Author Topic: Articles On Environment by Scientist Vijay Kumar Joshi- विजय कुमार जोशी जी  (Read 26359 times)

VK Joshi

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मित्रों आज लगभग एक माह बाद पुनः नेट पर आया हूँ. सोचा लेख लिखने में तो समय लगेगा किन्तु कुछ असल-कुशल और कुछ काम की बातें तो हो हे सकती हैं. सर्वप्रथम तो यह बता दूँ की मेरी इजा के घाव काफी ठीक हो चुके हैं. १२% जल गयी थी अब डाक्टर कहते हैं की मात्र ३% घाव भरने बाकी हैं.
देस में इस समय प्रचंड गर्मी पड़ रही है-ऐसे में घर की नराई लगना स्वाभाविक है. मई जून की गर्मी में अल्मोड़ा या नैनीताल में प्रातः तडके निकल जाते थे घूमने-उस दौरान घोर जंगल में जब बांज के पेड़ों के पास कोई पानी का स्रोत मिल जाता था तो मजा आ जाता था. अपने उत्तराखंड में तो उतना नहीं देखा पर हिमाचल प्रदेश में दूर दराज वनों में भी छोटे छोटे नौलों के ऊपर मंदिर नुमा पक्का निर्माण पुराने जमाने से चला आ रहा है. पक्की छत के नीचे छोटी सी हौज में एकदम ठंडा (फ्रिज कोल्ड से भी ठंडा), साफ़, मीठा पानी नया जीवन दे देता है. गाँव वाले इन नौलों से पानी लेते भी थे पर वहाँ पर गंदगी बिलकुल नहीं होने देते थे.
हमारे उत्तराखंड में ऐसे नौलों की कमी नहीं थी, कमी थी मात्र हमारी सोच में. हमने अपने नौलों को खुद ही सुखा लिया और अब सरकार और मौसम को कोसते हैं.
मैने आज सिर्फ यह बात बताने को यह पंक्तियाँ लिखीं हैं कि अभी भी मौका है-जो नौले बचे रह गए हैं उनको साफ़ सुथरा रखने की कला बच्चों को सिखानी चाहिए. यदि बच्चों में पानी बचाने और साफ़-सफाई रखने की बात कूट कूट कर भर दी जाये तो उनको ही भविष्य में आराम रहेगा. चलिए इन छुट्टियों में ऐसा हे कुछ करें. कोशिश करूँगा कि इस विषय पर और कुछ चर्चा अगले लेख में करूं.
आज इतना ही क्योंकि इतनी ज्यादा मेल एकत्रित हो गयी हैं कि डिलीट करने में भी आधा दिन बीत जायेगा-मेरी आदत है हेर मेल को पढ़ कर उत्तर देने की. इसलिए आज इतना ही.
जय हिंद

