Author Topic: Articles On Environment by Scientist Vijay Kumar Joshi- विजय कुमार जोशी जी  (Read 26345 times)

VK Joshi

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कांपती धरती और विकास


नवोदित राज्य उत्तराखंड में भले ही अभी राजधानी को लेकर एकमत न हो, पर फिलहाल तो राजधानी देहरादून ही है. पिछले लेख में आपने पढ़ा था कि पृथ्वी के भीतर अशांति लगभग हर समय मची रहती है-कुछ न कुछ हर समय चलता रहता है. देहरादून के घंटाघर से राजपुर रोड का इलाका राजधानी बनने के साथ ही अचानक भव्य हो गया. मसूरी के 'गनहिल' को चुनौती देती भव्य अट्टालिकाएं, बहुमंजिली होटल आदि देख कर लगता है 'कितना विकास हो गया.' कितना स्थाई व निरापद है यह विकास? आज कुछ इस पर चर्चा करें.

कच्छ भूकंप (२६ जनवरी २००१) के दौरान अहमदाबाद में एक विचित्र घटना घटी. मात्र तीन वर्ष पूर्व बने अक्षय एपार्टमेंट के सभी १२ फ्लैट चूर चूर हो गए-जबकि मात्र ३० मीटर दूर बने गौतम कृपा एपार्टमेंट को नुक्सान नाम मात्र का ही हुआ. यह कोई दैवी संयोग नही था. ऐसी अनहोनी घटनाएँ मेक्सिको सिटी (१९८५), सैन फ्रांसिस्को (१९८१) तथा लॉस एंजिल्स (१९९५) में भी देखी जा चुकी थी. पर कुछ तो कारण रहा होगा इस प्रकार की घटना का? जी हाँ कारण है-भूवैज्ञानिकों का कहना है कि जिस प्रकार तरंगों के माध्यम से ध्वनि एक स्थान से दुसरे स्थान तक जाती है, ठीक उसी प्रकार भूकंप की तरंगे भी भूकंप के केंद्र से दूर दूर तक जाती हैं. भूकंप विज्ञानियों ने हाल के कुछ वर्षों में आये कुछ भूकम्पों का अध्ययन कर पाया कि कुछ क्षेत्रों में भूकंप केंद्र से अधिक दूरी होते हुए भी ईमारतों को बहुत नुक्सान हुआ. पता चला कि भूकंपीय तरंगों की विस्तीर्णता (एम्प्लीफिकेशन) अपने मार्ग में आने वाले भिन्न माध्यमों में घटी-बढती है. इन तरंगों की विस्तीर्णता का सीधा प्रभाव मार्ग में आई ईमारत की नींव पर पड़ता है. यदि भूकम्पी तरंग एवं ईमारत में पैदा हुई तरंगों में अनुस्पंदन (रेजोनांस) हो गया तो ईमारत ढह जाती है-जैसा कि अहमदाबाद में हुआ.

हाल के कुछ वर्षों में आबादी के दबाव एवं गृह निर्माण के लिए जमीन की कमी के कारण ऊंची अट्टालिकाएं बनाने की प्रथा चल पड़ी है. देश के जो क्षेत्र भूकंप के लिए निरापद हैं, वहां तो भूकंप रोधी एवं बहुमंजिली ईमारतों के निर्माण में लिए जाने वाले आम एहतियातों से आराम से उनको बनाया जा सकता है. पर भूकंप आपद क्षेत्र, विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों में तो बहुमंजिली ईमारतें बहुत सोच-समझ कर बनानी होती हैं. पिछले दशक में भूकंप विज्ञान ने जो उन्नति की उसके बाद अब तो आपद क्षेत्रों में यह जानना नितांत आवश्यक हो चुका है किस इलाके या मोहल्ले में भूकंप तरंगे अधिक नुक्सान कर सकेंगी. अति-सूक्ष्म भूकम्पीय सर्वेक्षण द्वारा भारत में भी अब ऐसी जानकारी एकत्रित की जा रही है.

जान-माल की सुरक्षा के लिए इस प्रकार की जानकारी उन क्षेत्रों के लिए अधिक महत्व रखती है जहाँ भूकम्पविदों के अनुसार भविष्य में बड़ा भूकंप आ सकता है. जाने माने भूवैज्ञानिक प्रोफेसर खड्ग सिंह वल्दिया के अनुसार १९०५ के काँगड़ा भूकंप के बाद से उत्तराखंड के केन्द्रीय कुमायूं (अल्मोड़ा-बागेश्वर जनपद) एवं देहरादून में बड़े भूकंप आने की सम्भावना बहुत अधिक है. कब आएगा यह भूकंप-इसका उत्तर तो समय ही दे पायेगा, पर औसतन विध्वंसकारी भूकंप १०० वर्ष के अंतराल में आते हैं. इस समय भूभौतिकिविदों के अनुसार भी इस क्षेत्र का भूगर्भ तनाव में है.

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने देहरादून का अति-सूक्ष्म भूकंपीय सर्वेक्षण किया. देहरादून नगर ने काँगड़ा (१९०५), उत्तरकाशी (१९९१) एवं चमोली (१९९९) में आये भूकम्पों की मार झेली है. आज के सन्दर्भ में देहरादून की स्थिति गम्भीर और विचारणीय इस लिए है कि फिलहाल राजधानी होने के कारण आबादी का दबाव यहाँ पर अन्य नगरों की अपेक्षा कई गुणा अधिक है. इसका प्रमुख कारण है वहाँ हो रहा अंधाधुंध निर्माण.

दून घाटी उत्तर एवं दक्षिण में स्थित पर्वत श्रेणियों से कालान्तर में बह कर आई बजरी, बालू एवं मृदा से भरती गयी. इस कारण यहाँ सतह के नीचे भिन्न प्रकार के अवसादों की परते पाई जाती हैं. इन परतों की मोटाई घाटी के दक्षिणी भाग में अधिक तथा उत्तर में कम है. भूकंप की तरंगें अवसाद की इन परतों से होकर जब गुजरती हैं तो उनका असर कहीं अधिक व कहीं कम होता है.

