Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख

<< < (9/11) > >>

विनोद सिंह गढ़िया:
भरड़ का भूत

लेख : श्री उदय टम्टा जी

[justify]मित्रो, वैसे मैं स्वयं भूत-प्रेत की कहानियों पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करता, फिर भी एक कहानी के सन्दर्भ में इसका उल्लेख करूँगा। कुमायूं में पौराणिक व शास्त्रीय देवताओं के अलावा भी कई स्थानीय देवताओं या कहें भूत बन चुके मृत लोगों की पूजा का चलन बड़े पैमाने पर है। चाहे गोलू देवता हो या कोई और, ये देवतुल्य ही माने जाते रहे हैं। ऐसे ही एक भरड़ के भूत की ऐतिहासिक कथा है। कुमायूं के चंद राजा उद्योतचंद (1678-98) के समय में उनके महल में पार्वती देवी नाम की एक अति सुन्दर खवासिन थी। बहुत सुन्दर होने के कारण उसे छैला भी कहा जाता था। छैला शब्द को नौछम्मी का स्त्रीवाचक रूप कह सकते हैं। कहते हैं कि इसी के नाम से कुमायूं के एक प्रसिद्द गीत का मुखड़ा 'मेरी छैला' चल पड़ा था। छैला का कोई पुत्र नहीं था, जबकि पटरानी के यहाँ पुत्र उत्पन्न हो गया। यह छैला को बर्दास्त नहीं हुआ। उसने बुक्साड़ से एक भरड़ (जादू टोने वाला) बुलाया। बुक्साड़ वर्तमान के बाजपुर व कोटाबाग के सम्मिलित क्षेत्र को कहा जाता था तथा अनिष्टकारी जादू टोने के लिये तब यह स्थान बहुत अधिक कुख्यात था। भरड़ के जादू टोने से कुंवर यानि कि पटरानी के पुत्र की मृत्यु हो गई। बाद में भरड़ की भी मृत्यु हो गई। कहते हैं कि मृत्योपरांत कुंवर व भरड़ दोनों ही भूत बन गए, जिनकी कई स्थानों पर आज भी पूजा होती है।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]नोटवी

लेख : श्री उदय टम्टा जी

मित्रो, मैं अपने शीघ्र प्रकाश्य व्यथा संग्रह (कथा संग्रह नहीं) 'उदारांचल की व्यथाएं' की एक व्यथा--'नोटवी' के कुछ उद्धरण आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ-   
                             
हेमचंद ने 'अभिधान चिंतामणि' में बाल खोले एक निर्वसना नारी के वर्णन में कहा है--'नग्ना तु कोटवी'। आगे इसकी व्याख्या में भी कहा गया है--'नग्ना विवस्त्रा योषित मुक्तकेशी त्यागमः लज्जावशात् याति कोटवी'। कोटवी को दक्षिण भारत की मूल देवी माना गया है, जिसे वहां  कोटव्वै भी कहा जाता था। छटी सदी तक उसे तत्समय प्रचलित बीस अपशकुनों में से एक माना जाता था। गुप्तकाल में कोटवी का आगमन उत्तर भारत में भी होगया, परन्तु दक्षिण भारत के अपशकुन के रूप में नहीं, बल्कि न्याय की देवी के रूप में। उत्तर भारत में इसे 'कोटमाई ' के रूप में मान्यता मिली। 1948 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप हुई खुदाई में कोटमाई का एक प्राचीन मंदिर मिला था। अहिच्छत्रा में मिले प्राचीन मिट्टी के खिलौनों में भी कोटमाई की आकृतियाँ मिली थीं, जो अब मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। अहिच्छत्रा की सीमाएं कुमायूं से मिलतीं थीं। संभवतः तेरहवीं सदी के आसपास वर्तमान लोहाघाट के पास कोटलगढ़ में कोटमाई के मंदिर की स्थापना हुई। कोटलगढ़ के कारण इसका नाम कोटगाड़ी पड़ा। सोलहवीं सदी के आसपास इसकी स्थापना डीडीहाट के पास भी होगई। अमृत बाज़ार पत्रिका के 15 मई 1952 के एक हिल सप्लीमेंट में व्यापक छानवीन के बाद इस बात की पुष्टि की गई थी कि दक्षिण भारत की कोटवी ही उत्तर भारत की कोटमाई है। इसका समर्थन उद्भट विद्वान डा0 वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी किया था। इसे कतिपय स्थानों में वाणासुर की माता भी बताया गया है। कोटगाड़ी ने यहाँ पर न्याय की देवी के रूप में एक अतिउच्च स्थान भी पालिया। इसे दुर्गा का एक रूप भी माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि कोटगाड़ी सताए हुए लोगों को तुरंत न्याय प्रदान करती है। दुनियां में हमेशा ही एक सा चलन नहीं रहा है। कभी कभी वह आत्माएं, जो अपशकुन के रूप में देखी व मानी जातीं हैं, वह दिव्य रूप धारण कर लेतीं हैं, जबकि इसके विपरीत कुछ आत्माएं, जिन्हें उच्च कोटि का माना जाता है, तुच्छ व अन्यायकारी प्रवृत्ति अपना लेने में तनिक भी देर नहीं लगाती।                                                   

