Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 71896 times)

नवीन जोशी

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मेरी फोटो का नयां ब्लॉग :प्रकृति मां: http://prakritiman.blogspot.com/[/url]

यहाँ देखें उत्तराखंड और खासकर नैनीताल की ढेर सारी फोटो.

नवीन जोशी

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भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, कोटगाड़ी ने भी किया पलायन

विडम्बना तराई और भाबर में स्थापित हो गए पहाड़ के देवी-देवता
गणेश पाठक/एसएनबी, हल्द्वानी। अरबों खरबों खर्च करने के बाद भी पहाड़ से पलायन की रफ्तार थम नहीं पा रही है। इस पलायन में केवल मनुष्य की शामिल नहीं है, बल्कि देवी-देवता भी पहाड़ छोड़कर तराई में बस गये हैं। पहाड़ों के तमाम छोटे-बड़े मंदिर और मकान खंडहरों में तब्दील हो गये हैं, जबकि तराई और भाबर में भूमिया, ऐड़ी, गोलज्यू, कोटगाड़ी समेत कई देवताओं के मंदिर बन गये हैं। पलायन करके तराई में आए लोग पहले देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने के लिए साल भर में एक बार घर जाते थे, लेकिन अब इस पर भी विराम लग गया है। राज्य गठन के बाद पलायन की रफ्तार तेज हुई है। पिथौरागढ़ से लेकर चंपावत तक नेपाल-तिब्बत (चीन) से जुड़ी सरहद मानव विहीन होने की स्थिति में पहुंच गई है और यह इलाका एक बार फिर इतिहास दोहराने की स्थिति में आ गया है। कई सौ साल पहले मुगल और दूसरे राजाओं के उत्पीड़न से नेपाल समेत भारत के विभिन्न हिस्सों से लोगों ने कुमाऊं और गढ़वाल की शांत वादियों में बसेरा बनाया था। धीरे-धीरे कुमाऊं और गढ़वाल में हिमालय की तलहटी तक के इलाके आवाद हो गये थे, लेकिन आजादी के बाद सरकारें इन गांवों तक बुनियादी सुविधाएं देने में नाकाम रहीं और पलायन ने गति पकड़ी। इससे पहाड़ खाली हो गये। सरकारी रिकाडरे में खाली हो चुके गांवों की संख्या महज 1065 है, जबकि वास्तविकता यह है कि अकेले कुमाऊं में पांच हजार से अधिक गांव वीरान हो गये हैं। खासतौर पर नेपाल और तिब्बत सीमा से लगे गांवों से अधिक पलायन हुआ है। लगातार पलायन से पहाड़ों की हजारों एकड़ भूमि बंजर हो गई है। पलायन की इस रफ्तार से देवी-देवताओं पर भी असर पड़ा है। शुरूआत में लोग साल दो साल या कुछ समय बाद घर जाते और देवी देवताओं की पूजा करते थे। इससे नई पीढ़ी का पहाड़ के प्रति भावनात्मक लगाव बना रहता था, लेकिन अब यह लगाव भी टूटने लगा है। इसकी वजह से हजारों की संख्या में देवी देवताओं का पहाड़ से पलायन हो गया है। अकेले तराई और भावर में तीन से चार हजार तक विभिन्न नामों के देवी देवताओं के मंदिर बन गये हैं। किसी दौर में पहाड़ों में ये मंदिर तीन-चार पत्थरों से बने होते थे, लेकिन अब तराई और भावर में इनका आकार बदल गया है। यहां स्थापित किये गए देवी देवताओं में भूमिया, छुरमल, ऐड़ी, अजिटियां, नारायण, गोलज्यू के साथ ही न्याय की देवी के रूप में विख्यात कोटगाड़ी देवी के नाम शामिल हैं। इन देवी-देवताओं के पलायन का कारण लोगों को साल दो साल में अपने मूल गांव जाने में होने वाली कंिठनाई है। दरअसल राज्य गठन के बाद पलायन को रोकने के लिए खास नीति न बनने से पिछले दस साल में पलायन का स्तर काफी बढ़ गया है। हल्द्वानी में कपकोट के मल्ला दानपुर क्षेत्र से लेकर पिथौरागढ़ के कुटी, गुंजी जैसे सरहदी गांवों के लोगों ने अपने गांव छोड़ दिये हैं। पहाड़ छोड़कर तराई एवं भावर या दूसरे इलाकों में बसने वाले लोगों में फौजी, शिक्षक, व्यापारी, वकील, बैंककर्मी, आईएएस समेत विभिन्न कैडरों के लोग शामिल हैं। पलायन के कारण खाली हुए गांवों में हजारों एकड़ कृषि भूमि बंजर पड़ गई है। इसी तरह से विकास के नाम पर खर्च हुए अरबों रुपये का यहां कोई नामोनिशान नहीं है। नहरें बंद हैं। पेयजल लाइनों के पाइप उखड़ चुके हैं और सड़कों की स्थिति भी बदहाल है। किसी गांव में दो-चार परिवार हैं तो किसी में कोई नहीं रहता। किसी दौर में इन गांवों में हजारों लोग रहा करते थे। स्कूल और कालेजों की स्थिति भी दयनीय बन गई है। कई प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चा भी नहीं है तो किसी इंटर कालेज में दस छात्र भी नहीं पढ़ रहे हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बिलकुल जोशी जी.