देहरादून नगर के लिए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (भा भू स) तथा वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिमालयन जिऔलौजी के ऐ के महाजन ने अलग अलग अति सूक्ष्म भूकंपीय सर्वेक्षण कर अपनी संस्तुति दी है जिस पर गौर करना देहरादून वासियों एवं सरकार दोनों के लिए हितकारी होगा. भा भू स के अध्ययन से पता लगा है कि नगर का दक्षिणी भाग (पिट्ठूवाला, नयानगर, टुनतावाला, हरभजनवाला आदि) में भूकंप से भारी नुकसान हो सकता है. नगर के केन्द्रीय भाग (ओली से गुजरनी तक का भाग) में मध्यम दर्जे का नुकसान हो सकता है. भा भू स के जाने-माने भूकम्पविद, उपमहानिदेशक प्रभास पांडे के अनुसार देहरादून से ९० से १०० कि मी की दूरी पर हिमालय में १२ से १५ कि मी की गहराई में लगभग ८ परिमाण के भूकंप आने से एम् एस स्केल में आठ व नौ तीव्रता का असर होगा. इस तीव्रता के दौरान लोगों को खड़े होने में कठिनाई होती है, घर में रखा फर्नीचर उलट-पुलट हो जाता है, ऊपर रखा सामान नीचे गिर पड़ता है, कच्ची जमीन पर भूकंप की लहरें दिखने लगती हैं, सतह पर बड़ी और गहरी दरारें पड़ जाती हैं, भगदड़ मच जाती है, कमजोर घर नष्ट हो जाते हैं और पक्के बने मकानों में भी खासा नुकसान हो जाता है, जमीन के अंदर दबे पाईप फट जाते हैं, धरती तक फट जाती है तथा भारी भूस्खलन होने लगता है. अब आप स्वयं जान गए होंगे कि साधारण सी लगने वाले ८ और ९ की संख्या से कितना भारी नुकसान हो सकता है!  इस प्रकार के भूकंप नुकसानदेह से विध्वंसकारी श्रेणी में आते हैं.

ऐ के महाजन भी संस्तुति करते हैं कि देहरादून में भूकंप से खतरे को देखते हुए स्थान विशेष के लिए विशेष डिज़ाइन के भवन ही बनाए जाने चाहिए. इन भवनों को बनाने में भले ही लागत अधिक आती है पर कमसे कम जान और माल का नुकसान तो नहीं होता.

अगला भूकंप कब आयेगा यह तो नहीं कहा जा सकता, पर पूर्व भूकम्पों के अध्ययन एवं चलायमान भारतीय प्लेट के चरित्र को देखते हुए घनी आबादी वाला देहरादून नगर एक प्रकार के प्राकृतिक 'टाइम बम' पर बैठा हुआ है. इसलिए भूकम्पविदों की सलाह पर गौर करना आवश्यक है. कहावत है 'ऐ स्टिच इन टाइम सेवस नाईन'-यानी समय रहते बचाव आपद के बाद किए गये उपायों से कहीं अधिक कम खर्चीला और प्रभावकारी होगा.   
जय हिंद.

VK Joshi

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भूकंप बनाम पृथ्वी का इलेक्ट्रो-कार्डियोग्राम

