Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 131990 times)

नवीन जोशी

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नवीन जोशी

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अहा..कैसे पड़े होंगे वो वोट-
अलग-अलग विचारधाराओं-दलों के
इलेक्ट्रानिक-डिजिटल फार्म में
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में...
एक-दूसरे से गलबहियाँ डाले...
पांच हफ़्तों से......!

किया उनके जरिये मत व्यक्त
जनता ने
पाच वर्ष के इंतज़ार के बाद
अगले पांच वर्षो के
अपने भाग्य विधाता चुनने
खुद भाग्यविधाता बनकर...

कल ये वोट
बनेगे किसी के लिए जीत
तो किसी के लिए हार का सबब
जीते बनायेंगे सरकार
उम्मींद करें
होगी वो जनता की सरकार
उतरेगी खरी उम्मींदों पर.....!

नवीन जोशी

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उत्तराखंड में हुए विधान सभा चुनावों के चुनाव परिणाम कई बातें साफ़ करने वाले हैं. पहली नजर में इन चुनावों में प्रदेश में न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा चला है, और न ही अन्ना फैक्टर. असल में यह चुनाव कुछ अपवादों को छोड़कर नेताओं को अपनी असल हैसियत बताने वाले साबित हुए हैं.

चुनावों में जनरल काफी हद तक अपनी पारी को जंग जिता गए पर खंडूड़ी खुद की बाजी हार गए.  'खंडूड़ी है जरूरी' का नारा जितना प्रदेश और खासकर मैदानी जिलों में चला, उतना उनकी सीट कोटद्वार में नहीं चल पाया, ऐसे में यहाँ तक कहा जाने लगा कि शायद खंडूड़ी के पहले कार्यकाल में बजी 'सारंगी' को पूरा प्रदेश न सुन पाया हो पर कोटद्वार ने सुन लिया हो. उनकी हार से यहाँ तक कहा जाने लगा है-'खंडूड़ी नहीं रहे जरूरी', वहीँ निशंक पर लगे कुम्भ घोटाले के 'दागों' पर डोईवाला की जनता ने मनो 'दाग अच्छे हैं' कह दिया है.

यहाँ कुमाऊँ में केवल सात विधानसभा क्षेत्रों, सोमेश्वर से अजय टम्टा, डीडीहाट से भाजपा के बिशन सिंह चुफाल, काशीपुर से भाजपा के हरभजन सिंह चीमा, जसपुर से कांग्रेस के शैलेंद्र मोहन सिंघल, अल्मोड़ा से मनोज तिवारी, बागेश्वर से चंदनराम दास एवं जागेश्वर से कांग्रेस के गोविंद सिंह कुंजवाल फिर जीत का शेहरा बंधा पाए। यहाँ 15 सीटों पर भाजपा कब्जा करने में सफल रही, जबकि कांग्रेस ने दस सीटों का आंकड़ा तेरह पर पहुंचाया है, लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि वह भी अपनी पांच सीटों को बचा नहीं सकी। पहाड़ पर कांग्रेस औरमैदान में भाजपा मजबूत हुई.

राज्य के दूसरे चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर रही हैं और त्रिशंकु विधानसभा उभर कर आई है। सत्तारूढ़ दल भाजपा को 31 और कांग्रेस को 32 सीटें मिली हैं। वर्तमान विधानसभा में तीसरी ताकत के रूप में मौजूद बहुजन समाज पार्टी व क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल को मतदाताओं ने नकार दिया है। बसपा को पांच सीटें गंवानी पड़ीं, जबकि यूकेडी के हाथ से दो सीटें छिटक गई। विधानसभा चुनाव 2007 में बसपा को आठ व उक्रांद को तीन सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उक्रार्द का एक धड़ा-डी अस्तित्व विहीन हो गया है, जबकि दूसरे-पी ने केवल एक सीट जीतकर पार्टी का नामोनिशान मिटने से बचाया है. 700  से अधिक निर्दलीयों में से केवल यह जीते हैं. बेशक यह कांग्रेस के बागी हैं, लेकिन उन्हें चुनाव में टिकट न देने वाली पार्टी के लिए उन्हें सत्ता हथियाने के लिए अपनाना 'थूक कर चाटने' जैसा होगा.

