Author Topic: Articles by Sr Journalist & Writer Mr Naveen Joshi Ji-श्री नवीन जोशी जी के लेख  (Read 5650 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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साथियो,

आज मेरापहाड़ से जुड़ रहे है वरिष्ठ पत्रकार एव प्रसिद्ध लेखक श्री नवीन जोशी जी । श्री नवीन जोशी जी का पत्रकारिता में लगभग तीन दशक से भी अधिक का अनुभव है! जोशी जी की पैदाइश भी उत्तराखण्ड में हुई है।

हमारे सदस्यों के विशेष आग्रह एव जोशी जी के लेखनी की लोकप्रियता के मद्देनजर पर हमने जोशी जी से मेरापहाड़ पोर्टल में लेख लिए अनुरोध किया और अपने अति व्यस्त शेडयूल होने के बाबजूद भी जोशी जी ने हमारे इस अनुरोध को बड़ी सहजता से स्वीकार किया है। इसके लिये मेरापहाड़ जोशी जी का बहुत आभारी है!

जोशी जी अपने समयानुसार यहाँ पर तमाम विषयो पर अपने लेख लिखेंगे, आशा है आप सभी को जोशी जी लेख पसन्द आयेंगे।

सादर

एम् एस मेहता
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श्री नवीन जोशी जी का परिचय
 
NAVEEN JOSHI 

Date Of Birth                                 04.06.1956
Education                                        B. Sc.

Present Posting                              Executive Editor, Hindustan, Lucknow

Previous Posting                            Resident Editor, Hindustan, Patna

Professional Experience                 32 years in print media.

September 1978: began career as an apprentice with Swatantra Bharat, Lucknow. Appointed sub Editor in 1979 and promoted as Sr. Sub Editor in 1983.

Sept 1983: Joined Nav Bharat Times, Lucknow as Sub Editor and Promoted as Chief Sub Editor in 1985.

Sept 1991: Came back to Swatantra Bharat as Joint News Editor, became its Asst Resident Editor in 1992, Deputy Resident Editor in 1996 and Resident Editor in 1997.

Aug 1998: Joined Dainik Jagran, Lucknow as Editor Coordination.

Aug 1999: Joined as News Editor, Hindustan, Lucknow and became its Resident Editor at Patna in June 2002. Came back in Nov 2003 as Resident Editor, Hindustan at Lucknow and presently is its Executive Editor, looking after UP editons


Publications      :

‘Apne Morche Per’ and ‘Rajdhani Ki Shikaar Katha’, both collections of short stories and ‘Dawanal’, a novel on the famous Chipko movement of Uttaranchal.

Articles, features, interviews and editorial comments on Science, Literature, Politics, Environment and other relevant social issues.

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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NAVEEN JOSHI
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Born on 4th June 1956 in a far-flung village nestled amongst the Lower Himalayas, Naveen took to journalism fired by his sheer concern for the downtrodden. His pain for the victimised has invariably manifested in all his writings including innumerable features and columns over the last 28 years.
 
Naveen was mentored by the illustrious Editors Ashok ji and Rajendra Mathur during his early years as a journalist. Graduating in Science he joined Swatantra Bharat, the then leading daily of Lucknow as an intern apprentice. Naveen worked for Navbharat Times for almost 8 years before he rejoined Swatantra Bharat as its Resident Editor. He had a yearlong stint with Dainik Jagran after which he entered Hindustan, Lucknow as its News Editor and rose to become the Resident Editor of its Patna Edition in June 2002. He came back in 2003 to lead the Hindustan’s Lucknow team. Presently he is Executive Editor of Hindustan at Lucknow, looking after all UP editions

Naveen is best known for his upright and fearless editorial commitment. His human-interest features and regular columns have been widely acclaimed. Among his favourite topics are science, literature, environment, politics and media’s role in society. His passion for nurturing journalistic talent takes him to Lucknow University campus as a regular guest faculty in the department of journalism and mass communications.