VK Joshi

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कौटिल्य के  पदचिन्हों में

बयालीस वर्ष  पूर्व बरसात के मौसम में मैं शिमला कि मॉल रोड में एक ऐसे स्थान पर खड़ा था जहाँ से  वर्षा का आधा जल तो जा रहा था अरब सागर में तथा बाकी आधा बंगाल कि खाड़ी में. शिमला  कि रिज सिधु एवं गंगा नदियों के बीच एक दीवार कि भांति है. इसको समझने के लिए एक  प्लास्टिक कि चादर पर कुछ पानी डालें फिर पानी वाले भाग को अचानक उठा लें. आप  देखेंगे कि इस प्रकार बने ढलान में कुछ जल एक तरफ तो बाकी दूसरी तरफ स्वतः बहने  लगता है. जिस प्रकार प्लास्टिक कि चादर ऊपर उठने से एक वाटर डिवाईड बन गया था  उसी प्रकार २० लाख वर्ष पूर्व जब महाद्वीप टकराए और हिमालय का जन्म हुआ तब अरब  सागर एवं बंगाल की खाड़ी के बीच शिमला में वाटर डिवाईड बन गया.
शिमला रिज  ने एक प्रकार से देश की भविष्य कि संस्कृति, राजनीती एवं इतिहास को प्रभावित किया.  इस डिवाईड की ढलान पर  अनेक नालों, नदियों का जन्म हुआ हरेक की अपनी द्रोणी (कैचमेंट) बनी. इस घटना के  पूर्व तो ऐसा नही था-तब तो दक्षिण से चम्बल व उसकी सहयोगी नदियाँ उत्तर की ओर  हिमालय (जब नही जन्मे थे) के दक्षिण में बन चुकी खाई में जा गिरती थी. पर जब ढलान  ही बदल गए तो चम्बल के लिए एक ही रास्ता बचा-वह था अपना रुख बदल लेना-वह दक्षिण की  ओर बहने लगी. इस उदाहरण का मकसद था यह बताना की आज जो नदियाँ हम देख रहे हैं जरूरी  नही की सदैव वो ऐसे ही बहती रहें. प्रकृति में कुछ भी हो सकता है. प्राकृतिक ताकते  नदी की धरा बदल सकती हैं, नदी का अस्तित्व तक समाप्त कर सकती हैं. एक सदानीरा नदी  को भुतही नदी में बदल सकती हैं. नदियों को प्रकृत के बाद यदि खतरा है तो वः है  इंसान से. अपने मतलब के लिए वः कुछ भी कर सकता है-धारा बदलना, रोकना आदि तो मामूली  बात है.
सिंधु की  द्रोणी में काफी भाग राजस्थान एवं गुजरात का भी है-इस भाग में पानी की कमी हमारे  पूर्वजों के वहाँ बसने के पूर्व से रही है. जबकि दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, बिहार व्  पश्चिमी बंगाल जैसे राज्य प्रारम्भ से थोडा भाग्यशाली रहे हैं. वहाँ जल की इफरात  रही है. इसीलिए वहाँ पर आबादी का घनत्व सर्वाधिक है. पर अफ़सोस शायद प्रकृति को यह  मंजूर नही था. जल बाहुल्य क्षेत्र में प्रकृति ने भूजल में संखिया एवं फ्लोराइड का  जहर फैला दिया.
भूजल में  विष तो फैल चुका था पर सरकार को खबर न थी-बंगाल में कुछ जल की आवश्यकता व् कुछ वोट  के चक्कर में दनादन नलकूप लगाये गए. जब तक यह संज्ञान में आया कि नलकूप विषाक्त हो  चुके हैं देरी हो चुकी थी-लाखों लोग इस विष कि चपेट में आ चुके हैं. अब यह हालत है  कि सारे नलकूप लाल डाक के बम्बे की भांति पुते हुए मुह बाये खड़े हैं-और जल बाहुल्य  क्षेत्र शुद्ध पेय जल को तरस रहा है.