भाजपा सरकार के मुख्यमंती सहित पांच मंत्री मातबर सिंह कंडारी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, प्रकाश पंत, दिवाकर भट्ट, बलवंत सिंह भौंर्याल  चुनावी रन में खेत रहे हैं हो  कांग्रेस  के तिलकराज बेहड़,  पूर्व मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण, किशोर उपाध्याय, जोत सिंह गुनसोला, काजी निजामुद्दीन जैसे पांच दिग्गजों ने शिकस्त खाई है. वहीँ बसपा के मोहम्मद शहजाद व नारायण पाल, उक्रांद-पी के काशी सिंह ऐड़ी व पुष्पेश त्रिपाठी, रक्षा मोर्चा के टीपीएस रावत, केदार सिंह फोनिया, उत्तराखंड जनवादी पार्टी के मुन्ना सिंह चौहान और निर्दलीय यशपाल बेनाम को हार का सामना करना पड़ा है। उक्रांद के दूसरे धड़े 'डी' यानी डेमोक्रेटिक की 'पतंग' उड़ने से पहले ही कट गयी है. वहीँ 'पी' के कद्दावर नेता ऐड़ी मुख्य मुकाबले से बाहर तीसरे स्थान पर रह गए...

कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपने खास प्रकाश जोशी को कालाढूंगी से नहीं जिता पाए तो विकास  पुरुष कहे जाने वाले 'एनडी' अपनी 'निरंतर विकास समिति' को कांग्रेस के हाथो बेचकर खरीदी गयी तीन में से दो सीटें नहीं जीत पाए. उनके भतीजे मनीषी तिवारी गदरपुर में चौथे स्थान पर रहे तो दून से हैदराबाद तक उनके हाथों मनपसंद 'विकास' करने वाले पूर्व ओएसडी आर्येन्द्र शर्मा को भी मुंह की खानी पडी.  अपने निजी हितों के आगे एनडी कितने 'बौने' हो सकते थे, यह इस चुनाव ने प्रदर्शित किया. चर्चा तो यह भी थी कि कांग्रेस कि सत्ता आने पर 'दो-ढाई वर्ष सीएम' बनाने की घोषणा कर चुके एनडी मनीषी से इस्तीफ़ा दिलाकर खुद चुनाव लड़ने की भी सोच रहे थे.

कांग्रेस के बडबोले (छोटे से प्रदेश में डिप्टी सीएम का राग अलापने वाले) व हैट्रिक का सपना देख रहे बेहड़ की हार की पटकथा तो खैर अहिंसा दिवस के दिन रुद्रपुर में फ़ैली हिंसा के दौरान ही लिख दी गयी थी. बसपा के बड़ा ख्वाब देख रहे नारायण पाल का अपने भाई मोहन पाल के साथ विधान सभा पहुँचाने का ख्वाब भी जनता ने तोड़ दिया.

स्त्रीलिंगी गृह 'शुक्र' के राज वाले नए विक्रमी संवत ( शुक्र ही नए वर्ष के राजा और मंत्री हैं, लिहाजा महिलाओं को राजनीतिक सत्ता दिला सकते हैं) में अकेले नैनीताल जनपद से कांग्रेस की 'तीन देवियाँ' इंदिरा हृदयेश, अमृता रावत व सरिता आर्य विजय रही हैं, उनके साथ ही शैला रानी रावत कांग्रेस से तथा भाजपा से पूर्व मंत्री विजय लक्ष्मी बडथ्वाल भी जीती हैं, और पहली बार राज्य में महिला विधायको की संख्या पांच पहुंची है. इंदिरा ने तो 42,627 वोट प्राप्त कर रिकार्ड 23,583 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. आगे इनमें से कोई महिला सत्ता शीर्ष पर पहुँच जाए तो आश्चर्य न कीजियेगा....

चुनाव परिणामों की वास्तविक स्थिति यहाँ देख सकते हैं: http://newideass.blogspot.in/

नवीन जोशी

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होलि पारि रंङोंकि कविता: पर्या रंङ

रंङिलि दुनिया्क लै रंङै-रंङ
एक रंङ लाल-हर तरफ
खुन्यौवौ्क
एक रंङ का्व-हर तरफ
कच्यारौ्क

एक रंङ पिङव-मैसोंक
मुखोंक
कै पारि चणणौं कैकै रंङ
कै पारि कैकै
कै पारि लक्ष्मीक
कै पारि “शक्तिक

पर कमै लोगूं पारि सरस्वतीक
सब रंङ चढ़नई
एका्क मा्थ में एक
द्वि-द्वि, तीन-तीन
हजार-हजार लै
स्यत-हरी-केसरिया लै
पत्त नैं किलै
मिलि-मेस्यै
सब हरै जांणईं का्व रंङ में।


सब बदवणईं आपंण रंङ
फूल लै,
का्स-का्स रंङ
क्या्प-क्या्प रंङ
बेई तलक रूंछी जो झाड़ा्क झुपा्ड़न में
कमेट लै नि छी उछिटणा्क लिजी
कमेट बेचि, पोतणईं पेन्ट
लुकुड़ों में छन् टा्ल, असल रंङ
मकान में, मूंख में-किरीम पौडर
इज-बा्ब में-मौम, डैडौ्क रंङ