An awarded storyteller, Naveen’s short stories have been published by well known literary magazines. He has two collections of short stories published to his credit and a novel  DAWANAL on the famous chipko movement in Uttarakhand, Himalayas.

He is married to Lata, a theatre activist herself, who also works for bank. They have two sons.


Joshi Ji with Former President and famous Scientist Dr APJ Kalam at Hindustan office, Lucknow


हेम पन्त

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यह हमारे लिये अति हर्ष का विषय है कि नवीन जोशी जी जैसे प्रतिष्टित लेखक व पत्रकार हमारे फोरम का एक हिस्सा बनने जा रहे हैं. उनका उपन्यास "दावानल" उत्तराखण्ड में अब तक हुए जनान्दोलनों का सजीव चित्रण करता है, मैं अब तक लगभग 10 बार "दावालन" पढ चुका हूँ.

जोशी जी के विचारशील लेखों का इन्तजार है.

पंकज सिंह महर

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नवीन जोशी जी जैसे प्रख्यात, विद्वान और अनुभवी पत्रकार और लेखक का मेरा पहाड़ से जुड़ना, उनकी उदारता को परिलक्षित करता है। मैने उनके ब्लागों पर उनके लेख पढ़े है और मैं समझता हूं कि हमें उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। अपने अपार अनुभवों से जोशी जी अब हमारे फोरम को भी अभिसिंचित करेंगे, यह हमारे लिये गर्व की बात है।

जोशी जी का स्वागत करते हुये, आशीर्वाद का आकांक्षी।

 मेरापहाड़ के जिज्ञासुओं को नई ऊर्जा से अभिसिंचित करने हेतु आपका यहाँ पर आगमन स्वागत योग्य है. 
नमो नारायण.

Rajen

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हर्षित मन कम्पित अधर, मन में है अभिमान,
आप जुड़ें 'मेरापहाड़' से, सुस्वागत है श्रीमान.

Naveen Joshi

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 प्यासी पौड़ी अर्थात तपते-सूखते पहाडों की पीडा

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25 मार्च 2010 को पूरे बीस साल बाद मैं पौड़ी (गढ़वाल) में था। सन् 1988 में युवा और जोशीले पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद पत्रकारों-संस्कृतिकर्मियों-समाजसेवियों के लम्बे संघर्ष से अपराधी कटघरे में आने लगे थे और 25 मार्च 1990 को उत्तराखण्ड के पत्रकारों ने पहला उमेश डोभाल स्मृति समारोह पौड़ी में आयोजित किया था। उसी समारोह में शामिल होने मैं चंद पत्रकार मित्रों के साथ तब पहली बार पौड़ी गया था, लेकिन मैं उमेश डोभाल या पत्रकारों के सरोकारों के बारे में लिखने नहीं जा रहा। यहाँ मैं बिल्कुल दूसरी ही चिन्ता में आपको शामिल करना चाहता हूँ।

25 मार्च 1990 को जब हम कोटद्वार से दोगड्डा, सतपुली होते हुए पौड़ी पहुँचे थे तो खिली धूप के बावजूद दोपहर में अच्छी ठण्ड थी। सड़क के नीम-अंधेरे कोनों, छायादार घाटियों में कुछ दिन पहले गिरी बर्फ तब भी जमी थी और हवा में उसका तीखापन मौजूद था। पौड़ी से हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों की लम्बी श्रृंखला ताजा गिरी बर्फ से चमक रही थी। वर्तमान में उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के प्रमुख सचिव शैलेष कृष्ण तब पौड़ी के जिलाधिकारी थे और लखनऊ के पत्रकार मित्रों से उनका अच्छा परिचय था। सो, उन्होंने हमें अगली सुबह चाय-नाश्ते के लिए आमंत्रित किया था। पौड़ी के जिलाधिकारी की कोठी शहर से काफी ऊँचाई पर है। जब हम सुबह करीब नौ बजे उनके घर पहुँचे तो पूरी कोठी की ढलुवा छत पर जमी बर्फ पिघलकर लगातार टपक रही थी। हम एक तरफ छत पर जमी बर्फ देखकर रोमांचित हो रहे थे तो दूसरी तरफ हिमालय की विशाल श्रृंखला हमें सम्मोहित कर रही थी। जाहिर है, जिलाधिकारी की कोठी सबसे मनोरम स्थान पर बनाई गई है। तब हम दो दिन पौड़ी में रहे थे और हर वक्त अच्छे गर्म कपड़े पहनने पड़े थे।

