Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 71914 times)

नवीन जोशी

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नैनीताल में बनेगा दुनिया की स्वप्न-'टीएमटी' का आधार

अमेरिका के हवाई द्वीप में स्थापित होनी है दुनिया की सबसे बड़ी 30 मीटर व्यास की दूरबीन
इसका आधार-'मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग एसेंबली' बनेगी एरीज में
भारत एक हजार करोड़ रुपए की अतिमहत्वाकांक्षी परियोजना में एक फीसद का है भागीदार
[/b]एरीज में 'टीएमटी' की बनने वाली 'मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग एसेंबली'

नवीन जोशी, नैनीताल। वर्ष 2001 व 2003 में पहली बार दुनिया भर के खगोल विज्ञानियों द्वारा देखा गया 30 मीटर व्यास की आप्टिकल दूरबीन ‘थर्टी मीटर टेलीस्कोप यानी टीएमटी’ का ख्वाब अब ताबीर होने की राह पर चल पड़ा है। नैनीताल स्थित एरीज का सौभाग्य ही कहेंगे कि दुनिया की इस स्वप्न सरीखी दूरबीन का आधार यानी सेगमेंट सर्पोटिंग एसेंबली नाम के करीब 60 हिस्से यहाँ बनाए जाएंगे। आधार के इन हिस्सों पर ही इस विशालकाय 56 मीटर ऊंची व करीब 10 टन भार की दूरबीन का वजन इसे पूरे आकाश में देखने योग्य घुमाने के साथ उसे सहने का गुरुत्तर दायित्व होगा। इन महत्वपूर्ण हिस्सों के निर्माण की तैयारी के क्रम में निर्माता कंपनियों के चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है।
गौरतलब है कि ‘टीएमटी’ की महांयोजना करीब 1.3 बिलियन डॉलर यानी करीब एक हजार करोड़ रुपयों की है। भारत सहित छह देश-कैलटेक, अमेरिका, कनाडा, चीन व जापान इस महांयेाजना में मिलकर कार्य कर रहे हैं। अल्ट्रावायलेट (0.3 से 0.4 मीटर तरंगदैर्ध्य पराबैगनी किरणों) से लेकर मिड इंफ्रारेड (2.5 मीटर से एक माइक्रोन तरंगदैर्ध्य तक की अवरक्त) किरणों (टीवी के रिमोट में प्रयुक्त की जाने वाली अदृय) युक्त इस दूरबीन को प्रशांत महासागर में हवाई द्वीप के मोनाकिया द्वीप समूह में ज्वालामुखी से निर्मित 13,8 फिट (4,2 मीटर) ऊंचे पर्वत पर वर्ष 2021 में स्थापित किऐ जाने की योजना है। उम्मीद है कि इसे वहाँ स्थापित किए जाने का कार्य 2014 से शुरू हो जाएगा। यह दूरबीन हमारे सौरमंडल व नजदीकी आकाशगंगाओं के साथ ही पड़ोसी आकाशगंगाओं में तारों व ग्रहों के विस्तृत अध्ययन में अगले 50 -100  वर्षों तक सक्षम होगी। भारत को इस परियोजना में अपने ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी व उपकरणों के निर्माण में एक फीसद भागेदारी के साथ सहयोग देना है। देश के इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रो फिजिक्स (आईसीयूएए) पुणे को इसके सॉफ्टवेयर संबंधी, इंडियन इंस्टिूट ऑफ एस्ट्रो फिजिक्स (आईआईए) बंगलुरु को मिरर कंट्रोल सिस्टम और एरीज को मत्वपूर्ण ६०० मिरर सेगमेंट सर्पोंटिंग सिस्टम बनाने की जिम्मेदारी मिली है। यह महत्वपूर्ण हिस्से यांत्रिक के साथ ही इलेक्ट्रानिक सपोर्ट सिस्टम से भी युक्त होंगे। पीआरएल अमदाबाद व भाभा परमाणु संस्थान-बार्क मुम्बई को भी कुछ छोटी जिम्मेदारियां मिली हैं। एरीज को मिली जिम्मेदारी को सर्वाधिक मत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि उसे देश की सबसे बड़ी 3.6 मीटर व्यास की दूरबीन को निकटवर्ती देवस्थल में स्थापित करने हेतु तैयार करने का अनुभव है। एरीज के निदेशक प्रो. रामसागर इस जिम्मेदारी से खासे उत्साहित हैं। उन्होंने बताया कि मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग सिस्टम को किसी निर्माता कंपनी से बनाया जाएगा, जिसके चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। एरीज इसके निर्माण में 3.6 मीटर दूरबीन की तरह ही डिजाइन, सुपरविजन और इंजीनियरिंग में सयोग करेगा।

अवरक्त किरणों को देखना है चुनौती
देश-दुनिया में बड़ी से बड़ी व्यास की दूरबीन बनाने की कोशिशों का मूल कारण अवरक्त यानी इन्फ्रारेड किरणों को न देख पाने की समस्या है। दुनिया में अब तक मौजूद दूरबीनें 35 से 70 तरंग दैर्ध्य की किरणों तथा ऐसी किरणें उत्सर्जित करने वाले तारों व आकाशगंगाओं को ही देख पाती हैं। जबकि इससे अधिक तरंग दैर्ध्य की अवरक्त यानी इंफ्रारेड किरणों को देखने के लिए इनके अनुरूप पकरणों की जरूरत होती है। ऐसी बड़ी दूरबीनें ऐसी प्रकाश व्यवस्था से भी जुडी होंगी जो बड़ी तरंग दैर्ध्य की अवरक्त किरणों के माध्यम से बिना वायुमंडल और ब्रह्मांड में विचलित हुए सुदूर अंतरिक्ष के निर्दिस्थ स्थान पर पहुँचकर वहाँ का हांल बता पाऐंगी। प्रोजक्ट वैज्ञानिक आईयूसीएए के डा.एएन रामप्रकाश ने बताया कि 30 मीटर की दूरबीन 3.6 मीटर की दूरबीन के मुकाबले 81 गुने मद्धिम रोशनी वाले तारों को भी देख पाएगी।[/color][/size]

नवीन जोशी

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इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश

नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ,
पै त्वि में दिलैकि आग,
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।)
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है।

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

नवीन जोशी

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हिमालय पर ब्लैक कार्बन का खतरा !