अचानक कोई प्रियजन अस्वस्थ हो जाता है और आप तुरंत उसे अस्पताल ले जाते हैं. वहाँ पर डॉ उसके जांच कर आवश्यकता समझने पर इलेक्ट्रो-कार्डियोग्राम (ई सी जी) करते हैं. चंद मिनिटों में डॉ आपको बताते हैं कि मरीज़ को दिल का दौरा पड़ा है, तथा उसे भरती कर उपचार चालू कर देते हैं. दरअसल दिल की बात तो दिल हे समझ सकता है, पर ई सी जी की मदद से डॉ भी अंदर की बात जान लेता है. जिस प्रकार दिल का दौरा पड़ने पर ई सी जी अंदर की बात डॉ के सामने रख देता है कुछ उसी प्रकार भूकंप आने पर प्रथ्वी के अंदर का हाल भूविज्ञानी जान लेते हैं.
जब कोई दिल का मरीज अस्पताल में भरती होता है तो डॉ उसका पूर्वातिहास पूछता है. उससे डॉ को अपने निष्कर्ष में पहुंचने में सहायता मिलती है. भूविज्ञानी भी इतिहास में आये भूकम्पों की जानकारी एकत्रित कर पृथ्वी का पूर्वातिहास जानने की कोशिश करते हैं. इस प्रकार प्राप्त सूचना को मानचित्र में रख कर यह जानने की कोशिश करते हैं कि अमुक क्षेत्र में पूर्व में कैसे भूकंप आ चुके तथा उनके भविष्य में आने कि सम्भावना कैसी है.
कब आयेगा अगला भूकंप यह तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन कौन सा क्षेत्र भूकंप के लिहाज से अधिक असुरक्षित है यह अवश्य भूविज्ञानी बता सकते हैं. छोंकी उत्तराखंड में पूर्व में बड़े भूकंप आ चुके हैं, तथा वहां की भूवैज्ञानिक स्थिति भी कुछ ऐसी है कि वहां बड़े भूकंप आने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता.
आइये एक नजर डाले एशिया व देश के इतिहास में आ चुके कुछ भूकम्पों पर.
तीन हजार वर्ष पुराने चीनी आलेखों और लगभग उसी काल की ईरानी कविताओं और पद्यों में बड़े भूकंप का जिक्र है. यह शायद भूकंप के सबसे पुराने रिकार्ड हैं-बहुत वैज्ञानिक तो नहीं परन्तु इनसे यह तो अनुमान हे लग जाता है कि तब भी भूकंप से सभ्यता डरती थी. इसीप्रकार एतिहासिक काल में कहते हैं कि पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का ब्राह्मनाबाद एक भूकंप से पूरी तरह ध्वस्त हो गया था. पर इस प्रकार की घटनाओं का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है.
भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ विध्वंसकारी भूकंप:
भारतीय उपमहाद्वीप से सबसे पुराने भूकंप का अर्ध-वैज्ञानिक वर्णन मिलता है १५ जुलाई १५०५ को दिल्ली-आगरा क्षेत्र में आये भूकंप का. इसके बाद १६६८ में पश्चिमी भारत के नगर सीमाजी में ३०,००० घरों के नष्ट हो जाने का रिकार्ड मिलता है.
मुग़ल काल के इतिहासकार कैफीखान ने अपने 'मुन्ताखाबुल उल लुलाब' में लिखा है कि १५ जुलाई १७२० को २२वी रमजान की नमाज़ आता करने जमात मस्जिद में एकत्रित थी कि अचानक जमीन के अंदर से दहाड़ने की सी आवाजें आने लगी. इतना तगड़ा जलजला (भूकंप) था कि लोग हक्के=बकी रह गए. चंद लम्हों में शाहजहानाबाद (आज की दिल्ली) में हजारों लोग मौत के आगोश में चले गये अनगिनत ईमारतें ज़मींदोज़ हो गयी. फतेहपुर के मस्जिद के मीनारे ढह गयी. इसके बाद ४० दिन तक भूकंप के झटके महसूस होते रहे-जैसे इन दिनों चिली में हो रहे हैं.
एक और अपने देखा कि जहाँ १५ जुलाई का दिन लोगों के लिए दुहस्वप्न के भाँती था उसी प्रकार ११ अक्टूबर १७३७ को कलकत्ता में इतना भयंकर भूकंप आया कि तीन लाख जाने चली गयी. गो कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बारे में इतिहास में और कोई जिक्र नहीं है कि इसके सम्पुष्टि के जा सके. यह भी हो सकता है कि भूकंप के बजाय इतनी जाने चक्रवात से चली गयी हों! उधर १७६२ में बंगलादेश में टकसाल के लिए प्रसिद्ध चटगाँव में ऐसा भूकंप आया कि अनेक छोटे द्वीप जो कि समुद्र में डूबे हुए थे उभर कर ऊपर आ गये.
इसी प्रकार ४ जून १७६४ को गंगा के मैदानी क्षेत्र में जबरदस्त भूकंप आया-अनगिनत जाने चली गयी और न जाने कितने घर नेस्तनाबूद हो गये! यह पढ़ कर सिहरन सी होती है, क्योंकि आज इस क्षेत्र में ४० करोड़ से भी अधिक लोग बसते हैं. कहीं पुनरावृत्ति हो गयी तो!
सितम्बर १, १८०३ को सुबह ३ बजे अचानक मथुरा-दिल्ली क्षेत्र में जबर्दस्त भूकंप आया. मथुरा में जगह जगह धरती फट गयी और उन बड़ी बड़ी दरारों से तेज़ी से पानी आने लगा. हजारों भवन चंद मिनिटों में नष्ट हो गये. घज़ी खान की बनाई सारी म्स्ज्दों के गुम्बद लुडक कर नीचे आ गिरे. इनमें से एक लुडक कर धरती में पड़ी दरार में चला गया और गायब हो गया. दिल्ली में भी बहुत नुकसान हुआ, कुतुबमीनार का सबसे ऊपरी हिस्सा टूट कर नीचे आ गिरा. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (भा भू स) के टॉमस ओल्ढम के अनुसार यह भूकम रिक्टर स्केल पर ६.५ का रहा होगा!
कच्छ (भुज) का २६ जनवरी २००१ का भूकंप अभी भी बहुत से लोगों के मानसपटल में ताज़ा होगा! पर आपको यह पढ़ कर अचम्भा होगा कि १६ जून १८१९ को वहां आया भूकंप भी कोई कम,जोर न था. इतना जबर्दस्त था वह भूकंप कि कच्छ के रण में सिंध से आठ कि मी उत्तर में एक तीन मीटर ऊंची तथा ६५ कि मी लम्बी मृदा की दीवार बन गयी. स्थानीय लोगों ने इसे नाम दिया 'अल्लाह बंध' अर्थात अल्लह का बनाया बंध. उस समय का प्रमुख नगर भुज इस भूकंप में पूरी तरह नष्ट हो गया. ध्यान रहे कि २००१ के भूकंप में भी भुज लगभग नष्ट ही हो गया था, पर नमन है गुजरातवासियों को जिन्होंने जी तोड़ मेहनत कर अपने नगर को पुनः पूर्व से भी अच्छा बसा लिया. १८१९ में आबादी कम थी इसलिए मात्र २००० जाने ही गयी तबके गुजरात में. पर इसी भूकंप ने अहमदाबाद की एक मस्जिद में एकत्रित ५०० लोगों की जान ले ली थी.
यह भूकंप इतना तगड़ा था कि इसके झटके उत्तर में सुल्तानपुर, जौनपुर, मिर्ज़ापुर (उ प्र) में तथा कोलकाता में भी महसूस किये गये. भा भू स के टॉमस ओल्ढम ने इस भूकंप को रिक्टर स्केल पर८.३ तीव्रता का आँका था-ध्यान देने की बात यह है कि ८ तीव्रता के ऊपर के भूकंप का अर्थ होता है समूची तबाही.
इसके १४ वर्ष बाद ही २६ अगस्त १८३३ का दिन काठमांडू (नेपाल) निवासियों के लिए न भूला जा सकने वाला दिन बन गया. ऐसा भूकंप आया कि झीलों और तालाबों से पानी की लहरे सागर में आये ज्वार की भाँती उठने लगी, पक्षी अपने घोंसले छोड़ बेचैन उड़ने लगे. १०० से अधिक घर नष्ट हुए, जो लोग बच गए वह भय से जडवत से हो गए.
उस समय के भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र १९ फरवरी १८४२ को बुरी तरह थर्रा उठा. इस भूकंप का केंद्र जलालाबाद (पाकिस्तान) में था-जहाँ नगर का एक तिहाई भाग भूकंप से नष्ट हो गया था. काबुल, पेशावर, फिरोजपुर, लुधियाना तक इस भूकंप के तगड़े झटके महसूस हुए-अनेक लोग मारे गये. टॉमस ओल्ढम ने १८९३ में इस भूकंप का आंकलन कर पाया कि इससे २१६,००० वर्ग कि मी क्षेत्र  प्रभावित हुआ था.
पूर्वोत्तर भारत में १८६९ का कछार भूकंप उस समय तक का सबसे भयंकर भूकंप था. इसका केंद्र था असाम का उत्तरी कछार जिला. सिलचर नगर सबसे अधिक प्रभावित हुआ था इस भूकंप से. पर कोलकाता वासी भी इसके झटकों से बच न पाए थे. अनेक स्थानों पर नदियों, झील व तालाबों से पानी की लहरे ज्वार की भांति उठने लगी तथा अनेक झीलों में पानी झील से बाहर आने लगा. पोला, बराक एवं धुलेसर नदियों में घहरी दरारें पड़ गयी जिनसे पानी व रेट के फुहारे छूटने लगे. टॉमस ओल्डहम के सर्वेक्षण से पता चला कि इस भूकंप से हजारीबाग, पटना, दार्जीलिंग एवं उत्तरी लखीमपुर आदि कुल मिला कर ६,४७,५०० वर्ग कि मी क्षेत्र प्रभावित हुआ.
कछार भूकंप ने भारत में भूकम्पों के वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन की तकनीक को जन्म दिया. भारत में भा भू स स्थापित करने वाले टॉमस ओल्ढम की कछार भूकंप की सर्वेक्षण रिपोर्ट उनके बेटे आर डी ओल्ढम ने १८८२ में भा भू स के अभिलेखों में प्रकाशित किया.
अभी तीन वर्ष भी न बीते थे कि ३० मई १८८५ को एक तगड़े भूकंप से काँप उठी कश्मीर घाटी. भूकंप के बाद किये गये सर्वे से भा भू स के ई जे जोन्स ने पाया कि भूकंप का केंद्र कश्मीर में १२ कि मी की घहराई पर था.
उन दिनों लगता था कि प्रकृति मनो रुष्ट है! तभी तो १२ जून १८९७ को असम में भूकंप आया जिसे नाम दिया गया 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक'. इस भूकंप से पूर्वोत्तर राज्य एवं पश्चिमी बंगाल प्रभावित हुए थे. भूकंप ने १,२७५,००० वर्ग कि मी क्षेत्र को प्रभावित किया था. इसकी भूकंपीय सर्वे आर डी ओल्ढम ने भा भू स के 'मेमोयर' में प्रकाशित की. 
असम के भूकंप के समय १९वी शताब्दी के अंत तक विश्व में कुछ स्थानों पर भूकंप मापी यंत्र (सायिस्मोग्रफ) का प्रयोग प्रारंभ हो चुका था. प्रथम भूकंप मापन स्टेशन तुर्की के इस्ताम्बुल में स्थापित होने के बाद से भूकम्पों का आंकलन उपकरणों द्वारा होने लगा. उसके पूर्व तो भूकंप आते हे भूवैग्यानियों को पूरे क्षेत्र का सर्वे करना पड़ता था. करना तो वह अब भी पड़ता है, पर तकनीकी के विकास के कारण यह कार्य काफी सुविधाजनक हो चुका है.
जब तक ई सी जी मशीन नहीं बनी थी डॉ मरीज की नब्ज़ एवं अपने आले से ही अनुमान लगाया करते थे-उसी प्रकार भूवैज्ञानिक भी पृथ्वी की नब्ज़ भूकंप के समय या उसके तुरंत बाद पकड़ा करते थे. डॉ की भाँती आज भी नब्ज़ तो पकडनी ही पडती है पर उपकरण कार्य को सुगम कर देते हैं.
भूकंप तो पृथ्वी कि धडकन हैं वो तो नहीं रुक सकती, पर हमको तो यह ध्यान रखना चाहिए कि भूकंप संभावित क्षेत्रों में जिनमे हमारा पहाड़ भी आता है बहुमंजिली इमारतें बनाते समय भूकंप विज्ञानियों से परामर्श तो कम से कम ले लें. जब तक दिल का दौरा नहीं पड़ता हम सब मस्त रहते हैं पर जब यकायक हार्ट अटेक हो जाता है तब मचती है भगदड़. ऐसा ही शांत दिखने वाले क्षेत्रों में भूकंप के बाद होता है. पहले से ही क्यों न तय्यारी रखें!
अगले लेख में आप पढ़ेंगे हमारे पूर्वज पहाड़ में कैसे स्थापत्य का प्रयोग करते थे कि बड़े बड़े भूकंप आये और चले गये, पर उन मकानों को क्षति नहीं पहुँची. प्रतीक्षा कीजिये.
जय हिंद.