बहुत ही दुःख की बात है! आखिर क्यों ये पहाड़ इतने बेगाने लग रहे हो लोगो को!

यहाँ मैंने सुना लोगो ने नंदा देवी का मंदिर गुडगाव में भी बना लिया है !

नवीन जोशी

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इस गाँव का नाम मुझे नहीं पता, पर यह चित्र आज के पहाड़ के पूरे हालात बयान करता है. अल्मोड़ा जिले में पनुवानौला से आगे वृद्ध जागेश्वर जाने वाली रोड के करीब स्थित यह गाँव मुझे पूरे पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता हुआ लगा. यहाँ कुछ हरीतिमा लिए तो कुछ बंजर छोटे-छोटे सीढीनुमा खेत हैं. ऊपर वाले घरों की बाखलियाँ ठेठ पुरानी पहाड़ी हैं, नीचे उसी पुराने स्टाइल में बनी नई बाखली भी है, वहीँ सबसे नीचे गृहस्वामी के प्रवासी हो जाने के फलस्वरूप हुआ खंडहर और उसके बगल में नए जमाने का लिंटर वाला मकान भी है.
फोटो अपलोड ही नहीं हो रही, यहाँ देखकर काम चलाना पड़ेगा : http://prakritiman.blogspot.com/2011/04/blog-post_29.html