दुदबोलि-भा्ष में लै रंङ
चांओ-दाव में लै रंङ
देश-भेष में लै रंङ-पर्या रंङ।
बदवंण में छन सब आपंण असल रंङ
न द्यखींण चैन कैं बै लै
अनार, असल लच्छंण, चिनांण।
एक लड़ैं लड़छी गांधी-मंडेलाल

ग्वारों थें-का्व रंङैकि
आपंण और पर्या रंङैकि
पर आ्ब न्है दाव में का्व
काई हैगे पुरि काया, ह्यि लै
कतुकै स्या्त है बेर
भैम फैलै लियों उं नेता
क्वे रंङ न चड़ि सकन उना्र
का्व मना्क थिका्वों में।

नवीन जोशी

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अब तो बस यह देखिये कि बहुगुणा के लिए 13 का अंक शुभ होता है या नहीं....

"चिंता न करें, जल्द मान जाऊँगा..." शायद यही कह रहे हैं हरीश रावत, उत्तराखंड के सीएम विजय बहुगुणा से 
दोस्तो आश्चर्य न करें, कांग्रेस पार्टी में बिना पारिवारिक पृष्ठभूमि के कोई नेता मुख्यमंत्री बनना दूर आगे भी नहीं बढ़ सकता...बहुगुणा की ताजपोशी पहले से ही तय थी, बस माहौल बनाया जा रहा था....

विजय बहुगुणा को उत्तराखंड का सीएम बनाना कांग्रेस हाईकमान ने चुनावों से पहले ही तय कर लिया था. तब इसलिए उनका नाम घोषित नहीं किया गया कि पार्टी के अन्य क्षत्रप पहले ही (अब की तरह) न बिदक जाएँ. 6 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद भी नाम घोषित नहीं किया, ताकि सीएम पद का ख्वाब पाल रहे दावेदार बहुमत के लिए जरूरी निर्दलीयों व उक्रांद का समर्थन हासिल कर लायें.  क्षत्रप 36 का आंकड़ा तो हासिल कर लाये, पर यहाँ पर एक गड़बड़ हो गयी. निर्दलीय अपने आकाओं को सीएम बनाने की मांग उठा कर एक तरह से हाईकमान को आँख दिखाने लगे, इस पर हाईकमान को एक बार फिर बहुगुणा को सीएम बनाने की घोषणा टालनी पडी. अब प्रयास हुए बसपा का समर्थन हासिल करने की, बसपा के कथित तौर पर दो विधायक कांग्रेस में आने को आतुर थे, ऐसे में तीसरा भी क्यों रीते हाथ बैठता. ऐसे में बसपाई 12 मार्च को राजभवन जा कर कमोबेश बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन का पत्र सौंप आये. अब क्या था, तत्काल ही कांग्रेस हाईकमान ने बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी. इसके तुरंत बाद हरीश रावत गुट ने दिल्ली में जो किया, उससे कांग्रेस में बीते सात दिनों से 'आतंरिक लोकतंत्र' के नाम पर चल रहे विधायकों की राय पूछने के ड्रामे की पोल-पट्टी खुल गयी. 

सच्चाई है कि कांग्रेस हाईकमान के विजय बहुगुणा को सीएम घोषित करने का एकमात्र कारण था उनका पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा का पुत्र होना. स्वयं परिवारवाद पर चल रहे कांग्रेस हाईकमान के लिए अपनी इस मानसिकता से बाहर निकलना आसान न था, उन्हें यूपी में जन्मे हाई प्रोफाइल बहुगुणा से इतर हरीश रावत जैसे पहाडी नेताओं से '...बू" नहीं आयेगी क्या ? रावत  और उनके समर्थक नेता इस बात को जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा..

किसी भ्रम में न रहें, कुछ भी आश्चर्यजनक या अनपेक्षित नहीं होने जा रहा है, बन्दर घुड़की दिखाने के बाद दोनों रावत (हरीश-हरक) व टम्टा आदि चुप होकर हाईकमान के फैसले को स्वीकार कर लेंगे, किसी शौक से नहीं वरन इस फैसले को ही नियति मानकर, आखिर उनका इस पार्टी के इतर अपना कोई वजूद भी तो नहीं है. 

अब तो बस यह देखिये कि 13 मार्च को प्रदेश के सीएम पद की शपथ ग्रहण करने वाले बहुगुणा के लिए 13 का अंक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की तरह पूर्व मान्यताओं के इतर शुभ होता है या नहीं....