           ऋषिकुलश्रेष्ठ मार्कंडेय के पर्वतीय आश्रम के पास से एक छोटी, पर बहुत ही पवित्र नदी बहती थी। इस नदी को छोड़ दें तो यह स्थान आम तौर पर जलविहीन ही था। इसी कारण नदी के आसपास बहुत से जानवरों के बसेरे बन गए। एक बार जानवरों की एक महापंचायत बैठी। इसमें यह विचार हुआ कि जानवरों को भी शिक्षा ग्रहण करके प्रबुद्ध बन जाना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के निकट संपर्क में आने के के कारण उनके अनुवांशिक गुणों के संग्रह में अत्यंत तेजी से क्षरण होरहा है और इसी कारण से आने वाले समय में उनके लिए बिना शिक्षा के जीवित रहना भी कठिन हो जायेगा। पर एक समस्या खड़ी होगई कि आख़िर सीखने वालों को सिखाएगा कौन? सबके सब तो अंगूठा छाप, खुरछाप,या पंजाछाप ही थे। समस्या मुंह बांये ही नहीं, मुंह दांये भी खड़ी हो गई। पर प्रकृति ने ब्रह्माण्ड की रचना करते करते समय इस बात को बखूबी ध्यान में रखा है कि जहाँ कहीं ऋणात्मक आवेश उत्पन्न हो, वहीँ इसका धनात्मक आवेश भी अवश्य ही मौजूद रहे। स्वाभाविक रूप से जब समस्या का आयाम सामने हो तो समाधान का आयाम भी बहुत अधिक दूर नहीं हो सकता।                               

मगध प्रांतर के वनों में एक अर्द्ध विकसित मस्तिष्क की श्रिंगाली बिना किसी निश्चित उद्देश्य से इधर उधर विचरण करती थी। उसके मस्तिष्क के दो भाग स्पष्ट दिखाई पड़ते थे। मस्तिष्क का आधा भाग बहुत ही क्रियाशील व उर्वर था, जिस कारण वह बहुत कुछ सीखने में सक्षम होगई और विद्वानों या कहें विदुषियों में भी उसकी गिनती होने लगी। पर इसके विपरीत उसके मस्तिष्क का दूसरा भाग अत्यंत विकृत व क्षतिग्रस्त था। दूसरे शब्दों में कहा जासकता है कि उसमें टूटी फूटी, उजूल फिजूल चीजों का संग्रह था। हाँ, इसमें सब कुछ उजूल फिजूल ही हो, ऐसा भी नहीं था। मस्तिष्क के इस भाग में गहराई में छिपी स्वार्थ भावना व धनलोलुपता की भावना से ग्रसित कई परतें मौजूद थीं, ठीक उसी तरह, जिस तरह चन्द्रमा के पटल पर बहुत गहराई में छिपे हुए हिमीकृत जल की परतें। श्रिंगाली विक्षिप्तता के किसी घने व तीव्र आवेश में मगध प्रांतर को छोड़ कर हिमालय की तलहटी में स्थित वन प्रान्तर में पहुँच गई, जिसके बीचों बीच पवित्र नदी थी। वहां के शांत वातावरण में उसका उत्तेजित व अस्थिर मन कुछ शांत हुआ तो विद्वता के द्वार खुल गए। वह विद्वतापूर्ण बातें करने लगी। वन्य पशुओं को ऐसी ही एक विदुषी की आवश्यकता थी। सो, उसे एक बंधी बधाई पगार पर सिखाने वाली के रूप में नियुक्त कर लिया गया।

