Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख

<< < (4/60) > >>

नवीन जोशी:
कुमाउनी गद्याक बार में लेख... इमें म्यर थ्वड़ कृतित्व लै शामिल करी जैरौ.[/color][/font][

नवीन जोशी:


उत्तराखण्ड चलना सीख गया है `बल´[/color][/b]

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखण्ड राज्य को नौ साल हो गऐ। जल्द 10वीं सालगिरह मनाई जाने वाली है बल। सब औपचारिक ठैरा,  चलो हम भी मनाएंगे, जैसे पन्द्र अगस्त या छब्बीस जनवरी मनाते हैं। इस बार तो राष्ट्रगीत गाने जैसी कोई औपचारिकता भी नहीं ठैरी। दो कर्मचारी आपस में बात कर रहे ठैरे।
उत्तराखण्ड इन आठ सालों में कितना बदला, उनकी बातें इस दिशा में मुड़ीं और बात सरोकारों तक भी गई। एक कहने लगा, यूपी और उत्तराखण्ड में वैसे भौत फर्क हो गया है। उत्तराखण्ड चलना सीख गया है बल, इसलिए चलने से पहले कोई सोच बिचार नहीं करता। कई अपनी चीजें भुलाकर पुराने यूपी की सीख ली हैं बल, ऐसे में कई चीजें सीखने की जरूरत भी नहीं रह गई ठैरी, हालांकि ऐसे में पहाड़ से गिरने का खतरा भी ठैरा, पर कौन सोचता है। ग्राम प्रधान सीख सीख कर मंत्री विधायक बन गऐ हैं बल। बाबू, फोर्थ क्लास वाले सैक्रेटरिऐट पहुंच गऐ हैं। जिसकी जहां जुगाड़ लगी फिट हो गया। हर घर, चूले तक की मंत्रियों से पहुंच हो गई है। सब ने जुगाड़ बैठाने सीख लिऐ हैं। राज्य ऊर्जा, पर्यटन, जैविक, उद्योग, कृषि जाने कौन कौन प्रदेश और देवभूमि बनने की ओर भी चल पड़ा है बल, यह अलग बात है कि पहुंचा कहीं नहीं। यह अपने पैरों पर चलने की निशानी ही तो ठैरी। अब तो किसी को भी धोंस दिखानी या हिस्सा मांगने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। पता नहीं वह किस बड़े से मोबाइल पर धमकवा दे। उनको भी कोई काम थोड़े ही है, और काम उनके पल्ले पड़ते नहीं। अब कुछ लोगों को देखो राजधानी गैरसैंण बनाओ कह रहे हैं। अरे उल्टे बांस बरेली क्या करोगे। अपने `गिरदा´ कभी कभी ठीक कहते हैं, देहरादून को कम बरबाद कर लिया जो अब और जगहों को बरबाद करोगे। पहाड़ की पहाड़ों के घरों जैसी छोटी सी राजधानी अपनी औकात के हिसाब से बनानी हो तो ठीक भी है कि गैरसेंण बनाओ, वर्ना यही रौकात करनी है, वहां भी लखनऊ देहरादून ही बना देना है तो फिर ऐसी राजधानी दून से भी दूर कहीं बाहर ही चला ले जाओ। राज्य के गांवों का वैसे भी पड़ावों, शहरों और बाहर के प्रदेशों की ओर जाना थमा नहीं है। जो बाहर काम कर रहे बिचारे राज्य बनने पर यहां लौट आऐ थे, कहीं के नहीं रहे। यहां तो जिसकी चल जाऐ वाला हिसाब हो रहा ठैरा। अपनी मिट्टी, जंगल, जवानी पानी नीचे को बहती जा रही है। गांवों में अब बचा ही क्या है। जब गांव ही नहीं बचे तो महिलाओं के सिर से बोझ उतारने की चिन्ता क्या करनीं, वह तो खुद ही उतर जाऐगा। स्कूलों में मास्साब और उनके मित्र (शिक्षक मित्र) नहीं आ रहे तो क्या हुआ, उनके बनाऐ मित्रों को तो रोजगार मिल ही गया है। कल बच्चे से पूछ रहा था, दूध देने वाले दो पशुओं का नाम बताओ। पहला डेरी बताया दूसरा सोचता सोचता थैली....दूधवाला कहने लगा। उसे क्या पता। उसके लिए तो दूध दूधवाला या डेरी वाला ही देता है। उसके लिए अनाज खेतों पर नहीं उगता, बनिऐ की दुकान पर मिलता है। दाल, भात, सब्जी, नून, तेल सब वहीं पैदा होता है, बस पैंसे से काटना पड़ता है। अब किसी खेत में कम या ज्यादे पैदावार नहीं होती। अच्छी उपजाऊ सिमार या बंजर जमीन में अब कोई फर्क नहीं रहा। उपजाऊ जमीन में सिडकुल के उद्योग लग गऐ हैं। अब चिन्ता करनी है तो इस पर करो कि फलाना बनिया कुछ सस्ता दे देता है और फलाना बेईमान है, हर समान महंगा लगाता है। पर यह सारा झाड़ कुछ ही समय की बात है। जितना दूध पीना हो पी लो। जितना खाना है खा लो, जल्दी ही टूथपेस्ट जैसे ट्यूब से एंजाइम चूसने हैं उसकी तैयारी करो। कुछ बेवकूफ ही लोग हैं जो सरोकारों की बात करते हैं, हमारे लिऐ तो यही सरोकार हैं और यही सरकार। सरकार रोजगार, स्वरोजगार नहीं देती तो क्या, लोगों ने ठेकेदारी, मिट्टी जंगल बेचने का धंधा सीख ली लिया है। ठेकेदारी में गुड़ गोबर चाहे जो करो, कोई देखने वाला नहीं है। एक ही सड़क, गूल चाहे पांच पांच बार बना लो, यहां सब चलता है। दूसरा धंधा अभी जमीन का बचा है। पहाड़ में भौत जमीन है, नीचे गांवों में अब पानी या जंगल की जरूरत भी क्या है। जैसा सौदा पटा बेच डालो, सब चलता है। राज्य बनने के बाद इतना फायदा तो हुआ ही कि जमीन की कीमतें आसमान पहुंच गई हैं। धरना, जनान्दोलन राज्य ने बहुत किऐ, अब बात बेबात जाम लगाना भी सीख लिया है। भ्रष्टाचार, अपराध में भी अब सीखने को कुछ खास बचा नहीं। ...आंखिर राज्य अपने पैरों पर चलना जो सीख गया है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

