Author Topic: Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख  (Read 19402 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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Prof.A.D.Pant, A Great Educationist And Humanatarian.
« Reply #30 on: June 04, 2013, 10:58:25 AM »
[justify]Prof.A.D.Pant, A Great Educationist And Humanatarian.

by Shri Uday Tamta Ji

The Kumaon Univesity has now, in all, three campuses at--Nainital, Almora and Pithoragarh. The Almora campus holds, in its motherly lap, the Almora Govt. P.G.College. That college is the seat of activity of the great educationist Prof. Amba Datt Pant. That place of education was a small school till the early fifties and due to the great stress and endeavor of its Head Master, Shri A.D. Pant, it has now grown to the present giant shape and size. His personality was so great that many people came forward to extend their helping hands towards that seat of education and due to their generosity it rose to--first to the degree level, later to post graduate level in the late fifties. Prior to that there were only a very few graduates in the Almora and Pithorarh districts. Only a few well off families could send their wards to have a graduation degree either to Bareilly, Lucknow or Allahabad. To get a graduation degree by the girls was was still more difficult. The boom of graduation was seen only after the upgradation of that institution at Almora. Now one can see almost all the houses full of graduates in these districts and that is only due to the great efforts of Prof. Pant. I remember that in the winters of 1963 Sucheta Kriplani, the then Chief Minister of U.P. visited that great and virtuous institution on the initiative of Prof. Pant. She was then in her advanced age with a bulky body and even in that condition travelled from Lucknow to Kathgodam by train and therefrom by a car to reach Almora. Not only that, there was not an approach road to the college premises at that time, hence she had to traverse about half a mile journey on foot through a very small and unclean village pathway.Those days it was not a regular haunt for political personalties of that calibre and cadre because of that cumbersome journey as no copter service was readily available then. On reaching there she was so much pleased over the progress of it under the headship of Shri Pant that due to her good offices it did not, thereafter, face any financial constraints. Thus that institution was fully nurtured right from its infancy by Prof. Pant to bring it to such great height.

       Every one at or around Almora, still knows well that he was the guiding star in the field of education, but many people still do not know that he was a great humanitarian as well. He loved his students as his own children. If some student of a poor background failed to deposit his tuition fee before the stipulated date prior to the examinations, he would make the default good out of his own pocket. This happened at numerous occasions. All his students, at that time, had great regards for him. I remember that on the occasion of the marriage of his daughter Vibha, all his students of graduate and post graduate classes gathered there on their own for the service of the barat and did not accept even a sip of tea in order to keep the expenses under control. At Almora, during that period, there was a great and dedicated team of professors, which included Prof. Hari Kumar Pant, (the real nephew of renowned poet Sumitranandan Pant) Dr. M.B.Sah, Prof. Yogesh Joshi, who were all the time with him in his efforts to make that institution a premere seat of education. It is a heartening news for his students that Prof. Hari Kumar Pant is still hale and hearty and has settled down at Haldwani in my own neighbourhood.

     I recollect that in the winters of 1963 I fell ill due to some abdominal problem. I was in the hostel adjacent to the college at that time. As soon as as Prof. A.D.Pant, the then Principal, knew it, he came to the hostel at once with Dr. M.B.Sah, soon arranged for a stretcher and got me admitted in the Govt. Hospital. Though there were so many of my fellow hostellers to join hands for taking me to the hospital, yet it was his greatness and goodwill gesture that he also extended his hand in lifting the stretcher up. He visited the hospital almost daily to know about my condition. He had a tremendous memory power also, as a result thereof, he knew the names of at least half the number of students then studying there. Of late, there came up the question of naming that institution after a dignitary. I think that the then rulers could well have saved that institution from a blasphemy by naming it after him, but anyway, this could not happen. I have not visited that place for many years now and therefore do not exactly know whether they have put up there at least a small board in his memory or not.
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विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]मुरली व बांसुरी