                                                                                                     (शेष अगले नोट में जारी ) [/justify]

विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]नोटवी (२)>> पिछले से आगे >>

लेख : श्री उदय टम्टा जी

मित्रो, पिछले उद्धरणों में आपने नोटवी की 'सिखाने वाली' के पद पर नियुक्ति हो जाने के बारे में जाना।14 पृष्ठों की इस वृहद् व्यथा के कुछ अन्य अंशों का अवलोकन भी कीजिये.

जब नोटवी की नियुक्ति होगई तो उसकी सहमति व सुझाव से अन्य शिक्षकों की नियुक्ति प्रारंभ हुई। जिस पहले शिक्षक की नियुक्ति हुई, वह एक जंगली बिल्ला था, जिसका नाम ढड़वा था। ढड़वा नाम का यह बिल्ला बड़ा ही वाचाल व बदमिजाज़ शख्शियत का मालिक था। पर न जाने क्यों, नोटवी ने उसे सर आँखों में बिठाकर रखा था ? निकटतम जो संभावना थी, वह यह थी कि वह नोटवी की कृपा पाने के लिए उसके चक्कर ठीक उसी तरह काटता रहता था, जिस तरह कि श्मशान में वृक्ष का चक्कर वेताल काटता रहता है--'श्मशान् पाद्पश्येव पिशाचस्यदग्धभूत्या परुषीकृतान राजवल्लभां समर्पतः।'उसे हिंदी तथा अन्य विषयों का ज्ञान शून्य के बराबर था, पर वह स्वयं को साक्षात सरस्वती पुत्र व महाविद्वान होने का भ्रम पाले हुए था और नित्य ही 'नामांसो मधुपर्को भवति' की बातें करता रहता था, जिसका अर्थ उसने अपनी बुद्धि के अनुसार यह लगाया हुआ था--'बिना मांस के मदिरा नहीं चलेगी।' वह जब चाहता, किसी भी 'बच्चे' का घोर अपमान कर देता और बच्चों की खाल अपने नुकीले व चुभीले नाखूनों से नोच डालता। बच्चे विभिन्न 'प्रजाति' समूहों से आए थे, सो वह उनमें गुटवाजी व कलह करवाने में भी सफल होगया। वह कभी किसी बच्चे की तारीफों के सेतु बांध देता और कभी उसके विरोधी गुट के किसी बच्चे को खुली कक्षा में इतना अधिक ज़लील करता कि बच्चा न केवल अपना मनोवल ही खो देता, बल्कि बहुत अधिक तनावग्रस्त भी हो जाता, जिससे वह फिर कभी जिंदगी भर उवर ही नहीं पाता। अनायास ही किसी को भरी कक्षा में सबके सामने जलील करना किसी भी बच्चे को मौत से भी भयंकर लगता है, इस बात का नोटवी की तरह ही उसको भी कतई ज्ञान ही नहीं था। अकेले में कोई भी आम तौर पर अपमान के कडवे घूंट पीकर भी सभल सकता है, पर किसी समूह के समक्ष