....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है !
कहते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।
बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, लेकिन याद रखना होगा कि हमे अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फिब्तयां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं।
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया गया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों से शुरू करें तो इन पर रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा सम्बंधी कार्य करेगा, उनके लिए `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर दिया गया है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चिक्कयां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकार, खिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं , आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।
उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश भी बनने के भी दावे कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।