प्रिय पाठकों अपना प्रथम लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ-कैसा लगा खुलासा बताईएगा. अब अगला लेख कुछ दिनों बाद हे संभव होगा-तब तक के लिए
'टेक केयर'.
डोलती धरती पर विकास
पिछली पोस्ट में मैने लिखा था कि युवा हिमालय यदि फिर सर हिला दे तो...! दरअसल हिमालय कि अवस्था टीनेज बालिका कि भांति है. देखने में सयानी पर मन उसका गुडिया खेलने में ही लगता है. वैसे ही २० लाख वर्ष पूर्व जन्मे हिमालय कि अवस्था है. महाद्वीपों कि टक्कर के बाद से एक करोड़ वर्ष तक तो हिमालय आकाश को चूमने के प्रयास में ही लगे हुए थे. उसके पश्चात् २० लाख वर्ष और लगे उनको वर्तमान रूप में आने में. इस बीच इन पर्वतों ने अनेक उतार-चढाव देखे. पर्वतों के बन जाने से दो बातें हुई-एक तो यह पूरे एशिया महाद्वीप के क्लाईमेट कंट्रोलर बन गए, दूसरे ने ढलान पैदा हो गए. जल धाराएँ भ निकली. जल जो प्रकृति का सबसे बड़ा मूर्तिकार और चितेरा है अपने साथ पर्वतों कि चट्टानों को काट-काट कर बहा कर ले जाने लगा. उधर चूंकि हिमालय ऊपर उठते ही जा रहे थे, जल धाराओं को काटने के लिए काफी 'मसाला' मिलने लगा. घाटियाँ गहरी और दर गहरी होती गयी. यह सिलसिला समाप्त नही हुआ है-अभी चल ही रहा है. जितनी बार भारतीय प्लेट एशियाई प्लेट से टकराती है उतनी बार सतह पर भूकंप के झटके महसूस होते हैं. ऐसा नही है कि यह झटके अभी कुछ साल से ही आ रहे हैं-यह तो सदियों सदियों से पर्वतीय क्षेत्र झेलता आ रहा है. आज की तारीख में भारतीय प्लेट तिब्बती प्लेट के अंदर औसतन २० मि मी प्रति वर्ष की डॉ से धंसती जा रही है.
ऊपर से शांत दिखने वाली हिमालय की इस डोलती धरती पर उभर कर आया है हमारा न्य राज्य अपना उत्तराखंड. नवोदित राज्य को सभी कुछ चाहिए, जिनमे बिजली मकान और सडक प्रमुख हैं. इन सबका अर्थ है निर्माण. दुर्भाग्य की बात है किसी भी क्षेत्र में निर्माण एवं पर्यावरण का ३६ का आंकड़ा रहता है. हमारे दक्ष अभियंता तकनीकी का प्रयोग कर दीर्घकालीन निर्माण कर लेते हैं. पर यह मात्र जल-विद्युत् परियोजनाओं तक ही सीमित होता है-क्योंकि इस प्रकार के निर्माण की लागत बहुत अधिक होती है.
भूकंप विज्ञानियों का दावा है की मध्य कुमाऊँ एवं पूर्वोत्तर क्षेत्र में भारतीय 'प्लेट' एशियाई 'प्लेट' में लगातार धंसने से काफी दबाव में है. इस बात को समझने के लिए एक लोहे की प्लेट (मोटी चादर) की कल्पना कीजिये जिसका एक सिरा मजबूती से जकड़ा हुआ हो. अब यदि दूसरे सिरे से लगातार दबाव डाला जाये तो एक अवस्था के बाद प्लेट चटखने लगेगी-तभी वः अपना तनाव कम कर सकेगी. कुछ यही हाल भारतीय 'प्लेट' का हिमालय के गर्भ में हो रहा है. जब-जब 'प्लेट' दबाव कम करने में सफल होती है तब-तब भूकंप आते हैं.