[justify]पहाड़ों पर अधिक होता है मौसम परिवर्तन का असर : प्रो. सिंह
नवीन जोशी नैनीताल। दुनिया के "वाटर टावर" कहे जाने वाले और दुनिया की जलवायु को प्रभावित करने वाले हिमालय पर कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण के कारण ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तनों के खतरे तो हैं ही, वैज्ञानिक ब्लैक कार्बन को भी हिमालय के लिए एक खतरा बता रहे हैं। खास बात यह भी है कि इसका असर गरमियों के मुकाबले सर्दियों में, दिन के मुकाबले रात्रि में और मैदान के बजाय पहाड़ पर अधिक होता है। बीरबल साहनी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध पादप वैज्ञानिक, गढ़वाल विवि के पूर्व कुलपति, उत्तराखंड योजना आयोग के सदस्य एवं भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के लिए हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन कर रहे प्रो. एसपी सिंह ने यह खुलासा किया है। सिंह का कहना है कि दुनिया में डेढ़ बिलियन लोग ईधन में ब्लैक कार्बन’का प्रयोग करते हैं। हिमालय पर इसका सर्वाधिक असर वनस्पतियों की प्रजातियों के अपनी से अधिक ऊंचाई की ओर माइग्रेट होने के साथ ही ग्लेशियरों के पिघलने और मानव की जीवन शैली से लेकर आजीविका तक पर गंभीर प्रभाव के रूप में दिख रहा है। धरती के गर्भ से खुदाई कर निकलने वाले डीजल जैसे पेट्रोलियम पदार्थो, कोयला व लकड़ी आदि को जलाने से ब्लैक कार्बन उत्पन्न होता है। प्रो. सिंह के अनुसार यह ब्लैक कार्बन’जलने के बाद ऊपर की ओर उठता है, और ग्रीन हाउस गैसों की भांति ही धरती की गर्मी बढ़ा देता है। बढ़ी हुई गर्मी अपने प्राकृतिक गुण के कारण मैदानों की बजाय ऊंचाई वाले स्थानों यानी पहाड़ों पर अधिक प्रभाव दिखाते हैं। प्रो. सिंह खुलासा करते हैं कि इस प्रकार मौसम परिवर्तन का असर दिल्ली या देहरादून से अधिक नैनीताल में सर्दियों में रात्रि का तापमान कई बार समान होने के रूप में दिखाई दे रहा है। इसके असर से ही ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पौधों की प्रजातियां ऊपर की ओर माइग्रेट हो रही हैं। ऐसे में सामान्य सी बात है कि पहाड़ की चोटी की प्रजातियां और ऊपर न जाने के कारण विलुप्त हो रही हैं। मानव जीवन पर भी इसका असर फसलों के उत्पादन के साथ आजीविका और जीवनशैली पर पड़ रहा है। उन्होंने खुलासा किया कि हिमाचल प्रदेश में 1995 से 2005 के बीच सेब उत्पादन में कम ऊंचाई वाले कुल्लू व शिमला क्षेत्रों का हिस्सा कम हुआ है, जबकि ऊंचाई वाले लाहौल- स्फीति का क्षेत्र बढ़ा है।[/justify]

नवीन जोशी

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बोली के संवर्धन की कोशिश – बोलिक सज समाव

[justify]बोली-भाषा किसी भी समाज, क्षेत्र, प्रदेश या देश और वहाँ रहने वाले लोगों के केवल बोल-चाल के माध्यम से विचारों को प्रकट करने का माध्यम नहीं होती, वरन इससे कहीं अधिक वहाँ रहने वाले लोगों की संस्कृति, पहचान व अस्मिता को इतिहास से वर्तमान पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी से आगे की पीढि़यों को सोंपने का माध्यम भी होती है। बोली-भाषा बदलती है तो उसके साथ ही मनुष्य, उसकी जीवन शैली और जीने का अंदाज भी बदल जाता है। संस्कृतियाँ गायब हो जाती हैं। संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के दौर से ही भाषाओं के स्वरूप के बदलने, बिगड़ने और एक भाषा के दूसरी को हटा कर उसके स्थान पर प्रतिस्थापित होने का सिलसिला चलता रहा है।

आज भूमंडलीकरण के दौर में इस बदलाव की गति जीवन में आये अन्य बदलावों की तरह ही बढ़ गई है। और शायद भाषा का यह बदलाव ही अन्य बदलावों का मूल कारण भी हो। आज जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी भाषा देश-दुनिया की अनेकों भाषाओं को निगलती या स्वयं को अन्य भाषाओं में जोड़ती जा रही है तो राष्ट्रीय स्तर पर बाजार की ताकत के बावजूद ‘हिंग्लिश’ स्वरूप में ही सही हिंदी भी देश की अन्य भाषाओं को स्वयं में समाहित करती जा रही है। अपनी हिंदी भले अपने प्रदेश उत्तराखंड की कुमाउनी, गढ़वाली व जौनसारी जैसी लोकभाषाओं को ‘बोली’ से अधिक ‘भाषा’ मानने को तैयार नहीं है, परंतु सात समुद्र पार से यूनेस्को इन्हें केवल ‘भाषा’ का संबोधन देते हुए ‘वल्नरेबल’ यानी खतरे की श्रेणी में डालकर चेता रहा है।

