छकाते पर भूस्खलन का खतरा अब भी है
[/color]नैनीताल का नाम याद करते ही सुरम्य झील और चारों ओर पहाड़ों पर घने देवदार और अयार के वृक्षों की चादर की छवि मन में उभरती है. किसी जमाने में नैनीताल क्षेत्र को कुमाउनी में छकाता अर्थात ६० झीलों वाला क्षेत्र कहा जाता था. कालान्तर में अधिकांश झीलें तो समाप्त हो गयीं, जो बची हैं (नैनीताल, भीमताल, नौखुचियाताल, सातताल) आदि का अस्तित्व भी अब खतरे में है. इनमे से सबसे अधिक पर्यटकों को लुभाता है नैनीताल, जिस पर इस समय आबादी का दबाव भी चरम सीमा पर है. १८४० में जब रोज़ा के घुमंतू, व्यापारी बैरन अपने फौजी मित्र से मिलने रातीघाट कैम्प गया तो अनजाने में नैनीताल के रास्ते चला गया. वहाँ की झील और नैसर्गिकता देखकर बैरन मुग्ध हो गया. अगले वर्ष अपने मित्र के साथ वः दुबारा आया. इस बार वह रातीघाट से सीधा लड़ियाकांटा जा पहुंचा. शेर का डांडा के शिखर से जो दृश्य दोनों ने देखा तो इतना मोहित हो गए कि निश्चय कर लिया कि कैसे भी हो नैनीताल में जमीन खरीदेंगे. तब नैनीताल गद्दी लोगों की चरागाह हुआ करता था. कहते हैं सारी मिल्कियत नरसिंह थोकदार की थी. दोनों अँगरेज़ अपने साथ २०’ की नाव भी लेकर गए थे. नरसिंह को झील में नौकाविहार का लालच देकर दोनों ने बीच झील में डुबो देने की धमकी देकर लगभग पूरा नैनीताल अपने नाम स्टाम्प पेपर पर अंगूठा लगवा कर झटक लिया. एवज में मामूली सी रकम सरकार से दिलवा दी.वहाँ से प्रारम्भ हुआ नैनीताल का शहरीकरण. तब से अब तक अनेक भूस्खलनो की मार नैनीताल ने सही है. आज के नैनीताल का बहुत बड़ा भाग पुराने भूस्खलनों के मलबे पर बसा हुआ है. नैनीताल नगर नया-नया बसना प्रारम्भ हुआ था कि १८६७ में अचानक नैना पीक (चाइना पीक) वाले पर्वत की ढलान यकायक चल पड़ी नीचे की ओर. बरसात के दिन थे और पानी कि उचित निकासी न हो पाने के कारण भूस्खलन हो गया. चूना पत्थर का यह मलबा कालान्तर में पानी में घुल कर ठोस हो गया. उस मलबे के ऊपर बन गई बहुत सी इमारतें-जैसे मेट्रोपोल होटल, सचिवालय आदि. यह भूस्खलन इतना तगड़ा था कि नैनीताल क्लब के बाहर कि ओर कि इमारतें जैसे शैले हॉल तक खतरे में आ गई. इस घटना से सबक लेकर अंग्रेजों ने इस ढलान पर ही नहीं बल्कि नैनीताल की समस्त ढलानों पर नालियों और नालों का जल निकासी के लिए निर्माण किया. पर इसके बावजूद १८८० में भरी वर्षा के कारण शेर का डांडा की ढलान खसक कर आ गई नीचे. बैरन ने जब नैनीताल में घर बनाया तथा अपने इष्टमित्रों को भी निमंत्रित किया कि यहाँ आकर बसों, तब उसने सब बातों का तो ध्यान रखा, पर भूस्खलन की सम्भावनाओं कि ओर उसका ध्यान गया ही नहीं. परिणामतः १६ सितम्बर १८८० को प्रारम्भ हुई भीषण वर्षा से ४० घंटों में २५” बारिश हो गई. साथ में तेज हवा भी चलती रही. लगभग १० बजे विक्टोरिया होटल के पीछे ऊपर से पत्थर गिरना शुरू हुए. शेर का डांडा का पूरा पर्वत मानों पानी से भीगी हुई लुगदी के समान उस समय हो चुका था. बस चंद मिनिटों में भूस्खलन प्रारम्भ हो गया. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक ऐसा तो होना ही था क्योंकि नगर विकास कर रहे लोगों ने पानी की निकासी के उचित प्रबंध किये ही नहीं थे. इस भूस्खलन में १९३ लोग मारे गए. कुल आठ मिनिट में सब खेल समाप्त हो गया. उस दौरान लोगों को ऐसा लगा मानों पर्वत के गर्भ में बादल गरज रहे हों. इतना अधिक मलबा आया कि झील का उत्तरी भाग पट गया-जिस आज फ्लैट्स के नाम से जाना जाता है.शेर का डांडा के ढलान आज एकदम शांत एवं सुरक्षित प्रतीत होते हैं! उन पर देवदार और अयार के जंगलों के स्थान पर मकानों के जंगल उग आये हैं. कुछ वर्ष पूर्व किये गये सर्वेक्षण के अनुसार शेर का डांडा के ढलान के कुछ खम्बे २ से मी प्रति वर्ष कि दर से झील की ओर को झुक रहे हैं. उधर ढलान के ठीक नीचे झील के किनारे १८७३ में बने ‘ग्रैंड होटल’ पिछले तीन दशकों में १.५ मी से अधिक धंस चुका है. उसे प्रकार झील के किनारे के वृक्ष १० से ३५ डिग्री के अंश पर झील की ओर झुक गए हैं. यह सब साक्ष्य इंगित करते हैं कि नैनीताल में पर्वत के गर्भ में उथल-पुथल चल रही है. तीन चौथाई से अधिक नैनीताल भूस्खलनो की दृष्टि से असुरक्षित हो चुका है, फिर भी हम वहाँ घर बनाने की होड़ में लगे हैं.१८८० के आठ मिनिट में तो मात्र १९३ जाने गई-आज की तारीख में यदि वैसे आठ मिनिट पुनः हो गए तो गजब हो जाएगा. इस त्रासदी से बचने के लिए सरकार से अधिक नानिनीतल वासियों को सोचना होगा. यद पर्वतीय ढलानों पर जल निकासी का उचित प्रबंध न हो तो परिणाम जोखिम भरे होते हैं. यद भूस्खलनो कि मार से बचना है तो जल निकासी की नालियों और नालों को अवरुद्ध होने से बचान होगा-कृपया देख ले कहीं आपका घर ही तो निकासी में अवरोध नहीं पैदा कर रहा है?
जय हिंद [/size][/font]