सधा हुआ था, क्योंकि वह वर्षों से रामलीला में गायन शैली में अपने संवाद बोलते रहे थे. इस गीत में कई संवाद ऐसे भी थे, जिस में हास्य का पुट भी डाला गया था और इसी कारण से सभी दर्शक हंसी से लोट-पोत हो जाते थे. उनके साथ घस्यारी युवती के रूप में होते थे घुरवा उर्फ़ घुरदा नाम के एक बहुत ही अच्छे कलाकार. उनका नाम तो कुछ और था, पर वह घुरदा के नाम से ही मशहूर हो गए थे, उनके बड़े भाई जोगा सिंह रावल भी एक विद्वान अध्यापक थे. घुरदा की गंगोलीहाट की खडी बाज़ार में स्टेशनरी की एक बहुत बड़ी दुकान थी. श्री प्रताप सिंह जी मेरे ही गावं नाली में अध्यापक थे, और तीसरी से पांचवी कक्षा तक मेरे अध्यापक भी रहे थे तथा तबके पूरे अल्मोड़ा जिले में उनका बड़ा नाम था. वह बहुत ही लगन से पढ़ाते थे. इसका लाभ मुझे भी जीवन भर मिला. मित्रो, मैं आज इस आलेख के माध्यम से स्व. प्रताप सिंह जी व घुरदा को श्रद्धांजलि भी अर्पित करता हूँ.
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विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]बाग्स्यर, बागीशर, व्याघ्रेश्वर तथा उतरैणी पर्व