ऐसे दौर में प्रदेश के कुमाऊँ अंचल में समाज और आम जन के काफी हद तक तिरस्कार के बावजूद साहित्यकारों द्वारा अपनी दूधबोली कुमाउनी को बचाने की मुहिम जोर पकड़ती नजर आ रही है। बड़ी संख्या में कुमाऊँ के साहित्यकार हिंदी में ही सोचते हुए भी कुमाउनी मंे लिख रहे हैं। कुमाऊँ के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों में एक नाम उत्तराखंड भाषा संस्थान देहरादून से ‘डॉ.पीतांबर दत्त बड़थ्वाल सम्मान’ एवं अखिल भारतीय हिंदी सेवी संस्थान इलाहाबाद से ‘राष्ट्र भाषा गौरव’ सम्मानों से सम्मानित संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ का भी है जो अपने स्वयं के प्रयासों से बिना किसी सरकारी सहायता के कुमाउनी को हर विधा में संकलन प्रकाशित करते हुए समृ़द्ध कर उसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल कराने योग्य बनाने की मुहिम पर निकले हुए हैं। उनकी यह यात्रा कुमाउनी के पहले सामूहिक गद्य संग्रह ‘गद्यांजलि’ के संपादन से वर्ष 2000 में प्रारंभ हुई थी, जो अब कुमाउनी के पहले कहानी संग्रह-अन्वार (2004), पहले नाटक संग्रह-आपणि पन्यार (2006) व पहले संस्मरण संग्रह-फाम (2011) से होते हुए 2012 के आखिर में कुमाउनी के पहले निबंध संग्रह ‘बोलिक् सज समाव’ तक आ पहुँची है। कोशिश है कि इस तरह जब कुमाउनी संविधान की आठवीं अनुसूचि अथवा राज्य की द्वितीय राजभाषा बनाने का अपना दावा पेश करेगी, तब उसके पास साहित्य की हर विधा में भरपूर और स्तरीय साहित्य उपलब्ध होगा।

इस प्रयास में ‘देवांशु’ का ताजा सामूहिक निबंध संग्रह ‘बोलिक् सज समाव’ अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होता है। अपने पूर्व संकलनों की तरह जोशी उम्र की वरिष्ठता के आधार पर लेखकों की रचनाओं को क्रमबद्ध करते हैं, जिससे पुस्तक प्रौढ़ विचारों के साथ पाठक को पढ़ने के लिए आकर्षित करती है और आगे उसमें युवा लेखकों का जोश भी नजर आता है।

पुस्तक की शुरुआत दिल्ली में रहने के बावजूद कुमाउनी के परंपरागत शब्दों की समृद्ध शब्द संपदा रखने वाले सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य पूरन चंद्र जोशी के निबंध ‘डाइनिङ टेबल संस्कृति’ से होती है, जिसमें लेखक कुमाऊँ की परंपरागत रसोइयों से लेकर इस नई संस्कृति को स्वीकारने और अब इसे निभाने में भी परेशानी महसूस करने का जिक्र कर बदलाव के एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया होने का संदेश देते हैं। कुमाउनी साहित्य के पुरोधा एवं ‘अङवाल’ जैसी रचना के चर्चित रचनाकार चारुचंद्र पांडे ‘भगवान महावीर’ द्वारा शुरू किए गए जैन धर्म एवं उसके उद्देश्यों के साथ देश की विभिन्नता में निहित एकता के दर्शन कराते हैं। अल्मोड़ा के ललित मोहन पंत जीवन और मृत्यु की दार्शनिकता तो डॉ. जय दत्त उप्रेती दो-प्रदेश की प्राचीन सभ्यता की याद दिलाते और समाज में आ रही बुराइयों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए सुधार की आवश्यकता जताते हैं।

