Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 73933 times)

नवीन जोशी

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नैनीताल में किंग कोबरा के बाद दिखी सतरंगी इंडियन पिट्टा

दक्षिण भारत के पश्चिमी तट के घने जंगलों में रहती है इंडियन पिट्टा फुदक कर पूरी करती है डेढ़ हजार किमी लंबी यात्रा
नवीन जोशी, नैनीताल। नैनीताल जनपद में बहुचर्चित किंग कोबरा सांप के बाद अब सतरंगी ‘इंडियन पिट्टा’ चिड़िया भी दिखाई दी है। पारिस्थितिकी विशेषज्ञ इसे जनपद की श्रेष्ठ जैव विविधता व पुष्ट पारिस्थितिकी तंत्र का परिचायक मान रहे हैं। इंडियन पिट्टा के यहां पाये जाने का अर्थ है कि जनपद में दक्षिण भारत के पश्चिमी तट जैसे घने वन मौजूद हैं।

इंडियन पिट्टा नाम का यह नन्हा पक्षी किसी क्षेत्र की पारिस्थितिकी बताने के मामले में बड़ी भूमिका निभाता है। सामान्यतया दक्षिणी भारत के पश्चिमी तट के बेहद घने वनों में पाया जाने वाला यह छोटा सा पक्षी अपनी सुंदरता के लिए पक्षी प्रेमियों को खासा आकषिर्त करता है। देश की सबसे रंगीन चिड़ियों में से एक इंडियन पिट्टा में लाल, हरा, नीला, पीला, काला, सफेद जैसे मूल रंगों के साथ अन्य कई रंग भी होते हैं। इसकी खासियत है कि यह सामान्यतया अधिक न उड़ने वाला पक्षी होने व फुदक कर ही इधर से उधर जाने के बावजूद करीब डेड़ हजार किमी की यात्रा कर जनपद में प्रवास पर पहुंचता है। पक्षी प्रेमी व विशेषज्ञ प्रभागीय वनाधिकारी अमित वर्मा ने इसे जनपद में चोरगलिया से आगे नंधौर नदी की ओर मछली वन में देखा और कैमरे में कैद करने में सफलता प्राप्त की। वर्मा बताते हैं कि यह पक्षी नवम्बर-दिसम्बर माह में पश्चिमी तट के वनों से प्रवास पर निकलता है और फरवरी-मार्च तक यहां पहुंचता है। अप्रैल-मई तक प्रवास पर रहने के बाद वापस लौट जाता है। वर्मा कहते हैं कि इंडियन पिट्टा का यहां के वनों में प्रवास पर आना यह संदेश देता है कि यहां के वन भी पश्चिमी तट जितने ही घने हैं। उन्होंने कहा कि बदलते पारिस्थिकी तंत्र के बावजूद इंडियन पिट्टा का नैनीताल के जंगलों में पहुंचना न सिर्फ रोमांचक है, बल्कि यह पर्यावरणविदों के लिए भी प्रसन्नता का विषया है।
पक्षियों का पर्यटन स्थल भी है नैनीताल
नैनीताल। नैनीताल मनुष्य के साथ ही पशु-पक्षियों का भी पर्यटन स्थल है। देश-दुनिया की सैकड़ों पक्षी प्रजातियां प्रतिवर्ष नैनीताल व इसके आसपास के क्षेत्रों में प्रवास पर आती हैं। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार देश भर में पाई जाने वाली 1100 पक्षी प्रजातियों में से 600 तो यहां मिलती ही हैं, साथ ही देश में प्रवास पर आने वाली 400 में से 200 से अधिक विदेशी पक्षी प्रजातियां भी यहां आती हैं। इनमें ग्रे हैरोन, शोवलर, पिनटेल, पोर्चड, मलार्ड, गागेनी टेल, रूफस सिबिया, बारटेल ट्री क्रीपर, चेसनेट टेल मिल्ला, 20 प्रकार की बतखें, तीन प्रकार की क्रेन, स्टीपी ईगल, अबाबील आदि प्रमुख हैं।

नवीन जोशी

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जितने सवाल-उतने जवाब थे गिर्दा

'बबा, मानस को खोलो, गहराई में जाओ, चीजों को पकड़ो.. यह मेरी व्यक्तिगत सोच है, मेरी बात सुनी जाए लेकिन मानी न जाए..' प्रदेश के जनकवि, संस्कृतिकर्मी, आंदोलनकारी, कवि, लेखक गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जब यह शब्द कहते थे, तो पीछे से लोग यह चुटकी भी लेते थे कि 'तो बात कही ही क्यों जाए' लेकिन यही बात जब वर्ष 2009 की होली में 'स्वांग' परंपरा के तहत युगमंच संस्था के कलाकारों ने उनका 'स्वांग' करते हुए कही तो गिर्दा का कहना था कि यह उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। आज उन्हें याद कर लोगों की आंखें न केवल नम हो जाती हैं, वरन वह फफक पड़ते है, उन्हें दूर से भी जानने वाले लोग शोक संतप्त है।