by Shri Uday Tamta Ji on 5 June 2013 at 07:20 AM

मित्रो, आप और हम नित्य ही बंसी के बजैय्या कृष्ण कन्हैय्या या मुरलीधर कृष्ण की स्तुति से संवंधित भजनों का आनंद लेते रहते हैं, पर यह अभी तक ठीक से ज्ञात नहीं हो पाया है कि कृष्ण बंशीधर थे या मुरलीधर, क्योंकि मुरली व बांसुरी दो अलग अलग वाद्य यंत्र हैं। कृष्ण की प्राचीन मूर्तियों में उन्हें बंसी बजाते हुए ही दिखाया गया है, मुरली बजाते हुए नहीं। इसका कारण संभवतः यही है कि तब मुरली व बांसुरी को एक ही वस्तु माना जाता रहा होगा। सामान्यतः बांसुरी बांस, निगाल अथवा दूसरे प्रकार के खोखली नली से बने एक-नाली यंत्र को कहते हैं, जबकि मुरली में दुनाली बंदूक की तरह दो नालें होती हैं। यह दोनों ही तरह के वाद्य केवल भारत में ही प्रचलन में नहीं हैं, बल्कि विभिन्न रूपों में विश्व भर में प्रयुक्त किये जाते हैं। यह कहना तो बहुत कठिन है कि यह वाद्य यंत्र भारत में कब से प्रचलन में है, पर सबसे पुरानी बांसुरी स्लोवेनियाँ में 43000 वर्ष पूर्व की पाई गयी है। उत्तराखंड में अब तो बांसुरी वादन केवल बड़े संगीत समारोहों में ही होता है, परन्तु यहाँ बांसुरी व मुरली का निर्माण व वादन 1950 तक हर गांव में था। प्रायः बांसुरी युवा लोग बजाते थे और मुरली बुजुर्ग लोग। जहाँ बांसुरी की ध्वनि तेज और दूर तक सुनाई पड़ती थी, वहीँ मुरली की ध्वनि बहुत धीमी व सुमधुर होती थी। अधिकांशतः ग्वाले इसे जंगल में बजाते थे। मैंने भी बचपन में थोड़ी  बहुत बांसुरी बजाई थी, परन्तु शास्त्रीय धुन में नहीं। मैं इस फन में नौसिखिया ही रहा। हाँ, बिना साँस रोके ही बांसुरी में निरंतर हवा का प्रवाह बनाये रखने की कला मैंने अभ्यास के बाद सीख ली थी। मैं अल्मोड़ा में दो साल तक स्वo उदय शंकर के द्वारा स्थापित व स्वo ब्रिजेन्द्र साह द्वारा संरक्षित लोक कलाकार संघ का भी सदस्य रहा, परन्तु वहां पर भी बांसुरी वादन सीखने की व्यवस्था नहीं थी। संयोग से मेरे सहपाठी स्वo श्री एन के आर्य (नैनीताल की वर्तमान विधायक श्रीमती सरिता आर्य के पति व नैनीताल के तब के एडिशनल कमिश्नर) बहुत ऊंचे दर्जे के बांसुरी वादक थे। वह अक्सर होस्टल के मेरे कमरे में पधारते और अपनी सुमधुर धुनें सुनाते थे। उनकी बांसुरी वादन की नियमित ट्रेनिंग हुई थी। वह इस कला में आज के प्रसिद्द बांसुरी वादक प्रसन्ना से कम नहीं थे।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]जागर ने हमें फिर घर बुला लिया !

by Uday Tamta

मित्रो, जागर को भले ही हम में से बहुत से लोग एक अन्धविश्वास व अनावश्यक मिथक मानते हों, पर यह लोक जीवन की एक जिन्दा धड़कन तो है ही। जागर का सामान्य शाब्दिक अर्थ तो है जागृत होना व जागृत करना, पर यह छोटा शब्द इस छोटे व सीमित अर्थ में बंध कर नहीं रह गया है। इसका सटीक व तथ्यों से समर्थित कोई इतिहास तो नहीं मिलता, पर यह जनविश्वास के रूप में कई सदियों से पूरे उत्तराखंड में विद्यमान रहा है। मेरा तो विचार है कि यह प्रकारांतर से विभिन्न नामों व स्वरूपों के साथ महाभारत कालीन युग से ही यहाँ पर विद्यमान है। यह बात सभी को भली भांति ज्ञात ही है कि उत्तराखंड में वैदिक मंत्रो व ऋचाओं का प्रचार व प्रसार पवित्र बद्रीक्षेत्र व केदार क्षेत्र को छोड़ कर अन्य स्थानों पर बहुत बाद में हुआ। इन स्थानों में भी यह ऋषियों व महान तपस्वियों तक ही सीमित