भूजल में  प्रकृति ने जहर घोल दिया, नदियों को हमने प्रदूषित कर दिया-अब क्या करें? कोलकाता  के इंस्टीट्यूट ऑफ वॉटर स्टडीज एंड वेस्टलैंड मैनेजमेंट ने बीरभूम, बांकुड़ा, एवं  पुरुलिया जिलों में वर्षा जल संचयन के लिए ४० सयंत्र स्कूलों में ४०००० से ९६०००  रूपये कि लागत से लगाये हैं. इस क्षेत्र में भारी वर्षा (वार्षिक औसत १४०० मी  मी)  होती है तथा अधिकांश जल बह कर नदियों  में चला जाता है.
इन स्कूलों  कि छतों से एकत्रित पानी फिल्टरों के माध्यम से पी वी सी की टंकियों में एकत्रित  किया जाता है. इन टंकियों से जो पानी बह निकलता है उसे सीमेंट की टंकियों में एकत्रित  कर लिया जाता है. पी वी से टंकियों वाला पानी पीने के लिए तथा सीमेंट वाली टंकियों  का पानी सफाई आदि में प्रयोग किया जाता है.
भूजल से  भरपूर इस क्षेत्र के भूजल में संखिया इतनी अधिक मात्र में आ चुका है कि अब तो  नलकूपों से सिंचित फसलों एवं यहाँ तक कि माँ के दूध से भी संखिया की मात्रा  नुकसानदेह हो चली है. इसके विपरीत देखने में आया कि वर्षाजल में टी डी एस (टोटल  डिजोल्वड सौलिड्स) कि मात्रा वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाईजेशन के पेयजल के मानक ३०० से  ५०० मी ग्रा प्रति लीटर के मुकाबले मात्र ४० मी ग्रा प्रति लीटर है. यह सर्वविदित  है कि वर्षाजल आकाश से आने वाला सबसे शुद्ध जल होता है.
पश्चिमी  बंगाल में भूजल कि स्थिति शोचनीय एवं चिंताजनक हो चुकी है-उत्तरी २४ परगना व्  दक्षिणी २४ परगना, मिदनापुर (पूर्वी) एवं हावड़ा जिलों में नमकीन हो चुका है जबकि  मालदा के ७८ ब्लॉक, मुर्शिदाबाद, नदिया उत्तरी २४ परगना, दक्षिणी २४ परगना, हावड़ा,  हूगली एवं बर्दवान जिलों में भूजल में संखिया से लोग बेहाल हैं.
ऐसी स्थिति  में वर्षाजल संचयन ही एकमात्र रास्ता बचता है. पर लोग कुछ और सोचते हैं-वो सोचते  हैं कि जब भूजल बिना एक पाई खर्च किये मुफ्त मिल रहा है तो क्यों वर्षाजल एक्तिर्ट  करने में पैसा लगाएं!
वर्षाजल  संचयन का महत्व अपने ही देश के कुछ उदाहरणों से आसानी से समझ में आ जायेगा. राजस्थान  के अलवर जिले में ६० के दशक में कार्य करते समय एक सूखे नाले में पानी की तलाश  करते समय नक्शे में उसका नाम देखा अरवरी. बियाबान क्षेत्र से बहती अरवरी के तटों  पर वृक्ष तो क्या घास का तिनका तक नहीं उगा था. उस क्षेत्र कि महिलाएं मीलों चल कर  नित्य पेयजल अपने सर पर ढो कर लाती थी. वहाँ के निवासी बताते थे कि १९३० तक यह  क्षेत्र वनाच्छादित था जिसके मध्य से अरवरी सदानीरा बहा करती थी. तभी अंग्रेजों ने  विलायत में रेलों के लिए स्लीपर बनाने के लिए इस