नवीन जोशी

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उक्रांद ने दोहराया ‘गलती का इतिहास’

पार्टी के बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन देने से आश्चर्यचकित नहीं राज्य आंदोलनकारी
भाजपा-कांग्रेस की तरह ही कुर्सी प्रेमी साबित हुई उक्रांद[/b]
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं इतिहास स्वयं को दोराता है, साथ ही यह ही एक सच्चाई है कि इतिहास से मिले सबकों से कोई सबक नहीं सीखता। राज्य के एकमात्र क्षेत्रीय दल बताये जाने वाले उत्तराखंड क्रांति दल यानी उक्रांद ने इतिहास को इसी रूप में सही साबित करते हुऐ अपनी गलती का इतिहास दोहरा दिया है। ऐसे में ऐसी कल्पना तक की जाने लगी है कि पिछली बार की तरह सरकार को समर्थन देने वाला उक्रांद इस बार भी एक दिन सरकार से समर्थन वापस लेगा और सत्ता सुख भोग रहे उसके एकमात्र विधायक पिछली सरकार के दो विधायकों की तरह इस फैसले को अस्वीकार करते  हुऐ अलग उक्रांद बना लेंगे और फिर अगले चुनावों में कांग्रेस के चुनाव पर टिकट ल़कर इस बार पार्टी का अस्तित्व ही शून्य कर देंगे।
यह आशंकाऐं उक्रांद के कांग्रेस सरकार को बिना मांगे और बिना अपनी शर्तें बताऐ समर्थन देने के बाद उठ खड़ी हुई हैं। और बसपा के भी सरकार को समर्थन की घोषणा करने  के बाद तो सरकार बनने से पले ही उक्रांद की स्थिति सरकार को समर्थन दे रहे निर्दल विधायकों से भी बदतर होने की चर्चाऐं होने लगी हैं। ऐसा लगने लगा है कि अपने हालिया राजनीतिक निर्णयों से उक्रांद ने न केवल राज्य की जनता वरन राज्य की आंदोलनकारी शक्तियों का विश्वास भी खो दिया है। राज्य आंदोलन से गहरे जु़ड़े वरिष्ठ रंगकर्मी जहूर आलम कहते हैं, उन्हें उक्रांद के हालिया कदमों से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। इस पार्टी ने राज्य बनने से पूर्व ही प्रदेश की सबसे बड़ी दुश्मन बताई जाने वाली सपा से सांठ-गांठ कर अपने कुर्सी से जु़ड़े रहने के मंसूबे जाहिर कर दिये थे। यही उसके दो विधायकों ने पिछली भाजपा सरकार को और अब जनता से और भी बुरी तरह ठुकराये जाने के बाद एकमात्र विधायक के भरोसे कांग्रेस सरकार को अपनी अस्मिता को भुलाते हुऐ समर्थन देकर प्रदर्शित किया है। उक्रांद को यदि समर्थन देना ही था तो राज्य की अवधारणा से जु़ड़े मुद्दों को शर्तों में आगे रखना चाहिऐ था। उन्होंने कहा कि वास्तव में अब उक्रांद किसी राजनीतिक विचारधारा वाला दल नहीं वरन कुछ सत्ता लोलुप लोगों का जेबी संगठन बनकर रह गया है। राज्य आंदोलनकारी एवं गत विस चुनावों में उक्रांद क¢ स्टार प्रचारक घोषित किये गये वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक समालोचक राजीव लोचन साह की राय भी इससे जुदा नहीं है। उनका कहना है बसपा के समर्थन देने से पूर्व उक्रांद के पास एकमात्र विधायक होने के बावजूद अपनी मांगें रखने का बेहतरीन मौका था। उक्रांद के कदम को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा कि जो पिछली बार दिवाकर भट्ट या तत्कालीन अध्यक्ष ने जो किया था, वही इस बार त्रिवेंद्र पंवार ने कर दिया। पूरी आशंका है कि इतिहास स्वयं को दोहराये और उक्राद अपनी शक्ति तीन विधायकों से एक करने के बाद आगे शून्य न हो जाऐ। इससे बेतहर होता कि वह आगामी पंचायत तथा अन्य चुनावों के साथ अपने संगठन और शक्ति का विस्तार करता। पद्मश्री शेखर पाठक ने भी उक्रांद  के हालिया कदम को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुऐ कहा कि उक्रांद ने अपने इन कदमों से स्वयं के साथ ही उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी व उत्तराखंड रक्षा मोर्चा जैसे से जैसे अन्य क्षेत्रीय दलों की भी जनता के बीच विश्वसनीयता क्षींण कर दी है। उन्होंने कहा कि पहले दिवाकर भट्ट ने उत्तराखंड की जनता से दगा किया, और अब फिर यही दोहराया गया है। बेहतर होता कि वह अगले पांच वर्ष मेहनत कर भाजपा-कांग्रेस से स्वयं को बेहतर विकल्प बनाने की शक्ति हासिल करते।
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अपने गठन से गलती दर गलती करता रहा है उक्रांद
नैनीताल। उक्रांद में वर्तमान राजनीति के लिहाज से राजनीतिक चातुर्य या तिक़ड़मों की कमी मानें या कुछ और पर सच्चाई यह है कि वह अपने गठन से ही गलतियों पर गलतियां करता जा रहा है, और इन्हीं गलतियों का ही परिणाम कहा जाऐगा कि वह प्रदेश का एकमात्र क्षेत्रीय दल होने के बावजूद अब निर्दलीयों की भांति एक विधायक पर सिमट गया है। इसके अलावा केवल एक अन्य सीट द्वाराहाट में ही व मुख्य मुकाबले में रहा, जबकि उसके पूर्व  केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी व डा. नारायण सिंह जंतवाल चौथे स्थान पर रहे। 25 जुलाई 1979 को अलग उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के साथ कुमाऊं विवि के संस्थापक कुलपति प्रो. डीडी पंत, उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बड़ौनी व विपिन त्रिपाठी सरीखे नेताओं द्वारा स्थापित इस दल ने 1994 में विस चुनावों का बहिस्कार कर अपनी पहली राजनीतिक गलती की थी। राज्य गठन के पूर्व उक्रांद के नेता सपा से सांठ-गांठ करते दिखे और अलग राज्य का विरोध कर रहे कांग्रेस-भाजपा जैसी राज्य विरोधी ताकतों को संघर्ष समिति की कमान सोंपकर हावी होने का मौका दिया। शायद यही कारण रहे कि राज्य बनने के बाद वह लगातार अपनी शक्ति खोता रहा। 2002 के पहले विस चुनावों में उसे चार सीटें मिलीं, जो 2007 में तीन और 2012 में मात्र एक रह गई है। 2007 में उसने भाजपा सरकार को समर्थन दिया और फिर समर्थन वापस लेकर अपनी राजनीतिक अनुभव हीनता का ही परिचय दिया। इस कवायद में दल दो टुकड़े भी हो गया। इस के बावजूद उसने पिछली गलती से सबक न लेकर एक बार फिर आत्मघाती कदम ही उठाया है। ऐसे ही अतिवादी रवैये के कारण वह 1995 में भी टूटा, और लगातार टूटना ही शायद उसकी नियति बन गया है।