पुस्तक में पद्मश्री रमेश चंद्र शाह की ‘एक घडि़ आफुण दगड़’, डॉ. विपिन चंद्र शाह का ‘कुमूंक साँस्कृतिक केंद्र-अल्माड़’, दामोदर जोशी ‘देवंाशु’ का ‘आजादीक पछ्याण’ व रतन सिंह किरमोलिया के ‘समाज निर्माण में साहित्यिक भूमिका’ सहित अनेक निबंध शामिल हैं जो कुमाउनी की खसपर्जिया उपबोली में लिखे गए हैं और कुमाउनी के मानकीकरण की दिशा में चल रहे प्रयासों को आगे बढ़ाते नजर आते हैं। पुस्तक में माया पांडे के ‘संस्कार’, उदय किरौला का ‘पैलागनौ त्यार-घुघुती’, डॉ. प्रभा पंत का ‘कुमाउंकि लोक कला: ऐपण’ व तारा पाठक का ‘हमर संस्कार गीत’ जैसे निबंध भी शामिल हैं तो कुमाऊँ अंचल की समृद्ध लोक विरासत की विराटता को प्रकट करते हैं, वहीं कुमाऊँ विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग में कुमाउनी को आगे बढ़ाने वाले प्रो.केशव दत्त रुवाली ‘कुमाउनी कसिक लेखी जैं’, डॉ. शेर सिंह बिष्ट ‘कुमाऊंकि पछ्याण कुमाउनी’, डॉ. देव सिंह पोखरिया ‘कुमाउनी भाषा कें अठूं अनुसूची में शामिल हुण चैं’ व नवीन जोशी ‘नवेंदु’ ‘जड़ बटी हो भाशाक् सज-समाव’ जैसे लेखों के माध्यम से कुमाउनी को स्वयं में समृद्ध करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल करने की मजबूत पैरवी करते हैं। गोपाल दत्त भट्ट के ‘मोहिल कत्यूर’, डॉ. प्रयाग उप्रेती के ‘हमरि जागर वार्ता और उनरि ऐतिहासिकता’, महेश प्रसाद टम्टा का ‘उत्तराखंडा्क साहित्यकार’, पूरन चंद्र कांडपाल का ‘जागर न्हैं हर मर्ज कि औखत’, गोविंद सिंह महरा का ‘संधि (गायत्री)’ और आनंद सिंह बिष्ट ‘आनंद’ के ‘कुमाऊँ और पर्यटन’ जैसे निबंध कुमाऊँ की बहुरंगी संस्कृति के दर्शन कराते हैं। बहादुर बोरा ‘श्रीबंधु’ का लेख कुमाउनी के आदि कवि ‘गुमानी’ से तो तारा दत्त त्रिपाठी का लेख जापान के एक विद्यालय से परिचित कराता हुआ पहाड़ के मौजूदा हालातों की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हैं। पुस्तक में आनंद बल्लभ उप्रेती के ‘भौतै हैगे हो उगार कटै’, ज्योतिर्मई पंत के ‘बदलाव’, माधवानंद लोहनी के ‘व्यवस्था भलि चलि रै हो’, गोविंद बल्लभ बहुगुणा के ‘पर्यावरणक दुश्मण छ प्रदूषण’, मदन मोहन जोशी का ‘यस कसी हौ’, गिरीश चंद्र जोशी का ‘पढ़न किलै छू जरूरी’, डॉ. हयात सिंह रावत का ‘भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्षता’, घनानंद पांडे ‘मेघ’ का ‘परिश्रमकि बातै और छ’, डॉ. दया पंत का ‘पर्यावरण और हमरि परंपरा’, खुशाल सिंह खनी का ‘पहाड़ बटी भजाभाज’, डॉ. दीपा गोबाड़ी का ‘समाज में लैंगिक असंतुलन-कन्या भ्रूण हत्या कारण-निदान’, महेंद्र ठकुराठी का ‘शिक्षा क्षेत्र में सुधार जरूरी’ व डॉ. हेम चंद्र दुबे ‘उत्तर’ का ‘मानवता सबसे ठुल धर्म’ जैसे आलेख बदलती व्यवस्था में उत्पन्न हो रही समस्याओं को उकेरने के साथ ही उनके समाधान भी तलाशते हैं। पुस्तक में श्याम सिंह कुटौला के ‘असज्क म्हैंण’ व माया रावत का ‘बौडि़’ सहित अन्य लेख भी शामिल हैं जो पहाड़ के अपने अलग तरह के कठिन जीवन और व्यथाओं की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। इस प्रकार एक इकाई के रूप में पुस्तक-बोलिक् सज समाव केवल 157 पृष्ठों में पूरे पहाड़ के एक बड़े चित्र को उकेरने के साथ ही समस्याओं और उनके समाधान भी देती है, साथ ही अपने मूल कार्य ‘कुमाउनी भाषा को समृद्ध’ करने के कर्तव्य से भी पूरा न्याय करती है।

संपादक की अपनी दुधबोली को संवर्धित करने का जुनून ही कहेंगे कि वे इस पुस्तक में कोई कीमत या सहयोग राशि लिखना ही भूल गए हैं। भाषाओं के विघटन के दौर में कुमाउनी निबंधों की यह स्तरीय पुस्तक यूनेस्को द्वारा इसके अस्तित्व के बारे में जताई जा रही चिंताओं के बीच इसके बच सकने की उम्मीद जगाती है तो यह एक शुभ संकेत ही कहा जाएगा। पुस्तक शीघ्र विमोचन के उपरांत आम जन के हाथों में होगी, पसंद की जाएगी, और कुमाउनीं भाषा के भंडार में श्रीवृद्धि करेगी, ऐसी आशा है।[/justify]

बोलिक् सज समाव/संपादक-दामोदर जोशी ‘देवांशु’/प्रकाशक-जगदम्बा कम्प्यूटर्स एंड प्रिटर्स, हल्द्वानी/ पृष्ठ-157 / मूल्य-अभी कोई उल्लेख नहीं, आगे सहयोग राशि रुपए 200 संभावित।[/color]

नवीन जोशी

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उत्तराखंड निकाय चुनावों पारि कुमाउनी कविता: फरक पडूं
सागा्क फड़ पारि
वीलि आपंण पुर अनुभव
गणित, भूगोल, हिसाब-किताब
सामान्य ज्ञान
हुत्तै अड़ोइ हा्लौ
पुर डिमाग खर्चि हा्लौ
पांच रुपै है चार-आठ आ्न
कम-बांकि खर्चणा लिजी
एक किलू आ्लूक ग्याड़ों लिजी
जो इक्कै दिन में लै निमड़ि सकनीं
पर, वीकि स्यैंणि उनूकें
पुर पांच दिनोंक तै पुरयालि
पांच फड़ टटो्इ हा्लीं...