रहा। आम जन तक वैदिक प्रकाश की किरणें बहुत बाद में ही पहुँचीं। पर लोक जीवन तो तब भी मिथकीय आस्थाओं व विश्वासों से देदीप्यमान था ही। आस्था के इस मंच पर निश्चित तौर पर वैदिक व पौराणिक देवताओं के स्थान पर स्थानीय देवताओं या वीर तथा चमत्कारिक पुरुषों व नारियों की उपासना का ही चलन था। हाँ, यह तथ्य भी ध्यान में रखने योग्य है कि इसमें इस जनविश्वास ने अपने लिए महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित कर लिया कि कुछ चमत्कारिक प्रवृत्ति के लोग अथवा ऐसे पूर्वज, जिनकी आत्मा पूर्ण रूप से तृप्त नहीं हो पाई, वह पुनः देवता या भूत के रूप में अपनी अदृश्य उपस्थिति दर्ज कर देते हैं। यह विश्वास प्रबल होगया कि यह अवतार भयंकर दंड भी देसकता है, और सही ढंग से उपासना के द्वारा इन्हें प्रसन्न कर दिया जाय तो यह अकूत वरदान या फल भी देसकते हैं। यही वर्तमान जागर प्रथा का उद्गम है। और समय के अंतराल में हर वस्तु व व्यवहार का स्वरुप भी बदलता है, जागर का स्वरुप भी काफी कुछ बदल चुका है। प्रारंभ में इसमें सर्व प्रथम केवल भूमियां देवता की पूजा का ही विधान था, अब धीरे धीरे इसका प्रारंभ गणेश पूजा के रूप में भी होने लगा है और भूमियां की अर्चना उसके बाद ही होती है। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य और भी है। यह तथ्य तो जनविश्वास में पहिले ही सम्मिलित हो चुका था कि मृत आत्मा का पुनरागमन होता है, पर कई आदिवासी क्षेत्रों का यह विश्वास भी यहाँ पहुँच गया कि वह मृतात्मा किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके साक्षात कांपती है, नाचती, बोलती भी है। धीरे धीरे इसके आह्वान का तरीका भी विकसित हो गया। उसे किसी तरह आने के लिए प्रेरित अथवा उत्तेजित किया जाय। यदि वह अपने जीवन में वीर पुरुष रहा हो तो उसकी वीरगाथा के वर्णन से, यदि सद्पुरुष या नारी रही हो उसके मानवीय गुणों के बखान से। इसमें जो बदन कंपाने व नाचने की प्रथा का समावेश हुआ है, उसकी स्पष्ट व्याख्या अब तक नहीं हो पाई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि यह व्यापक जनविश्वास से जुड़ा मामला है, इसलिए कोई इसमें वैज्ञानिक विचारों के आधार पर छेड़छाड़ करने की सामान्यतः हिम्मत नहीं जुटा पाता। फिर भी बहुत से लोग दबी जुबान से यह कहते हुए भी सुने गए हैं कि यह एक तरह का फोबिया ही है, जो आवेश के कारण उत्पन्न होता है। वहीँ कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इसमें नाचने व अतरने वाले बहुत से लोग केवल उत्तेजना या लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए केवल अभिनय के तौर पर ही ऐसा करते हैं। पिछली सदी के साठ के दशक तक इसे अत्यंत पवित्र आयोजन के रूप में ही देखा जाता था, पर समय के लम्बे अंतराल में इसे एक शो के रूप में भी मनाया जाने लगा है। एक महत्वपूर्ण बात और। जो लोग दशकों पूर्व अपने आशियाने को वीरान करके चले गए थे, वह भी श्रद्धा, मंगल की कामना कहें या भय के कारण ही सही इस वीरान हो चुके आशियाने में कुछ अन्तराल के बाद अपनी मौजूदगी जरुर दर्ज कर लेते हैं। हाँ, सुदूर अंचलों में यह आयोजन अब भी पूर्ण श्रद्धा व सादगी के साथ ही संपन्न हो रहा है।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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अठारहवीं सदी में कुमायूं की राजभाषा