by Uday Tamta

मित्रो, उत्तरायणी के अवसर पर पूरे उत्तराखंड में, विशेष रूप से शिव तीर्थों पर भव्य मेले अज्ञात इतिहास काल से ही लगते आये हैं, तथा जिन स्थानों में भव्य मेलों का आयोजन लम्बे समय से होता रहा है, उनमें बागेश्वर का स्थान सर्वोपरि है। बागेश्वर गोमती तथा सरयू नदी के संगम पर स्थित है तथा इसी नाम से बनने वाले जनपद से पूर्व यह जनपद अल्मोड़ा की एक तहसील थी। प्राचीन अभिलेखों व शिलालेखों में इसे व्याघ्रेश्वर कहा गया है। कत्यूरी राजा असंतिदेव की प्रशस्ति, जो लगभग आठवीं सदी की होगी, में इसे व्याघ्रेश्वर, अर्थात् बाघ देवता का स्थान, ही कहा गया है। व्याघ्रेश्वर नाम पड़ने के सम्वन्ध में कई किंवदंतियाँ लोक जीवन व पौराणिक अभिलेखों में मिलती हैं, परन्तु इनमें से प्रत्येक के साथ कुछ मिथक भी जुड़े  हुए हैं, जिन पर अधिकांश आस्थावान लोग विश्वास करेंगे ही, पर थोड़े बहुत वैज्ञानिक सोच व आधुनिक विचारों वाले लोग भी हैं ही, जो इन चमत्कारिक मिथकों पर कम ही विश्वास कर पायेंगे। इसीलिए उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए भी कुछ परिस्थितिजन्य सामग्री मिल ही जाएगी। इसके लिए तथ्यों के मूल में जाना होगा। इसमें जाने से पहिले इस नाम से संवंधित मूल प्रचलित शब्दों--बाग (बाघ) व स्यर पर जाना होगा। कुमाऊँ में 'बाग' शब्द बाघ या व्याघ्र के लिए प्रयुक्त होता ही है। जहाँ तक 'स्यर' शब्द का प्रश्न है, यह निर्विवाद रूप से नदियों के द्वारा छोड़ी गई समतल भूमि को कहा जाता है। जब बागेश्वर सघन वन क्षेत्र रहा होगा तो, घुरड़, कांकड़ तथा वन्य जीवों का इस स्थान पर पानी पीने के लिए आना स्वाभाविक ही था। और, जहाँ शिकार आता है, वहां शिकारी अर्थात् बाघ का आना आवश्यक सा ही है। इसलिए इस स्थान को बाग्स्यर नाम से जाना जाने लगा होगा, जो कालांतर में बागीसर, बागीश्वरबागेश्वर में परिवर्तित हो गया होगा। इसी लिए शुद्ध भाषा में इसे व्याघ्रेश्वर नाम मिल ही गया। पर आज भी सामान्य जन आम बोलचाल में इसे शुद्ध कुमाँऊनी बोली में 'बाग्स्यर' ही कहते हैं।
मित्रो, बागेश्वर का सांस्कृतिक, अध्यात्मिक व पौराणिक महत्व होने के साथ साथ ऐतिहासिक महत्व भी बहुत अधिक है। कुमाऊँ में बिना किसी मजदूरी या मेहनताना के भुगतान के पर्वतीय दुर्गम स्थानों में बोझ ढोने के लिए ग्रामीणों को बाध्य किया जाता रहा है। यद्यपि इस प्रकार से उनका शोषण कत्यूरी व चंद शासन के युग में बहुत अधिक हुआ, परन्तु गोरखा शासन के पच्चीस वर्षों में यह उत्पीडन की हद से भी आगे तक होने लगा था। उनके समय में उत्पीडन की घटनाएं इस सीमा तक बढ़ गई थीं कि उन्होंने इस बेगार प्रथा से उन कुछ सम्मानित परिवारों को भी नहीं बख्शा, जिन्हें कत्यूरी व चंद शासन के समय सदाशयताबश इससे छूट मिलती रही थी। जब कभी किसी ने अपनी बेहतर सामाजिक स्थिति का हवाला देते हुए इससे मुक्ति की प्रार्थना की तो, गोरखा अधिकारीयों का कहना होता था --''तुम्हारे पैर पूजे जाते हैं, सिर नहीं। बोझ सर पर उठाना है, पैर पर थोड़े ही ।'' अपने इन कुतर्कों से उन्होंने किसी की भी इज्जत नहीं रखी। पराधीनता के उस घोर अँधेरे युग में व्यक्तिगत स्वतंत्रता व सम्मान का कोई मूल्य ही नहीं रह गया था। बेवश होकर इस भयानक कष्ट व अपमान को चुपचाप सह लेने के अलावा किसी के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था--'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।' अंग्रेजों के आने के बाद भी यह कुप्रथा जारी रही। तब तक इन मुफ्त भारवाहकों को अत्यंत अपमानजनक नाम कुली से ही पुकारा जाने लगा था। कुली प्रथा उठ जाने के बाद भी यह शब्द अभी तक नहीं उठ सका है।अब तक भी यह मजदूरों के लिए भी सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त होता ही है। बीसवीं सदी में आजादी के अन्दोलन ने गति पकड़ी। अतः इस कुली प्रथा के विरुद्ध भी समवेत स्वर उठने लगा। बागेश्वर में इसके लिए भीषण आन्दोलन की शुरुआत इसी उत्तरायणी मेले से हुई। इसी मेले को इस कुप्रथा के कुमाऊँ से हमेशा से उठ जाने का ऐतिहासिक श्रेय जाता है।
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विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]उत्तराखण्ड की रिंगाल संस्कृति