एक अकेले को अपमानित करना उसके लिए सामान्य मनोविज्ञान के अनुसार भी बहुत अधिक पीड़ा दायक होता है, इसे ढड़वा समझ ही नहीं पाया, और नोटवी की समझ से तो यह पहिले से ही परे था। उसके व्यवहार से कई बच्चों को गंभीर मानसिक क्षति पहुँच गई, जिसका पुनर्सामान्यीकरण अत्यंत कष्टसाध्य था। इसी कारण से बच्चों में एक काव्यांश ही चल पड़ा था--'बडा बदतमीज है ढड़वा काला, नोटवी का पोषा पाला, कहता है पत्थर को 'फत्तर', टीचर ऐसा हिंदी वाला।' उसका सामान्य चरित्र ही नहीं, बल्कि समूचा चरित्र संगठन ही दोषपूर्ण था। अर्द्ध विक्षिप्त होते हुए भी कभी कभी नोटवी तक कुछ अत्यंत तत्वपरक बातें कह जाती थी, पर  ढड़वा तो किसी और ही मिटटी का बना था। जो कभी सुधर नहीं सकता, उसके लिए हिंदी में तो कोई उपयुक्त शब्द आसानी से उपलव्ध नहीं है, पर अंग्रेजी में इसे 'इन्कोरिजिबल' कहा जाता है। पर प्रकृति में हालात को दुरुस्त करने के लिए अनेकानेक व्यवस्थाएं हैं। इनमें से एक प्रमुख व्यवस्था तो गीता में ही वर्णित है--'यदा यदा हि धर्मस्य ......।'  इसमें धर्म का आशय अध्यात्म से जुडी किसी धर्म व्यवस्था से न होकर एक सकारात्मक सोच व युक्तियुक्त कर्म से परिपूर्ण जीवन पद्धति से है। ऐसी ही दूसरी व्यवस्था का उल्लेख माल्थस ने किया है कि प्रकृति .......। सो, प्रकृति समय से पहिले ही सामने आगई ! 'हरिऔध' के 'प्रिय प्रवास' की कुछ श्रृंगारिक पंक्तियों में वर्णित परिदृश्य ढड़वा के लिए मृत्यु पूर्व आभास (premonition) के रूप में सामने आया---'दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला, तरु शिखा पर थीं राजती, कमलिनी -कुल-वल्लभ की प्रभा।' उसके अन्दर सोमरस के समतुल्य ही स्थानीय रस-कीर्तियों द्वारा छानी गई मदिरा की लालसा स्वयमेव ही उत्पन्न हो गई। उसका भरपूर सेवन करके एक संध्या को वह दौड़ने निकल पड़ा और एक चट्टान से उसने अपना सिर दे मारा, परिणाम स्वरुप परम गति को प्राप्त होगया। उसके परमधाम गमन से एक ओर तो प्रकृति ने अपनी व्यवस्था में सुधार किया, वहीँ मासूम बच्चों को एक आतताई से छुटकारा भी मिल गया।

>> (अगले नोट में एक और आतताइन के द्वारा प्रदत्त व्यथा का उल्लेख) >[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया:
कुमाऊँ में रामलीला मंचन