by Shri Uday Tamta Ji on 3 July 2013 at 11:09 AM

[justify]मित्रो, प्रारंभ में कुमायूं की राजभाषा नेपाली मिश्रित पहाड़ी बोली ही हुआ करती थी, जिसमें फारसी-उर्दू के शब्दों की भरमार थी, परन्तु अठारहवीं सदी के आते आते यह और भी खिचड़ी बन गई। जैसा कि सभी को मालूम है कि कुमायूं में कभी भी कोई कोई शासक निरंकुश रूप से शासन नहीं कर पाया क्योंकि इस पर बैठा शासक केवल नामधारी ही होता था--गोबर गणेश या मिट्टी के माधव की तरह। कभी इस राज्य पर बाहरी शासन दुर्योधन का था तो कभी पश्चातवर्ती किसी अन्य शासक का। आतंरिक शासन भी दो कार्यकारी शक्तियों के बीच बटा रहता था--एक तो महर-फर्त्याल धडों के बीच, दूसरे दरबारी कारिंदों, यथा दीवान व अन्य। इनकी ही मनमानी चलती थी और जनता सदियों तक इनकी ही चक्कियों के पाटों के बीच पिसती रही। यही नहीं, कारिंदों व दीवानों के आपसी अंतर्द्वंद व वर्चस्व की खींचतान में भी जनता का बहुत ही अहित हुआ। भाषा, कला, साहित्य व मानवीय विकास के मामले में भी यह क्षेत्र पिछड़ा ही रह गया, और इसके विपरीत अन्धविश्वास की बेड़ियों में बुरी तरह से जकड गया। १७४८ में राजा कल्याण चंद के अवसान के बाद उनके बहुत छोटी उम्र के पुत्र राजा दीपचंद (१७४८-७७ ) को गद्दी का केवल सांकेतिक उत्तराधिकार मिला, जबकि सत्ता की वास्तविक डोर शिव देव व उनके पुत्रों, व निकट सम्वंधियों के हाथ में ही रही। इसी कारण से राजा दीपचंद के हाथों राजकोष से अथाह धन व अनगिनत जागीरों का वितरण हुआ। इनमें से केदारनाथ मंदिर, बद्री नाथ मंदिर, गंगोली के महाकाली मंदिर सहित कुछ व्यक्तियों को दी गई ३६ ही जागीरों के विवरण ही अब तक मिल पाए हैं। राजा दीपचंद की सम्वत् १६७७ सुदी ६ की एक सनद--ताम्र पत्र का केवल कुछ ही अंश को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, अवलोकन कीजिये-

...महाराजाधिराज श्रीराजा दीपचंद ज्यू तमापत्र करी बेर शिवदेव ...माल परबत जागीर वगसी, बारामंडल स्यूनरा का गरखा में विशि २ ० गंगोला कोतुली थात करी वगसी, मुडिया का परगना में मौजे देहरी ढुली वगसी, इन गांउन लगतो गाड़-घट, लेख, इजर,  धुरा, डांडा सुद्धा पायो। ........।
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खीमसिंह रावत

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Bahut Achchhi Jankari Hai


विनोद सिंह गढ़िया

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राहत क्यों हार जाती है आपदा से ?