by Uday Tamta on 17 January 2013 at 05:45 AM ·

मित्रो, कुछ ही दिन पूर्व मैंने अपने एक छोटे से आलेख में भांग संस्कृति के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी की आपके साथ सहभागिता की थी। आज में आपकी सेवा में रिंगाल, जिसे कहीं-कहीं पर निंगाल भी कहा जाता है, के बारे में थोड़ी सी जानकारी सामने लाने का प्रयास करूँगा। रिंगाल उच्च हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली बांस प्रजाति की ही एक वनस्पति है। हाँ, अब इसका रोपण भी किया जाने लगा है। इसको वनस्पति जगत में अनुडिनारिया (Anudinaria) अथवा सिम्नोबम्बुसा (Simnobambusa) के नाम से जाना जाता है। इसका उत्तराखंड में अज्ञात काल से ही बहुत अधिक महत्व रहा है। इससे छापरी, टोकरी, डोका, मोस्टा, अनाज के भण्डारण के लिए कूना तथा दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाई जाती हैं। इसका पौधा बांस से कम ऊंचाई वाला और उसकी अपेक्षा मुलायम होता है। यह पौधा अधिक से अधिक 12-13 फीट ऊंचा होता है और तने की मोटाई भी तीन-साड़े तीन इंच से अधिक नहीं होती। यूँ तो यह चार हज़ार फीट की ऊंचाई में भी उगता है, परन्तु इसकी बढ़वार पांच हज़ार फीट की ऊंचाई में सर्वाधिक होती है। उत्तराखंड में, विशेष रूप से कुमाऊं में, रिंगाल का उपयोग संभवतः ताम्र युग से भी पहिले से ही हो रहा है। इसका उपयोग यहाँ पर बसने वाले वर्तमान निवासियों के आने के पहिले से ही रहा होगा, क्योंकि तब तक विभिन्न पात्रों के रूप में मालू की पत्तियां, लकड़ी के बर्तन के साथ-साथ रिंगाल से बनी सामग्री का उपयोग होता रहा होगा। इसी कारण से पहिले कत्यूरी शासकों ने, तथा कालांतर में गंगोली के मनकोटी राजाओं ने गंगोलीहाट के समीप ही कुठेरा गांव में रिंगाल शिल्पियों को न केवल बसाया था, बल्कि उनको ताम्र शिल्पियों की तरह् ही पूरा सम्मान व सहयोग दिया था। ताम्र शिल्पियों व रिंगाल शिल्पियों को पूरा गांव देकर बसाने का काम एक विशेष नीति के तहत ही किया गया था, क्योंकि इनकी संख्या बहुत कम थी और मांग बहुत ज्यादा। इस कारण से इन्हें रोके रखना कुछ मुश्किल सा काम था, क्योंकि एकाधिकार की प्रवृत्ति के कारण इन्होने कुछ फक्कडपन व गुस्सैल स्वभाव का अर्जन भी कर लिया था। भूसंपत्ति का स्वामित्व देकर इनमें संपत्ति के 'पौजेशन' का भाव जागृत करना आवाश्यक था। इसीलिए उन्हें पूरे गांव का ही मालिकाना हक़ दिया गया था। मित्रो, विभिन्न पात्रों के अलावा रिंगाल का उपयोग अभी हाल तक लेखनी के रूप में भी बहुत अधिक होता था। अच्छी हस्तलिपि के लिये रिंगाल की कलम साठ के दसक तक हर प्राथमिक विद्यालय में अनिवार्य थी। पचास के दसक तक तो फाउनटेन पेन का उपयोग इन विद्यालयों में बिल्कुल ही वर्जित था। ज्योतिषि लोग भी लम्बी जन्म कुण्डलियाँ लिखने के लिए होल्डर पेन के साथ-साथ रिंगाल की बनी कलम का उपयोग बहुतायत से करते थे। मेरे प्राथमिक विद्यालाय में प्रताप सिंह नाम के एक बहुत ही विद्वान अध्यापक थे, जिनका हस्तलेख बहुत सुन्दर था और वह अपने विद्यार्थियों के लिये रिंगाल की छडें गंगोलीहाट से निःशुल्क स्वयं लाते थे। मेरे गांव के बहुत से लोग फ़ौज में थे। उनकी पत्नियाँ खत मुझसे ही लिखवातीं थीं, क्योंकि में तब बहुत छोटी उम्र का था, जिस कारण वह सभी खुलकर अपने मन की बातें पहाड़ी भाषा में बता देतीं थीं, और मैं उनको हिन्दी में लिख लेता था। इसी लिये एक फौजी जवान ने मुझे 'विल्सन' का एक फाउनटेन पेन लाकर दिया था, परन्तु मैं उसे कभी स्कूल नहीं ले गया, क्योंकि वहां यह 'अलाऊ' ही नहीं था। वहां तो सिर्फ़ रिंगाल की कलम से ही लिखना अनिवार्य था।
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विनोद सिंह गढ़िया