राज्य के राजनीतिक दल की मान्यता खो देगा उक्रांद
नैनीताल। भारत निर्वाचन आयोग के नये प्राविधानों के अनुसार किसी पार्टी के लिये किसी राज्य की राज्य स्तरीय राजनीतिक पार्टी होने के लिये हर 3 सीटों में से एक सीट जीतनी आवश्यक है तथा प्रदेश में पड़े कुल वैध मतों का छः फीसद हिस्सा भी उसे हासिल होना चाहिऐ। इस आधार पर 70 विस सीटों वाले उत्तराखंड में किसी राजनीतिक दल को राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिये दो से अधिक यानी तीन विधायक जीतने चाहिऐ। जो उक्रांद नहीं कर पाया है। इस आधार पर उससे राज्य की राजनीतिक पार्टी का तमगा छिनना कमोबेश तय है।
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नवीन जोशी

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जो ‘भागे’, वो ‘जीते’
कुछेक अपवादों को छोड़ पलायन करने वाले ज्यादातर विधायकों ने जीत हासिल की, नए परिसीमन, विस क्षेत्रों के सुरक्षित हो जाने या हार के डर से बदले गए थे क्षेत्र

देहरादून (एसएनबी)। प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बड़ा मुद्दा है। इस बार के चुनाव में नेताओं का अपने विधानसभा चुनाव क्षेत्रों से मैदानी विधानसभा क्षेत्रों में पलायन भी मुद्दा बना। पार्टियों के भीतर टिकट बंटवारे के दौरान एक-दूसरे को मात देने के खेल में भी विरोधी गुटों ने एक-दूसरे के खिलाफ इस मुद्दे का खूब इस्तेमाल किया। मगर विधानसभा चुनाव में जो परिणाम आए उनसे साफ है कि जिसने पलायन किया, उसने जीत हासिल की यानी ‘जो भागे वो जीते’। परिसीमन, विस क्षेत्रों के अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित हो जाने या हार की डर की से प्रदेश के कई दिग्गजों ने अपने पहाड़ी विस क्षेत्र छोड़ कर मैदानी क्षेत्रों में किस्मत आजमाई, लेकिन जो परिणाम आए उनमें पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी, पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, पूर्व मंत्री बलवंत भौर्याल व बसपा के पूर्व विधायक मोहम्मद शहजाद को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो पुराने विस क्षेत्र छोड़ने वाले सभी नेताओं ने जीत हासिल की है। पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी धूमाकोट विस क्षेत्र के खत्म हो जाने और लैंसडौन विस क्षेत्र में शामिल होने पर उसे छोड़कर कोटद्वार विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और हार गए। पूर्व मुख्यमंत्री डा, रमेश पोखरियाल निशंक ने थलीसैंण को छोड़ कर मैदानी सीट डोईवाला में भाग्य आजमाया और विजय प्राप्त की। लैंसडौन से विधायक रहे पूर्व नेता प्रतिपक्ष डा. हरक सिंह रावत यूं तो डोईवाला से तैयारी कर रहे थे, लेकिन पार्टी की अंदरूनी सियासत में ऐसे फंसे कि सहसपुर पर दावा ठोकने लगे और अंतत: उन्हें रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ना पड़ा। मगर उन्होंने वहां से विजय प्राप्त की। मुक्तेर के पूर्व विधायक व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य ने मैदानी विस क्षेत्र बाजपुर में किस्मत आजमाई और जीत हासिल की। अमृता रावत ने चौबट्टाखाल सीट छोड़कर रामगर में किस्मत आजमाई और कामयाब रहीं। पूर्वमंत्री बंशीधर भगत हल्द्वानी छोड़ कालाढूंगी पहुंचे और जीत गए। भाजपा सरकार के पूर्व मंत्री और अब कांग्रेस