सोचि हा्लौ-
कि, कसी, कतू....
उमाइ, थे्चि
खुस्याल छ्वेलि
कि सिखुस्यालै का्टि
कि-कि मस्या्ल खिति
के् दिगाड़ मिस्यै
कि सुद्दै गुटुक
कि............
पचास परगारा्क
आ्लू सागा्क सवाद
सागा्क फड़ पारि
ठड़ी-ठड़ियै
चा्खि हा्लीं
पर के फैसा्ल न करि सकनय।

भो छन भोट,
आज-भो रोजै भोट
बजार बन्द रौलि
आ्ल लै न बिचाल
फिर लै बिन आ्लू कै -रित्तै
ऐगो घर हुं उ
हा्य, इतू अकर सोचनै
आलु है सकर आलुक सोरों कैं बोकि।

घर सागैकि खुरि-तुरि करि भैटी
स्यैंणि नड़क्यूनै-
एक किलू आ्ल लूंण में
इतू विचार?
भो कसी द्यला भोट?
ककैं द्यला? कसी करला फैसा्ल?
कूणौ-
वीकि कि चिंत?
कै कैं लै दि द्यूंल
कि फरक पडूं ।

नवीन जोशी

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शोमैन को अखरा "थमा" सा पहाड़
राज्य का ध्यान "डेवलपमेंट" से अधिक "डील्स" पर
सात वर्षो से "पॉज" की स्थिति में खड़ा है उत्तराखंड
कहा- शौक को प्रोफेशन बनाएं युवा


नवीन जोशी नैनीताल। हिंदी फिल्म उद्योग के "शोमैन" सुभाष घई उत्तराखंड की सुंदरता में कसीदे पढ़ते हैं, लेकिन वह प्रदेश की व्यवस्थाओं से बेहद नाखुश हैं। सात वर्षो के बाद प्रदेश में लौटे घई कहते हैं कि उत्तराखंड इस अवधि में "पॉज" की स्थिति में (यानी जहां का तहां) खड़ा है ! वह कहते हैं कि फिल्में किसी भी राज्य की खूबसूरती को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने और उसकी आर्थिकी, रोजगार व पर्यटन को बढ़ाने का बड़ा माध्यम हैं। इसलिए अनेक राज्य व अनेक देश फिल्मकारों को रियायतों की पेशकश करते हैं, लेकिन लगता है कि उत्तराखंड का ध्यान "डेवलपमेंट" से अधिक "डील्स" पर है। यहां शूटिंग महंगी पड़ती है। उत्तराखंड की सुंदरता, शांति उन्हें यहां खींच लाती है।
श्री घई निजी हेलीकॉप्टर से अपनी फिल्म "कांची" के लिए लोकेशन तय करने यहां पहुंचे। इस दौरान नगर के एक होटल में वह मीडियाकर्मियों से वार्ता कर रहे थे। उन्होंने मीडियाकर्मियों से ही प्रश्न किया, "मैं सात वर्ष पूर्व (2005 में फिल्म किसना की शूटिंग के लिए) उत्तराखंड आया था, तब से उत्तराखंड को "प्रमोट करने" के लिए क्या किया गया है?", फिर स्वयं ही उन्होंने उत्तर भी दे डाला। कहा, कुछ नहीं किया, लगता है राज्य सात वर्षो से "पॉज" पर खड़ा है। उन्होंने कहा कि फिल्में "प्रमोशन" का बड़ा माध्यम होती हैं। स्विट्जरलैंड, फिजी, मैक्सिको सहित अनेक देश व मेघालय, नागालैंड सरीखे राज्य फिल्मकारों को अपने यहां शूटिंग करने पर 40 फीसद तक अनुदान के प्रस्ताव देने आते हैं। उत्तराखंड से ऐसी पेशकश नहीं होती। प्रदेश को फिल्मों की शूटिंग को बढ़ावा देने के लिए होटल, यातायात, संचार सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। फिल्मों के लिए "विशेष सेल" की स्थापना की जा सकती है। उन्होंने कहा कि कांची फिल्म में वह स्थानीय प्रतिभाओं को मौका देंगे। युवाओं को उन्होंने संदेश दिया, अपने पैशन को प्रोफेशन बनाएं, तभी अपेक्षित प्रगति कर पाएंगे।[/color]
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नवीन जोशी

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बसने के चार वर्ष के अंदर ही देश की दूसरी पालिका बन गया था नैनीताल