VK Joshi

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कुछ बातें पर्यावरण की
हमारे देश में पर्यावरण को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं. उदाहरणार्थ, बहुधा लोग यह समझते हैं कि पर्यावरण का अर्थ केवल जल या वायु प्रदूषण है. ऐसा नहीं है. पर्यावरण का अर्थ है हमारे चारों ओर ज़मीन पर, जमीन के नीचे, एवं वायुमंडल में जो कुछ भी है वाह हमारा पर्यावरण है. दूसरे शब्दों में हमारा लिथोस्फियर (थल मंडल), एटमोस्फियर (वायु मंडल) तथा हाईड्रोस्फीयर (जल मंडल) तीनो मिलकर बनाते हैं हमारा पर्यावरण. यह तीनो आपस में इतने घुले-मिले हैं कि यदि एक को नुकसान पहुँचाओ तो दूसरा स्वतः प्रभावित हो जाता है. जैसे- वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा अधिक बढने से पृथ्वी पर ग्रीन हॉउस इफ्फेक्ट हो रहा है-आप अक्सर खबरों में पढ़ते होंगे! इसके कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि में हो रही है. पृथ्वी अर्थात थल मंडल का तापमान यदि बढ़ता ही जायेगा तो हिमनद तेज़ी से पिघलेंगे, बाढ़ आयेगी, मौसम अजीबो-गरीब खेल दिखायेगा-कहीं सूखा पड़ेगा तो कहीं बाढ़ आयेगी.
इसलिए पर्यावरण की जब बात हो तो इन सब मंडलों को ध्यान में रखना पड़ता है. छोटी छोटी बातों से फर्क पड़ता है. आप में से बहुत से पाठक नैनीताल से होंगे या वहां गए अवश्य होंगे! कटोरे जैसे नैनीताल में सब तरफ के पर्वतीय ढलानों से वर्षा का जल बह कर झील में आता है. नैनीताल को बसाते समय इस बात का पूरा प्रबंध किया गया कि पक्की साफ़ नालियां और नाले ढलानों से पानी की निकासी सुगमता से हो जाये. यदि ऐसा न किया गया होता तो अब तक अयारपाटा का पहाड़ पानी के साथ बह कर झील में समा चुका होता. पर आजकल मानसिकता बदलती जा रही है. गधेरे के ऊपर खम्भे बनाकर या स्लेब डालकर घर बना लिए जाते हैं. गधेरा मलबे से पट जाये क्या फर्क पड़ता है? पर जनाब बहुत फर्क पड़ता है- क्या फर्क पड़ता है पानी की निकासी न होने से-भविष्य के किसी लेख में उस बारे में बताऊँगा.
आज तो पर्यावरण के कुछ और तथ्य आप लोगों को बताने वाला हूँ.
आप में से अनेक लोग शायद जानते होंगे कि:
जंगल काट दिए जाने पर १०० वर्ष लगते हैं वृक्षों को अपने पूरे स्वरुप में आने में.
किसी स्थान से यदि मिट्टी हटा ली जाती है (विकास के लिए, या भूस्खलन/बाढ़ आदि से) तो उसे १००० वर्ष लगते हैं दोबारा पनपने में.
और यदि किसी भूआकृति को हमने अपनी सुविधा के लिए बदल डाला (जैसे पर्वत को भेद कर सुरंग या काट कर सडक बनायीं, या पर्वतों के बीच नदी में बांध बनाया-टिहरी), तो वह दोबारा कभी वापस नहीं मिलती.
इन बातों को ज़रा गौर से सोचिये. वनों की अवैध कटान से कितने नुकसान एक साथ होते हैं-१. वृक्ष वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने में सक्षम होते हैं. वृक्षों को काट कर भले ही सुंदर घर या फर्नीचर हम बना रहे हों पर जाने अनजाने में आने वाली पीढ़ियों को इस वसुंधरा का सुख भोगने से वंचित कर रहे हैं. इसी प्रकार २. वृक्षों की जड़ें मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं. वृक्ष जो कटे, भले ही सरकार उनके बदले नये वृक्ष लगा दे, पर उनके कटने से जो मिट्टी बारिश में बह कर चली जायेगी उसकी पूर्ती तो सरकार कर ही नहीं सकती-क्योंकि यहाँ तो ५ साल में सरकार बदल जाती हैं मैं तो १००० वर्ष की बात कर रहा हूँ.
जैसे सुख एवं दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू समान हैं वैसे ही इस धरा पर प्राकृतिक आपदाएं भी पर्यावरण का दुःख वाला पहलू है. आपदाएं प्राकृतिक तो होती ही हैं मानव जनित भी होती हैं. हमारे पहाड़ की प्रमुख आपदाएं हैं हिमस्खलन, भूकंप, भूस्खलन एवं बाढ़. इन सबके बारे में मैं समय-समय पर आपको बताऊँगा. यह तो प्रकृति के खेल हैं, इन पर काबू पाने की चेष्ठा से अधिक इनसे बचाव के उपायों को जानना अधिक ज़रूरी होगा. पर मानवजनित आपदाओं पर रोके तो आपको स्वयं लगानी होगी. एक घटना है सन २००० की. एक मीटिंग के सिलसिले में मैं ११ अगस्त को अल्मोड़ा गया था. लखनऊ से अल्मोड़ा की पूरी सडक यात्रा लगातार बारिश में चलती रही. काठगोदाम से अल्मोड़ा के मार्ग में छोटे-मोटे भूस्खलन थे-सडक लगातार साफ़ की जा रही थी और यातायात बिना किसी विशेष असुविधा के चलता रहा. १२ अगस्त की सुबह चूंकि मीटिंग के अन्य सदस्यों को आने में देरी थी इसलिए अल्मोड़ा नगर का एक चक्कर लगाया-अधिक तो नहीं पर १७ भूस्खलन चारों ओर नगर के मिले.रास्ते में जो भी मिला सरकार को कोस रहा था. पर विश्वास मानिये सभी भूस्खलन नगरवासियों की देन थे. सबका कारण एक ही था-बारिश के जल की निकासी न होना, या उसमे रूकावट होना.
आप सब जानते हैं कि पहाड़ में जमीन को काट कर चौरस कर घर बनाते हैं. पीछे या साईड में जो दीवारें होती हैं उनमे बीच बीच में जल निकासी के लिए छेद (वीपहोल) छोड़े जाते हैं. अब यदि आप उन दीवारों को पलस्तर कर उनके ऊपर लिंटल ड़ाल कर और कमरे बनाले और बरसात में पानी के दबाव में बंद हो चुके 'वीप होल' से भरभरा कर पानी और मिट्टी आकर आपका नया कमरा नष्ट कर दे तो उसमे सरकार का क्या दोष?
बातें तो बहुत सी हैं-पर इस समय विशेष बात यह कहना चाहता हूँ कि मात्र जल या वायु प्रदूषण रोकने या वृक्षों की कटान रोकने से ही पर्यावरण का भला नहीं होने वाला. यदि आप चाहते हैं कि पहाड़ का पर्यावरण वैसा ही नैसर्गिक हो जाये जैसा आपके ग्रैंड पेरेंट्स बताते हैं तो जनाब आप भी प्रकृति की नब्ज़ पहचानिए, छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखिये-मात्र सरकार या पड़ोसी को कोसने से न सुधेरने वाला पहाड़ का नाज़ुक पर्यावरण.
चूंकि मैंने लेखों कि श्रृखला प्रारम्भ की थी भूकंप की आपदा से तो अब अगले कुछ लेख आप उसी के बारे में पढेंगे. आज का लेख तो मात्र एक पर्यावरण के उस पहलू से परिचय था जिसके बारे में कम लोग ही जानते हैं.
जै हिंद