लेख : श्री उदय टम्टा जी

[justify]परम मित्रो, रामलीला के मंचन के महापर्व की तैयारी इस समय लगभग समूचे उत्तर भारत में में चल रही है। दशहरा पर्व बहुत निकट है, अतः इस महामंचन की तैयारियां भी जोरों पर है। इसका मंचन कुमाऊं में भी बड़े उत्साह के साथ होता है, जिसमें श्रद्धा व भक्तिभाव के साथ साथ सामाजिक समरसता का तत्व भी जुड़ गया है। रामलीला का मंचन रामनगर (वाराणसी) के तत्कालीन महाराजा के सौजन्य से गोस्वामी तुलसीदास के जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था। कहते हैं कि भक्त शिरोमणि ने इसे स्वयं भी देखा था ! यहाँ से यह मंचन पारंपरिक तौर पर उत्तर भारत के कई शहरों तक भी चला गया। कुंमाऊँ प्रांतर में भी यह गौरवमयी मंचन कला अंततः पहुँच ही गई। हमारे बहुत से मित्रो को तो यह भली-भांति ज्ञात ही है कि यह पूरा प्रांतर लम्बे समय से कत्यूरी शासन के अधीन रहा, जो प्रारंभ में बौद्ध मतावलंवी थे, तथा बाद में शैव मतावलंवी हो गए। इसके बाद पूरा ही भूभाग शिव व शक्ति का ही उपासक बन गया। स्वाभाविक रूप से चंद शासनकाल में भी यह भू-भाग शैव भक्ति की परंपरा के अधीन ही बना रहा। ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक ही था कि यहाँ पर वैष्णव भक्तिशाखा को अधिक विकसित होने का समुचित अवसर ही नहीं मिला। और यही कारण भी था कि आम जन, जिसे हम जनभाषा में 'लोक' कहते हैं, में से बहुत से लोग राम का नाम भगवन शिव की तुलना में कम ही जानते थे, (यहाँ पर प्रवुद्ध जनों की बात नहीं हो रही) और इसी कारण से पूरे कुमाऊँ में जहां प्राचीन शिवालय व देवी मंदिर पग पग पर हैं, वहीँ कोई प्रमुख राम मंदिर विद्यमान नहीं है।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, रामकथा का मंचीय प्रदर्शन उत्तर भारत के मैदानी भागों में तुलसी के जीवन काल में ही प्रारंभ हो गया था, परन्तु कुँमाऊं के इस पर्वतीय भू-भाग  में यह अपेक्षाकृत देर से प्रारंभ हुआ। ऐसे कोई विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो उपलव्ध नहीं है कि रामलीला का मंचन यहाँ पर कब प्रारंभ हुआ, पर कुछ जनश्रुतियों के अनुसार कुमाऊंनी रामलीला का मंचन प्रथम बार यही के मूल निवासी श्री देवी दत्त जोशी ने 1763 में करवाया, वह भी कुंमाऊँ में नहीं, बल्कि बरेली व मुरादाबाद में ! यह मंचन तो खास नहीं चल पाया, पर इससे रामलीला की परंपरा कुमाऊँ में भी पहुँच ही गई। कहा जाता है कि इसके बाद इसका नियमित मंचन श्री बद्रीदत्त जोशी ने 1803 में अल्मोड़ा में किया था, जिससे कालांतर में यह श्रृंखला चल पड़ी। इसके लिए सबसे अधिक ठोस प्रयास अल्मोड़ा वासी श्री देवी दत्त जोशी, नायब तहसीलदार के द्वारा 1860 में ही किये गए। कुमाऊं में चलने वाली रामलीला नाट्य-गेय शैली की है, जिसमें अनायास ही फ्रेंच ओपेरा, पारसी थियेटर, बृज की रासलीला तथा कई अन्य नाट्य परम्पराओं का समावेश हो गया है। 1890 में पारसी थियेटर के जाने माने निर्देशक मिर्ज़ा नज़र बेग ने उर्दू में--'मार्क-ए-लंका मारुफ़ रामलीला' का मंचन किया था, जिसका स्पष्ट सा प्रभाव आज भी कुमाउनी रामलीला में देखा जासकता है। यह आयोजन नौ या ग्यारह दिन तक चलता है। चूँकि रामलीला मुख्यतः तुलसी कृत रामचरित मानस, जो कि स्वयं बाल्मीकि रामायण पर आधारित है, के आधार पर ही मंचित होती है, इसी लिए यह गेय व नाट्य शैली में होती है। कथा की निरंतरता बनाये रखने के लिए जहाँ कहीं भी रामचरित मानस की चौपाइयाँ या दोहे उपलव्ध हैं, उनका भरपूर उपयोग किया जाता है। परन्तु जिन प्रसंगों के लिए कथा को आगे बढाने हेतु उपयुक्त चौपाइयाँ उपलव्ध नहीं है, उनके लिए स्थानीय रचनाकारों ने कुछ कविताओं की रचना कर ली थी। चूँकि कथा का विस्तार बहुत अधिक है, और समयाभाव को ध्यान में रखते हुए, कुछ प्रसंगों को शुद्ध हिंदी के संवादों के प्रयोग के द्वारा भी जोड़ा जाता है। अब सब दर्शकों को रामकथा व इसके मंचन के हर पल की पूर्व से ही जानकारी रहती है, फिर भी वह हर साल इसके मंचन को देखने जाते हैं। इसका प्रमुख कारण तो भक्तिभाव व आस्था ही है, पर धीरे धीरे दर्शकों को बांधे रखने के लिए, बीच बीच में, प्रसंग से भिन्न कुछ हास-परिहास व प्रहसन के कुछ दृश्य भी मंचित किये जाते हैं। कुल मिलाकर कुमाऊँ का रामलीला मंचन हर दृष्टि से अनूठा है। अब तो कुमाऊनी रामलीला का मंचन देश के कई अन्य शहरों में, जहाँ यहाँ के मूल निवासी अधिक संख्या में रहते हैं, भी बड़ी धूमधाम से होने लगा है।[/justify]

