दलों के एजेंदे से गायब हुऐ राज्य की अवधारणा से जुड़े मुद्दे
तीसरे विधान सभा चुनाव में ही राष्ट्रीय दलों के चुनाव घोषणा पत्रों में राज्य आंदोलनकारियों का भी नाम नहीं[/center]
नवीन जोशी, नैनीताल। हमेशा राष्ट्रीय दलों को तरजीह देने वाले उत्तराखंड राज्य के आधारभूत मुद्दों को राष्ट्रीय दलों ने राज्य बनने आधारभूत मुद्दों को राष्ट्रीय दलों ने राज्य बनने के केवल 11 वर्षों के भीतर ही पूरी तरह भुला दिया है। प्रदेश के राष्ट्रीय दलों के चुनाव घोषणा पत्र बानगी हैं, जिनमें राज्य की अवधारणा से जुड़े मुद्दों के साथ ही राज्य आंदोलनकारियों के नाम तक का उल्लेख नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में राज्य आंदोलन से जुड़े लोग स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
उत्तराखंड का चरित्र हमेशा से राष्ट्रीय रहा है। देश की आजादी के संग्राम के दौर से ही यहाँ के युवा फौज में भर्ती होकर अपनी जवानी देश के नाम कुर्बान करते रहे, और इस तरह केवल अपने बारे में सोचने के बजाय राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय विषयों पर उनमें विचार-मंथन होने लगा। देश की आजादी के बाद पहाड़ पर भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण विकास के पहिये नहीं चढ़ पाये, ऐसे में 1979 में उदय होने के बावजूद उक्रांद जैसी क्षेत्रीय पार्टियां कभी पूरी तरह से जनता के दिलों की धडकन नहीं बन पाईं, और कांग्रेस और जनसंघ के बीच में ही चुनावों में मत विभाजन देखने को मिला। यूपी के दौर में मैदान-पहाड़ में विकास के मानक एक होने जैसे मूल कारणों से अलग राज्य की अवधारणा और मांग की जाने लगी। नौ नवंबर 2000 को राज्य बना, तो लखनऊ के बजाय देहरादून से विकास के मॉडल तय होने लगे। यानी अब पहाड़ के दूरस्थ धारचूला या उत्तरकाशी में सड़क बनने का मानक लखनऊ के बजाय देहरादून की सडकों से तय होने लगा। बावजूद चाहे 2002 का राज्य का पहला विस चुनाव हो या 2007 का दूसरा, राज्य की अवधारणा से जुड़े विषय राष्ट्रीय राजनीतिक दलों भाजपा-कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में कहने भर को जरूर होते थे, लेकिन पहली बार है कि राज्य के महज तीसरे विस चुनाव में ही यह मुद्दे इन दलों के घोषणा पत्रों से ही गायब हो गये हैं। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी संघर्ष समिति के अध्यक्ष ललित जोशी कहते हैं कि गत वर्ष 13 दिसंबर 2011 को जारी राज्य के चिन्हित सक्रिय आंदोलनकारियों को निःशुल्क चिकित्सा, परिवहन व शिक्षा देने संबंधी शासनादेश का ही अब तक कोई अता-पता नहीं है। दोनों दलों के घोषणा पत्रों में राज्य आंदोलनकारियों का जिक्र तक नहीं है। वहीँ राज्य आंदोलनकारी नेता व वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह इस बात से तो इत्तफाक नहीं रखते कि राज्य आंदोलनकारियों को अपने लिये कुछ मांगना चाहिए, लेकिन उनके मन में भी यह टीस है कि राज्य की अवधारणा से जुड़े शराब, पलायन, महिलाओं की समस्याऐं, गैरसेंण राजधानी व आर्टिकल 37 की तरह यहाँ भी जमीनों की खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लागू करने जैसे बुनियादी सवाल दोनों राष्ट्रीय दलों के घोषणा पत्रों से गायब हो गये हैं। साह चिंता जताते हैं कि राष्ट्रीय दलों ने भ्रष्टाचार, महँगाई या पार्टियों के नेताओं जैसे मुद्दों का ऐसा कुहासा फैला दिया है कि क्षेत्रीय मुद्दे कहीं दिखाई ही नहीं देते। पहाड़ व मैदानों की आबादी के बीच 53 व 47 फीसद का अनुपात उल्टा होकर 47:53 हो गया है। पहाड़ की विस सीटें कम होने के साथ मिलने वाला धन का हिस्सा भी कम हो गया है। उक्रांद के गठन के दिनों से पार्टी से जुड़े संस्थापक सदस्यों में शुमार पत्रकार उमेश तिवारी ‘विश्वास’ ऐसी स्थिति के लिये उक्रांद के कमजोर होने को जिम्मेदार मानते हैं। उन्हें अफसोस है कि लगातार टूटकर बिखरता उक्रांद इस स्थिति का बड़ा जिम्मेदार है, यह दल कई सीटों पर एक अदद उम्मीदवार तक तैयार नहीं कर पाया।