VK Joshi

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कोठी बनाल बनाम टिकाऊ स्थापत्य
आज का शीर्षक विचित्र सा लगा ना? मैं जानता हूँ. पर बात ही कुछ विचित्र सी है. हमारा पर्वतीय राज्य जैसा मैंने पूर्व लेखों में जिक्र किया था कांपती धरती पर बसा है. यदि पहले के भूकम्पों की बात भूल भी जाएँ तो भी १९९१ के उत्तरकाशी एवं १९९९ के चमोली भूकम्पों द्वारा हुई जान और माल की क्षति को तो आसानी से नहीं भुलाया जा सकता. पर उत्तरकाशी के राजगढ़ी क्षेत्र में आज भी ऐसे बहुमंजिले घर हैं जो १००० वर्ष बिना किसी क्षति के जबरदस्त भूकम्पों के बावजूद अटल खड़े हैं. भूविज्ञान की दृष्टि से उत्तरकाशी भारतीय प्लेट के उस भाग में स्थित है जो अभी भी एशियन प्लेट से लगातार टकरा रहा है, तथा भूकंप के लिए अतिसंवेदनशील क्षेत्र है.
यहाँ पर यह बताना आवश्यक है की १६वीन शताब्दी से ६ विध्वंसक हिमालय में आ चुके हैं. कुमाऊँ के १७२० तथा गढ़वाल के १८०३ के भूकंप को छोडकर बाकी सब, अर्थात १८९७ का शिलंग भूकंप, १९०५ का कांगड़ा भूकंप, १९३४ का बिहार-नेपाल भूकंप तथा १९५० का असाम भूकंप रिक्टर स्केल में ८ से अधिक परिमाण के थे. आठ या उस से अधिक परिमाण के भूकंप विध्वंसक श्रेणी में आते हैं और कई सौ वर्ग की मी क्षेत्र में त्राहि त्राहि मचा देते हैं.
आज की कहानी है दखियातगांव, गुना, कोठी बनाल तथा धराली गाँवों के उन घरों की जो १००० वर्षों से शान से खड़े हैं. उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग, देहरादून में कार्यरत वैज्ञानिक पीयूष रौतेला एवं जी सी जोशी ने इन घरों का वर्णन करेंट साइंस में २००८ में किया था. इन घरों का स्थापत्य ऐसा बड़ा विशिष्ट है. इसकी विशेषता को ध्यान में रखते हुए इसका नाम ही दिया गया है कोठीबनाल स्थापत्य.
कला से बने बहुमंजिले घरों में लकड़ी का प्रयोग बहुत होता है. आज के घरों में जैसे आर सी सी का फ्रेम  बनाया जाता है, कुछ उसी प्रकार कोठीबनाल स्थापत्य में लकड़ी का फ्रेम बनाया जाता था.  फ्रेम के बीच की जगह आयताकार तराशे गये पत्थरों से डेढ़ फीट मोटी दीवार बनाते हुए चीन डी जाती थी. दीवार इन घरों का 'वर्टिकल लोड' ले लेती थी तथा लकड़ी का मोटा फ्रेम 'होरिजोंटल लोड' ले लेती थी कहते हैं रौतेला व जोशी. इसके अतिरिक्त घर के दो ओर से लकड़ी की मोटी धन्नियाँ लगी थी जो कि भूकंप के झटकों को झेलने में मदद करती थी.
यह पूरा फ्रेम और उसके बीच बनी दीवार जमीन की सतह से दो से चार मीटर ऊंचे एक ठोस चबूतरे पर बना होता था. यह चबूतरा स्वयं एक पहले खोदी गयी खाई को चट्टानों से भर कर बनाई गयी नींव के ऊपर बना होता था. इन सब उपायों से यह बहुमंजिले घरों का गुरुत्वाकर्षण केंद्र व भार का केंद्र दोनों जमीन के जितना निकट हो सकता तह हो जाते थे. इस दशा में भूकंप की लहर से भवन उलट नहीं सकता. लकड़ी का फ्रेम व धन्निया कम्पन के प्रभाव को क्षीण कर देती थी.
जरा सोचिये आज से ८०० से १००० वर्ष पूर्व ऐसे स्थापत्य का विकास हमारे उत्तराखंड में हो चुका था जो कि न केवल पूरी तरह भूकंपरोधी था, बल्कि पर्यावरण के अनुकूल था. इन घरों में नीचे भूतल में गाय का गोठ, जो कि एक ट्रेप डोर  से प्रथम तल से जुदा होता था. प्रथम तल व उसके ऊपर के तलों के लकड़ी के फर्श पर लाल मिटटी का लेप होता था. नीचे गोठ में पशुओं के गोबर से उत्पन्न गर्मी घर के अंदर ही रहती थी-जो कि सर्दी से बचाव करती थी. गो कि इस प्रकार का इकोफ्रेंडली स्थापत्य तो सारे उत्तराखंड में मिलता है, पर कोठी-बनाल के भूकंप रोधी स्थापत्य ने तो झंडे ही गाद दिए. मानता हूँ कि आज के युग में इतनी लकड़ी और तराशे हुए पत्थर लगाकर घर बनाना सम्भव नही है, पर सेन्ट्रल बिल्डिंग रिसर्च सेंटर रूडकी में भूकंप रोधी भवनों के डिजाईन आपके बजट के अनुसार उपलब्ध हैं-जरूरत है सिर्फ लीक से हट कर पहल करने की.
ध्यान रखिये कि भूकंप से कोई नहीं मरता लोग मरते हैं अपने ही घर में दब कर. इसलिए यदि आप उत्तराखंड में घर बना रहे हैं तो भूकंप रोधी ही बनवाइए. घर बार बार नहीं बनते, जैसे यह जीवन भी एक ही बार मिलता है-इसलिए अपना और आने वाली पुश्तों का वैसे हे धयन रखिये जैसे कोठी-बनाल वालों ने १००० व्ढ़श पूर्व रखा था...
जै हिंद
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VK Joshi

