कुमाऊँ में रामलीला मंचन
लेख : श्री उदय टम्टा जी
[justify]परम मित्रो, रामलीला के मंचन के महापर्व की तैयारी इस समय लगभग समूचे उत्तर भारत में में चल रही है। दशहरा पर्व बहुत निकट है, अतः इस महामंचन की तैयारियां भी जोरों पर है। इसका मंचन कुमाऊं में भी बड़े उत्साह के साथ होता है, जिसमें श्रद्धा व भक्तिभाव के साथ साथ सामाजिक समरसता का तत्व भी जुड़ गया है। रामलीला का मंचन रामनगर (वाराणसी) के तत्कालीन महाराजा के सौजन्य से गोस्वामी तुलसीदास के जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था। कहते हैं कि भक्त शिरोमणि ने इसे स्वयं भी देखा था ! यहाँ से यह मंचन पारंपरिक तौर पर उत्तर भारत के कई शहरों तक भी चला गया। कुंमाऊँ प्रांतर में भी यह गौरवमयी मंचन कला अंततः पहुँच ही गई। हमारे बहुत से मित्रो को तो यह भली-भांति ज्ञात ही है कि यह पूरा प्रांतर लम्बे समय से कत्यूरी शासन के अधीन रहा, जो प्रारंभ में बौद्ध मतावलंवी थे, तथा बाद में शैव मतावलंवी हो गए। इसके बाद पूरा ही भूभाग शिव व शक्ति का ही उपासक बन गया। स्वाभाविक रूप से चंद शासनकाल में भी यह भू-भाग शैव भक्ति की परंपरा के अधीन ही बना रहा। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक ही था कि यहाँ पर वैष्णव भक्तिशाखा को अधिक विकसित होने का समुचित अवसर ही नहीं मिला। और यही कारण भी था कि आम जन, जिसे हम जनभाषा में 'लोक' कहते हैं, में से बहुत से लोग राम का नाम भगवन शिव की तुलना में कम ही जानते थे, (यहाँ पर प्रवुद्ध जनों की बात नहीं हो रही) और इसी कारण से पूरे कुमाऊँ में जहां प्राचीन शिवालय व देवी मंदिर पग पग पर हैं, वहीँ कोई प्रमुख राम मंदिर विद्यमान नहीं है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है, रामकथा का मंचीय प्रदर्शन उत्तर भारत के मैदानी भागों में तुलसी के जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था, परन्तु कुँमाऊं के इस पर्वतीय भू-भाग में यह अपेक्षाकृत देर से प्रारंभ हुआ। ऐसे कोई विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो उपलव्ध नहीं है कि रामलीला का मंचन यहाँ पर कब प्रारंभ हुआ, पर कुछ जनश्रुतियों के अनुसार कुमाऊंनी रामलीला का मंचन प्रथम बार यही के मूल निवासी श्री देवी दत्त जोशी ने 1763 में करवाया, वह भी कुंमाऊँ में नहीं, बल्कि बरेली व मुरादाबाद में ! यह मंचन तो खास नहीं चल पाया, पर इससे रामलीला की परंपरा कुमाऊँ में भी पहुँच ही गई। कहा जाता है कि इसके बाद इसका नियमित मंचन श्री बद्रीदत्त जोशी ने 1803 में अल्मोड़ा में किया था, जिससे कालांतर में यह श्रृंखला चल पड़ी। इसके लिए सबसे अधिक ठोस प्रयास अल्मोड़ा वासी श्री देवी दत्त जोशी, नायब तहसीलदार के द्वारा 1860 में ही किये गए। कुमाऊं में चलने वाली रामलीला नाट्य-गेय शैली की है, जिसमें अनायास ही फ्रेंच ओपेरा, पारसी थियेटर, बृज की रासलीला तथा कई अन्य नाट्य परम्पराओं का समावेश हो गया है। 1890 में पारसी थियेटर के जाने माने निर्देशक मिर्ज़ा नज़र बेग ने उर्दू में--'मार्क-ए-लंका मारुफ़ रामलीला' का मंचन किया था, जिसका स्पष्ट सा प्रभाव आज भी कुमाउनी रामलीला में देखा जासकता है। यह आयोजन नौ या ग्यारह दिन तक चलता है। चूँकि रामलीला मुख्यतः तुलसी कृत रामचरित मानस, जो कि स्वयं बाल्मीकि रामायण पर आधारित है, के आधार पर ही मंचित होती है, इसी लिए यह गेय व नाट्य शैली में होती है। कथा की निरंतरता बनाये रखने के लिए जहाँ कहीं भी रामचरित मानस की चौपाइयाँ या दोहे उपलव्ध हैं, उनका भरपूर उपयोग किया जाता है। परन्तु जिन प्रसंगों के लिए कथा को आगे बढाने हेतु उपयुक्त चौपाइयाँ उपलव्ध नहीं है, उनके लिए स्थानीय रचनाकारों ने कुछ कविताओं की रचना कर ली थी। चूँकि कथा का विस्तार बहुत अधिक है, और समयाभाव को ध्यान में रखते हुए, कुछ प्रसंगों को शुद्ध हिंदी के संवादों के प्रयोग के द्वारा भी जोड़ा जाता है। अब सब दर्शकों को रामकथा व इसके मंचन के हर पल की पूर्व से ही जानकारी रहती है, फिर भी वह हर साल इसके मंचन को देखने जाते हैं। इसका प्रमुख कारण तो भक्तिभाव व आस्था ही है, पर धीरे धीरे दर्शकों को बांधे रखने के लिए, बीच बीच में, प्रसंग से भिन्न कुछ हास-परिहास व प्रहसन के कुछ दृश्य भी मंचित किये जाते हैं। कुल मिलाकर कुमाऊँ का रामलीला मंचन हर दृष्टि से अनूठा है। अब तो कुमाऊनी रामलीला का मंचन देश के कई अन्य शहरों में, जहाँ यहाँ के मूल निवासी अधिक संख्या में रहते हैं, भी बड़ी धूमधाम से होने लगा है।[/justify]