घनश्याम व बैरागी बैरिये
by Shri Uday Tamta Ji
[justify]मित्रो, वास्तव में शिक्षित केवल वही नहीं होता, जिसे अक्षर ज्ञान प्राप्त होता है, बल्कि वह भी होता है जिसके अन्दर जन्मजात बुद्धिकौशल होता है। मेरे विचार से बुद्धि का स्तर ऊंचा हो तो लोग ऐसे ऐसे काम भी कर डालते हैं, जो कभी कभी बहुत अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी नहीं कर सकता। जन्मजात बुद्धि के साथ ही प्रकृति से किसी को विलक्षण शक्ति का उच्च स्तर व आशु कविता करने का गुण भी मिला हो तो फिर क्या कहने ! आज मैं ऐसे ही दो महान बैरियों, जिन्हें भगनौले गायक भी कहते हैं, से आपका परिचय कराऊँगा। यह दोनों आज हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु लोगों की स्मृतियों में यह आज भी जीवित ही नहीं, बल्कि जीवंत भी हैं। पहिले घनश्याम बैरिये के बारे में कुछ जानकारी। यह पचास के दशक के गंगोली क्षेत्र के सबसे बड़े बैरिया थे। इनके गांव का नाम जाखनी था, जो गंगोली की बेल पट्टी के भामा गांव के पास है। बिलकुल ही निरक्षर, पर बला की स्मरण शक्ति के मालिक, प्रवीण आशु कवि, हाज़िर जवाब व बुद्धिचातुर्य में बहुत ही आगे। भगनौले गाना तथा इससे लोगों का मनोरंजन करना इनका शौक भी था और इसी से सामान्यतः इनकी रोजी भी चलती थी। ये दो भगनौले कलाकरों के बीच चल रहे मुकाबले में आये किसी सवाल का इतनी अधिक तत्परता से बहुत ही सटीक उत्तर दे देते थे कि ऐसा लागता था कि जैसे कि उत्तर पहिले आगया और सवाल बाद में पूछा गया हो ! इनकी टीम में बेल पट्टी के ही नाली गांव के उमियाँ रस्यूनी उर्फ़ उम्मेद सिंह भी थे, जो भी इस कला में बड़े ही माहिर थे। घनश्याम बैरिये के समान ही स्तर के दूसरे जो महत्वपूर्ण बैरिया उस ज़माने में थे, उनका नाम था बैरागी राम। वह पूर्वी रामगंगा नदी के उस पार के रहने वाले थे। वह याददास्त, बुद्धिचातुर्य, आशु कविता व हाज़िर ज़बाबी में घनश्याम बैरिये से इक्कीस ही बैठते थे, उन्नीस नहीं । पूर्वी रामगंगा व सरयू के संगम पर वर्ष में चार मेले लगते हैं--बैसाख पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, उत्तरायणी व शिवरात्रि को। इनमें से शिवरात्रि का मेला केवल दिन में लगता है, बाकी के तीनों मेले एक दिन व एक रात चलते हैं। यह स्थान केवल दो नदियों का संगम व तीर्थ स्थल ही नहीं है बल्कि सोर, गंगोली, काली कुमाऊं व चौगरखा परगनों का भौगोलिक मिलन स्थल भी है। चारों परगनों की बोलियों व संस्कृतियों में भी काफी अंतर है। जहाँ गंगोली की बोली को रूखी खड़ी बोली कह सकते हैं, वहीँ सोर्याली बोली में बृजभाषा की तरह का रस माधुर्य व सम्बोधनों में भी शालीनता है। रात के मेले में साठ के दशक तक जब तक घनश्याम व बैरागी बैरिये जीवित रहे, यहाँ भगनौले पूरी रात चलते थे। सवाल जवाब, नोक झोंक, गंगोली व सोर परगनों से संबंधित किस्से, एक दूसरे के परगने की संस्कृति को कमतर बताने वाले किस्से व हसी ठट्ठे के प्रसंग पूरी रात चलते थे। यह दोनों कलाकार आशु कविता में इतने माहिर थे कि एकदम नए प्रसंग में भी पलक झपकते ही लम्बी कविता रच डालते थे। इन बैरों में कड़वाहट के लिए कोई स्थान ही नहीं होता था। धूनी के चारों ओर हजारो की संख्या में श्रोता रहते थे तथा हंसी के ठहाकों से नदी घाटी गुंजायमान हो उठती थी। सुबह होने पर दोनों बैरियों में से कोई भी हारता या जीतता नहीं था, बल्कि एक समन्वयवादी विचार के साथ और इन दोनों के सम्मिलित आशीर्वचनो के साथ ही इस रंगारंग समरोह का सामापन होता था। इन दोनों महान कलाकारों की मृत्यु के बाद फिर रामेश्वर के उत्तरायणी के मेले की रौनक कुछ उठ सी ही गई। [/justify]