नवीन जोशी

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बदल रहा है भूगोल
हर वर्ष दो सेमी तक ऊपर उठ रहे हैं हम: प्रो. वल्दिया
एशिया को 5४ मिमी प्रति वर्ष उत्तर की ओर धकेल रहा है भारत
नवीन जोशी, नैनीताल। शीर्षक पड़ कर हैरत में न पड़ें । बात हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की हो रही है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात भू वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. केएस वाल्दिया का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप एशिया को 5४ मिमी की दर से हर वर्ष उत्तर की आेर धकेल रहा है। इसके प्रभाव में हिमालय के पहाड़ प्रति वर्ष 18 मिमी तक ऊंचे होते जा रहे हैं। 
प्रो. वाल्दिया ने कहना है कि भारतीय प्रायद्वीपीय प्लेट 5४ मिमी से चार मिमी कम या अधिक की दर से उत्तर दिशा की ओर सरक रही है, इसका दो तिहाई प्रभाव तो बाकी देश पर पड़ता है, लेकिन सवाधिक एक तिहाई प्रभाव यानी 18 मिमी से दो मिमी कम या अधिक हिमालयी क्षेत्र में पड़ता है। मुन्स्यारी से आगे तिब्बतन—हिमालयन थ्रस्ट पर भारतीय व तिब्बती प्लेटों का टकराव होता है। कहा कि यह बात जीपीएस सिस्टम से भी सिद्ध हो गई है। उत्तराखंड के बाबत उन्होंने कहा कि यहां यह दर 18 से 2 मिमी प्रति वर्ष की है। कहा कि न केवल हिमालय वरन शिवालिक पर्वत श्रृंखला की ऊंचाई भी बढ़ रही है। उन्होंने नेपाल के पहाड़ों के तीन से पांच मिमी तक ऊंचा उठने की बात कही।
उत्तराखंड के बाबत उन्होंने बताया कि यहां मैदानों व शिवालिक के बीच हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट,  शिवालिक व मध्य हिमालय के बीच मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), तथा मध्य हिमालय व उच्च हिमालय के बीच मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे बड़े भ्रंस मौजूल हैं। इनके अलावा भी नैनीताल से अल्मोड़ा की ओर बढ़ते हुए रातीघाट के पास रामगढ़ थ्रस्ट, काकड़ीघाट के पास अल्मोड़ा थ्रस्ट सहित मुन्स्यारी के पास सैकड़ों की संख्या में सुप्त एवं जागृत भ्रंस मौजूद हैं। हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए यह भ्रंस संकरे होते चले जाते हैं।
लेकिन भू गर्भ में ऊर्जा आशंकाओं से कम
नैनीताल। प्रो. वाल्दिया का यह खुलासा पहाड़ वासियों के लिये बेहद सुकून पहुंचाने वाला हो सकता है। अब तक के अन्य वैज्ञानिकों के दावों से इतर प्रो. वाल्दिया का मानना है कि छोटे भूकंपों से भी पहाड़ में भूकंप की संभावना कम हो रही है। जबकि अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि 19३0 से हिमालय के पहाड़ों में कोई भूकंप न आने से भूगर्भ में इतनी अधिक मात्रा में ऊ र्जा का तनाव मौजूद है जो आठ से अधिक मैग्नीट्यूड के भूकंप से ही मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत प्रो.वाल्दिया का कहना है कि हिमालय में सर्वाधिक भूकंप आते रहते हैं। इनकी तीव्रता भले कम हो, लेकिन इस कारण भूगर्भ से ऊर्जा निकलती जा रही है। इसलिये भूगर्भ में उतना तनाव नहीं है, जितना कहा जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकृति मां की तरह है, वह कभी किसी का नुकसान नहीं करती। भूकंप व भूस्खलन अनादि काल से आ रहे हैं। इधर जो नुकसान हो रहा है वह इसलिये नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं आबादी क्षेत्र में आ रही हैं, वरन मनुष्य ने आपदाओं के स्थान पर आबादी बसा ली हैं। कहा कि वैज्ञानिक व परंपरागत सोच के साथ ही निर्माण करें तो आपदाओं से बच सकते हैं। सड़कों के निर्माण में भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट न लिये जाने पर उन्होंने नाराजगी दिखाई।

नवीन जोशी

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कभी तिब्बत में होंगे हम: प्रो. पन्त

5५ मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में धंस रही है भारतीय प्लेट
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां ! चौंकिए नहीं, ऐसा संभव है कि हम आज से कुछ हजार वर्ष बाद तिब्बत में हों। हालांकि इससे भी अधिक संभावना यह है कि तब तक कमजोर भारतीय प्लेट,मजबूत तिब्बती प्लेट के भीतर समा जाए और जहां आज उत्तराखंड व उत्तर भारत के बड़े-बड़े नगर बसे हुए हैं, तिब्बत इनके ऊपर चढ़ कर बैठ जाए। जीयोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय प्लेट 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है।
यहां तक तो यह बात रोमांचित करने वाली अथवा हवाई कल्पना सरीखी लग सकती है, लेकिन यह सामान्य प्रक्रिया है। प्रो. पन्त के अनुसार कुछ बिलियन वर्षों में उत्तराखंड सहित उत्तर भारत तिब्बत में समां जाएगा। यह आश्चर्यजनक लगे तो जान लें की जहाँ आज हिमालय है, वहां कभी टेथिस सागर था। आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों में समुद्री जीवाश्म इस बात की पुष्टि करते हैं।