विधायक राजेंद्र भंडारी ने पुरानी सीट नंदप्रयाग की बजाय अपनी नई सीट बदरीनाथ में जीत हासिल की। कांग्रेस विधायक मयूख महर ने कनालीछीना छोड़ पिथौरागढ़ में पूर्व पेयजल मंत्री प्रकाश पंत को चुनौती दी और जीत हासिल की। भाजपा विधायक सुरेंद्र सिंह जीना भिकियासैंण सीट खत्म होने के बाद पड़ोस की सीट सल्ट से लड़े और जीते। पूर्व विस अध्यक्ष हरबंश कपूर देहराखास सीट खत्म होने के बाद देहरादून कैंट से लड़े और जीते। विधायक गणोश जोशी राजपुर सीट खत्म होने के बाद मसूरी से खड़े हुए और जीते। कुंवर प्रणव सिंह नई सीट खानपुर से लड़े और जीत गए। कुल मिलाकर देखा जाए तो पलायन करने वाले ज्यादातर विधायकों को जीत हासिल हुई है। सियासत के जानकारों का कहना है कि दरअसल सीट बदलने से नये क्षेत्र की जनता को नेताओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती इस तरह विस क्षेत्र में चलने वाला एंटी इनकंबेंसी फैक्टर काम नहीं करता। अगर कोई बड़ा नेता सीट बदलकर नई सीट से लड़े तो जनता को लगता है कि वह उनके लिए मुफीद विधायक रहेगा। ये सारे फैक्टर नई सीट पर जीत हासिल करने में मदद देते हैं। हालांकि विस क्षेत्र यानी अपनी जनता बदल लेने के ठीक उलट नतीजों से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
ये जीते:
डा. रमेश पोखरियाल निशंक, यशपाल आर्य, अमृता रावत, डॉ. हरक सिंह रावत, बंशीधर भगत, राजेंद्र भंडारी, मयूख महर, सुरेंद्र सिंह जीना , हरवंस कपूर, गणोश जोशी, कुंवर प्रणब सिंह
ये हारे:
पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी, पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, पूर्व मंत्री बलवंत भौर्याल, मोहम्मद शहजाद

नवीन जोशी

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बंद हो गई कुमाऊं को किंगफिशर की उड़ान
औपचारिक रूप से एटीआर-48 को बंद करने की घोषणा, कुमाऊं में पर्यटन प्रभावित होने की आशंका

नवीन जोशी नैनीताल। पंतनगर तक आने वाली हवाई सेवा से किंगफिशर एयरलाइंस ने औपचारिक तौर पर तौबा कर ली है। इसके अलावा यहां के लिए हवाई सुविधा देने का प्रस्ताव भी नहीं है। कुमाऊं मंडल को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए पंतनगर हवाई अड्डे में ही सुविधा उपलब्ध है। 1969 में स्थापित इस एयरपोर्ट में 2005-06 में और फिर गत वर्ष हवाई सेवा चली। नैनीताल समेत मंडल में पर्यटन और ऊधमसिंह नगर जनपद में विकसित हुए औद्योगिक क्षेत्र को इस सेवा से लाभ मिला लेकिन बीते दिनों आर्थिक हालत बिगड़ने के बाद किंगफिशर को गत 30 नवम्बर से यहां के लिए संचालित 48 सीटों वाले एटीआर विमान की सेवा बंद करनी पड़ी। पंतनगर एयरपोर्ट अथारिटी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि किंगफिशर की इस सेवा को अच्छी संख्या में यात्री मिल रहे थे। यात्री महीनों पहले भी बुकिंग करा रहे थे। आर्थिक बदहाली के बाद किंगफिशर प्रबंधन ने पंतनगर के लिए एटीआर-48 सेवा को बंद करने की घोषणा कर दी है। एयरपोर्ट निदेशक एमपी अग्रवाल ने इसकी पुष्टि की। साथ ही बताया कि फिलहाल यहां के लिए किसी अन्य विमान सेवा का प्रस्ताव नहीं है। कुमाऊं में पर्यटन सीजन शुरू होने जा रहा है, कुमाऊं मंडल को आने वाले उच्चवर्गीय सैलानी हवाई सेवा का लाभ नहीं ले सकेंगे। इसका नुकसान यहां के पर्यटन को झेलना पड़ेगा।