क्षेत्र के वन काट डाले. बस तब से  ही रूठ गयी अरवरी. वन समाप्त हो गए, नदी सूख गयी लोग अधिकांश पानी और रोज़ी रोटी कि  तलाश में पलायन कर गए. उस क्षेत्र में आसानी से कोई लड़की नहीं ब्याहना चाहता  था-क्योंकि बेचारी का जीवन तो बस पानी ढोने में चला जाता था. अरवरी वाले भी जब कोई  मजबूर लड़की वाहन बहू बन कर आती तो सर्वप्रथम उसकी पानी ढोने कि क्षमता कि परीक्षा  लेते.
१९८७ में  कुछ नवजवानो को डा राजेन्द्र सिंह ने एकत्रित कर तरुण भारत संघ कि स्थापना की और  अरवरी को पुनर्जीवित कर दिया. इस कार्य के लिए इनको मैग्सेसे सम्मान से विभूषित  किया गया. १९९६ से अरवरी सदानीरा हो गयी और राजेन्द्र सिंह जी को लोग जल पुरुष के  नाम से जानने लगे. इस क्षेत्र से लोग पलायन कर रहे थे वः रुक गया, खेती पुनः  प्रारम्भ हो गयी. सबसे अदभुत बात यह है कि अरवरी को जिंदा किया सिर्फ लोगों  ने-सरकार ने नहीं. सरकार तो उलटे राजेन्द्र सिंह जी के अनुसार इस कार्य में रोडे  डालने में व्यस्त थी.
अरवरी ही  नहीं राजस्थान में लोगों ने मिलकर रूपारेल नामक नदी को भी पुनर्जीवित किया.  रूपारेल को पुनर्जीवन देने में वहाँ की महिलाओं का बहुत बड़ा हाथ था. पानी एक ऐसी  आवश्यकता है जिसके बिना जीवन तो असम्भव है ही, रोजमर्रा की जिंदगी मे पानी कि कमी  महिलाओं कि रसोई भी बंद करा देती है-इसलिए जिस भी क्षेत्र में महिलाएं आगे आई वहाँ  कि पानी कि समस्या जनता ने आसानी से हल कर ली.
गुजरात एवं  महाराष्ट्र से ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ लोगों ने वर्षा जल संचयन के महत्व को समझ  कर अपने क्षेत्र को पुनः हर-भरा कर लिया. इनमे से किसी भी स्थान में सरकार ने न तो  एक पैसे कि मदद कि और न ही अपने तकनीकी विशेषज्ञों को लगाया.
इन उदाहरणों  का मकसद अब तक आप समझ चुके होंगे. हमारे पहाड़ अब अरवरी के समान हो चले हैं. जंगल  कट चुके हैं या काट दिए गए हैं. मौसम नित्य अपना रूप बदल रहा है. ऐसे में यह आशा  रखना कि कोई पार्टी आयेगी जो जनता को मुफ्त में पानी देगी दिवस्व्प्न समान है.  सरकारें आएँगी और जाएँगी-कुछ अच्छा काम करेंगी कुछ नहीं करेंगी या नहीं कर  पाएंगी-इसलिए समय कि मांग है कि वर्षा जल संचयन कि पद्धतियाँ अपनाएं और अपनी प्यास  स्वयं बुझायें.
आपको जान कर  अचम्भा होगा कि कौटिल्य के जमाने में जो व्यक्ति वर्षाजल संचयन करता था उसे करों  में रियायत मिलती थी. फिलहाल तो सरकार ऐसी कोई रियायत देने के मूड में नहीं दिखती  पर यदि हम कौटिल्य कि रह पर चल सकें तो शायद हमारे पहाड़ों कि पेयजल समस्या कुछ हल  हो सके!
कैसे कैसे  तरीके पहाड़ों में अपनाये जाते हैं इस कार्य के लिए इस विषय पर लिखूंगा आने वाले  लेखों में.
तब तक के  लिए जय हिंद.
   