गिर्दा क्या थे, इस सवाल को जितने लोगों से पूछा जाए उतने जवाब मिलते है। गिर्दा एक आंदोलनकारी थे, उनमें गजब की जीवटता थी, शारीरिक रूप से काफी समय से अस्वस्थ थे, पर उनमें गजब की जीवंतता थी। वह 'हम लड़ते रयां भुला, हम लड़ते रुलो' और 'ओ जैता एक दिन त आलो उ दिन यीं दुनीं में' गाते हुए हमेशा आगे देखने वाले थे। उनमें गजब की याददाश्त थी, वह 40 वर्ष पूर्व लिखी अपनी कविताओं की एक-एक पंक्ति व उसे रचने की पृष्ठभूमि बता देते थे। वह लोक संस्कृति के इतिहास के 'एनसाइक्लोपीडिया' थे। लोक संस्कृति में कौन से बदलाव किन परिस्थितियों में आए इसकी तथ्य परक जानकारी उनके पास होती थी। कुमाऊंनीं लोक गीतों झोड़ा चांचरी में मेलों के दौरान हर वर्ष देशकाल की परिस्थितियों पर पारंपरिक रूप से जोड़े जाने वाले 'जोड़ों' की परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया। चाहे जार्ज बुश व केंद्रीय गृहमंत्री को जूता मारे जाने की घटना पर उनकी कविता 'ये जूता किसका जूता है' हो, जिसे सुनाते हुए वह जोर देकर कहते थे कि जूता मारा नहीं वरन 'भनकाया' गया है। वहीं विगत वर्ष होली के दौरान आए त्रिस्तरीय चुनावों पर उन्होंने कविता लिखी थी 'ये रंग चुनावी रंग ठैरा..'। वह अपनी कविताओं में आगे भी तत्कालीन परिस्थितियों को जोड़ते हुए चलते थे। उनकी तर्कशक्ति लाजबाब थी। वह किसी भी मसले पर एक ओर खड़े होने के बजाय दूसरी तरफ का झरोखा खोलकर भी झांकते थे। राज्य की राजधानी के लिए गैरसैण समर्थक होने के बावजूद उनका कहना था 'हम तो अपनी औकात के हिसाब से गैरसैण में छोटी डिबिया सी राजधानी चाहते थे, देहरादून जैसी ही 'रौकात' अगर वहां भी करनी हो तो उत्तराखंड की राजधानी को लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ'। गिर्दा सबकी पहुंच में थे, कमोबेश सभी ने उनके भीतर की विराटता से अपने लिए कुछ न कुछ लिया और गिर्दा ने भी बिना कुछ चाहे किसी को निराश भी नहीं किया। उनके कटाक्ष बेहद गहरे वार करते थे, 'बात हमारे जंगलों की क्या करते हो, बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें'। अपनी कविता 'जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा' से उन्होंने देश की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोली तो 'मेरि कोसी हरै गे' के जरिए वह नदी व पानी बचाओ आंदोलन से भी जुड़े। एक दार्शनिक के रूप में भी वह हमेशा अपनी इन पंक्तियों के साथ याद किए जाएंगे, 'दिल लगाने में वक्त लगता है, टूट जाने में वक्त नहीं लगता, वक्त आने में वक्त लगता है, वक्त जाने में कुछ नहीं लगता' अफसोस कि वह गए है तो जैसे एक बड़े 'वक्त' को भी अपने साथ ले चले हैं।

फक्कड़ दा अलविदा..