25 मार्च 2010 को भी हम लखनऊ से पर्याप्त गर्म कपड़े लेकर पौड़ी पहुँचे लेकिन सुबह-शाम को थोड़ी देर हल्के हाफ-स्वेटर के अलावा कुछ गर्म पहनने की जरूरत नहीं पड़ी। कई साथियों ने तो कोई भी गर्म कपड़ा नहीं पहना। वे टी-शर्ट और कमीज में आराम से थे। दिन में तो बाकायदा गर्मी महसूस हो रही थी। पौड़ी में बर्फ पड़ने का कोई नामोनिशान नहीं था। लोगों ने बताया कि मार्च छोड़िये, दिसंबर-जनवरी में भी बर्फ नहीं गिरी। दरअसल, अब वहाँ हिमपात बहुत कम होता है। पहले दो फुट तक बर्फ गिरना आम बात थी। इस बार हिमालय की बर्फीली चोटियों के दर्शन भी नहीं हुए। पर्वत श्रृंखलाओं पर धुंध की मोटी परत छाई हुई थी और हिम-शिखर भी उसी में ओझल थे। यह धुंध व्यापक है और बराबर बनी हुई है। चौकोड़ी, गोपेश्वर और नागनाथ-पोखरी की यात्रा से तभी लौटे शेखर पाठक ने बताया कि हिमालय के दर्शन कहीं से नहीं हो रहे। पहले ऐसी धुंध मई-जून के महीनों में ही पड़ती थी। फिर भी अक्सर सुबह-शाम हिमालय दिख जाता था। लेकिन अब पर्वत शिखरों पर धुंध की मोटी पर्त फरवरी-मार्च और अक्टूबर के महीनों में भी छाने लगी है, जबकि इन महीनों में हिमालय सबसे निर्मल और खिला-खिला दिखा करता था।

इस बार पौड़ी में पेयजल संकट की विकरालता से सामना हुआ। पीने के पानी का संकट अब लगभग सभी पहाड़ी शहरों को खूब सताने लगा है। पौड़ी में जगह-जगह हैण्डपम्प लगे हैं और दो-दो महिलाएँ उन्हें पूरे जोर से चलाती दिखीं जबकि वे बहुत कम पानी दे रहे थे। गोविन्द ने मजेदार किंतु त्रासद बात बताई। पौड़ी के ढाबों में पीने के लिए पानी मांगिए तो छोटी केतली सामने रख दी जाएगी। आप केतली से पानी की धार मुँह में डालिए और प्यास बुझाइए। न तो जरा भी पानी बरबाद होगा और न ही जूठा गिलास धोने में पानी जाया करना पड़ेगा। वैसे, केतली से पानी देने का चलन और कई जगहों में भी है। कोई संयोग नहीं कि इस बार के उमेश डोभाल स्मृति समारोह में चर्चा के दो विषयों में एक ‘पानी का संकट’ ही था।