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Sir ji bahut bauhut dhanyavaad aam bhaasha main Varsha Jal sanchayan ke baare main samjhaane ke liye. Aapke aage ke lekhon ki pratiksha main.

Regards,
Anubhav

VK Joshi

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अनुभव जी आपका स्वागत है. आपको लेख पसंद आया जान प्रसन्नता हुई. शीघ्र ही अगला लेख पोस्ट करूँगा. इन दिनों गर्मी बहुत है और बिजली आंखमिचौली करती है, इसलिए थोडा देरी हो सकती है पर लिखूंगा अवश्य.

खीमसिंह रावत

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आदरणीय जोशी जी को प्रणाम |  आप ने नौलो के बारे में लिखा है इसी बारे में एक बात पूछना चाहता हूँ मैं गाँवों में सूना है की जब से नौले पर सीमेंट लगाया है तब से पानी सुख गया है हाँ एक बात तो जरुर देखि है की जहां पर हमारे गाँव का धारा था उसको सीमेंट लगा कर सुन्दर बना दिया है किन्तु उस धारे का पानी जल्दी सुख जाता है इस बारे में थोड़ा प्रकाश डालने  की  कृपया करें|   

VK Joshi

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रावत जी आपने बहुत काम का प्रश्न पूछा है. नौले या धारे जहाँ पर होते हैं वहाँ पर  अक्सर सख्त और मुलायम चट्टाने (जैसे भुशुली ढुंग और डांसि ढुंग) आपस में जुडी होती हैं और उनके जोड़ से भूमिगत जल यदि ढलान सही मिला तो बह कर बाहर आ जाता है. अब यदि उस नौले को सुंदर बनाने के लिए पीछे कि दीवार (पहाड) जहाँ से जल बाहर आ रहा है उसे प्लास्टर कर दिया गया तो जल आएगा कहाँ से? इसलिए नौले या धारे में पहले यह देखना चाहिए कि जल बाहर आ कहाँ कहाँ से रहा है, तभी उसमे प्लास्टर करना चाहिए. वैसे यदि न भी प्लास्टर किया जाये बस केवल जल की निकासी सही बना डी जाये तो भी काम बन जाता है. नौलोएय या धारे में यदि भूमिगत जल ऊपर से आ रहा है तब उसके भूमिगत मार्ग के ऊपर सतह पर भी सफाई रखना जरूरी है, अन्यथा ऊपर की गंदगी भूजल को प्रदूषित कर सकती है.नौले या धरे का जल स्रोत मात्र वर्षा है, इसलिए बरसात अगर नहीं हुई तो जल सूख जायेगा, यदि जल का मार्ग अवरुद्ध हो गया तब भी सूखेगा. स्थान विशेष के निवासी सरकार पर निर्भर न होकर स्वयं भी जल के मार्ग को बंद होने से बचा सकते हैं. बस थोडा ध्यान से देखना पड़ता है कि जल आ कहाँ से रहा है और जा कहाँ रहा है. 

हेम पन्त

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हमारे गांव में कहा जाता है कि बांज अपनी जड़ों में पानी को रोकता है इसलिये जिस गांव के ऊपरी हिस्सों में बांज का जंगल होता है वहां सामान्यत: पानी की कमी नहीं होती. "बजानि पानी" कठोर जल होता है, इससे कपड़े धोने और नहाने पर साबुन साफ करने में परेशानी आती है लेकिन पीने के मामले में यह किसी भी मिनरल वाटर के ब्राण्ड को पीछे छोड़ सकता है...

जोशी जी पुराने समय के लोग इन सब वनस्पतियों की महत्ता को समझते थे, लेकिन लोगों के बीच अब यह जागरुकता क्यों नहीं है?

VK Joshi

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पुराने समय में मिनरल वाटर नहीं मिलता था हेम-खैर मजाक कि बात नहीं है, हमने स्वयम हर चीज में मैदानी क्षेत्र की नकल कर अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी है-जल प्रबंधन पर्वत का बिलकुल अलग होता है. बांज के जंगल काट कर हमने कोयला बना कर ताप लिया अब जो थोड़े से पेड़ बचे हैं वो आबादी से दूर ही हैं. अब तो एक ही उपाय है कि एक भी बूँद जल की व्यर्थ ना जाये. इसके लिए क्या करना है आदि आगे के लेखों में मैं देने वाला हूँ. फिलहाल तो एक लेख पानी कि कला और विज्ञानं के विषय में दे रहा हूँ.

VK Joshi

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  •     पानी की कला और विज्ञान

