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Articles by Shri Uday Tamta Ji श्री उदय टम्टा जी के लेख

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विनोद सिंह गढ़िया:
गंगोली की बेल पट्टी

by Uday Tamta

[justify]मेरे परम मित्रो, केवल कुमाऊँ ही नहीं, बल्कि गढ़वाल के इलाकों में भी अज्ञात इतिहास काल से ही हलकों अथवा भूक्षेत्रों का विभाजन पट्टियों के रूप में रहा है। यह पट्टियां कई गांवों के समूह को मिलाकर बनाई गई थीं। ग्राम इकाई के बाद यही बड़ी प्रशासनिक इकाई थी, जिसके बल पर ही राज्याधिकारी प्रजा पर शासन करते थे। मेरे विचार से इन पट्टियों का गठन संभवतः गुप्त काल में, लगभग चौथी सदी के आसपास, ही होगया था, जबकि सर्व प्रथम भूमि की नापजोख प्रारंभ हुई थी। 1901 में भू राजस्व अधिनियम लागू होने के बाद अंग्रेजों ने भी इस व्यवस्था को जारी रखा । गंगोली क्षेत्र पूर्वी रामगंगा व सरयू नदी के बीच के क्षेत्र को कहा जाता है, जिसकी सीमा बागेश्वर क्षेत्र से लगती हैं। इसमें से गंगोलीहाट की खड़ी बाज़ार, जिसे जान्धेवी बाज़ार कहा जाता है, से नीचे रामेश्वर तक के क्षेत्र को बेल पट्टी कहा जाता था। इस खड़ी बाज़ार के उत्तरी भाग को भेरंग पट्टी कहा जाता था । दोंनो ओर से दो बिकराल नदियों से घिरा बेल पट्टी का यह क्षेत्र बहुत ही दुर्गम व पिछड़ा हुआ था, परन्तु पैदावार व मानवशक्ति के मामले में छतीसगढ़ की तरह अनाज तथा दूसरी पैदावारों के मामले में 'चावल की कटोरी' माना जाता था । तब यहाँ के जमाली भात की बड़ी ही शोहरत थी। कहते हें कि जमाली चावल की मुख्य पैदावार तो गेवाड़ की ओर ही होती थी, परंतु गंगोली के राजा के यहाँ इसकी आपूर्ति बेल पट्टी के गांव डमडे, बुर्सम व ड़ूनी से होती थी। इस चावल के बारे में कहा जाता है कि यह इतना अधिक सुगन्धित था कि किसी एक घर में भी इसका भात बनता तो इसकी खुशबू पूरे गांव में ही फ़ैल जाती थी। सुगन्धित धान की यह पैदावार गोरखा शासनकाल के अत्याचारों के कारण समाप्त हो गई और इस अमूल्य फसल का बीज भी उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ही समाप्त होगया था। 'जमाली को भात' का उल्लेख कुमायूं के प्रसिद्द लोक कवि गुमानी ने भी किया है। यहाँ के अधिकांश लोग सीधे साधे, निरक्षर,पर मेहनतकश व ईमानदार होते थे, और छल कपट से सर्वदा बहुत दूर रहते थे । इसके विपरीत भेरंग को सामान्य रूप में अभावग्रस्त, पर बुद्धि चातुर्य वालों का इलाका माना जाता था। इसकी बजह यह थी कि जहाँ भेरंग वाले मनकोटी राज्य के समय में राजकाज से सम्बंधित सारे कार्यों में अधिकारितापूर्ण स्थान रखते थे, वहीँ फल, फूल, अनाज, दूध, दही, घी, शहद, सरयू की सफ़ेद मछली, जमाली के खुशबूदार चावल तथा अन्य कई पदार्थों की आपूर्ति बेल पट्टी से ही होती थी। गंगोली में कम से कम छः पीढ़ियों तक मनकोटी राजाओं का शासन रहा था। आज की परिस्थ्तियों के हिसाब से कहें तो वह 'विदेशी' थे, पर ऐतिहासिक सच्चई तो यह है कि यह् भाग तब नेपाल के डोटी राज्य का ही एक भाग था। विदेशी होते हुए भी मनकोटी शासक बड़े उदार व न्यायकारी माने जाते थे। उनके समय में जो षड्यंत्र हुए, वह राजकर्मियों के आपसी बर्चस्व की लड़ाई के कारण ही हुए, जिनमें भेरंग के एक प्रमुख गांव से एक पक्ष को पूर्ण रूप से बेदखल करके, यह पूरा गांव दूसरे पक्ष को दे दिया गया था। परन्तु बेल पट्टी में इस आपसी बर्चस्व की लड़ाई का कोई असर नहीं हुआ। हाँ, राजस्व वसूली के मामलों में बेल पट्टी वालों पर बहुत अत्याचार भी चंद व गोरखा शासनकाल में ही हुए, जिसके लिए न भेरंगवाले जिम्मेदार थे और न ही चंद शासक, बल्कि इसके लिए जिम्मेदार अन्यत्र से मनकोटी शासन के समय लाये गए भूलेखन व राजस्व से संवंधित अधिकारी थे। कहा जाता है कि ये लोग स्वभाव से भी बड़े उग्र, क्रूर व अन्यायकारी प्रवृत्ति के थे। यहाँ पर 'ढाडा दंड' की प्रथा भी संभवतः इन्होने ही प्रारंभ की। इनके बारे में कहा जाता था कि यह गंगोली के आपसी भ्रातृभाव से परिपूर्ण माहौल को बिगाड़ने में भी अंततः कामयाब हो ही गए थे। इनके अनैतिक व अनुचित व्यवहार के कारण अति संपन्न बेल पट्टी अंततः अभावों के दौर में पहुंच ही गई। वहां पर अभावों के इस दौर का अंत आज तक भी नहीं हो पाया है।