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हिना लग्ना हिना सग्ना ....
« Reply #17 on: January 30, 2013, 04:11:20 PM »
[justify]हिना लग्ना हिना सग्ना ....

by
Uday Tamta

मित्रो, आज तो हमारे पास भाषा के संचरण के लिए अनेकानेक साधन उपलव्ध हैं, परन्तु पूर्वकाल में भाषा ने एक देश से दूसरे देश तक के सफ़र में सैकड़ों ही नहीं, बल्कि हजारों साल लगाये। मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' कब चलकर न केवल देश के अंदर माता, महतारी इत्यादि में परिवर्तित होगया, बल्कि विदेशों में भी जाकर मदर, मैटर, मादर बन गया, पता ही नहीं चल पाया। उत्तराखंड में ही आज कितने ही ऐसे शब्द हैं, जो गुजराती, मराठी, बंगला व मराठी मूल के हैं, वह भी आज से नहीं, सदियों पहिले से ही। आज मैं आपको उत्तराखंड के सुदूर ग्रामीण अंचलों में प्रचलित कुछ ऐसे शब्दों से रू-ब-रू करवाऊंगा, जिसका अर्थ जाने बिना ही लोग सदियों से इनका प्रयोग कर रहे हैं। मैं बचपन से ही शुभ अवसरों पर महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले एक बहुत मधुर सगुन गीत सुनता रहा था, जिसके प्रारंभिक बोल थे --''हिना लग्ना हिना सग्ना, भौतै दिन हैग्या। ''जिज्ञासा वश मैंने इसे गाने वाली महिलाओं व बुजुर्ग पुरुषों से इसमें आये 'हिना' शब्द का अर्थ जानने का प्रयास किया, पर कोई नहीं बता पाया। एक अस्सी साल के बुजुर्ग का कहना था कि वह भी इस गीत को अपने बचपन से ही सुनते आए हैं, तब भी कोई इसका अर्थ नहीं जानता था। बाद में जब मैंने कालेज में दाखिला लिया तो मुझे कुछ उर्दू व फारसी के शब्द सुनने को मिले। तब मुझे पता चला कि हिना मेंहदी को कहते हैं तथा शुभ अवसर को भी हिना कहा जाता है। अल्मोड़ा, नैनीताल जैसे शहरों और इनके समीपवर्ती गांवों की बात तो नहीं करता, पर सुदूर व पिछड़े पर्वतीय अंचल में लोग तब तक मेंहदी को नहीं जानते थे और न ही वहां पर इसका उपयोग होता था। हिना का अर्थ ज्ञात होजाने के बाद मैं अपनी समझ के अनुसार इस मंगल गीत की उक्त पंक्ति का जो निकटतम अर्थ निकाल पाया, वह यह था-- -मेंहदी के रंग व शुभ सगुन के साथ यह लगन बहुत दिनों बाद आया है, या इसको आए बहुत दिन होगये है। यह आश्चर्य का विषय था कि जहाँ पर लोग मेंहदी शब्द का ही अर्थ नहीं जानते थे, वहां यह 'हिना' शब्द कैसे पहुंच गया होगा ?
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Rajen

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अत्यन्त ज्ञान बर्धक.  धन्यबाद बिनोद गढ़िया जी और उदय टम्टा जी का.  कृपया ज्ञानगंगा का प्रवाह जारी रहे. ( +१)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Beautiful articles by Tamta Ji.

 

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