    ऋग्वेद में लिखा है:यापो द्विय उत्तवा स्रवन्ति खनित्रिमा  उत्तवा या स्वयर्ण जा/समुद्रार्थ या सूचायापावकस्ता आप देवी इहा माम्वान्तु//                        (ऋग्वेद  सातवाँ मंडल, सूक्त ४९(२०)
  • अर्थात, जो जल अंतरिक्ष से उत्पन्न होते हैं, नदी के रूप  में बहते हैं, जो खोद कर निकले जाते हैं अथवा जो अपने आप उत्पन्न होकर सागर कि ओर  गति करते हैं, जो दीप्तियुक्त एवं पवित्र करने वाले हैं, वे देवीरुप जल यहाँ हमारी  रक्षा करें.हमारे पूर्वजों के समाज में जल एक पूजनीय चीज़ थी. जल को  भगवान कि दें माना जाता था. जल अशुद्ध न होने पाए इसका विशेष ध्यान रखा जाता था.  पर इसके बावजूद जल को रोक कर एकत्र करने कि परिपाटी बहुत पहले प्रारंभ हो चुकी थी.  इजिप्ट के राजा मिनिस ने ३ (ई पू) में नील नदी पर एक १५ मी ऊंचा बाँध बना कर उसकी  धारा को राजधानी मेम्फिस कि ओर मोड लिया था. लगभग उन्ही दिनों इजिप्ट वासियों ने  नाइलोमीटर का आविष्कार कर नदी का डिस्चार्ज नापना शुरू कर लिया था और नदी में एक  मात्र विशेष से अधिक जल यदि आता तो उसे वे खेती के लिए छोटी नहरों से निकाल लेते  थे.लगभग १७६० (ईपू) इजिप्ट के हारूनभाई ने सिंचाई के लिए पानी कि  निकासी के लिए सर्वप्रथम कानून बनाये जिनसे पानी की सिंचाई के लिए ली जा सकने वाली  मात्रा, उसका प्रबंधन तथा सिंचाई के काम आने वाली नहरों या अन्य विधियों के रख  रखाव पर अंकुश लगाया जाता था. ध्यान देने कि बात यह है कि सदियों पूर्व हमारे  पूर्वज अनुशासित थे, आज कि भांति निरंकुश नहीं थे. इसके लगभग ६० वर्ष पश्चात १७००  (ईपू) में इजिप्ट में प्रथम कुआँ खोदा गया जिसमे १०० मी (३०० फ़िट) पर पानी मिला.  उधर फिलिस्तीन एवं सीरिया पानी के चशमों से सुरंगें बना कर पानी को नगर तक लाने का  चलन प्रारम्भ हो चुका था.इस वृतांत से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे पूर्वज पानी कि  कला और विज्ञान दोनों से भलीभांति परिचित थे. उस काल में प्रकृति पर विजय पाने के  बजाय प्रकृति का आदर करने का चलन था, तथा जल को दैवी कृपा माना जाता था. आज हम जब  बात करते हैं पर्यावरण की तो बहुधा लोगों को यह सुन कर अचम्भा होता है कि जल एवं  वायु हमारे पर्यावरण के अंग हैं- जबकि हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए ऋग्वेद इन तीनों  की स्तुति से भरपूर है.पुराने ग्रंथों में पृथ्वी की उत्पत्ति एवं जल दोनों के  सबंध में अनेक उदाहरण मिलते हैं. आज का विज्ञान भी इस बात कि पुष्टि करता है कि जल  एवं थल दोनों का सम्बन्ध चिरकाल से है. ऋग्वेद (दसवां मंडल सूक्त १२९.३) कहता है  कि पृथ्वी जन्म के समय प्रकाशहीन थी और सब ओर जल ही जल था. प्रख्यात भूवैज्ञानिक  डेमिंग ने २००४ में प्रकाशित एक शोधपत्र में लिखा है कि ढाई अरब वर्ष पूर्व  महाद्वीपों ने खसकना प्रारम्भ कर दिया था. उसके पूर्व जन्म के बाद प्रथम दो अरब  वर्ष तक पृथ्वी का भूपटल कैसा था इसके साक्ष्य नहीं मिलते. पर हाँ यह प्रतीत होता  है कि प्रारम्भ में भूपटल का निर्माण हाईड्रोलीसिस प्रक्रिया द्वारा हुआ होगा. इस  प्रक्रिया में जल कि अपार मात्र कि आवश्यकता पडती है, प्रत्यक्ष है कि वह जल  अंतरिक्ष से आया होगा!