गिर्दा में अजीब सा फक्कड़पन था। वह हमेशा वर्तमान में रहते थे, भूत उनके मन मस्तिक में रहता था और नजरे हमेशा भविष्य पर। बावजूद वह भविष्य के प्रति बेफिक्र थे। वह जैसे विद्रोही बाहर से थे कमोबेश वैसा ही उन्होंने खासकर अपने स्वास्थ्य व शरीर के साथ किया। इसी कारण बीते कई वर्षों से शरीर उन्हें जवाब देने लगा था लेकिन उन्होंने कभी किसी से किसी प्रकार की मदद नहीं ली। वरन वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरों पर अपने ज्ञान के साथ जो भी संभव होता लुटाने से परहेज न करते। ऐसा ही एक वाकया लखीमपुर खीरी में हुआ था जब एक चोर उनकी गठरी चुरा ले गया था तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि 'यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है।' गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया और लोनिवि में वर्कचार्ज कर्मी, विद्युत निगम में क्लर्क के साथ ही आकाशवाणी से भी संबद्ध रहे। पूरनपुर (यूपी) में उन्होंने नौटंकी भी की और बाद में सन् 1967 से गीत व नाटक प्रभाग भारत सरकार में नौकरी की और सेवानिवृत्ति से चार वर्ष पूर्व 1996 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। वर्ष 2005 में अल्मोड़ा जनपद के हवालबाग के निकट ज्योली गांव में हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही हो कि उत्तराखंड के एक-एक गांव की छोटी से छोटी भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारी के 'जीवित इनसाइक्लोपीडिया' होने के बावजूद उन्हें अपनी जन्म तिथि का ठीक से ज्ञान नहीं था। 1977 में केंद्र सरकार की नौकरी में होने के बावजूद वह वनांदोलन में न केवल कूदे वरन उच्चकुलीन होने के बावजूद 'हुड़का' बजाते हुए सड़क पर आंदोलन की अलख जगाकर औरों को भी प्रोत्साहित करने लगे। इसी दौरान नैनीताल क्लब को छात्रों द्वारा जलाने पर गिर्दा हल्द्वानी जेल भेजे गए। इस दौरान उनके फक्कड़पन का आलम यह था कि वह मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रहते थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम 'चलता फिरता रेडियो' बन गए। वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का 'नैनीताल बुलेटिन' तल्लीताल डांठ पर पड़ने लगे। उन्होंने हिंदी, उर्दू, कुमाऊनीं व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिंग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये। जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेंद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में 'उत्तराखंड ऐसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका-UANA' के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे जहां नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी। उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था। प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृति कर्मी स्वर्गीय बृजंेद्र लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ’मेरी विरासत का वारिश गिर्दा है।‘ उनके निधन पर संस्कृतिकर्मी प्रदीप पांडे ने ’अब जब गिर्दा चले गए है तो प्रदेश की संस्कृति का अगला वारिश ढूंढ़ना मुश्किल होगा। आगे हम संस्कृति और आंदोलनों के इतिहास को जानने और दिशा-निदश लेने कहां जाएंगे।‘ गिर्दा, आदि विद्रोही थे। वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए। प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया। उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया। होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया।
उनका फलक बेहद विस्तृत था। जाति, धर्म की सीमाओं से ऊपर वह फैज के दीवाने थे। उन्होंने फैज की गजल ’लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन जिसका वादा है‘ से प्रेरित होकर अपनी मशहूर कविता 'ओ जैता एक दिन त आलो, उ दिन य दुनी में' तथा फैज की ही एक अन्य गजल 'हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मागेंगे..' से प्रेरित होकर व समसामयिक परिस्थितियों को जोड़ते हुए 'हम कुल्ली कबाड़ी ल्वार ज दिन आपंण हक मागूंलो' जैसी कविता लिखी। वह कुमाऊंनीं के आदि कवि कहे जाने वाले 'गौर्दा' से भी प्रभावित थे। गौर्दा की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने वनांदोलन के दौरान 'आज हिमाल तुमूकें धत्यूछौ, जागो जागो हो मेरा लाल..' लिखी।

गिर्दा का कई संस्थाओं से जुड़ाव था। वह नैनीताल ही नहीं प्रदेश की प्राचीनतम नाट्य संस्था युगमंच के संस्थापक सदस्यों में थे। युगमंच के पहले नाटक 'अंधा युग' के साथ ही 'नगाड़े खामोश है' व 'थैक्यू मिस्टर ग्लाड' उन्हीं ने निदशित किये। महिलाओं की पहली पत्रिका 'उत्तरा' को शुरू करने का विचार भी गिर्दा ने बाबा नागार्जुन के नैनीताल प्रवास के दौरान दिया था। वह नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र- पत्रिकाओं से भी संबद्ध रहे। दुर्गेश पंत के साथ उनका 'शिखरों के स्वर' नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, 'रंग डारि दियो हो अलबेलिन में' नाम से होली संग्रह, 'उत्तराखंड काव्य' व डा. शेखर पाठक के साथ 'हमारी कविता के आखर' आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई।

प्रदेश के प्रति गहरी पीड़ा थी गिर्दा के मन में

हम ‘भोले-भाले’ पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं। हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन गिर्दा के अनुसार सच्चाई कुछ और थी। गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी। इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया। पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही, ‘कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले’ पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं। बकौल गिर्दा, ‘हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास। पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें। गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही ‘रौकात’ करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ। यह कहते हुए वह खास तौर पर ‘औकात’ और ‘रौकात’ षब्दों पर खास जोर देते थे। वह बड़े बांधों के घोर विरोधी थे, उनका मानना था कि हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा। यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें। हमारा पानी, बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी ‘हरा’ रखे। हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना ‘घर’ सजाये। हमारे जंगल पूरे एशिया को ‘प्राणवायु’ देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए ‘बांसे’, हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें। हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें। हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी ‘संजीवनी बूटी’ सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे। हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......। 