विनोद सिंह गढ़िया:
क्यों असफल है उत्तराखंड का पर्यटन उद्योग ?

by Uday Tamta

[justify]मित्रो, हम एक परंपरागत कथन के तौर पर हमेशा ही बहुत ही सहज रूप में कह देते हैं कि उत्तराखंड में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। इसी सहज भाव व भंगिमा में सरकारें भी कह देती हैं कि हम पर्यटन को उन्नत दशा में पंहुचा कर ही दम लेंगे ! पर, वास्तविकता इससे कोसों दूर है। कथनी व करनी में हमेशा अंतर होता ही है। उत्तराखंड में दो प्रकार के पर्यटन की संभावनाएं हैं/थीं। एक तो धार्मिक पर्यटन दूसरा सामान्य पर्यटन। सामान्य पर्यटन के लिए सरकारों का कार्य सामान्य सुविधाएं प्रदान करने तक ही सीमित होना चाहिए, जैसे कि सड़क, परिवहन, शोषण विहीन व सुरक्षित आवास व सामाजिक सुरक्षा इत्यादि। धार्मिक पर्यटन के लिए भी न्यूनाधिक इन्हीं आधारभूत संरचनाओं का ही जिम्मा सरकार का होता है, इससे आगे बिलकुल नहीं। पर मित्रो, यहाँ का सारा ही पर्यटन जाने-अनजाने ही भारत सरकार व प्रदेश सरकार के पदाधिकारियों, उनके रिश्तेदारों, वह अन्य प्रियजनों के आतिथ्य तक ही सीमित होकर रह गया है। इसमें घुमा फिराकर सरकारी खजाने से ही अकूत धन खर्च होता है, और आमदनी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। फिर, वह कैसा उद्योग, जिसमें आमदनी चवन्नी और खर्च रुपैय्या ? उदाहरण के लिए अपने अध्यक्ष साहबान को ही लेलें, करोड़ों का हवाई खर्च ही सरकार ने 'ख़ुशी-ख़ुशी' ही उठा लिया था ! फिर बड़े परिवारों की कार्बेट यात्रा को ही ले लें, इसमें क्या मिलना था पर्यटन व्यवसाय को  आमदनी के रूप में ? जो करोड़ों गया, सरकार के पल्ले से ही गया ! तो, मित्रो, यहाँ धार्मिक पर्यटन हो, या सामान्य पर्यटन, यह सिर्फ परिजनों व रिश्तेदारों की मेहमान नवाजी का ही एक प्रदर्शन हो कर रह गया है। इनकी तुलना में एक छोटे से देश पेरू के पर्यटन उद्योग को ले लें। वहां पर माचू में इनका सभ्यता की निशानी के रूप में चौदहवीं सदी में निर्मित पुक्चु इमारतों के अवशेष थे। यह स्थान स्पेनिश उपनिवेशियों की नज़र से तो बच गया था, पर इस सभ्यता के विनष्ट होने के बाद सोने की तलाश में लोगों ने इसके भवनों के एक-एक पत्थर को उखाड़ डाला था। पेरू की सरकार ने उन्ही पत्थरों में से हर पत्थर को बड़ी मेहनत से उसके मूल स्थान पर लगाते हुए सभी ध्वंस इमारतों को वही पुरानी शक्ल दे दी, जिस कारण यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर का दर्ज़ा दे दिया। हमारे यहाँ की तरह वहाँ पर मेहमानी पर्यटन नहीं होता है। आज हालत यह है कि अकेले माचु पुक्चु में ही इतने अधिक पर्यटक आते हैं कि जितने कि पूरे उत्तराखंड में भी साल भर में नहीं आते ! कारण वही--हमारे यहाँ मुफ्तखोरी का पर्यटन और वहां पूर्ण रूप से व्यावसायिक स्तर का पर्यटन !