भारतीय प्लेट के तिब्बत में घुसाने की प्रक्रिया में उत्तराखंड व देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत मई कई बार भूगर्भीय हलचलों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में सतर्क रहने की आवश्यकता है। कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो.चारु चंद्र पंत ने खुलासा किया कि जीएसआई की ताजा रिपोर्टों के आधार पर भारतीय प्लेट कश्मीर से लेकर अरुणांचल प्रदेश तक औसतन 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है। उन्होंने आशंका जताई 'संभव है कुछ मिलियन वर्षों में ग्वालियर तिब्बत पहुंच जाए। बताया कि पर्वत भूगर्भीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत हल्के पदार्थों के बने होते हैं। हिमालय युवा पहाड़ कहलाते हैं, यहां अधिकतम 380 मिलियन वर्ष पुरानी चट्टानें पाई गई हैं। इधर मध्य हिमालय का क्षेत्र 56 मिलियन वर्ष पुराना है, जबकि एक अनोखी बात यहां दिखती है कि अपेक्षाकृत पुराने मध्य हिमालय अपने से नये केवल 15 मिलियन वर्ष पुराने शिवालिक पहाड़ों के ऊपर स्थित हैं। ऐसे में कठोर व कमजोर पहाड़ों का एक-दूसरे के अंदर समाना एक सतत प्रक्रिया है। समाने की यह प्रक्रिया धरती के भीतर लीथोस्फेेरिक व एेस्थेनोस्फियर परतों के बीच होती है। इससे भू गर्भ में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा एकत्र होती है, जो ज्वालामुखी तथा भूकंपों के रूप में बाहर निकलती है। चूंकि भारतीय व तिब्बती प्लेटें उत्तराखंड के करीब से एक-दूसरे में समा रही हैं, इसलिये यहां भूकंपों का खतरा अधिक बढ़ जाता है। इधर यह खतरा इसलिये भी बढ़ता जा रहा है कि बीते 20 वर्षों में वर्ष 19५ के कांगड़ा व 19३४ के 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक' के बाद के 1१५ वर्षों में यहां आठ मैग्नीट्यूड से अधिक के भूकंप नहीं आये हैं, लिहाजा धरती के भीतर बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलने को प्रयासरत है।
देश में अब पांच नहीं चार ही साइस्मिक जोन
भू वैज्ञानिक प्रो. चारु चंद्र पंत ने बताया कि पूर्व में दक्षिण भारत को भूकंपों के दृष्टिकोण से बेहद सुरक्षित माना जाता था, और इसे जोन एक में रखा गया था। लेकिन बीते वर्षों में कोयना सहित वहां भी भूकंपों के आने के बाद अब जोन एक को जोन दो में समाहित कर लिया गया है। इस प्रकार देश में अब जोन एक में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार अब देश में केवल दो, तीन, चार व पांच यानी केवल चार भी भूकंपीय जोन हैं। उत्तराखंड जोन चार व पांच में आता है।
प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब मरते हैं
प्रो. पंत के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब और केवल 2 फीसद ही मध्य व उच्च वर्गीय लोग मारे जाते हैं। वह बताते हैं कि वास्तव में प्राकृतिक आपदायें हमेशा से आती रही हैं, और अब भी इनकी गति नहीं बढ़ रही है, लेकिन मनुष्य के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बस जाने के कारण मानवीय नुकसान अधिक हो रहा है। ऐसे में इनसे बचने के लिये दीर्घकालीन योजनायें  बनाने, भूकंपरोधी घर बनाने, जिलों से भी नीचे की इकाइयों के डाटा बैंक व वहां स्वयं सेवकों की टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जो आपदा के दौरान बचाव कार्यों में अपना योगदान दे सकें।
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नवीन जोशी

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हिसालू की जात बड़ी रिसालू

कुमाउनी फल हिसालू कैसा होता हैं, इस बारे में कुमाउनी के आदि कवि लोक रत्न पन्त 'गुमानी' (1791 -1846) जी की सुनिए :

हिसालू की जात बड़ी रिसालू , जाँ जाँ जाँछे उधेड़ि खाँछे |
यो बात को क्वे गटो नी माननो, दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ |
(यानी हिसालू की नस्ल बड़ी नाराजगी भरी है, जहां-जहां जाता है, बुरी तरह खरोंच देता है, तो भी कोइ इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें खानी ही पड़ती हैं.)