राजनीतिक नेतृत्व की रहती है भूमिका
नैनीताल। दिल्ली से पंतनगर तक हवाई सेवा चलाने में दोनों बार राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की बड़ी भूमिका रही। पहली बार तत्कालीन सीएम एनडी तिवारी के प्रयासों से अक्टूबर 2005 में जैक्सन एयरलाइंस ने डोरनियर विमान सेवा शुरू की थी यह करीब एक वर्ष चलकर बंद हो गया। गत वर्ष सीएम डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के प्रयासों से किंगफिशर एयरलाइंस ने 48 सीटों वाले एटीआर विमान चलाए लेकिन हालात बिगड़ने के बाद किंगफिशर ने 30 नवम्बर से अपनी सेवा बंद कर दी है। सेवा से जुड़े लोगों का मानना है कि राजनीतिक प्रयास हुए तो कुमाऊं के लिए हवाई सेवा को किसी अन्य कंपनी के सहयोग से बहाल कराया जा सकता है।[/size]

नवीन जोशी

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अब सहनी होगी ‘अल नीनो’ की गरमी
नवीन जोशी, नैनीताल। अगले कुछ वर्षो के दौरान गरमी की अधिक मार पड़ सक ती है। मौसम वैज्ञानिक का मानना है कि अधिक गरमी की मार अगले तीन से 10 वर्षो तक हो सकती है। इस दौरान मौसम अपेक्षाकृत अधिक गरम रहेगा। बारिश सामान्य से कम होगी तथा सर्दी सामान्य से कम होगी। ऐसा बीते कुछ दशकों से प्रशांत महासागर से उठकर दुनिया भर में मौसमी बवंडर फैलाने वाली ‘अल नीनो’ नाम की गरम लहरों के कारण होने जा रहा है। दीर्घकालीन मौसम वैज्ञानिक कुमाऊं विवि में तैनात यूजीसी के प्रो. बीएस कोटलिया ने यह दावा किया है। कोटलिया के अनुसार दुनिया में धरती से अधिक क्षेत्रफल जल राशि यानी समुद्र का है। धरती का तापमान सबसे पहले समुद्र की सतह पर गड़बड़ाता है, समुद्री लहरें गरम व सर्द जल धाराओं को दुनिया भर में फैलाकर भू सतह के तापमान को प्रभावित करती हैं। अब दुनिया भर के वैज्ञानिक मान चुके हैं कि प्रशांत महासागर से उठने वाली गरम जल धाराएं ‘अल नीनो’ व ठंडी जल धाराएं ‘ला नीना’