उत्तराखंड में पिछले २०० वर्षों में ११६ भूकंप आये जिनमे २८ विध्वंसकारी थे कहते हैं भैरतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के सुप्रसिद्ध भूकम्पविद डा प्रभास पांडे. इनके अनुसार उत्तराखंड एवं पड़ोसी राज्य नेपाल को भूकंप की आपदा के अनुसार चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पश्चिम नेपाल का क्षेत्र अत्यंत अधिक आपदा का क्षेत्र है. इसमें मर्केली स्केल के अनुसार एम् ६ तीव्रता के भूकम्पों की प्रति दस वर्ष में आने की संभावना है. इसके बाद उत्तराखंड का लगभग ३६% भूभाग जिसमें उत्तरकाशी, चमोली, बागेश्वर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, एवं चम्पावत जनपदों के अधिकाँश भाग सम्मिलित हैं अधिक आपद क्षेत्र एमिन आता है. ऐसे क्षेत्र में एम् ६ से अधिक व एम् ७ से कम तीव्रता के भूकंप प्रति १०० वर्ष में आ सकते हैं. उत्तराखंड का ४१% भूभाग जिसमे पुरौला, टेहरी, रुद्रप्रयाग, ग्यारसैन एवं हरिद्वार क्षेत्र आते हैं, मध्यम आपद क्षेत्र है-जिसमे एम् ५ से अधिक किन्तु एम् ६ से कम तीव्रता के भूकंप प्रति १०० वर्ष में आ सकते हैं. राज्य के बचे हुए २३% क्षेत्र अर्थात रूडकी, पौड़ी, नैनीताल एवं उधमसिंहनगर कम आपद वाले क्षेत्र हैं.
किसी भी क्षेत्र के लिए इस प्रकार की सूचना पूर्व में आए भूकम्पों के आंकलन पर आधारित होती है तथा उसका समय-समय पर आंकलन आवश्यक होता है.
भूकंप की विशेषता होती है की उससेलोई मरता नहीं. लोग तो अपने ही आशियाने तले तब कर बेमौत मारे जाते हैं. विकसित देशों में इसीलिए भूकंप रोधी भवन बनाने का चलन है. इस समय उत्तरखंड में रिहायशी भवन, स्कूल एवं अस्पताल आदि का निर्माण चरम सीमा पर है-इसलिए यही समय है इन सब प्रकार के निर्माणों को सख्ती के साथ भूकंपरोधी करवाने का. माना की इसमें लगभग २५% अतिरिक्त लागत आयेगी, पर सोचिये कितने प्रतिशत लोग अकाल काल के गाल में जाने से बच सकेंगे!
अमरीका की 'वर्ल्ड एजेंसी ऑफ प्लेनेटरी मॉनीटरिंग एंड अर्थक्वेक रिडक्शन' के मैक्स वाईस के अनुसार आबादी का घनत्व देखते हुए ८.१ रिक्टर परिमाण का भूकंप मात्र देहरादून में ९६,००० १,१९,००० जाने ले सकता है, तथा २१० से ४३३ हजार लोगों को घायल कर सकता है. कुछ ऐसा ही अनुमान है आई आई टी रूडकी के प्रो ऐ एस आर्य का भी. उनके अनुसार अधिक परिमाण के भूकंप से देहरादून में १००००० से १५०००० जाने जा सकती हैं.
उत्तराखंड में १८००० मेगावाट पनबिजली उत्पादन की सामर्थ्य है. फिलहाल इसका मात्र १०% ही उपयोग हो पाया है. भावी परियोजनाओं को बनाते समय भूकंप की सम्भावनाओं एवं उससे घनी आबादी वाले मैदानी नगरों पर सम्भावित खतरों के दूरगामी प्रभावों को भी मद्देनजर रखना होगा. भूकंप से बाँध न टूटने पायें इसका प्रावधान तो हमेशा रहता है, पर कठिनाई आती है बाँध के पीछे बनी झील से आने वाले भूकम्पों के जोखिम को आंकने की. दुसरे शब्दों में पं बिजली जितनी सस्ती समझी जाती है उतनी ही जोखिम भरी भी होती है.
उत्तराखंड की लगभग २२% आबादी छह सर्वाधिक जोखिम वाले भूकंप आपद जनपदों में बस्ती है. अच्छाई यह है की प्रदेश का आपदा प्रबंधन तन्त्र काफी जागरूक है. पर उसकी सक्षमता संदेह से प्री नही है. अन्यथा मध्यमाहेश्वर, धारचूला एवं उत्तरकाशी में भूकंपरोधी मानकों की खुले आम अवहेलना करते हुए हाल के वर्षों में बहुमंजिले भवन न बन पाते. गो की यह भी सम्भव है की आपद प्रबंधन तन्त्र को इस प्रकार के निर्माण पर रोक लगाने का अख्तियार ही न हो!
डोलती धरती पर विकास के लिए उत्तराखंड की सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे. आँख मूँद कर नक्शे पास करने वाले आधिकारियों को यह भी सोचना होगा की उन मकानों में से कुछ उनके अपने सगों के भी होंगे.
भूकम्प की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती अतएव 'चलेगा' वाले रवैय्ये से काम नहीं चलेगा. इस रवैय्ये कच्चे पहाड़ों पर बने पक्के मकान खतरे से खाली नहीं रहेंगे.