गुमानी को हिंदी का भी आदि कवि कहा जाता है, उन्होंने 1815 में ही हिंदी खड़ी बोली में हिंदी काव्य की रचना की थी. वह हिसालू पर आगे कहते हैं:
छनाई छन मेवा रत्न सगला पर्वतन में,
हिसालू का तोपा छन बहुत तोफा जनन में,
पहर चौथा ठंडा बखत जनरौ स्वाद लिंड़ में,
अहो में समझछुं, अमृत लग वास्तु क्या हुनलो ?
(यानी पर्वतों में तरह-तरह के अनेक रत्न हैं, हिसालू के बूंदों से फल भी ऐसे ही तोहफे हैं, चौथे प्रहार में इनका स्वाद लेना चाहिए, वाह मैं समझता हूँ इसके सामने अमृत का स्वाद भी क्या होगा...)

नवीन जोशी

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http://rashtriyasahara.samaylive.com/epaperimages/2152011/2152011-md-dd-1/615546.JPG
सुमेरू से होती थी ज्योतिष गणना
कुमाऊं विवि को मिला संस्कृत और फारसी का अनूठा ज्योतिष गणना यंत्र
सूर्य व चंद्र दोनों सिद्धांतों पर आधारित है यह दस्तावेज
हिमालयन संग्रहालय में मौजूद अनूठा विशाल ज्योतिष यंत्र।
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नवीन जोशी नैनीताल। कुमाऊं विवि के हिमालयन संग्रहालय को एक विशाल आकार का हस्तलिखित ज्योतिष गणना यंत्र मिला है। यह संस्कृत और फारसी में लिखा गया है, इसमें सूर्य व चंद्र ज्योतिष सिद्धांतों से सौरमंडल और ब्रrांड की गणना की गई है। यह पुराने समय में कुमाऊं अंचल के ज्ञान के भंडार का दस्तावेज है। विवि के इतिहास विभाग के हिमालयन संग्रहालय को नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में शिक्षक रहे इतिहासकार नित्यानंद मिश्रा के जरिए यह ज्योतिष गणना यंत्र हासिल हुआ। यह पहाड़ के ‘बड़वा’ पेड़ से हस्तनिर्मित कागज पर छह फीट एक इंच लंबा व चार फीट चौड़े विशाल आकार में है। इसमें सुमेरु पर्वत को पृथ्वी का केंद्र मानते हुऐ पृथ्वी की सतह से 12 योजन यानी 96 किमी तक के आसमान और सौरमंडल के साथ ब्रrांड में मौजूद नक्षत्रों के व्यास और उनकी कक्षाओं की विस्तृत जानकारी है। पंचांग में सुमेरु के चारों ओर कपिल, शंख, वैरूप्य, चारुश्य, हेम, ऋषभ, नाग, कालंजर, नारद, कुरंग, बैंकक, त्रिकट, त्रिशूल, पतंग, निषध व शित आदि पर्वतों तथा क्षार, क्षीर, दधि, घृत, इक्षुरस, मदिर व स्वाद नाम के सात समुद्रों का जिक्र है। समुद्रों के बीच में क्रमश: शाक, साल्मती, कुश, क्रोंच, गोमेद व पुष्कर द्वीप भी प्रदर्शित हैं। यंत्र के अनुसार चांद का व्यास 1, 03,090 योजन व नक्षत्रों का व्यास 8,29,92,224 योजन है। इसमें सूर्य सहित सभी ग्रहों व नक्षत्रों का व्यास व उनकी परिभ्रमण कक्षाएं भी अंकित हैं। यह पंचांग ज्योतिष के विपरीत सिद्धांतों सूयर्ं व चंद्र सिद्धांतों के समन्वय पर बना है। इसमें संस्कृत के साथ फारसी का प्रयोग किया गया है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन से जुड़े डा. कैलाश कांडपाल इसे करीब 300 वर्ष पुराना मुगलकालीन दस्तावेज मान रहे हैं। यंत्र को हिमालय संग्रहालय में रखा गया है। इसके अनुरक्षण का कार्य रानीबाग की संस्था हिमसा के माध्यम से किया जा रहा है।[/color][/size]
इसे यहाँ राष्ट्रीय सहारा के प्रथम पृष्ठ पर भी देख सकते हैं: http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=14&eddate=05/21/2011