दुनिया भर के मौसम को प्रभावित करने वाली सर्वाधिक प्रभावी घटक के रूप बन गई हैं। 1960-70 के दशक से इनकी सबसे पहले पहचान हुई थी। ला नीना व अल नीना का तीन से सात वर्ष तक का चक्र होता है। बीते दो तीन वर्ष ला नीना सक्रिय रहा, इस कारण इस दौरान अधिक बारिश व ठंड रही, तथा गरमी अपेक्षाकृत कम रही। प्रो. कोटलिया का दावा है कि ला नीनो का प्रभावी चक्र अब बीत चुका है, और अल नीनो की बारी आने वाली है। इसके प्रभाव में अगले कम से कम तीन वर्ष अपेक्षाकृत गरम हो सकते हैं। अपने इस दावे के पीछे उनका तर्क है कि अल नीनो के मूल स्थान प्रशांत महासागर में लहरें गर्म होने लगी हैं। कोटलिया बताते हैं कि इतिहास में 1870 से 2000 के बीच कई बार सूखे यानी अधिक गरमी कम बारिश के चक्र 10 वर्ष तक लंबे रह चुके हैं, इसलिये इस बार भी गरमी के चक्र के 10 वर्ष तक खिंचने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, माना जा सकता है कि अगले कुछ वर्ष गर्म हो सकते हैं, और इस दौरान कम मानसून के लिये भी तैयार रहना होगा।
पश्चिमी विक्षोभ से ला नीना प्रभावित
इस वर्ष के अध्ययन के बाद प्रो. कोटलिया ने पहली बार दावा किया है कि ला नीना लहरें भारत में मानसून के कारण पश्चिमी विशोभ और ‘इंटर ट्रोपिकल कंवरजेंस जोन’ यानी आईटीसीजेड को प्रभावित कर रही हैं। कोटलिया कहते हैं कि सामान्यतया भारत में मानसून गोवा से उठकर पश्चिम बंगाल से देश की भूसतह में प्रवेश करता है, और बिहार में बाढ़ का कारण बनता है, और आगे यूपी, उत्तराखंड व दिल्ली होता हुआ लद्दाख जाकर समाप्त हो जाता है। इसके उलट विगत वर्ष इसने ला नीना के कारण रास्ता बदला और गोवा से सीधे मुंबई और अंबाला में कहर ढाकर आखिर लद्दाख में पहली बार बाढ़ (बादल फटने) के हालात उत्पन्न किये। उन्होंने बताया कि इस वर्ष ला नीना पुन: सामान्य हो गया था, आईटीसीजेड भी अधिक सक्रिय नहीं हो पाया था। इसी कारण बारिश सामान्य हुई पर आईटीसीजेड जहां-जहां से गुजरा मौसम ठंडा कर गया।
‘सोलर मैक्सिमम’ से भी हो सकती है गरमी
खगोल विज्ञान और खासकर सूर्य पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने कहा है कि सूर्य की सक्रियता के वर्तमान में चल रहे 24वें चक्र का चरमकाल वर्ष 2012-13 में हो सकता है। स्थानीय एरीज के वरिष्ठ सौर वैज्ञानिक डा. वहाबउद्दीन भी ऐसा मानते हैं।

नवीन जोशी

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अब उत्तराखंड हाईकोर्ट से हिंदी में भी ले सकेंगे फैसले की प्रति
नैनीताल/देहरादून (एसएनबी)। उत्तराखंड बार काउंसिल की उत्तराखंड उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के साथ ही हिंदी भाषा के उपयोग के लिए शुरू की गई मुहिम आखिर रंग लायी है। यहां होने वाले निर्णय अब हिन्दी में भी प्राप्त किए जा सकेंगे। हालांकि केस दायर करने और बहस की प्रक्रिया अब भी अंग्रेजी में ही होगी। बार कौंसिल ऑफ उत्तराखंड की मांग के बाद उत्तराखंड शासन द्वारा इस संबंध में निबंधक उच्च न्यायालय नैनीताल को आवश्यक व्यवस्थाएं करने के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। बार कौंसिल ऑफ उत्तराखंड के चेयरमैन अधिवक्ता पृथ्वीराज चौहान ने कहा कि बार कौंसिल द्वारा 17 अप्रैल 2011 को (शेष पेज 15) कोर्ट द्वारा किये जाने वाले निर्णयों, डिक्री व आदेशों में अंग्रेजी के साथ हिंदी के समान रूप से प्रयोग को शासनादेश जारी प्रस्ताव शासन को सौंपा था। उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय में हिन्दी के प्रयोग होने से वादकारी व अधिवक्ता लाभान्वित होंगे। उत्तराखंड शासन के राजभाषा अनुभाग ने गत दो मार्च को न्यायालय द्वारा किये जान वाले निर्णयों, डिक्री व आदेशों के लिए अंग्रेजी के साथ हिंदी भाषा का समान रूप से प्रयोग किये जाने के बाबत शासनादेश जारी किया। बार काउंसिल के सदस्यों ने इसे पूर्व सरकार के कार्यकाल में हुआ महत्वपूर्ण फैसला बताया है। बुधवार को बार काउंसिल सभागार नैनीताल में आयोजित पत्रकार वार्ता में बार काउंसिल के सचिव विजय सिंह ने पूर्व अध्यक्ष डा. महेंद्र पाल को आज ही प्राप्त हुए शासनादेश की प्रति की जानकारी दी। डा. पाल ने कहा कि उनका अंग्रेजी से कोई विरोध नहीं है लेकिन खुशी है कि उनकी ओर से शुरू की गई मुहिम सफल रही है। इस शासनादेश के बाद हिंदी में याचिका दायर की जा सकेंगी और अधिवक्ता हिंदी में जिरह कर सकते हैं। उन्होंने शासनादेश के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार की आवश्यकता जताई ताकि लोग इसका लाभ उठा सकें। पत्रकार वार्ता में काउंसिल के सदस्य डीके शर्मा, नंदन कन्याल, मंगल सिंह चौहान, वरिष्ठ अधिवक्ता केएस वर्मा, हाईकोर्ट बार एसोसिऐशन के सचिव विनोद तिवारी, स्टेंडिंग काउंसिल पीसी बिष्ट व मानव शर्मा भी मौजूद रहे।
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