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मित्रों चूंकि हिन्दी में टाइप करने में मुझे अधिक समय लगता है इसलिए मेहता जी के अनुरोध पर एक लेख इंग्लिश में ही पोस्ट कर रहा हूँ. हिंदी प्रेमी पाठक मुझे क्षमा करेंगे. कहते हुए अजीब लगता है पर सेवा निवृति के बाद समय की कमी हो गयी है इसलिए इंग्लिश में लेख भेजने की गुस्ताखी कर रहा हूँ.
On the Trail of Retreating Glaciers
by VK Joshi

'Global temperatures are rising', 'glaciers are melting' such news captions catch our attention faster. Like crime news they make great reading, yet we cannot do anything about the phenomenon. We are helpless readers. Some vociferous ones make a hue and cry and end up blaming the governments or the society. Well the glaciers are retreating, but are we competent to stop their retreat? We can not stop them either from retreating or advancing. But yes we must know how much is the precise change in the glacial mass since past.

Advancements in technology have made it possible to determine the retreat, using the Total Station Survey and measure the area vacated by the glaciers since geological past. That is what H.C. Nainwal, B. D. S. Negi, M. Chaudhary, K. S. Sajwan and Amit Gaurav of Department of Geology, HNB Garhwal University, Srinagar (Garhwal), Uttarakhand attempted for Satopanth and Bhagirath Kharak glaciers at the head of the Alaknanda valley in Chamoli district, Uttarakhand.
A retreating glacier leaves plenty of foot prints in the form of moraines and geomorphology. But in order to study the changes on the glacier body within past few hundred years the study of the glacier's snout position is considered one of the reliable methods. It is an irony that most of the good and bad things in human lives started since 1850. This year is considered to herald the industrial revolution. Therefore on one hand it gave us all the comforts of life and on the other it acted as a hearth for the nature. For the contemporary society now it is most convenient to blame the revolution. The blame game and nature's actions both will continue. It is also an irony that the glacier snouts have suggested general retreat since 1850.
The Alaknanda and Bhagirathi Rivers are two major tributaries of the Ganga River. Satopanth and Bhagirath Kharak glaciers are the sources of the Alaknanda River. Both glaciers are revered by the Hindus in India. As per the mythology Yudhishtir trekked to heavens through Satopanth followed by his faithful dog. The Satopanth and Bhagirath Kharak glaciers are approximately 13 and 18.5 km long with an average width of 750�850 m, covering an area of 21.17 and 31.17 sq. km respectively say Nainwal et al in their publication. The Satopanth glacier has a higher gradient than that of Bhagirath Kharak.

The eastern slopes of Chaukhamba group of peaks feed the ice to these glaciers. Ranging from 5288 to 7068m these peaks get plenty of snowfall during the winters. These two glaciers are separated by a linear ridge. Both the glaciers have a sinuous course as their paths are obstructed by a number of spurs. These glaciers are a part of the upper Alaknanda basin through which the Trans Himadri Fault passes. Because of this fault the glacio-fluvial (glacier and river borne) deposits on the periphery of these glaciers have deep cuts claim Nainwal et al.
It will be interesting for the readers to know that the Survey Of India Maps very precisely show the positions of snouts of the glaciers. The survey maps are continuously revised and all features like glacier snouts, springs etc are appropriately depicted. As per the survey map of 1962 the positions of the snouts of Satopanth and Bhagirath Kharak glaciers were at 3745 m and 3750 m respectively say Nainwal and his co-workers. While during actual measurements with Total Station Survey in September 2005 and 2006 they found the snout of Satopanth glacier at 3866.34 m and 3868.23 m respectively. The snouts were found situated on the southwestern margin of the glacier. They observed that between 2005 and 2006 the glacier showed a total retreat of 6.5 m with no obvious change in shape and size.

A glacier, as I have said in earlier articles too, is not a lump of ice. It is something alive without life. These glaciers are full of gaping crevasses and. Satopanth glacier showed more retreat on the left lateral margin. It had retreated by 1175.15 m between 1962 and 2005 with an annual average retreat of 26.90m/yr. Whereas the right lateral margin showed a retreat of 830.36 m during the above period with an annual average retreat of 18.87 m/yr. Between 1962 and 2005 the mean annual retreat of Satopanth glacier was 22.88 m/yr record Nainwal et al, whereas for the year 2005-2006 it was only 6.5 m/yr only.
Bhagirath Kharak glacier on the other hand displayed a different pattern of retreat. Nainwal and his colleagues observed that in September 2005 the snout was at 3785 m on the left lateral extension of the glacier. After a year by September 2006 it had shifted to 3768 m on the right lateral margin of the glacier. Thus the snout had just changed sides with a retreat of only 1.5 m in one year. However, like its counterpart Satopanth, the average rate of retreat of Bhagirath Kharak during the period 1962-2005 was 7.42 m/yr. with a total retreat of 319.74 m in 39 years.

The data of retreat of Satopanth and Bhagirath Kharak glaciers for the period 1962-2005 revealed that they vacated an area five to ten times more between this period than during the period 2005-2006 when the rate of retreat had slowed down by 82% and 90% respectively.

The observation of Nainwal and his colleagues supports the observations of the glaciologists from GSI, when Sidhhartha Swaroop and his colleagues recorded a decline of annual recession by 63% and 54% for Dunagiri and Chaurabari glaciers respectively. Similarly Gangotri Glacier has also shown a significant decline in its recession  in the recent years.