अब कुछ बात जल के भौतिक एवं रासायनिक गुणों की भी जान लें.  जल में विद्यमान विशिष्ठ गुणों के कारण वह लगभग सभी पदार्थ जल में घुल जाते हैं.हमारे नदी, नाले, गाड़-गधेरे, घाटियाँ, मैदान सभी पानी की हे  दें हैं. प्रकृति रूपी चितेरे ने इन सबको बनाने में पानी की ही सहायता ली. पानी  में घुलने से ही सब कुछ बन पाया. यही कारण है कि पृथ्वी को जब अंतरिक्ष से देखते  हैं तब जो नजारा दीखता है वह अपने आप में अनूठा होता है.अन्य  ग्रहों में पृथ्वी कि भांति पानी नहीं होने के कारण यहाँ की जैसी भूआकृतियाँ नहीं  मिलती. सिलिका एवं सिलिकेट के कणों कि सतह हाईड्रोफीलिक होती  है-ऐसी सतहों से चिपक कर जल केपिलेरी एक्शन से दूर दूर तक पहुँच जाता है. इस गुण  के कारण रेत में मौजूद भूजल कि फिल्म हमारे लिए जल स्रोत बन जाती है. इसी प्रकार  वृक्षों में मौजूद पतली भोजन नलियों (जाइलेम) के द्वारा इसी गुण के कारण पानी जड़  से वृक्ष की सबसे ऊंची टहनी तक पहुंच कर वृक्ष को हराभरा रखता है.पर्वतीय क्षेत्र में भूजल चट्टानों के बीच दरारों आदि में पाया  जाता है. चूंकि भूमिगत दरारों के आकार का अनुमान लगाना सम्भव नहीं होता इसलिए साधारणतया  यह अनुमान लगाना कठिन होता है कि कहाँ पर कितना भूजल है और वः किधर को जा सकता है.  पर भूभौतिकी एवं अन्य विधाओं से अब काफी कुछ अनुमान लगने लगा है.पर्वतीय क्षेत्रों में जल संचयन के तरीके पुराने समय से चले  आ रहे हैं. रिज के ऊपर स्थित आबादियों में वर्षा जल भंडारण कि प्रथा रही है. अल्मोड़ा  में कसारदेवी में कुछ घरों में वर्षा जल संचयन के लिए बड़े टैंक बना कर उनमे इतना जल  एकत्रित कर लिया जाता है कि बाकी वर्ष भर बागबानी व् अन्य इस प्रकार के कार्यों के  लिए कीमती पेयजल का प्रयोग नहीं करना पड़ता. इसीप्रकार पर्वतीय क्षेत्रों में ढलानों से अधिकांश वर्षा जल  नदियों में चला जाता है. इस रनऑफ को रोकना नितांत  आवश्यक हो चला है. गंगोलीहाट-रामेश्वर क्षेत्र में इसके लिए अनूठे उपाय किये गए हैं.  वर्षा जल एवं गधेरे के जल को बड़ी सीमेंट की टंकियों (डिग्गियों) में एकत्रित कर सूखे  समय में काम में लाते हैं. प्रत्यक्ष है कि इतनी बड़ी टंकी किसी एक व्यक्ति के लिए बनवा  सकना सम्भव नही है, पर ऐसे क्षेत्रों में जहाँ पानी बरसता है वाहन पर ग्राम-सभा की  मदद से इस प्रकार की योजनाएं बनाई जा सकती हैं. पर न जाने कहां से इण्डिया  मार्का हैण्डपम्प लगाने का चलन हो चला है! हैंडपम्प मैदानी  क्षेत्रों में तक तो बढिया नतीजे देते नहीं पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ मालूम ही नहीं कि  भूजल किधर जा रहा है, कितनी गहराई में है-वहाँ कितना जल उनसे मिल पाता होगा! शायद पाठक  इस प्रश्न का उत्तर दे सकें.जल कि बाते बहुत सी हैं. दूसरी बार में चेष्ठा करूँगा कुछ और  जल संचयन के तरीकों को आप तक पहुँचाने की.
    जय हिंद.     









खीमसिंह रावत

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