वनांदोलन से ठगे जाने की टीस थी गिर्दा को
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आंदोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आंदोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आंदोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आंदोलनकारियों अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आंदोलन में अगली पंक्ति में रहे गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती थी।
‘गिर्दा’ से जब वनांदोलन की बात शुरू होकर जब वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंची तो उनके भीतर की टीस बाहर निकल आई। वह बोले, ‘1972 में वनांदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंषा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ आंदोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। वरन, जनता की स्थिति बद से बदतर हो गई। तत्कालीन पतरौलषाही के खिलाफ जो आक्रोष था, वह आज भी है। औपनिवेषिक व्यवस्था ने ‘जन’ के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम और बिल्डर वनों को वेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वषीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकते। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलने लगी। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिष्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुष्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें पूर्व की तरह अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजंे तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहंुचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नजरों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़-पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब लोग गांव में अपना नया घर बनाना तो दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। लोगों का न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की ‘दंुदार’, न ‘बांस’ और न छत के लिऐ चौडे़ ‘पाथरों’ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी ग्रामीण गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का षडयंत्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काश्ठषालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बंद हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को ‘बाबीला’ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बंद हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिंतित थे। उनका मानना था कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित ने सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।                                                                     

वर्तमान हालातों से बेहद व्यथित थे गिर्दा
गिर्दा से वर्तमान हालातों व संस्कृति पर बात षुरू हुई तो उनका जवाब रूंआसे स्वरों में ‘कौन समझे मेरी आंखों की नमी का मतलब, कौन मेरी उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाऐ..’ से षुरू हुआ। कहने लगे, जहां देष के सबसे बड़े मंदिर (सवा अरब लोगों की आस्था के केंद्र) संसद में ‘नोटों के बंडल’ लहराने की संस्कति चल पड़ी हो, वहां अपनी संस्कृति की बात ही बेमानी है। उत्तराखंड भी इससे अछूता कैसे रह सकता है, इसकी बानगी गत दिनों पंचायत चुनावों में हम देख चुके हैं। जहां विधानसभा में कितनी तू-तू, मैं-मैं होती है, कई विपक्षी तो षायद वहां घुसने से पहले षायद लड़ने का मूंड ही बनाकर आते हैं। राज्य की राजधानी, परिसीमन, यहां के गाड़-गधेरों पर कोई बात नहीं करता। हां, थोड़ी बची खुची कृशि भूमि को बंजर कर नैनो के लिए जरूर नैन लगाऐ बैठे हैं। नदियों को 200 परियोजनाऐं बनाकर टुकड़े-टुकड़े कर बेच डाला है। खुद दिवालिया होते जा रहे अमेरिका से अभी भी मोहभंग नहीं हो रहा है। वह ही हमारी संस्कृति बनता जा रहा है। वह कहते हैं, हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है। आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी। गांधी जी ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था। वह सब हमने भुला दिया। आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं। नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी हैं। स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘संस्कृति हवा में नहीं उगती, यह बदले माहौल के साथ बदलती है, और ऐसा बीते वर्श में अधिक तेजी से हुआ है।’ हालांकि वह आषान्वित होकर बताते हैं, ‘संस्कृति कर्मी अपना काम कर रहे हैं। पूर्व में मेलों में तत्कालीन स्थितियों को ‘दिल्ली बै आई भानमजुवा, पैंट हीरो कट’ या ‘दिन में हैरै लेख लिखाई, रात रबड़ा घिस’ जैसे गीतों से प्रकट किया जाता था। इधर नंदा देवी के मेले के दौरान चौखुटिया के दल ने पंचायत चुनावों की स्थिति ‘गौनूं में चली देषि षराबा बजार चली रम, उम्मीदवार सकर है ग्येईं भोटर है ग्येईं कम’ के रूप में प्रकट कर इस परंपरा को कई वर्शों बाद फिर से जीवंत किया है। उनका दर्द इस रूप में भी फूटता है कि आज संस्कृति बनाने की तो फुरसत ही नहीं है, उसका फूहड़ रूप भी बच जाऐ तो गनीमत है।