विनोद सिंह गढ़िया:
उतरैणी कौतिक और घुगुते
14 January 2014 at 08:46 AM



लेख - श्री उदय टम्टा

[justify]मित्रो, बचपन, बीता, पचपन भी बीता, पर मानसपटल पर यादों की लकीरें ज्यों की त्यों अभी तक मुतवातिर बनी हुई हैं, और समुचित अवसर मिलते ही प्रगट हों जातीं हैं. आज कुमाऊ व गढ़वाल का विशेष पर्व उतरैणी यहाँ के मूल निवासियों के लिए विशेष महत्व का है, केवल धार्मिक व अध्यात्मिक रूप से ही नहीं, बल्कि लौकिक व स्थानीय कारणों से भी. मैं गढ़वाल की तरफ तो कभी नहीं जा पाया, इसीलिए केवल कुमाऊँ की बात कर पाता हूँ. बात १९५० के दसक की करूँगा. यह वह समय नहीं था, जब पहाड़ के दूर दराज के गावं आधुनिक ठाठ बाट में ज़ी रहे थे, फिर भी लौकिक रूप से यहं जीवन बड़ा सुखमय था. उतरैणी की पूर्व संध्या से ही छोटे बच्चे प्रफुल्लित होजाते थे. सुबह होते ही घुगुती की माला को गले में लटका कर इतराते थे, ठीक उसी तरह जिस तरह आज लोग शादी-समारोहों में हीरे से युक्त माला का प्रदर्शन करते हुए दिखते हैं. घुगती माला में मा-बाप भी माला में तरह के डिजाईन वाले मुखौटे तैयार करते थे--जैसे दराती, बांसुरी तथा कई अन्य तरह के जीवनोपयोगी वस्तुएं. कौवा आ, कौवा आ की पुकार से गांव गूंज उठते थे. ऐसा नहीं था की कौवा तुरंत ही आ जाता हो, पर बच्चों के उसके आह्वान का मकसद पूरा हो जाना ही पर्याप्त था. नदी तीर्थों--जैसे बागेश्वर, रामेश्वर इत्यादि स्थानों पर कौतिक (मेले) लगते थे और परिवारीजन गुड, मिश्री, मिठाई व खिलौने लाते थे. खिलौनों में ज्यादातर रबर की बाल व सीटी ही होते थे. सीटी बच्चे तब तक खूब बजाते रहते थे, जब तक कि वह टूट ही न जाय. रेडियो या टीवी तो तब परिकल्पना में ही विद्यमान नहीं थे, वास्तविक रूप में होने का सवाल ही नहीं था. तब जीवन बड़ा ही सरल था, राग द्वेष उतना अधिक नहीं था, माएं केवल अपने बच्चों को ही इजा-बाज्यू नहीं पुकारते थे, बल्कि पडौसी के बच्चों को भी इस ममता से परिपूर्ण संवोधन से पुकारते थे. आज यह भाव लगभग विलीन सा ही होगया है.[/justify]

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version