We know that glaciers are made of ice. And we also know that ice melts with heat. Imagine if the glaciers stop melting! There would be a total chaos. The rivers will go dry, sea levels will fall, and dusty winds will sweep the plains. The clouds of dust may be so thick that we may pray for Sunlight. On the other hand excess melting of glaciers can lead to submergence of vast areas; the hydroelectric projects in the Himalayas may face a shut down due to flooding! Thus excess melting of ice or zero melting both are bad for mankind. But it is beyond our means to control the melting of ice. Yes we can stop polluting the higher reaches of Himalayas, start planting trees in reality and not on paper alone, and reduce carbon emissions. All these measures would be for our benefit. Whether they will reduce the retreat of glaciers or not, only time would tell!

Glaciers have been spreading and shrinking since geological ages. That is why Francois Villon (1461-85) the French poet wrote in his Le Grand Testament (The Great Testament) (1461):

    'Mais ou sont les neiges d'antan?'

which translates as: 'But where are the snows of yesteryears?'
     

VK Joshi

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भूकंप से टूटते हिमनद
समयाभाव के चलते पिछला लेख अंग्रेजी में देना पड़ा-क्षमा चाहता हूँ पाठकों से. गो कि मुझे भलीभांति मालूम है कि मेरापहाड़ के सुधि पाठक दोनों भाषाओँ का उत्तम ज्ञान रखते हैं, फिर भी मैं चेष्ठा करता हूँ कि उत्तराखंड की धरती से सम्बन्धित लेख पाठकों के कम्प्यूटर के जरिये आमा-बर्बाज्यु लोग भी पढ़ सकें-इसलिए ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहता हूँ जिसका आनंद अधिक से अधिक लोग ले सकें.
मुझे मालूम है कि आप में से अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्होंने हिमनद केवल तस्वीरों में देखे होंगे या उनके बारे में खबरों में पढ़ा होगा या टी वी में देखा होगा! पर हाँ नदी तो सबने देखी है. जानकारी के लिए बता दूँ कि बर्फ की नदी को हिमनद कहते हैं. फर्क मात्र इतना है कि पानी की नदी आगे की ओर को बढती है और हिमनद पीछे को सरकता है. पर इसकी चाल इतनी धीमी होती है कि आँख से तो नहीं दिखती-हाँ हिमनदों का अध्ययन करने वाले विशेषग्य विशेष उपकरणों से इनकी चाल माप सकते हैं. हिमनदों की चाल की बात तो फिर कभी करेंगे, आज एक ऐसे हिमनद कि जानकारी लेते हैं जो किसी ज़माने में थर्रा उठा था भूकंप से.
ठिठुरन वाले ठण्ड जिसमे रात का तापमान शून्य से १० डिग्री नीचे था फिजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट (पी  आर एल), अहमदाबाद तथा इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ जीओमेग्नेतिज्म (आयी आयी जी एम्), मुंबई के वैज्ञानिक इस ठण्ड की परवाह न करते हुए मध्य हिमालय के गोरी गंगा बेसिन में स्थित शलभ हिमनद में देर रात  टेंट के भीतर उकडूं होकर सुबह की योजना बना रहे थे. वो भली भांति जानते थे कि शलभ एक ऐसा हिमनद है जिसने अपने अंदर मौसम के पुराने रिकार्ड सहेज कर रखे हैं. उनकी योजना मात्र उन रिकार्ड के पन्ने उलटने की थी.
शलंग हिमनद की वह हाड कंपा देने वाली रात पी आर एल के वयोवृद्ध वैज्ञानिक राजेन्द्र कुमार पन्त कभी नहीं भुला सकते. वह ७० वर्ष पार कर चुकने के बावजूद मात्र इच्छा शक्ति के सहारे शलंग हिमनद के इतिहास के पन्ने पलटने को आतुर थे. विश्व के मौसम को हिमालय की गगनचुम्बी ऊंचाईयों एवं तिब्बत के पठार ने काफी हद तक प्रभावित किया है, मानना है पन्त जी का. अपने इस विश्वास के लिए वह साक्ष्य भी देते हैं. शलंग हिमनद में पुराने मौसम के साक्ष्य तो मिले ही, साथ में पुराने भूकंप के अनोखे साक्ष्य अचानक मिल गये.
सुधि पाठक जानते हैं कि जब नदी बहती है तो अपने निशाँ के रूप में अपनी घाटी बनाती है. साथ ही अपने साथ ढो कर लायी चट्टानों का भी ढेर लगाती जाती है. इसी प्रकार जब हिमनद चलता है तो मानों सतह पर कोई बहुत बड़ा बुलडोजर चल गया हो ऐसे निशाँ छोड़ता जाता है. इन्ही निशानों की मदद से भूवैज्ञानिक पूरानी घटनाओं का आंकलन कर पाते हैं. इन निशानों से सर्व प्रथम तो यह पता चल जाता है कि पूर्वकाल में हिमनद कहाँ तक थे. दूसरे शब्दों में अंतिम बार कितना क्षेत्र हिमनद से आच्छादित था-  इसका पता चल जाता है. इसे अंग्रेजी में लास्ट ग्लेसियल स्टेज (एल जी एस) कहते हैं. इसके अतिरिक्त पूर्वातिहास में कैसा तापमान था और कितना हिमपात होता था इसका पता भूविज्ञानी हिमनद के इक्विलिब्रियम लाइन ओल्टीत्यूड (ई एल ऐ) से लगा लेते हैं.
हिमनद जब चलते हैं तो अपने नीचे की सारी चट्टानों को तोड़ते, रौंदते, पीसते जाते हैं. इस प्रक्रिया में हिमनदों द्वारा छोड़े गये निशान चट्टानों के बारीक चूर्ण से लेकर बहुत बड़े आकार की चट्टानों तक होते हैं. नदी के पत्थर अपने सफर में गोल होते जाते हैं, पर हिमनद के पत्थर टेढ़े मेढ़े ही रह जाते हैं. हिमनद  जब चलते हैं तो बहुत चौरी घाटी काटते जाते हैं. इस कटान जे दौरान जो मलबा निकलता है वह हिमनद के दोनों तटों पर जमा होता जाता है. इस चट्टानी मलबे को लेटरल मोरेन कहते हैं. हिमनद के ई एल ऐ का पता मोरेन के ढेरों से लग जाता है. प्रागैतिहासिक युग के हिमनद द्वारा छोड़े गये मोरेन के ढेर तथा आज की मोरेन की ऊंचाईयों का आंकलन कर भूविज्ञानी हिमनद के प्राचीन और मौजूदा ई एल ऐ का पता कर लेते हैं.
पृथ्वी के इतिहास के चतुर्थ कल्प का प्रारंभ एक करोड़ ७५ लाख वर्ष पूर्व हुआ था. इस कल्प के पुरातन भाग को कहते हैं हिमयुग या प्लायिस्टोसीन-इस दौरान सब कुछ हिम से आच्छादित था. पर इसके बाद के अनुक्रम में लगभग १०००० वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ पृथ्वी के इतिहास का आख़िरी चैप्टर-होलोसीन. इस दौरान गर्मी प्रारम्भ हो चुकी थी-हिमनद पीछे हटते जा रहे थे. इस पूरी प्रक्रिया को शलंग हिमनद में पन्त व उनके साथियों ने हिमनद में रिकार्ड किया.
साथ ही देखा कि ट्रांस हिमाद्री भ्रंश से भी हिमनद की चाल में अंतर आया. जिससे चतुर्थ कल्प के आख़िरी दिनों में हो रहे हिमनद आवरण में फर्क पड़ने लगा. अब हमारी कहानी में आने वाला है कुछ ट्विस्ट. जरा कल्पना कीजिये एक अपराधविज्ञान विशेषग्य की. अपराध के स्थान से मिले रक्त के दाग, सिगरेट के टुर्रे, उँगलियों की छाप आदि की सहायता से वह अपराध के पूरे सीन की कल्पना कर लेता है, तथा उसकी मदद से अपराधी तक पहुँच जाता है. भूविज्ञानी भी कुछ कुछ उसी तर्ज पर काम करता है, अंतर मात्र इतना होता है कि अपराध विज्ञानी तो कुछ घंटे या दिन पूर्व हुए अपराध के निशानों के आधार पर काम करते हैं-भूविज्ञानी तो हजारों-लाखों वर्ष पुराने निशानों की सहायता से काम करता है.
पन्त व उनके साथियों ने देखा कि रिलकोट के निकट गोरीगंगा एकडीएम सीधी रेखा में बहती है-जबकि नदी कभी भी सीधी रेखा में नही बह सकती. एक बात और अटपटी लगी-हिमनद से बनी घाटियाँ अंग्रेजी के 'यू' आकार की होती हैं. पर यहाँ शलंग की 'यू' घाटी रिलकोट के निकट गोरीगंगा के सीधे भाग पर पहुंच अचानक समाप्त हो जाती है. कुछ तो गडबड है यह अनुमान तो लग चुका था. थोडा खोजबीन करने पर पता चला कि 'ट्रांस हिमाद्री भ्रंश' ने एक और जहाँ गोरीगंगा की धारा को सीधी रेखा में कर दिया था वहीं दूसरी ओर शलंग हिमनद का मार्ग भी रोक दिया था. इसी कारण यू आकार की घाटी नदी की वी आकार की घाटी से भिड़ी हुई थी.
पता चला कि शलंग घाटी की सारी उथलपुथल का कारण था 'ट्रांस हिमाद्री भ्रंश'. पन्त व उनके सहयोगियों द्वारा किए गए शोध के पूर्व यह माना जाता था कि ट्रांस हिमाद्री भ्रंश एक करोड़ एक लाख वर्ष पूर्व सुप्त हो चुका था. परन्तु इनके शोध ने तो आंखे ही खोल दी. यह भ्रंश तो पृथ्वी के इतिहास के अंतिम पाठ यानी चतुर्थ कल्प (जो कि अभी भी जारी है) में भी क्रियाशील था. इनके शोध को गंगोत्री एवं गर्ब्यांग की हिमनदीय घाटियों से लिए गये नमूनों की रेडियोधर्मी तरीकों से निकाली गयी आयु ने इंगित किया कि गंगोत्री हिमनद क्षेत्र में घाटी में हिमनद का बढना ६४००० वर्ष पूर्व तक जारी था. इसीप्रकार गर्ब्यांग में मिले साक्ष्यों से पता चला कि ट्रांस हिमाद्री भ्रंश ने अनेक बार हिमनदीय क्षेत्र को प्रभावित किया-जिससे हिमनदीय घाटियों के निकट गहरी खायी जैसी घाटियाँ बनी. वहाँ पर अनके हिमनदीय झीलें हैं जो कि इसी भ्रंश से अनेक बार प्रभावित हुई. इन झीलों के अवसाद के नमूनों के अध्ययन से पता चला कि आज से २२-१७ हजार वर्ष, १४-१३ हजार वर्ष एवं ११ हजार वर्ष पूर्व तीन बार इस क्षेत्र में विवर्तनिक हलचल हुई.
भ्रंशो में इस प्रकार की विवर्तनिक हलचल का अर्थ होता है भारी भूकंप.
मेरा प्रयोजन मात्र प्रागैतिहासिक घटनाओं का विवरण देना नहीं था-मेरा कहना तो मात्र इतना है कि हमारा राज्य भूकंप की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है-इसलिए राज्य में बड़ी परियोजनाओं को बनाने के पूर्व वहां के भूकम्पों के इतिहास को नियोजकों को भली भाँती जानना और समझना चाहिए.
पृथ्वी के गर्भ में क्या चला रहा है हम नहीं जान सकते पर उस बारे में जो साक्ष्य सतह पर उपलब्ध हैं उन्हें तो कम से कम क्रमबद्ध कर संभावित जोखिम का आंकलन तो कर ही सकते हैं.
जय हिंद