होली को हुड़दंग नहीं अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे गिर्दा
होली में हुड़दंग का समावेष यूं तो हमेषा से ही रहा है, लेकिन कुमाऊं की होली की यह अनूठी विषेशता रही कि यहां हुड़दंग के बीच भी अभिव्यक्तियों की विकास यात्रा चलती रही है। कुमाउनीं के साथ हिंदी के भी प्राचीनतम (भारतेंदु हरिष्चंद्र से भी पूर्व के) कवि गुमानी पंत से होते हुऐ यह यात्रा गोर्दा एवं मौलाराम से होती हुई आगे बढ़ी, और इसे प्रदेष के जनकवि के रूप में ख्याति प्राप्त गिरीष तिवारी ‘गिर्दा’ ने आगे बढ़ाया। गिर्दा होली को हुड़दंग व केवल अभिव्यक्तियों का नहीं वरन सामूहिक अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे। गिर्दा अतीत से षुरू करते हुऐ बताते थे कि संचार एवं मनोरंजन माध्यमों के अभाव के दौर में कुमाऊं वासी भी मेलों के साथ होली का इंतजार करते थे। वर्श भर की विषिश्ट घटनाओं पर उस वर्श के बड़े मेलों के साथ ही होली में नई सामूहिक अभिव्यक्तियां निकलती थीं। उदाहरणार्थ 1919 में जलियावालां बाग में हुऐ नरसंहार पर कुमाऊं में गौर्दा ने 1920 की होलियांे में ‘होली जलियांवालान बाग मची...’ के रूप में नऐ होली गीत से अभिव्यक्ति दी। इसी प्रकार गुलामी के दौर में ‘होली खेलनू कसी यास हालन में, छन भारत लाल बेहालन में....’ तथा ‘कैसे हो इरविन ऐतवार तुम्हार....’ जैसे होली गीत प्रचलन में आऐ। उत्तराखंड बनने के बाद गिर्दा ने इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 2001 की होलियों में ‘अली बेर की होली उनरै नाम, करि लिया उनरि लै फाम, खटीमा मंसूरी रंगै ग्येईं जो हंसी हंसी दी गया ज्यान, होली की बधै छू सबू कैं...’ जैसी अभिव्यक्ति दी। इसी कड़ी में आगे भी चुनावों के दौर में भी गिर्दा ‘ये रंग चुनावी रंग ठहरा...’ जैसी होलियों का सृजन किया। ‘नैनीताल समाचार’ के प्रांगण में अपनी आखिरी होली में वह सर्वाधिक उत्साह का प्रदर्षन कर उपस्थित लोगों को आषंकित कर गये थे, बावजूद उन्होंने इस मौके पर कोई नईं होली पेष नहीं की। पूछने पर उनका जवाब था, ‘निराषा का वातावरण है, इस निराषा को षब्द देना ‘फील गुड’ के दौर में कठिन है।’

सचिन को सांस्कृतिक पुरूश मानते थे गिर्दा
सुनने में यह अजीब लग सकता है, पर एक मुलाकात में गिर्दा ने उस दिन का राश्ट्रीय सहारा अखबार उठाया, और पहले पन्ने पर ही संस्कृति के दो रूप दिखा दियेे। वहां एक ओर बकौल गिर्दा देष के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूश, बल्ले में दम दिखाते 12 हजारी सचिन थे, तो दूसरी ओर हमारी दूसरों पर निर्भरता का प्रतीक दस हजार से नीचे गिरकर बेदम पड़ा सेंसेक्स। गिर्दा बोले, गुडप्पा विष्वनाथ के बाद वह देष के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूश नम्रता, षालीनता व देष की गरिमा के प्रतीक उस सचिन को नमन करते है, जिसे इतनी बड़ी उपलब्धि पर अपनी मां की कोख और गुरु याद आते हैं। वह कभी उपलब्धियों पर इतराते नहीं, और असफलताओं पर व्यथित नहीं होते। वह युवा पीढ़ी के लिए आदर्ष हो सकते हैं। हमारी संस्कृति भी हमें यही तो सिखाती है। दूसरी ओर सेंसेक्स जो हमारी खोखली प्रगति का परिचायक है।

गिर्दा की चुनावी कविताः
रंगतै न्यारी         

चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी-
आब पधानगिरी की छु हमरी बारी।
चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी।।

मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
घर- घर में मची रै लठमारी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

आफी बंण नैग, आफी पैग,
आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी,
आब पधानगिरी की हमरि बारी।

बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
‘खई- पड़ी’ छोड़नी किलक्वारी,
आब पधानगिरी की हमरि बारी।

रैली- थैली, नोट- भोटनैकि,
मचि रै छौ मारामारी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

पांच साल त कान आंगुल खित,
करनै रै हुं हुं ‘हुणणै’ चारी,
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

काटी में का लै काम नि ऐ जो,
चोट माड़ण हुंणी भै बड़ी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

पाणि है पताल ऐल नौणि है चुपाणा,
यसिणी कताई, बोलि- बाणी प्यारी-
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

जो पुर्जा दिल्ली, जो फुर्कों चुल्ली,
जैकि चलंछौ कितकनदारी,
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

Bhishma Kukreti

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Joshi Ji
You are genious.and a multiferous creative
May i get copies of your poems in Kumauni for my records and analysis?
Thanks for creating marvelous Kumauni poetries.
Bhishma 

नवीन जोशी

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धन्यवाद भीष्म जी, आपके सुन्दर शब्द नयां उत्साह भरने वाले हैं. मेरी कुछ कुमाउनी कवितायें आप इस लिंक पर देख सकते हैं: http://navinideas.blogspot.com/
इनमें से अधिकाँश इस फोरम पर भी हैं. वैसे कुमाउनी कवितायें तो मैंने सौ से अधिक लिखी हैं, पर उन्हें नेट पर यूनीकोड पर लिखने का समय नहीं मिल पा रहा है. फिर भी आप जैसे कहेंगे उपलब्ध कराने की कोशिश करूंगा, आपके आदेश की प्रतीक्षा रहेगी....