  • सफाई व्यवस्था सुनियोजित करने को बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट के तहत 1845 में हुआ था गठन
नवीन जोशी नैनीताल। जी हां, देश ही नहीं दुनिया में नैनीताल ऐसा अनूठा व इकलौता शहर होगा जिसे बसने के चार वर्ष के अंदर ही नगर पालिका का दर्जा मिल गया था। दूर की सोच रखने वाले इस शहर के अंग्रेज नियंताओं ने शहर के बसते ही इसकी साफ-सफाई को सुनियोजित करने के लिए बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट-1842 के तहत इसे 1845 में नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया था। विदित है कि नैनीताल नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने का श्रेय अंग्रेज व्यवसायी पीटर बैरन को जाता है, जो 18 नवम्बर 1841 को यहां आया लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसके तीन वर्ष के उपरांत 1843- 44 में ही, जब नगर की जनसंख्या कुछ सौ ही रही होगी, नगर की साफ-सफाई के कार्य को सुनियोजित करने के लिए इसे नगर पालिका बनाने का प्रस्ताव नगर के तत्कालीन नागरिकों ने कर दिया था। अंग्रेज लेखक टिंकर की पुस्तक "लोकल सेल्फ गवर्नमेंट इन इंडिया, पाकिस्तान एंड वर्मा" के पेज 28- 29 में नैनीताल के देश की दूसरी नगर पालिका बनने का रोचक जिक्र किया गया है। पुस्तक के अनुसार उस दौर में किसी शहर की व्यवस्थाओं को सुनियोजित करने के लिए देश में कोई प्राविधान ही नहीं थे। लिहाजा 1842 में बंगाल प्रेसीडेंसी के लिए बने बंगाल प्रेसीडेंसी अधिनियम-1842 के आधार पर इस नए नगर को नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया। इससे पूर्व केवल मसूरी को (1842 में) नगर पालिका का दर्जा हासिल था, इस प्रकार नैनीताल को देश की दूसरी नगर पालिका होने का सौभाग्य मिल गया। अधिनियम के तहत नगर की व्यवस्थाएं कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर लूसिंग्टन की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय समिति के द्वारा देखी जाने लगीं। आगे 1850 में म्युनिसिपल एक्ट आने के बाद तीन अक्टूबर 1850 को यहां विधिवत नगर पालिका बोर्ड का गठन हुआ। नगर के बुजुर्ग नागरिक व म्युनिसिपल कमिश्नर (सभासद) रहे गंगा प्रसाद साह बताते हैं कि उस दौर में नियमों का पूरी तरह पालन सुनिश्चित किया जाता था। सेनिटरी इंस्पेक्टर घोड़े पर सवार होकर रोज एक-एक नाले का निरीक्षण करते थे। माल रोड पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिए चुंगी का प्राविधान किया गया था। गवर्नर को चुंगी से छूट थी। एक बार अंग्रेज लेडी गवर्नर बिना चुंगी दिए माल रोड से गुजरने का प्रयास करने लगीं, जिस पर तत्कालीन पालिकाध्यक्ष राय बहादुर जसौत सिंह बिष्ट ने लेडी गवर्नर का 10 रुपये का चालान कर दिया था।
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नैनीताल नगर पालिका की विकास यात्रा
  • 1841 में पहला भवन पीटर बैरन का पिलग्रिम हाउस बनना शुरू ।
    तल्लीताल गोरखा लाइन से हुई बसासत की शुरूआत।
    1845 में मेजर लूसिंग्टन, 1870 में जे मैकडोनाल्ड व 1845 में एलएच रॉबर्टस बने पदेन अध्यक्ष।
    1891 तक कुमाऊं कमिश्नर होते थे छह सदस्यीय पालिका बोर्ड के पदेन अध्यक्ष व असिस्टेंट कमिश्नर उपाध्यक्ष।
    1891 के बाद डिप्टी कमिश्नर (डीसी) ही होने लगे अध्यक्ष।
    1900 से वैतनिक सचिव होने लगे नियुक्त, बोर्ड में होने लगे पांच निर्वाचित एवं छह मनोनीत सदस्य।
    1921 से छह व 1927 से आठ सदस्य होने लगे निर्वाचित।
    1934 में आरई बुशर बने पहले सरकार से मनोनीत गैर अधिकारी अध्यक्ष (तब तक अधिकारी-डीसी ही होते थे अध्यक्ष)।
    1941 में पहली बार रायबहादुर जसौत सिंह बिष्ट जनता से चुन कर बने पालिकाध्यक्ष।
    1953 से राय बहादुर मनोहर लाल साह रहे पालिकाध्यक्ष।
    1964 से बाल कृष्ण सनवाल रहे पालिकाध्यक्ष।
    1971 से किशन सिंह तड़ागी रहे पालिकाध्यक्ष।
    1977 से 1988 तक डीएम के हाथ में रही सत्ता।
    1977 तक बोर्ड सदस्य कहे जाते थे म्युनिसिपल कमिश्नर, जिम कार्बेट भी रहे म्युनिसिपल कमिश्नर।
    1988 में अधिवक्ता राम सिंह बिष्ट बने पालिकाध्यक्ष।
    1994 से 1997 तक पुन: डीएम के हाथ में रही सत्ता।
    1997 में संजय कुमार :संजू", 2003 में सरिता आर्या व 2008 में मुकेश जोशी बने अध्यक्ष।
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नवीन जोशी

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बिन्सरः प्रकृति की गोद में कीजिए प्रभु का अनुभव