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जोशी जी बहुत-२ धन्यवाद इस अति विशिष्ट जानकारी के लिए! आपके द्वारा यहाँ पर पोस्ट किया गया हर लेख बहुत ही सूचनाप्रद एव ज्ञानवर्धक है !

आशा है हमारे पाठको को जानकारिया पसंद आ रही होंगे !

हेम पन्त

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इस समय जब पूरी दुनिया "ग्लोबल वार्मिंग" की बहस में पड़ी हुई है, जोशी जी द्वारा उपलब्ध कराई गई यह मौलिक और आधारभूत जानकारी हमारे ज्ञानचक्षु खोलने में मददगार साबित हो रहे हैं. उत्तराखण्ड तो वैसे ही बहुत नाजुक भौगोलिक संरचना वाला राज्य हैं, इसके नागरिकों को अपने अधिकारों के साथ-साथ पर्यावरण बचाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी समझना होगा. 

जोशी जी कृपया ’पहाड़ में नदियों पर संकट’ विषय पर भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें..

खीमसिंह रावत

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जोशी जी पैलाग |
आपके लेखों को पढ़ाने का मौक़ा दिया आप और फोरम दोनों का मन से आभार / सच तो ये है जोशी जी आपके लेखों को हम कैसे पढ़ सकते थे अगर  म्यार पहाड़ फोरम  नहीं होता / मैं मानता हूँ कि इतनी अच्छी जानकारी और लेखों  से हम अनभिग्य रह जाते | आपका पहाड़ के प्रति प्रेम और उसकी चिंता आपके लेखों में  साफ झलकता है
मुझे गर्व हो रहा है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग पहाड़ के लिए चिंतित है आशा करता हूँ भविष्य में भी आपके लेखों को पढ़ने का mauka मिलेगा |
पुन्ह धन्यबाद

khim

VK Joshi

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जोशी जी बहुत-२ धन्यवाद इस अति विशिष्ट जानकारी के लिए! आपके द्वारा यहाँ पर पोस्ट किया गया हर लेख बहुत ही सूचनाप्रद एव ज्ञानवर्धक है !

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Mahi bahut bahut dhanyavad-mera maksad paryavaran ko leker phailayee ja rahee bhrantiyon ko door kerna hai. Agar pathakon ko lekh pasand aa rahey hain to mera maksad poora ho jayega.

 

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