नवीन जोशी

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सदियों पहले से कुमाऊंनी में लिखी जा रहीं पुस्तकें
नैनीताल (एसएनबी)। कुमाऊंनी को बोली या भाषा मानने पर चल रही बहस के बीच नैनीताल में एक ऐसी पांडुलिपि प्राप्त हुई है, जो कुमाऊंनी में लिखी गई है। यह पुस्तक जन्म कुंडली निर्माण की पद्धति को बेहद सहज और सरल पद्धति से सिखाती है। देश भर में वर्ष 2003 से चल रहे राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के तहत प्रदेश में कार्य कर रहे उत्तराखंड संस्कृत अकादमी सव्रेक्षकों के हाथ अनूठे हस्तलिखित दस्तावेज हाथ लगे हैं।
उल्लेखनीय है कि कुमाऊंनी को भाषा के इतर बोली मानने के तर्क दिए जाते हैं। तर्क है कि इसमें प्राचीन लिखित साहित्य मौजूद नहीं है। इस मान्यता को कुमाऊं विवि के मुख्यालय स्थित हिमालयन संग्रहालय में मौजूद कुमाऊंनी में जन्म कुंडली निर्माण पद्धति पर लिखित पुस्तक आईना दिखाने वाली है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सर्वेक्षकों को 300 वर्ष पुराना अनूठा संस्कृत व फारसी का ज्योतिष गणना यंत्र के साथ ही जागेश्वर महात्म्य, रामगंगा महात्मय, दशकर्म पद्धति, षोडश संस्कार पुस्तक, धार्मिक कर्मकांड तंत्र-मंत्र से जुड़ी पांडुलिपियां प्राप्त हुई हैं। इन पांडुलिपियों का रानीबाग की हिमसा संस्था के क्यूरेटरों द्वारा संरक्षण किया जा रहा है। इस मौके पर सव्रेक्षकों डा. कैलाश कांडपाल व शैक्षिक समन्वयक कैलाश पंत ने आमजन से अपील की कि वह घरों में मौजूद प्राचीन पांडुलिपियों को मिशन के तहत पंजीकृत कराए।

नवीन जोशी

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पाकिस्तान के रेल मंत्री ने ‘गढ़वाली’ के पेशावर कांड को याद किया
नैनीताल। नैनीताल पहुंचे पाकिस्तान के रेल मंत्री हाजी गुलाम अहमद बिल्लौर ने दावा किया कि हिन्दुस्तान की आजादी के लिए पाकिस्तानियों ने जलियांवाला बाग सहित सर्वाधिक कुर्बानियां दीं, उसी तरह हिंदू सैनिकों ने भी पाकिस्तानी शहर पेशावर के मशहूर किस्साखानी व बाजार-ए-कलां में अंग्रेजों के हुक्म पर अपने लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। उल्लेखनीय है कि प्रदेश के वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को ही पेशावर कांड का नायक कहा जाता है, जिन्होंने 23 अप्रैल 1930 को रॉयल गढ़वाल रायफल्स का हवलदार रहते पेशावर में आजादी के लिए आंदोलनरत निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था।
उनका साक्षात्कार आगे पढ़ें: http://uttarakhandsamachaar.blogspot.com/

 

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