जोशी जी बहुत सुंदर लेख..

मुझे नहीं नहीं लगता विकास के हिसाब से उत्तराखंड अभी भी घुटने के बल चलने लायक है! बच्चे को एक साल का करीब समय लगता है चलने के लिए हमारा राज्य तो १० साल का बूडा होने वाला है!

क्या विकास क्या होता है बल ? 

पता नहीं...... सब देहरादून ही है. .



--- Quote from: Navin Joshi on August 07, 2010, 09:31:27 PM ---

उत्तराखण्ड चलना सीख गया है `बल´[/color][/b]

नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखण्ड राज्य को नौ साल हो गऐ। जल्द 10वीं सालगिरह मनाई जाने वाली है बल। सब औपचारिक ठैरा,  चलो हम भी मनाएंगे, जैसे पन्द्र अगस्त या छब्बीस जनवरी मनाते हैं। इस बार तो राष्ट्रगीत गाने जैसी कोई औपचारिकता भी नहीं ठैरी। दो कर्मचारी आपस में बात कर रहे ठैरे।
उत्तराखण्ड इन आठ सालों में कितना बदला, उनकी बातें इस दिशा में मुड़ीं और बात सरोकारों तक भी गई। एक कहने लगा, यूपी और उत्तराखण्ड में वैसे भौत फर्क हो गया है। उत्तराखण्ड चलना सीख गया है बल, इसलिए चलने से पहले कोई सोच बिचार नहीं करता। कई अपनी चीजें भुलाकर पुराने यूपी की सीख ली हैं बल, ऐसे में कई चीजें सीखने की जरूरत भी नहीं रह गई ठैरी, हालांकि ऐसे में पहाड़ से गिरने का खतरा भी ठैरा, पर कौन सोचता है। ग्राम प्रधान सीख सीख कर मंत्री विधायक बन गऐ हैं बल। बाबू, फोर्थ क्लास वाले सैक्रेटरिऐट पहुंच गऐ हैं। जिसकी जहां जुगाड़ लगी फिट हो गया। हर घर, चूले तक की मंत्रियों से पहुंच हो गई है। सब ने जुगाड़ बैठाने सीख लिऐ हैं। राज्य ऊर्जा, पर्यटन, जैविक, उद्योग, कृषि जाने कौन कौन प्रदेश और देवभूमि बनने की ओर भी चल पड़ा है बल, यह अलग बात है कि पहुंचा कहीं नहीं। यह अपने पैरों पर चलने की निशानी ही तो ठैरी। अब तो किसी को भी धोंस दिखानी या हिस्सा मांगने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। पता नहीं वह किस बड़े से मोबाइल पर धमकवा दे। उनको भी कोई काम थोड़े ही है, और काम उनके पल्ले पड़ते नहीं। अब कुछ लोगों को देखो राजधानी गैरसैंण बनाओ कह रहे हैं। अरे उल्टे बांस बरेली क्या करोगे। अपने `गिरदा´ कभी कभी ठीक कहते हैं, देहरादून को कम बरबाद कर लिया जो अब और जगहों को बरबाद करोगे। पहाड़ की पहाड़ों के घरों जैसी छोटी सी राजधानी अपनी औकात के हिसाब से बनानी हो तो ठीक भी है कि गैरसेंण बनाओ, वर्ना यही रौकात करनी है, वहां भी लखनऊ देहरादून ही बना देना है तो फिर ऐसी राजधानी दून से भी दूर कहीं बाहर ही चला ले जाओ। राज्य के गांवों का वैसे भी पड़ावों, शहरों और बाहर के प्रदेशों की ओर जाना थमा नहीं है। जो बाहर काम कर रहे बिचारे राज्य बनने पर यहां लौट आऐ थे, कहीं के नहीं रहे। यहां तो जिसकी चल जाऐ वाला हिसाब हो रहा ठैरा। अपनी मिट्टी, जंगल, जवानी पानी नीचे को बहती जा रही है। गांवों में अब बचा ही क्या है। जब गांव ही नहीं बचे तो महिलाओं के सिर से बोझ उतारने की चिन्ता क्या करनीं, वह तो खुद ही उतर जाऐगा। स्कूलों में मास्साब और उनके मित्र (शिक्षक मित्र) नहीं आ रहे तो क्या हुआ, उनके बनाऐ मित्रों को तो रोजगार मिल ही गया है। कल बच्चे से पूछ रहा था, दूध देने वाले दो पशुओं का नाम बताओ। पहला डेरी बताया दूसरा सोचता सोचता थैली....