देवभूमि उत्तराखंड के कण-कण में देवत्व का वास कहा जाता है। यह देवत्व ऐसे स्थानों पर मिलता है जहां नीरव शांति होती है, और यदि ऐसे शांति स्थल पर प्रकृति केवल अपने प्राकृतिक स्वरूप में यानी मानवीय हस्तक्षेप रहित रूप में मिले तो क्या कहने। जी हां, ऐसा ही स्थल है-बिन्सर। जहां प्रकृति की गोद में बैठकर प्रभु को आत्मसात करने का अनुभव लिया जा सकता है।
अल्मोड़ा जनपद मुख्यालय से करीब 35 किमी की दूरी पर बागेश्वर मोटर मार्ग पर बिन्सर समुद्र सतह से अधिकतम 2450 मीटर की ऊंचाई (जीरो पॉइंट) पर स्थित प्रकृति और प्रभु से एक साथ साक्षात्कार करने का स्थान है। प्रकृति से इतनी निकटता के मद्देनजर ही 1988 में इसे बिन्सर वन्य जीव विहार के रूप में संरक्षित किया गया, जिसके फलस्वरूप यहां प्रकृति बेहद सीमित मानवीय हस्तक्षेप के साथ अपने मूल स्वरूप में संरक्षित रह पाई है। इसी कारण इसे उत्तराखंड के ऐसे सुं दरतम पर्वतीय पर्यटक स्थलों में शुमार किया जाता है। यही कारण है कि अल्मोड़ा-बागेश्वर मोटर मार्ग से करीब 13 किमी के कठिन व कुछ हद तक खतरनाक सड़क मार्ग की दूरी और बिजली, पानी व दूरसंचार की सीमित सुविधाओं के बावजूद हर वर्ष देश ही नहीं दुनिया भर से हजारों की संख्या में सैलानी यहां पहुंचते हैं, और पकृति की नेमतों के बीच कई-कई दिन तक ऐसे खो जाते हैं, कि वापस लौटने का दिल ही नहीं करता। यहां सैकड़ों दुर्लभ वन्य जीवों, वनस्पतियों व परिंदों की प्रजातियों के साथ ही हिमालय की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं के एक साथ अकाट्य दर्शन होते हैं, तो 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं द्वारा निर्मित बिन्सर महादेव मंदिर में हिमालयवासी महादेव शिव अष्टभुजा माता पार्वती के साथ दर्शन देते हैं। उत्तराखंड का राज्य बुरांश यहां चीड़, काफल, बांज, उतीस, मोरु, खरसों, तिलोंज व अयार के साथ ही देवदार की हरीतिमा से भरे जंगलों को अपने लाल सुर्ख फूलों से ‘जंगल की ज्वाला’ में तब्दील कर देता है, तो राज्य पक्षी मोनाल भी कठफोड़वा, कलीज फीजेंट, चीड़ फीजेंट, कोकलास फीजेंट, जंगली मुर्गी, गौरैया, लमपुछड़िया, सिटौला, कोकलास, गिद्ध, फोर्कटेल, तोता व काला तीतर आदि अपने संगी 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों के साथ यदा-कदा दिख ही जाता है। करीब 40 प्राकृतिक जल श्रोतों वाले बिन्सर क्षेत्र में असंख्य वृक्ष प्रजातियों के साथ नैर जैसी सुंगधित वनस्पति भी मिलती है, जिससे हवन-यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली धूप निर्मित की जाती है, और यह राज्य पशु कस्तूरा मृग का भोजन भी मानी जाती है। कस्तूरा की कुंडली में बसने वाली बहुचर्चित कस्तूरी और शिलाजीत जैसी औषधियां भी यहां पाई जाती हैं। कस्तूरा के साथ ही यहां तेंदुआ, काला भालू, गुलदार, साही, हिरन प्रजाति के घुरल, कांकड़, सांभर, सरों, चीतल, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, जंगली सुअर, बंदर व लंगूरों के साथ गिलहरी आदि की दर्जनों प्रजातियां भी यहां मिलती हैं। बिन्सर जाते हुए गर्मियों में खुमानी, पुलम, आड़ू व काफल जैसे लजीज पहाड़ी फलों का स्वाद लिया जा सकता है। काफल के साथ हिसालू व किल्मोड़ा जैसे फल बिन्सर की ओर जाते हुए सड़क किनारे लगे पेड़ों-झाड़ियों से मुफ्त में ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अपनी इन्हीं खूबियों के कारण शहरों की भीड़-भाड़ से दूर प्रकृति की गोद में स्वयं को सोंप देने के इच्छुक लोगों के लिए बिन्सर सबसे बेहतर स्थान है।
यूं पहाड़ों पर सैलानी गर्मियों के अवकाश में मैदानी गर्मी से बचकर पहाड़ों पर आते हैं, किंतु इस मौसम में प्रकृति में छायी धुंध कुछ हद तक दूर के सुंदर दृश्यों को देखने में बाधा डालकर आनंद को कम करने की कोशिश करती है, बावजूद बिन्सर में करीब में भी प्रकृति के इतने रूपों में दर्शन होते हैं कि इसकी कमी नहीं खलती। इस मौसम में भी यहां बुरांश के खिले फूलों को देखा जा सकता है, अलबत्ता अब तक वह कुछ हद तक सूख चुके होते हैं। गर्मियों से पूर्व बसंत के मार्च-अप्रैल और बरसात के बाद सितंबर-अक्टूबर यहां आने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय हैं। इस मौसम में यहां से हिमालय पर्वत की केदारनाथ, कर्छकुंड, चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली तक की करीब 300 किमी लंबी पर्वत श्रृंखलाओं का एक नजर घुमाकर ‘बर्ड आई व्यू’ सरीखा अटूट नजार लिया जा सकता है। कमोबेस बादलों की ऊंचाई में होने के कारण बरसात सहित अन्य मौसम में बादल भी यहां कौतूहल के साथ सुंदर नजारा पेश करते हैं।
आवास के लिए यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का 2300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पर्यटक आवास गृह (टूरिस्ट रेस्ट हाउस)सर्वाधिक बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराता है। यहां करीब चार किमी दूर बिन्सर महादेव मंदिर के पास से मोटर की मदद से उठाकर पानी तथा जनरेटर की मदद से शाम को छह से नौ बजे तक बिजली की रोशनी भी उपलब्ध कराया जाता है। रेस्ट हाउस की टैरेस नुमा छत में बैठकर सुबह सूर्योदय एवं हिमालय की चोटियों तथा प्रकृति के दिलकश नजारे लिए जा सकते हैं। ‘नेचर वॉक’ करते हुए आधा किमी की दूरी पर स्थित सन सेट पॉइंट से शाम को सूर्यास्त के तथा करीब दो किमी की दूरी पर स्थित ‘जीरो पाइंट’ से हिमालय की चोटियों एवं दूर-दूर तक की पहाड़ी घाटियों और कुमाऊं की चोटियों का नजारा लिया जा सकता है। बिन्सर जाने की राह में चार किमी पहले 13वीं शताब्दी में बना बिन्सर महादेव मंदिर अपनी प्राकृतिक सुषमा एवं कत्यूरी शिल्प व मंदिर कला के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। ध्यान-योग के लिए यह बेहद उपयुक्त स्थान है। मंदिर के पास की कोठरी में वर्ष भर प्रभु के भक्त पास ही के वन से प्राप्त वनस्पतियों से तैयार सुगंधित धूप की महक के साथ हवन-यज्ञ, ध्यान-साधना करते रहते हैं। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि चंद राजाओं ने एक रात्रि में ही इसका निर्माण किया था। करीब 800 वर्षों के उपरांत भी बिना खास देखभाल के ठीक-ठाक स्थिति में मौजूद मंदिर इसके स्थापकों की समृद्ध भवन और मंदिर स्थापत्य कला एवं कर्तव्यनिष्ठा की प्रशंषा को मजबूर करता है। पास में एक प्राकृतिक नौला यानी स्वच्छ एवं मिनरल वाटर सरीखा प्राकृतिक रूप से शुद्ध पानी का चश्मा तथा सामने विशाल मैदान भी अपनी खूबसूरती के साथ मौजूद हैं। यहां मैरी बडन व खाली इस्टेट भी स्थित हैं।