आलेख : श्री उदय टम्टा जी [justify]मित्रो, शायद आपकी स्मृति में कुछ वर्ष पूर्व गुजरात में आये भीषण भूकंप की त्रासदी होगी ही। यह हर हालत में उत्तराखंड की हालिया त्रासदी से बहुत बड़ी थी, परन्तु वहां पर इसे बड़ी आसानी से परास्त कर दिया गया था। इसमें केवल सरकार व इसकी एजेंसियों का ही योगदान नहीं था, बल्कि वहां की आम जनता व पीड़ितों का भी भारी योगदान था। आज कहीं पर भी यह नहीं लगता कि वहां पर भूकंप जैसी कोई आपदा आई थी। पर उत्तराखंड में इससे भी कम भीषण आपदा में ही हम प्रथम सोपान में ही हारते हुए दीखते हैं। इसका प्रमुख कारण तो निर्विवाद रूप में भूभौतिक दुरूहता ही है, क्योकि एक तो यहां पर संचार व यातायात की सुविधाएं लगभग नगण्य ही हैं, क्योंकि पिछले लगभग छः दसकों से हम इनके साथ मजाक ही करते आये हैं। इनका संजाल आवश्यकता के अनुसार न होकर नेताओं व नौकरशाहों की सुविधा के अनुसार ही हुआ। विभिन्न श्रोतो से जो भी धन आया वह कमीशन व ठेकेदारी मुनाफे की भेंट चढ़ गया। जिनके घर खाने की रोटी भी नहीं थी, वह आज शक्ति व सम्पन्नता के प्रतीक बन गए हैं। जो सड़कें व संचार माध्यम विकसित किये गए, वह रेत के टीले से अधिक मजबूत थे ही नहीं और जरा सी बूंदाबांदी में ही धराशायी हो गये। पिछले ६५ वर्षों में हमारे अग्रणी जन दिल्ली में ही मौज मस्ती में व्यस्त रहे, और पहाड़ बद से बदत्तर होते चले गए। फिर, हमने आपदाओं से लड़ने के लिए कभी कोई तैयारी ही नहीं की। हमारे यहाँ पटवारी जैसा कर्मचारी ही ग्राउंड जीरो में इससे लड़ने के लिए तैनात रहता है। उसकी न तो कोई ट्रेनिंग है और न ही अकेले इतनी भीषण त्रासदी से लड़ने की शक्ति ही। उसके ऊपर के सारे नौकरशाह तो हर हाल में 'साहब' ही होते हैं, वह भी सभी बाहरी प्रदेशों के मूल निवासी, जिनमें यहाँ के मूल निवासियों के साथ सद्भावना कतई भी नहीं होती। वह जो भी करते हैं, केवल फर्ज निभायी के तौर पर ही करते रहे हैं। यही बजह रही है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जो भी धन आया उसका निकास द्वार किसी और प्रदेश की ओर ही खुल गया। अग्रणी लोगों के व्यवहार के बारे में अलग से बताने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। आम जनता में हम सभी लोग आते हैं। हम भी न्यूनाधिक इस स्थिति के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं ही। हमने अपने सामूहिक अधिकारों के लिए लड़ना ही नहीं सीखा। जो कुछ भी हमारे साथ हुआ, उसको हमने अपनी नियति ही स्वीकार कर ली--'अरे, ऐसे ही होने वाला ठहरा दाज्यू, हमें  क्या करना ठहरा'--वाला स्थाई भाव ! स्थिति यह बन गई कि हमें उतना भी नहीं मिला, जितने में हम दो वक्त की रोटी भी खा सकें, फिर इतनी बड़ी शक्तियों से हमारी लड़ाई बराबरी पर छूटने का सवाल ही नहीं उठता था। अबकी आपदा में केंद्र से इतनी बड़ी रहत आई है, अब हमारा ध्यान केवल इस बात पर है इसका किस तरह से सदुपयोग किया जाय, ठीक कुम्भ के लिए आई विशाल धनराशि की तरह या अन्य किसी और विधि से। जो वास्तविक पीड़ित हैं, वह तो केवल चकोर की तरह आकाश की तरह मुंह खोले बैठे हैं कि आकाश मार्ग से कोई आए और कुछ पैकेट गिरा जाय, वस । पर यहाँ पर भी उन्हें निराशा से ही दो चार होना पड़ रहा है क्योंकि इनसे केवल धवल वस्त्रधारी ही सैरसपाटे के लिए आ रहे हैं। भले ही आपदा पीड़ित लहू लुहान हों, पर 'उनके' लिए तो ग़ालिब की कही हुई यह बात ही सटीक बैठती है--''किसी विरामिन ने कहा है कि ये साल बहुत अच्छा है।''[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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आस्था--किसकी बड़ी और किसकी छोटी ?