Rajen:
श्री टम्टा जी के लेखों को यहाँ पर 'शेयर' करने के लिए बिनोद जी को बहुत - बहुत धन्यबाद. (+1 कर्मा)

विनोद सिंह गढ़िया:
आपको साधुवाद।


--- Quote from: Rajen on January 08, 2013, 03:13:39 PM ---श्री टम्टा जी के लेखों को यहाँ पर 'शेयर' करने के लिए बिनोद जी को बहुत - बहुत धन्यबाद. (+1 कर्मा)

--- End quote ---

विनोद सिंह गढ़िया:
नैणताल व नैना देवी मंदिर

by Uday Tamta on 9 January 2013 at 06:27 AM ·

[justify]मित्रो, बैरन एक अंग्रेज था, जिसकी शाहजहांपुर में एक छोटी सी डिस्टिलरी थी, जिसमें वह अंग्रेज अधिकारियों व कर्मचारियों के सेवन के लिए मामूली सी ब्रुअरी में शराब का उत्पादन करता था। व्यवसायी होने के साथ-साथ वह एक प्रकृति प्रेमी व अन्वेषक प्रवृत्ति का व्यक्ति भी था। एक बार वह पहाड़ की यात्रा पर निकल पड़ा। शाहजहांपुर में लम्बे समय तक रहने के कारण वह हिंदी अच्छी तरह से समझता था तथा कुछ् कुछ बोल भी लेता था। वह साहसी तो था ही, कुछ मजदूरों के साथ रानीबाग से ही मार्ग विहीन जंगल से कठिन चढ़ाई पार करते हुए किसी तरह नैणताल, जिसे अब नैनीताल के नाम से जाना जाता है, के ऊपर के ऊंचे डांडे में पहुंच गया। उसने नीचे की ओर नजर दौड़ाई तो घने बाँझ वृक्षों की ओट में एक सुन्दर नीला तालाब नज़र आया, जिसके किनारे काई से पटे पड़े थे तथा चारों ओर पक्षियों का कलरव गूंज रहा था, जिसकी मधुर ध्वनि ऊँचे डांडे तक भी पहुंच रही थी। वहां से भी ताल तक कोई रास्ता नहीं था। वह किसी तरह पेड़ों की साख व बाभिला घास के सहारे नीचे उतरा। ताल की सुन्दरता देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया। इस प्रकार 1840-41 में बाहरी दुनियां के लिए अज्ञात नैनीताल की 'खोज' बैरन के हाथों हो गई ! वहां पर उसे कोई आदमी नहीं मिला। नीचे उतरते हुए उसे किसी बस्ती के लोगों से उसे पता चला कि पूरे ताल व इलाके का मालिक नैनुवां उर्फ़ नैनसिंह नाम का कोई व्यक्ति था, जो नजदीक के किसी गांव में रहता था। उसनें नैनुवां से संपर्क किया। नैनसिंह हिंदी नहीं जानता था, और बैरन भी पहाड़ी नहीं समझता था। सो किसी हिंदी जानने वाले के माध्यम से उनमें कुछ बातचीत हुई। अगली बार फिर गर्मी के मौसम में बैरन एक बढई व एक नाविक को लेकर बनी बनाई, खुले हिस्सों वाली नाव के साथ वहां पहुंचा। उसने आदमी