उल्लू मुंडेर पर
उल्लू के मुंडेर पर बैठते ही मैं आशान्वित हो चुका था। अपनी चौहदी में लक्ष्मी की पर्दार्पण की दंतकथाओं पर विश्वास भी करने लगा। शायद ‘दरबारी आरक्षी‘ की तरह उल्लू मुझे खबरदार करने को मेरी मुंडेर पर टिका था। खबरदार! होशियार!! प्रजापालक श्रीहरि विष्णु की अर्धांगनी ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी जी पधार रही हैं! मेरी आकाक्षायें खुशी से झूमने लगी।
अब तक पत्थरों को बेरहमी से पीटते अपने हथौड़े को मैंने तब एक कोने में पटका। जहां वक्त ने मेरे बुरे दिनों के जाले बुने थे। यही जाले मेरी दरिद्रता के प्रमाण थे। तंगहाली के कोने में सरकाये हथौड़े की विस्मित दृष्टि से बेखबर, बेफिक्र था मैं। मैं तो लक्ष्मी की दस्तक का इंतजार कर रहा था। ‘लक्ष्मी‘ की अनुभूति में मेरी उत्तेजना बढ़ गई थी। भूल चुका था कि मैं नास्तिक हूं। उल्लुक आगमन शायद मेरे लिए आस्तिकता को लौटाकर लाया था। उसे शुभ मान बैठा था मैं।
उस दिन श्रीयुक्त लक्ष्मी निश्चित ही मेरे घर तक आयी। किंतु मेरे दरवाजे पर दस्तक देेने नहीं। बल्कि उल्लू को डपटने के लिए......। उस वक्त वैभवशाली सौंदर्य के बजाय रौद्र काली रूप धारण किया था लक्ष्मी ने। उल्लू को डांटते हुए बोली, जब देखो अपने जैसे लोगों के यहां जा बैठता है। देखी है, उसकी मैली कुचैली धोती, पहनावा। बेहद गुस्से में थीं वह। देखी है, उसकी बदबूदार झोपड़ी...... मिट्टी का बिछौना, फूस का ओढ़ना। मुझे तो क्या, तुझे भी क्या रख पायेगा यह दरिद्र। पड़ोसी ‘धनपत‘ का घर नहीं दिखता तुझे। जहां छप्पन भोग महक रहे हैं। सोने, जवाहरात से सजे आसन लगे हैं। ‘सुरक्षा‘ के लिए मजबूत तिजौरियां हैं।
उल्लू ‘लक्ष्मी‘ के इस रौद्र रूप से सहम गया था। कहने लगा, हे ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी! अमीर धनपत का घर मुझे रात में ही दिखता है। तब उसका घर रोशनी में अलग ही चमकता है। इस दोपहरी में तो मैं अंधा होता हूं। सो जहां-तहां बैठ जाना भी स्वाभाविक ही है। उल्लू के इस बहाने को भी लक्ष्मी समझ रही थी। तो, मैं भी लगभग झूठ ही मान रहा था। क्योंकि उजाला तो उसका बैरी है। फिर भला वह धनपत के उजाले से जगमगाते घर को कैसे देख पाता होगा। मुझसे उसकी मित्रता न सही, कभी करीबी न रही हो। तब भी शायद, कुछ अपनापा जरूर था। जो मेरी मुंडेर पर आ बैठा। कहने लगा, हे देवी! हां, यदि आप मिथक को तोड़ना चाहें तो.....। देवी लक्ष्मी ने उसे बड़ी जोर से डपटा, मूर्ख!!!
अब तक लक्ष्मी के प्रचलित रूप से अलग इस रौद्र अवतरण को देख मैं भी अन्दर तक दहल उठा। वाकई मेरी झोपड़ी में बरसों से चौका बुहारा तक न हुआ था। कल ही बनिये की ‘आखरी ताकीद‘ के साथ मैं अपने दुधमुंहे के लिए अन्नप्रासन का उधार लाया था। मन ही मन मैंने अस्थाओं के दीप जलाये थे। उजाला महसूस करने लगा था मैं अपने अन्दर। जबकि अपने ‘स्टेटस‘ के एकदम विपरीत मेरी झोपड़ी में दीवाली को नकार चुकी थी लक्ष्मी। उसे खुली आजादी से ज्यादा तिजोरियों की परतंत्रता में रहना कबूल था। शायद इसलिए भी कि समाज का नैतिक चरित्र अब आतंकित करने वाला हो चुका है, और ‘लक्ष्मी‘ कतई ‘रिस्क‘ नहीं लेना चाहती है।
इस बीच जहां धनपत का अमीर अमरत्व मुझे चिढ़ा रहा था। वहीं कोने में सरका दुबका बेरहम हथफड़ा हंस रहा था। बाहर पत्थर अपने दरकने की पीड़ा के अहसास के बाद भी मेरी रोटी के लिए हथौड़े को फिर-फिर आमंत्रित कर रहे थे। उस दिन उल्लू की ओट में लक्ष्मी की दुत्कार सुन मैं आत्मग्लानि में शायद बिखर ही जाता। लेकिन हर बार पत्थरों के टुटने की संभावनाओं ने मुझे ‘उल्लुक वृति‘ का हिस्सा बनने से रोक लिया।