आलेख : श्री उदय टम्टा जी

[justify]मित्रो, मनुष्य में आस्था, चाहे यह प्राकृतिक शक्तियों में रही हो या दिव्य शक्तियों में, संभवतः उसके आखेट जीवन से भी पहिले से ही रही है, भले ही उसका आवास विश्व के किसी भी भाग में रहा हो। विश्व के तीन प्रमुख धर्मों--यहूदी, इस्लाम व ख्रिस्ती का उद्गम तो मूल यहूदी धर्म से ही हुआ। चौथा प्रमुख धर्म--बौद्ध धर्म का उद्गम स्थान तो भारत ही है। हिन्दू धर्म को कुछ लोग केवल एक पंथ (cult) या संस्कृति (culture) ही मानते थे, जो अन्ततः तर्कों की कसौटी में सही नहीं उतरा, जिस कारण इस तरह के विचार रखने वाले भी अब इसको एक पूर्ण प्राचीन धर्म के रूप में मानते हैं। इसे संसार का प्राचीनतम धर्म तो माना ही जाता है। पर इन पांचों प्रमुख धर्मों के अलावा भी संसार भर में अनगिनत छोटे छोटे अन्य धार्मिक या आध्यात्मिक विश्वास पर आधारित समूह हैं, जिहें आमतौर पर मान्यता नहीं मिल पाती. इनमें स्थानीय देवताओं या भूतों की उपासना भी सम्मिलित है। मेरा तो यहाँ तक विश्वास है कि शायद यह परम्पराओं पर आधारित विश्वास विश्व भर के विभिन्न शास्त्रीय धर्म ग्रंथों पर आधारित धर्मों से भी अधिक प्राचीन हैं, जिन्हें हम सामान्यतः एक 'अन्धविश्वास' मानकर उपेक्षित कर देते हैं। ठीक इसी प्रकार की आस्था उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में भी अज्ञात काल से ही चली आ रही है--शास्त्रीय देवी देवताओं से भिन्न स्थानीय देवताओं व भूतों की उपासना की । मित्रो, इस सन्दर्भ में मुझे 1956 की एक छोटी सी, पर बहुत ही महत्वपूर्ण घटना याद आती है, जिसमें यह मुद्दा अनायास ही बहस का विषय बन गया था कि क्या केवल शास्त्रीय धर्म के सिद्धांत ही आस्था के सच्चे मानक हैं और सामान्य जनविश्वासों का कोई महत्व नहीं है ? तब वर्तमान गंगोलीहाट तहसील के एक गाँव चहज में पांचवीं कक्षा के वार्षिक परीक्षा का सेंटर बनाया गया था। अल्मोड़ा से दो दिन की कठिन पैदल यात्रा करके एसडीआइ साहब, जिन्हें तब 'इस्कूली सैप' के नाम से ही अधिक जाना जाता था, एक दिन पूर्व ही वहां पहुँच गए थे। उनका रात का 'डेरा' चहज के प्राइमरी स्कूल में रखा गया था। आस पास के ग्रामीण भी अपने पाल्यों को लेकर परीक्षा की पूर्व संध्या में ही वहां पहुँच गए थे। रात को इस्कूली सैप के सम्मान में उन दिनो अंग्रेजों द्वारा पूर्व में चलाये गये कैम्प फायर का आयोजन किया गया था। इसमें परीक्षार्थी बच्चे स्थानीय देवताओं के रूप में देर रात तक खूब अतरे ! आयोजन के अंत में इस्कूली सैप ने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा क़ि यह स्थानीय देवताओं की उपासना के क्रम में अतरना एक अन्धविश्वास है, इसे छोड़ देना चाहिए। सभी बच्चे दस से बारह साल की उम्र के थे और 'इतने बड़े सैप' के मुंह से निकले शब्दों को उनके बालमन ने ब्रह्म वाक्य के रूप में ही ले लिया। अगले दिन प्रातः 7 बजे से परीक्षा होनी थी। सभी बच्चों को क्रम से लाइनों में बिठाया गया था। प्रतीक्षा थी 'सैप' के बाहर निकलने की, क्योंकि 'सवाल' जिसे आजकल पेपर कहते हैं उन्ही के पास था। धीरे धीरे 8 भी बज गया ! सैप बहार नहीं निकले और सभी परीक्षार्थी भी प्रतीक्षा में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। तभी एक मास्टर साहब, जिन्हें उन दिनों आम बोलचाल में ' पंडितज्यू' कहा जाता था, ने बड़ी मासूमियत से बच्चों को बताया--''सैप अभी पूजा कर रहे हैं। बस थोड़ी देर में बाहर निकने वाले ही हैं।'' इसके तुरंत बाद ही सैप बाहर निकल भी आये. उन दिनों 'इमला', सुलेखगणित के ही सवाल होते थे। इमला में एक छोटा पैरा बोला जाता था, जिसे परीक्षार्थी लिखते थे। सुलेख के लिए दो लाइनें बोली जाती थी, उसे भी वह लिखते थे, और भागा तक के गणित के कुछ सवाल लिखाये जाते थे। एक घंटे में ही परीक्षा निपट गई। सभी अध्यापक कापियों को जांचने में लग गए। एसडीआइ साहब भी वहीँ पर कुर्सी डाल कर कुछ दूरी पर बैठ गए। इसी बीच एक फौजी, जो अपने पुत्र को परीक्षा दिलाने आया था, उनके पास आकार बड़ी ही विनम्रता से उनसे बोला--''सर, आपने रात को अपने भाषण में कहा था कि 'अतरना' एक अन्धविश्वास है, पर अभी आपने खुद एक घंटे बैठ कर पूजा की है, वह क्या है ? सैप ने उसे यह कहकर टरका दिया कि यह पूजा तो शास्त्रीय विधि विधान से मन्त्रों के आधार पर की जाती है। 'इसका' व 'उसका' क्या मुकाबला ? वह फौजी और तो कुछ् नहीं बोला, पर हल्की सी जबान में इतना भर कह गया--''यह मन्त्र किसने बनाये होंगे ?'' इतने वर्ष बीत गए, मेरे तुच्छ मन को आज भी इस छोटे से सवाल का कोई उत्तर नहीं मिल पाया है। इसका एक कारण तो यह है कि यह इतना अधिक गूढ़ विषय है जो केवल परम ज्ञानी ही समझ सकते हैं, जिन्हें अध्यात्म दर्शन, मीमांसा, कर्मयोग व बुधियोग का परम ज्ञान हो, महर्षि वेदव्यास की तरह, जिन्हें महाभारत सहित गीता का भी रचनाकार माना जाता है, या कम से कम कम अध्यात्मिक दर्शन शास्त्र का उतना ज्ञान तो अवश्य ही हो, जितना कि डा.राधाकृष्णन को था ! कुछ मामलों में तो गीता के सिद्धांत भी कई विंदुओ पर परस्पर विरोधी होने कहे जाते हैं। जैसे कि एक स्थान पर यह घोषित कर दिया गया--''कर्मन्येवधिकारस्तु, मा फलेषु कदाचन'', जिससे निष्काम कर्म के इतने भारी भरकम सिद्धांत का विकास हुआ, वहीँ इसी सांस में यह भी कह दिया गया -''हतो वा प्राप्श्यसि स्वर्गम, जित्वा तु भोग्ससे महीम।'' जहाँ तक ईश्वर के अस्तित्व का प्रश्न है, इसे संसार भर के अधिकांश लोग मानते ही हैं, हाँ, थोड़े से ऐसे भी लोग हैं, जो इसे विवादित मानते हैं। भले ही ईश्वर के अस्तित्व में कुछ विवाद हो, पर आम तौर पर 'आस्था' में तो सबका ही विश्वास है, चाहे यह 'विश्वास' के रूप में हो अथवा अतिविश्वास या अन्धविश्वास के रूप में हो ! मेरे पास तो न इसके अस्तित्व के समर्थन में और न ही इसके विरोध में कोई ठोस वैज्ञानिक तथ्य से समर्थित तर्कपूर्ण साक्ष्य उपलव्ध है।  हाँ, जहाँ  तक आस्था का प्रश्न है, यह किसी की न तो बड़ी होती है, न ही किसी की छोटी ! यह सिर्फ आस्था ही होती है।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया

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त्याग व दया की प्रतिमूर्ति-- एक अनाम उत्तराखंडी नारी

आलेख : श्री उदय टम्टा जी

[justify]मित्रो, आपने इतिहास के पन्नों में पन्ना धाय का नाम एकाधिक बार सुना होगा, जिसने राजभक्ति के भावों के अधीन होकर शासक के पुत्र के बदले में अपने ही पुत्र को क़ुरबानी के लिए प्रस्तुत कर दिया था। आज की विचारधारा के अनुसार तो हम यह कहेंगे कि उसने अपने स्वयं के पुत्र के जीवित रहने के अधिकार का हनन किया था। परन्तु ठीक उसी प्रकार का, पर इससे थोड़ी सी भिन्न प्रकृति का एक मामला कुमायूं के इतिहास में मिलता है, जब एक महान नारी ने एक अबोध बालक का अपने पुत्र के समान केवल पालन पोषण ही नहीं किया, बल्कि अपने दृढ संकल्प व पूर्ण निडरता से उसकी हिफाजत की और समय आने पर उसे राज्य का उत्ताराधिकार प्राप्त करने में भरपूर मदद भी की। राजा विजय चंद (१६२४-२५) एक कमजोर राजा थे और उनके समय में कुमायूं में बहुत अधिक मारकाट हुयी थी, जिस कारण कई चंद वंशीय लोग मारे गए और जो बच गए, वह इधर उधर भाग गए। कालांतर में राजा बने उनके पुत्र त्रिमल चंद (१६२५-३८) की कोई संतान नहीं थी। इस कारण से उनके उत्तराधिकारी का प्रश्न सामने आ खड़ा होगया। परन्तु उनके प्रमुख कारिंदे यह चाहते थे कि कोई चंद वंशीय ही न मिले ताकि राज्य को वह स्वयं हड़प लें। इसी बीच उन्हें कहीं से यह पता चल गया कि चंद वंशी नील गुसाईं का एक अवोध बालक 'बाज गुसाईं' एक गरीब पुरोहित 'धर्माकर तेवाड़ी' की पत्नी ने पाला हुआ है। अतः इन कारिंदों ने उसे उनके हवाले करने के लिए उस वीर नारी पर बहुत दवाब बनाया और सपरिवार जान से मारने तक की धमकी भी दी, पर वह उसे उनके हाथों सौपने के लिए कतई तैयार नहीं हुई। यद्यपि ये कारिंदे किसी की भी जान लेने में तनिक भी देर नहीं लगाते थे, परन्तु उस माता के दृढ निश्चयं के सामने उन्हें झुकना ही पड़ा। इसके बाद एक धर्म-पत्र लिखा गया कि वह लोग उस बालक को किसी भी हालत में मारेंगे नहीं। तब जाकर उस बालक को उनके सुपुर्द किया गया। उस समय लोग धर्म भीरु भी होते थे और धर्म-पत्रों का उल्लंघन नहीं करते थे। फलस्वरूप बाज गुसाईं नाम के इस बालक को युवराज घोषित किया गया और १६३८ में उन्होंने राजा त्रिमल चंद के उत्तराधिकारी के रूप में राजा बाजबहादुर चंद के नाम से कुमायूं की राजगद्दी संभाली। राजा बाजबहादुर चंद एक बहुत ही प्रतापी राजा हुए और उन्होंने १६४८ तक कुमायूं में राज्य किया तथा बाजपुर नाम के मशहूर नगर की स्थापना की।
मित्रो, यह विडम्बना ही कही जाएगी कि मातृत्व की मिसाल इस महान नारी का हम नाम तक नहीं जानते। पन्ना को तो हम एक धाय के नाम से जानते हैं, इसे हम 'हीरा माई' कहें तो अनुचित नहीं होगा।
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विनोद सिंह गढ़िया

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हरेला, कुमायूं का एक महापर्व

by : Shri Uday Tamta Ji

[justify]मित्रो, कुमायूं में हरेला पर्व कब और कैसे प्रारंभ हुआ, इस संवंध में न तो कोई अभिलेखीय दस्तावेज मिलता हैं, न ही कोई पौराणिक साक्ष्य। ऐसी स्थिति में अपनी सुविधानुसार लोगों ने स्वयं ही कई मिथक इसके साथ जोड़ दिए हैं। इसे कुछ लोग सावन की हरियाली से जोड़ते हैं, यह भी बहुत अधिक सटीक नहीं बैठता, क्योंकि यह केवल सावन में ही नहीं, बल्कि अन्य मौसमों मं भी मनाया जाता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हरेला की पौध स्वयं पीली होती है, क्योंकि इसकी पौध उगाने के लिय इसको प्रकाश से दूर रखा जाता है। यह एक तथ्य है कि कुछ परम्पराएं ऐसी हैं, जो चलती तो कहीं से हैं, परन्तु धीर धीरे यह सामान्य लोक जीवन में आजाती हैं। जैसा कि सभी जानते ही हैं कि कुमायूं में काफी लम्बे समय तक बौद्ध धर्म भी राजधर्म की तरह रहा, क्योंकि प्रारंभिक कत्यूरी राजा स्वयं बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, परन्तु यहाँ शैव धर्म भी कभी कमजोर नहीं हुआ। इसी कारण से यहाँ पर बौद्ध धर्मावलम्वी भी शैव उपासना पद्धति से प्रभावित रहे। यहाँ तक कि कुछ लोग दोनों धर्मों के अनुसार उपासना करते थे, ऐसो लोगों को 'अवलोकितेश्वर' के रूप में जाना जाता था। शैव धर्म में भी अति प्राचीन समय से ही शिव मूर्ति के पूजक तथा लिंग पूजक दो शाखाएं विद्यमान रहीं हैं। चूँकि प्रारंभ में तांत्रिक कार्यकलापों से संवंधित लोग 'लिंग' का उपयोग तंत्र साधना के लिए ही करते थे, कालांतर में लिंग पूजा ही शिव पूजा प्रधान आधार बन गया। ठीक इसी प्रकार से प्रारंभ में तांत्रिकों ने ही अँधेरे में शीघ्र अंकुरित होने वाले अनाजों--उड़द, गेहूं, जौ इत्यादि को उगाना प्रारंभ कर दिया। समय के लम्बे अन्तराल में यही प्रथा लोक जीवन में भी चली आई। लोक जीवन में आने के बाद भी लम्बे समय तक यह बहिनों द्वारा अपने भाइयों के दीर्घ जीवन व सफलता की कामना के लिए ही मनाया जाता था। समयांतर के कारण इसमें व्यापारिक महत्व के कार्य-- जैसे मेले-ठेले भी जुटने लगे। यहाँ तक कि इसके आयोजन के बहाने राजनैतिक लोग भी अपने व्यक्तिगत हित लाभ के लिए इसमें बढ़ चढ़ कर भाग लेने लगे। इसका यही रूप वर्तमान में भी पूर्ण विकसित अवस्था में चल रहा है। इसे आप अच्छा मानते हैं या बुरा, इसका निर्णय तो आप अपने सर्वोत्कृष्ट विवेक से स्वयं ही करेंगे। अब इस त्यौहार में भाई बहन का असीम प्रेम तो परोक्ष में चला गया है और राजनैतिक हितलाभ प्रत्यक्ष में आ गये हैं !