भेजकर नैनसिंह को बुलवाया। नैनसिंह को उसने अपने साथ नाव में बिठा लिया। उसने बीच ताल में पहुँच कर पूरा इलाका खरीदने का प्रस्ताव नैनसिंह के सामने रखा । यद्यपि नैनसिंह के लिए इस ताल व क्षेत्र का कोई आर्थिक महत्व नहीं था, तथापि वह पूर्वजों की इस थाती को बेचने को तैयार नहीं हुआ। इस पर बैरन ने उसे ताल में डुबा देने की धमकी दे डाली और पहिले से तैयार कागज में उसका अंगूठा लगवा लिया। इस तरह पहिले बैरन, फिर ईस्ट इंडिया कंपनी व कालांतर मे अंग्रेज सरकार इसकी मालिक बन गई। उसके बाद तो अंग्रेजों ने नैनीताल का जो जो किया वह सामने ही है। यहां पर नैना देवी का एक बहुत ही छोटा थान (देवस्थान, भव्य मंदिर नहीं) पहिले से ही था, जिसमें कुछ छोटे से त्रिशूल व लोहे के छोटे से दीये थे। यह थान वर्तमान मंदिर से ऊपर की पहाड़ी पर था। पुराना नैना देवी का उक्त थान 1880 के भयंकर भूस्खलन में नेस्तनाबूंद होगया था, जिसके कुछ दीये वर्तमान मंदिर के पास बरामद हो गए थे। अतः इसी स्थान पर पर 1882 को जेठ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन जगन्नाथ शाह व उनके सहयोगियों ने मंदिर की स्थापना की। मित्रो, यह तो रहा ऐतिहासिक विवरण। इसके सामानांतर ही नैनीताल की स्थापना के सम्वन्ध में मानस खंड, जिसे कुछ लोग स्कंद पुराण का ही एक भाग मानते हैं, में एक और ही कहानी चलती है। इसके अनुसार कहा जाता है कि एक बार सप्त ऋषियों में से तीन ऋषि--अत्रि, पुलस्त्य व पुलह ने हिमालय की यात्रा प्रारंभ की। उनको अत्यधिक प्यास लगी, परन्तु वह कोई जल श्रोत नहीं ढूंढ़ पाए ताकि अपनी पिपासा शांत कर सकें। प्यास से वह बहुत व्याकुल हो गये। उन्होंने अपने मन में पवित्र सरोवर--मानसरोवर-- का स्मरण किया तथा यहाँ पर कुछ गड्ढे खोदे। उनकी पिपासा को बुझाने के लिए यहाँ पर स्वतः ही तत्काल एक ताल का निर्माण हो गया !

मित्रो, इस ताल को पहिले लोग नैणताल अथवा नैनताल के नाम से ही जानते थे। बाद में इसे नैनीताल नाम दिया गया। नैनताल या नैनीताल नाम दो कारणों से पड़ा--पहला कारण यह है कि इसके स्वामी नैनुवाँ की वजह से लोग इसे नैनुवां का ताल तथा बाद में नैनताल कहने लगे होंगे। दूसरा कारण यहाँ पर नैना देवी का थान पहिले से ही होने के कारण इसे यह नाम मिला होगा।

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