दूधवाला कहने लगा। उसे क्या पता। उसके लिए तो दूध दूधवाला या डेरी वाला ही देता है। उसके लिए अनाज खेतों पर नहीं उगता, बनिऐ की दुकान पर मिलता है। दाल, भात, सब्जी, नून, तेल सब वहीं पैदा होता है, बस पैंसे से काटना पड़ता है। अब किसी खेत में कम या ज्यादे पैदावार नहीं होती। अच्छी उपजाऊ सिमार या बंजर जमीन में अब कोई फर्क नहीं रहा। उपजाऊ जमीन में सिडकुल के उद्योग लग गऐ हैं। अब चिन्ता करनी है तो इस पर करो कि फलाना बनिया कुछ सस्ता दे देता है और फलाना बेईमान है, हर समान महंगा लगाता है। पर यह सारा झाड़ कुछ ही समय की बात है। जितना दूध पीना हो पी लो। जितना खाना है खा लो, जल्दी ही टूथपेस्ट जैसे ट्यूब से एंजाइम चूसने हैं उसकी तैयारी करो। कुछ बेवकूफ ही लोग हैं जो सरोकारों की बात करते हैं, हमारे लिऐ तो यही सरोकार हैं और यही सरकार। सरकार रोजगार, स्वरोजगार नहीं देती तो क्या, लोगों ने ठेकेदारी, मिट्टी जंगल बेचने का धंधा सीख ली लिया है। ठेकेदारी में गुड़ गोबर चाहे जो करो, कोई देखने वाला नहीं है। एक ही सड़क, गूल चाहे पांच पांच बार बना लो, यहां सब चलता है। दूसरा धंधा अभी जमीन का बचा है। पहाड़ में भौत जमीन है, नीचे गांवों में अब पानी या जंगल की जरूरत भी क्या है। जैसा सौदा पटा बेच डालो, सब चलता है। राज्य बनने के बाद इतना फायदा तो हुआ ही कि जमीन की कीमतें आसमान पहुंच गई हैं। धरना, जनान्दोलन राज्य ने बहुत किऐ, अब बात बेबात जाम लगाना भी सीख लिया है। भ्रष्टाचार, अपराध में भी अब सीखने को कुछ खास बचा नहीं। ...आंखिर राज्य अपने पैरों पर चलना जो सीख गया है।

--- End quote ---

नवीन जोशी:

कुमाउनी नाटक "जैल थै वील पै" (श्री नंदा स्मारिका 2009 में प्रकाशित)

नवीन जोशी:
देवभूमि के कण-कण में देवत्व
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती, अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है. यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं. कहते हैं कि आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे. उन्होंने यहाँ आध्यात्मिक ओजस्वा प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया. बाद में कोलकाता के एक महंत ने यहाँ मंदिर बनवाया. इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं, हल्द्वानी के एक मुस्लिम चूड़ी कारोबारी को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि बर्षों तक उन्होंने ही इस मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं. इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है. वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है.
यह दूसरा स्थान नैनीताल जिले का अल्मोड़ा रोड पर काकडीघाट नाम का स्थान है. इस स्थान के बारे में स्वामी विवेकानंद ने लिखा है कि यहाँ आकर उन्हें लगा कि उनके भीतर की समस्त समस्याओं का समाधान हो गया, और उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए. महान तत्वदर्शी सोमवारी बाबा ने भी यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की.

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version