विनोद सिंह गढ़िया

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उत्तराखंड की बदहाली के लिए केवल हम ही जिम्मेदार।

लेख : श्री उदय टम्टा जी

[justify]मित्रो, हर बदहाली के लिये 'दुखिया' का 'मुखिया' को जिम्मेदार ठहराना सबसे आसान काम होता है। दूसरे पर यह आरोप लगाना कि वह बहुत ही बेईमान है, बहुत ही सुरक्षित है, भले ही हमारे पास उसके के खिलाफ लेशमात्र भी सुबूत हो या न हो; सुबूत है भी तो उसे पेश करने की हिम्मत नहीं। इसी लिए हम आरोपों के तीर इधर उधर झाड़ी में ही फेंकते हैं, निशाने पर नहीं। हम यह औरों से न पूछ कर स्वयं से पूछें कि हमने कभी किसी दल को पूर्ण बहुमत दिया कि वह एक ताकतबर सरकार बनाये और चलाये ? मैं किसी दल विशेष का हिमायती या विरोधी नहीं हूँ, पर साफ़ बात कहना ही चाहूँगा कि जब श्री खंडूरी एक 'शेर' की तरह उत्तराखंड के मुखिया बनकर आये थे तो माफियाओं में खलबली सी मच गयी थी। तब तक पटवारी से लेकर तहसीलदार तक ने कैसी बेख़ौफ़ लूट मचा रखी थी, किसी से छुपा हुआ राज नहीं है। उनके आते ही उनमें भी, जिन्हें हमेशा एक निर्भय जीव माना जाता है, थोडा बहुत खौफ तो पैदा हो ही गया था। पर हमने उस शेर को भी 'मेमना' जैसा बना देने में कितनी देर लगाई ? उन्हें किस तरह बेआबरु होकर जाना पड़ा, हम सभी जानते ही हैं। जाते जाते वह इस हालत में भी नहीं रह गए थे कि स्वयं उनके ही द्वारा बिठाई गयी जाँच पर पूर्ण रूप से दोषी पाए गए अधिकारियों को भी दोषमुक्त करना पड़ा था। ऐसे तीन तहसीलदारों के मामले तो मैं इन्हीं पन्नों में कई बार उठा चुका हूँ। इन सब स्थितियों के लिए 'हम', जिसमें 'मैं' भी सम्मिलित है, ही जिम्मेदार हैं, और कोई नहीं। बिजली के लाइनमैन की हम हमेशा आलोचना करते हैं, परन्तु हमने कभी यह भी सोचा कि लाइनमैन पोल पर चढाने के लिए जब स्वयं ही निजी व्यवस्था करता है तो इस अतिरिक्त धनराशि की व्यवस्था वह कहाँ से करता होगा ? तेल तो आखिर तिल में से ही तो निकालना होगा। फिर, अब पटवारी को ही लेलें। उसके पास आज इतना अधिक काम होगया है कि वह चाहकर भी सब कुछ बकलम नहीं कर सकता। वह स्वयं ही पांच हज़ार रुपये प्रतिमाह पर किसी कामगार को लगाता है, तो दोषी वह अकेला नहीं है। हमने उसके सहायक की व्यवस्था सरकारी तौर पर क्यों नहीं की ? कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी अधिक बिगड़ चुकी है कि जहाँ पीएसी भी कम पड़ती है, वहां वह अकेले ही एक निहत्थे चपरासी के भरोसे काम चला रहा है तो यह समझने में देर नहीं लगती कि वह ऐसा किसी बाहुबली व्यक्ति या समूह के बल पर ही तो करता है, उसके चार खून माफ़ करते हुए।
मित्रो, हमें जरुरत है व्यवस्था को जड़ से ही ठीक करने की। हमें सबसे पहिले किसी भी 'जी,' 'दा', 'दी' या 'वो' के विचार के बिना ही किसी भी एक दल को भारी बहुमत से विजयी बनाना होगा। तब मुखिया का चयन आसमानी ताकतों के द्वारा होना स्वतः ही पूर्णतः बंद या आंशिक रूप से कम हो जायेगा। तब दिल्ली वाले-- 'गो के हाथों में जुंबिश नहीं, आँखों में तो दम है' वाले या 'पवन बेग से उड़ने वाले' यहाँ नहीं आ पायेंगे, जो भी आयेगा सोच समझकर ही आयेगा क्योंकि वह तब आसमानी ताकतों के बल पर नहीं, आपके प्रसाद पर्यन्त ही कुर्सी पर विराजमान रह सकेगा। ऐसा एक बार करके तो देखें आप और हम।
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