नवीन जोशी

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जगमग-जगमग झिलमिलाती ताल नैनीताल की

नवीन जोशी

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चीन सीमा तक बिछेगी रेल लाइन

देर आयद-दुरुस्त आयद की तर्ज पर योजना आयोग की पहल यदि परवान चढ़ी तो आने वाले एक दशक के बीच उत्तराखंड के पहाड़ों में चीन सीमा तक ट्रेन का दौड़ना तय है। उत्तराखंड में चमोली, बागेश्र्वर और जौलजीवी तक रेल लाइनें बन जाएंगी। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश में चीन सीमा परशुराम कुंड तक, जम्मू कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के पुंछ, लेह और मनाली तक रेल चलायी जाएगी। इन रेल लाइनों के निर्माण के लिये भारत सरकार का वित्त मंत्रालय धन उपलब्ध करा रहा है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया के पत्र के अनुसार रक्षा मंत्रालय की मांग पर रेल मंत्रालय ने मई-2011 में सुरक्षा की दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर, राजस्थान और उत्तराखंड में 14 रेल लाइन के प्रोजेक्ट रखे गये थे। 24 अगस्त 2011 को सचिव प्लानिंग कमीशन की रक्षा सचिव के साथ बैठक हुई, जिसमें उक्त 14 परियोजनाओं में से विशेष परियोजनाओं का चयन किया गया। 8 जुलाई 2011 को रक्षा सचिव और सदस्य, रेलवे बोर्ड के इंजीनियर्स की बैठक हुई। इस बैठक के बाद रक्षा सचिव ने बताया कि 14 में से आधा दर्जन विशेष परियोजनाओं को चिह्नित किया गया, जिनमें प्रारंभिक चरण का कार्य शुरु हो रहा है। इन परियोजनाओं में तीन रेल परियोजनाएं उत्तराखंड से संबंधित हैं। 24 अगस्त 2011 के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में रुपई से परशुराम कुंड तक रेल लाइन स्वीकृत हुई है। इस रेल मार्ग में मुर्कोग्सेलेक से पासीघाट तक 30 किमी मार्ग का रेलवे द्वारा सर्वे कर लिया गया है। उत्तरांखड में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग -चमोली रेल लाइन स्वीकृत हुई है। प्रथम चरण में ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक सर्वे कार्य के लिये 6.61 करोड़ रुपये स्वीकृत हुए हैं। उत्तराखंड में ही टनकपुर से बागेश्र्वर 155 किमी लंबी रेल लाइन के लिये 2791 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत है। टनकपुर से जौलजीवी तक नयी रेल परियोजना के सर्वे का कार्य ा्रगति पर है। मालूम हो कि बीते दिनों उत्तराखंड के राज्यसभा सदस्य भगत सिंह कोश्यारी द्वारा योजना आयोग से जानकारी मांगी गयी थी। जिसके उत्तर में योजना आयोग के उपाध्यक्ष द्वारा उक्त जानकारी दी गयी है। इस पत्र के बाद अब कुछ वर्षो में पहाड़ों में रेल का चलना लगभग तय माना जा रहा है।
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नवीन जोशी

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Nainital Today

नवीन जोशी

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उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस पर विशेष: यह कविता राज्य आन्दोलन के दौरान खटीमा-मसूरी व मुजफ्फरनगर कांडों के बाद लिखी गयी थी...
खबरदार ! हुशियार !
आ्ब और नैं !
मिं आ्ब सुणंण लागि गो्यूं
म्या्र कानोंक ढा्क
तुमैरि गोइनैकि अवाजै्ल
फा्ट नैं
खुलि ग्येईं।

म्यार हात
हतकड़ि खिति
तुम बा्दि न सका ऽ
यं और लै फराङ है ग्येईं
फैलि ग्येईं।

तुमा्र अन्यौ-अत्याचारैल
मिं डरि गोयूं
य लै झन समझिया
म्या्र आंखों पारि ला्गी
सब तिर सै ल्हिणांक
बणुवा्क जा्व
फाटि ग्येईं।

सावधान !
अघिल ऊंण है पैली
सोचि ल्हिओ ए यार आ्जि
तुमा्र गुई जिबा्ड़ में छो्पी
तिमुरी का्न
पछ्याणि हा्लीं मैंल।
मिं राघव, मिं रहीम, मिं गुरुमुख
आ्ब खालि
चाइयै न रूंल
चुप लै न रूंल।

हुशियार!
फिरि कैं, क्वे द्रोपदी पा्रि
कुआं्ख झन धरिया !
मिं अर्जुन-मिं धनुष धारि
ऐ जूंल मुकाबल में।

खबरदार !
अहिंसा कैं सितिल-पितिल
कमजोर मानि
जा्ंठ न मारिया कै कैं आ्ब
मिं गांधि
फिरि ऐ जूंल
जां्ठ थामि।