26 मार्च की सुबह हम खिरसू गए। पौड़ी से 17 किमी दूर मनोरम स्थल। हिमालय तो खैर धुंध के मारे नहीं ही दिखना था, सेब के बगीचों के लिए कभी मशहूर रहे खिरसू में सेब का एक भी पेड़ नहीं मिला। चाय का ढाबा चला रहे युवक ललित ने बताया कि मेरे बच्चे सेब का पेड़ पहचानते तक नहीं। सेब के बगीचे कब के उजड़ गए। कारण? अब गर्मी बढ़ गई है और बर्फ लगभग नहीं पड़ती। हम सिर्फ अफसोस कर सकते थे। अलबत्ता पौड़ी से खिरसू का रास्ता घने बाँज-बुरांश वन से गुजरता है। ऐसे घने जंगल कम ही मिलते हैं। हवा अद्भुत रूप से ताजी और विविध खुशबुओं से भरी थी। सड़क के दोनों तरफ खूब बुरांश खिला था। बड़े-बड़े लाल-सुर्ख फूलों से लदे पेड़। मुझे बचपन में सुना लोकगीत याद आ गया-‘पारा भीड़ा बुरूंशी फुली रै, मींझे कूनूं मेरि हीरू ऐ रै।’ (सामने के वन में बुरांश फूले हैं और मुझे लगा जैसे कि मेरी हीरा वहाँ खड़ी हो!)

हमने गाड़ी रुकवाकर बुरांश के कुछ फूल तोड़े और उनकी पत्तियाँ चबाईं। बुरांश गुणकारी माना जाता है और अब उसके शर्बत का व्यवसाय उत्तराखण्ड में काफी होने लगा है। इस बार अच्छी बारिश न होने और बर्फ न पड़ने से बुरांश के फूल भी उतने रसीले और पुष्ट नहीं लगे। मगर पहाड़ में इस मौसम में बुरांश के फूल सम्मोहित करते हैं। हमारे साथी, पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष चितरंजन सिंह तो बुरांश के दो फूल लखनऊ तक लाए।

वापसी में हम लैंसडाउन रुके। चौतरफा ऊँची चोटियों के बीच अपेक्षाकृत छोटी पहाड़ी की पीठ पर बसा खूबसूरत लैंसडाउन भारतीय सेना में वीरता के लिए ख्यात गढ़वाल रायफल्स के मुख्यालय के लिए अंग्रेजों ने विशेष रूप से चुना था। इस छावनी क्षेत्र में बहुत कम सिविल आबादी है और इसीलिए अतिक्रमण से मुक्त भी। लैंसडाउन के बारे में बहुत सुना था। पहली बार देखा और तय किया कि फिर आऊंगा, कम से कम दो दिन यहाँ रहने। है ही इतनी प्यारी जगह। बाबा नागार्जुन को यह स्थान बहुत प्रिय था। इसके जयहरीखाल इलाके में वाचस्पति शर्मा के घर वे महीनों रहा करते थे। अब बाबा नागार्जुन तो रहे नहीं, वाचस्पति जी भी रिटायर होकर शायद बनारस चले गए। लैंसडाउन बाजार की कुछ दुकानों में अब भी बाबा को याद किया जाता है, जहाँ वे अक्सर चाय पीने बैठा करते थे।

हमें नजीबाबाद से लखनऊ के लिए ट्रेन पकड़नी थी। दोगड्डा आते-आते बहुत गर्मी लगने लगी। मार्च के महीने में पहाड़ जितने गर्म लगे, जिस तरह पौड़ी (जो नैनीताल के बराबर या ज्यादा ही ऊँचाई पर है) बर्फ और पानी को तरस रही है, जिस तरह हिमालय के शिखर वसंत में भी धुंध की मोटी पर्तों में खो गए हैं, वह पूरी यात्रा में हमारी चर्चा का विषय था और अब भी बना हुआ है। जितनी भी नदियाँ इस यात्रा में हमने देखी उनका सूखता पानी हमें भारी चिंता में डालता गया। सन् 2030 तक हिमालय के सम्पूर्ण गल जाने की गलत भविष्यवाणी करने के लिए डॉ. पचौरी की चाहे जितनी मलायत की गई हो, भारी गड़बड़ तो हो ही रही है। हमारे बचपन में किसी पहाड़ी शहर में पंखे या फ्रिज नहीं थे। आज नैनीताल-मसूरी में पर्यटक एसी कमरों की माँग करते हैं।

बीस साल में पौड़ी के बदलते मौसम का जो रूप हमने देखा वह डर पैदा करता है। आज से बीस वर्ष बाद क्या होगा?

 

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