और खबरदार!
मकैं सिदसा्द, घ्यामण समझि
म्येरि संस्कृति
म्येरि धर्ति कैं
लुटणैकि चोरमार झन करिया
मिं भोले ‘शंकर
उघड़ि सकूं म्यर तिसर आं्ख
है जा्ल तुमर नौंमेट।

रुको!
फिरि सोचि ल्हिओ
कि है सकूं-कि करि बेर
और नसि आ्ओ तलि
उ हाङ बै
जमैं भैटि का्टि हालौ तुमुल आफी
आपंण कुकर्मनौंल।

टोड़ि ल्हिओ उ ज्यौड़
बा्दी रौछा जैल
गरम लाल कुर्सि दगै
अतर! भड़ी जाला तुम
आपड़ै बा्दी हतकड़िल।

ख्येड़ि दिओ
उं सुन चांदिक लुकुड़
और पैरि ल्हिओ-वी पुरां्ण
कुथावै सई,
नतर! नङा्ण है जला
उं सतियौंकि राफैल।

ख्येड़ि दिओ
आपंण हा्तौंक जां्ठ
अतर! तुमरै बा्दी
पलटि लै सकनीं
तुमारै उज्यांणि
सीङ तांणि।

और य लै समझि ल्हिओ
तुमौर ठुल है जां्ण
ब्याखुलिक स्योव जस छु
तुम और ठुल है सकछा जरूण
मंणि देर आ्जि
पर तुमर अंत ऐ पुजि गो
तुमर सूर्ज डुबणौ
खबरदार !

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हिंदी भावानुवाद

खबरदार!
सावधान! होशियार!
अब और नहीं!
मैं अब सुनने लग गया हूं।
मेरे कानों के दरवाजे
तुम्हारी गोलियों की आवाजों से
फटे नहंी
और खुल गये हैं।

मेरे हाथ
हथकड़ियां डाल
तुम बांध नहीं सके
ये और भी
चैड़े हो गये हैं
फैल गये हैं।

तुम्हारे अन्याय-अत्याचार से
मैं डर गया
यह भी न समझना
मेरी आंखों पर लगे
सब कुछ सह लेने के
मकड़ियों जैसे जाल
फट गये हैं।

सावधान!
आगे आने से पहले
सोच लो एक बार और
तुम्हारी मीठी जीभ में छिपे
तिमूर जैसे कांटे
पहचान लिये हैं मैंने।
मैं राघव, मैं रहीम, मैं गुरुमुख
अब यूं ही
देखता न रहूंगा
चुप भी न रहूंगा।

होशियार।
फिर कहीं, किसी द्रोपदी पर
कुदृष्टि न डालना!
मैं अर्जुन-मैं धनुर्धर
आ जाऊंगा मुकाबले मैं।

खबरदार!
अहिंसा को कमजोर मान
लाठियां न भांजना फिर
मैं गांधी
फिर आ जाऊंगा लाठी थाम।

खबरदार!
मुझे सीधा-सादा, भोला समझ
मेरी संस्कृति
मेरी धरती को
छल से लूटने की कोशिश न करना।
मैं भोले ‘ांकर
खुल सकती है मेरी तीसरी आंख
मिट जाऐगा तुम्हारा नाम।

रुको!
फिर सोच लो
क्या हो सकता है-क्या करके
और उतर आओ नींचे
उस टहनी से
जिसमें बैठकर स्वयं काट डाला है तुमने
अपने कुकर्मों से।

तोड़ लो वह रस्सियां
बंधे हो जिनसे
गर्म लाल कुर्सियों से
अन्यथा! जल जाओगे तुम
खुद ही बांधी हथकड़ियों से।

फेंक दो
वे सोने-चांदी के वस्त्र
और पहन लो-वही पुराने
मोटे वस्त्र
वरना! नग्न हो जाओगे
उन सतियों के तेज से।

फेंक दो
टपनी हाथों से लाठियां
अन्यथा! तुम्हारे द्वारा बांधे गऐ (जानवर)
पलट भी सकते हैं
तुम्हारी ही ओर
सींगें तानकर।

और य भी समझ लो
तुम्हारा बढ़ा (लंबा) हो जाना
शाम की छाया जैसा है।
तुम और लंबे हो सकते हो अभी जरूर
पर तुम्हारा अंत आ पहुंचा है
सूर्य डूब रहा है (तुम्हारा)
खबरदार।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Welcome back Joshi Ji.. Bahut bhal poem likha hai apane..

नवीन जोशी

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नैनीताल मैं देखिएगा, कैसे तन गयीं टेथिस सागर की गहराइयों में हिमालय की ऊंचाइयां
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]अतीत की निशानियों पर टेथिस की कहानी
एक करोड़ 20  लाख वर्ष पूर्व हिमालय की जगह था टेथिस सागर
जीवाश्मों से मिलेगी टेथिस सागर से हिमालय की उत्पत्ति की जानकारी
हिमालय बॉटनिक गार्डन में बनेगा समुद्री जीवाश्मों का पार्क
नवीन जोशी, नैनीताल। सामान्यतया शांत समझी जाने वाली प्रकृति कितनी सामथ्र्यवान है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसा ही कुछ 1.2 करोड़ वर्ष पूर्व टेथिस नाम के सागर में घटा। यहां भारतीय प्लेट (महाद्वीप) टेथिस सागर में तैरता हुआ आया और आज के उत्तराखंड के सीमावर्ती क्षेत्र में तिब्बती प्लेट से बहुत वेग से टकराया। इस टकराव से हजारों मीटर गहरे समुद्र में आठ किमी तक ऊंचे हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। यही कारण है कि हिमालयी क्षेत्रों में समुद्री जीवों के जीवाश्म मिलते रहे हैं। इन जीवाश्मों का नारायणनगर में स्थित हिमालयन बाटनिक गार्डन में रखा जाएगा। इससे शोध विद्यार्थी टेथिस सागर पर हिमालय जैसे पर्वत के उत्पन्न तथा विकसित होने की विकास यात्रा का अध्ययन कर सकेंगे। इस टकराव में भारतीय प्लेट तिब्बती प्लेट में धंस गई। यही इस क्षेत्र में भूकंपीय संवेदनशीलता का मुख्य कारण है। हिमालय और खासकर उत्तराखंड में टेथिस सागर के जलीय जंतुओं के जीवाश्म मिलते हैं। प्रदेश का वन महकमा पहाड़ पर मिलने वाले समुद्री जीवाश्मों को नैनीताल में संरक्षित करने की योजना बना रहा है। कुमाऊं विवि के भू-विज्ञान विभाग के प्रो. चारु चंद्र पंत के अनुसार लगभग छह से दो करोड़ वर्ष पूर्व धरती केवल उत्तरी एवं दक्षिणी दो गोलार्ध के दो भागों में बंटी थी। टेथिस दुनिया का मुख्य समुद्र था। भू वैज्ञानिक विजय कुमार जोशी के अनुसार करीब 1.2 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय व एशियाई प्लेटें आपस में टकराई। इससे कश्मीर के जास्कर- अनंतनाग से हिमाचल, उत्तराखंड, नेपाल एवं अरुणाचल प्रदेश तक कई स्थानों पर 4,500 मीटर की ऊंचाई तक टेथियस पर्वत श्रृंखला खड़ी हो गई। यह बाद में हिमालय कहलाया। हिमालय का उठना अब भी जारी है। इसलिए इसे युवा पहाड़ कहा जाता है। इस पर्वत श्रृंखला में पिथौरागढ़ जिले में स्थित नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व क्षेत्र के लेप्थल स्थित लिलंग व गब्र्याग के गांवों में 10 हजार हेक्टेयर क्षेत्र, नैनीताल जनपद में आल सेंट कालेज, भवाली व दोगांव के जंगल सहित कई स्थानों पर समुद्री सीपों-घोंघों मुख्यत: नौटिलस, अम्मोनाइट्स व बैलनाइट्स प्रजातियों के जीवाश्म (जो कि समुद्री क्षेत्रों में भी लुप्त हो चुके हैं) तथा चूनाश्म व मृदाश्म मिलते हैं। यह छह करोड़ वर्ष पूर्व तक के बताये जाते हैं। ये दुनिया में सबसे पुराने जीवाश्म हैं। इधर, नैनीताल के डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते के अनुसार उनकी योजना नगर के पास नारायणनगर में स्थित हिमालयन बाटनिक गार्डन में इन जीवाश्मों का पार्क बनाने की है। जीवाश्मों की उम्र की लखनऊ के बीरबल साहनी पुरा वनस्पति विज्ञान संस्थान से उम्र व प्रजातियों का परीक्षण कराया जाएगा। इसके बाद उनको यहां रखा जाएगा। भू वैज्ञानियों को उम्मीद है कि ऐसा होने से नगर में ईको व जियो टूरिज्म का नया आयाम खुल जाएगा। शोध विद्यार्थी टेथिस सागर पर हिमालय जैसे वि के सबसे ऊंचे पर्वत के उत्पन्न तथा विकसित होने की विकास यात्रा का भी अध्ययन कर सकेंगे।
लुट रहा है जीवाश्मों का खजाना
पिथौरागढ़ के लेप्थल क्षेत्र में मौजूद समुद्री जीवाश्म बेशकीमती हैं। स्थानीय भाषा में इनको शालीग्राम कहा जाता हैं। इन्हें घर में रखने से समृद्धि आने की मान्यता है। कहा जाता है कि आरंभ में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के जवान शौकिया ही इन्हें घरों को ले जाते थे। हाल के वर्षो में इनकी तस्करी होने लगी है। इसलिए इनको संरक्षित करने की मांग की जा रही है।[/size][/color]

 

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