नवीन जोशी

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पहाड़ से ऊंचा तो आसमान ही हैः क्षमता
प्रदेश की पहली व इकलौती कामर्शियल महिला पायलट कैप्टन क्षमता बाजपेई ने कहा-पहाड़ की होने के कारण ऊंचाइयों से डर नहीं लगता, क्योंकि पहाड़ से आगे तो ‘स्काई इज द लिमिट’ (यानी असीमित आसमान की सीमाएं ही हैं)
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, सही बात ही तो है, पहाड़ों से अधिक ऊंचा तो आसमान ही है। कोई पहाड़ से भी अधिक ऊंचे जाना चाहे तो कहां जाए, आसमान पर ही नां। पर कितने लोग सोचते हैं इस तरह से ?। लेकिन पहाड़ की एक बेटी क्षमता जोशी ने 1986 के दौरान ही जब वह केवल 18 वर्ष की थीं अपने पहाड़ों की ऊंचाई से भी अधिक ऊंचा उड़ने का जो ख्वाब संजोया और उसे पूरा करने में जिस तरह परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद अपनी पूरी ‘क्षमता’ लगा दी, नतीजे में वह प्रदेश की पहली और इकलौती कामर्शियल महिला पायलट ही नहीं, एयर इंडिया में प्रोन्नति पाकर सात वर्ष से कमांडर हैं, और न केवल स्वयं बल्कि हजारों लोगों को रोज पहाड़ों से कहीं अधिक ऊंचाइयों से पूरी दुनिया की सैर कराती हैं।
क्षमता जोशी आज क्षमता बाजपेई के रूप में आज एक मां भी हैं, और एयर इंडिया के बोइंग 777 विमान को लगातार 16 से 2 घंटों तक उड़ाते हुए दुनिया के चक्कर काटना अब उनका पेशा है। क्षमता शनिवार पहली जून को नैनीताल में थीं, तो एक भेंट में उन्होंने अपने बचपन से लेकर अपने स्वप्न को साकार करने की विकास यात्रा को खुलकर बयां किया। क्षमता मूलतः प्रदेश के पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय के पास स्थित चंडाक गांव की बेटी हैं। पिता एमसी जोशी दिल्ली प्रशासन में प्रधानाचार्य के पद पर थे, लिहाजा दिल्ली में ही उन्होंने पढ़ाई की। पहाड़ कुछ हद तक छूटने के बावजूद ऊंचाइयों को छूने की ललक में बीएससी की पढ़ाई और एनसीसी के दौरान ही उन्होंने 1988 में प्राइवेट पायलट का लाइसेंस हासिल कर लिया था। आगे पिता ने चार बच्चों की जिम्मेदारी के बीच उनके कमर्शियल पायलट का लाइसेंस लेने के ख्वाब के करीब तीन लाख रुपए के खर्च को वहन करने से स्वयं की लाचारगी जता दी, लेकिन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय उड़ान अकादमी ने उनकी काबिलियत को पचानते हुए उन्हें राजीव गांधी स्कॉलरशिप से नवाज कर नकी राह आसान कर दी। फलस्वरूप 1990 में ही उन्होंने कामर्शियल पायलट का लाइसेंस हासिल कर लिया। वर्ष 1997 में वह एयर इंडिया से जुड़ीं और आज सात वर्षों से यहां कमांडर के पद पर तैनात हैं। क्षमता बताती हैं कि विमान उड़ाना कठिनतम कार्यों में से एक है, इसमें अपने लक्ष्य पर अत्यधिक केंद्रित रहने की जरूरत रहती है। उनके पति सुशील बाजपेई अंतराष्ट्रीय ग्लाइडिंग इंस्ट्रक्टर हैं जबकि बेटा मेहुल शौक के तौर पर फ्लाइंग करना चाहता है। नैनीताल में वह अपने जीजा भीमताल के पांडेगांव निवासी भारत पांडे और दोनों बहनों के साथ आई थीं। वह कहती हैं-पहाड़ की होने के कारण ऊंचाइयों से डर नहीं लगता है, क्योंकि पहाड़ों की ऊंचाई के आगे तो असीमित आसमान ही होता है।


भारत में महिला पायलट विश्व औसत से दोगुनी
प्रदेश में वर्ष 2011 की जनगणना में लिंगानुपात के घटने पर चिंता जताते हुए क्षमता बाजपेई बताती हैं कि महिला पायलटों का विश्व में औसत छः फीसद है, जबकि भारत में कुल पायलटों में से 12 फीसद महिला पायलट हैं, जोकि विश्व औसत का दोगुना है। उनका मानना है कि आज महिलाओं के लिए कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है। लेकिन वह मान के चलें कि उन्हें मां व पत्नी के रूप में घर भी चलाना है और समन्वय बनाते हुए ही घर के बाहर काम करना है। कहा कि वंश चलाने का मतलब अपनी जड़ों को न भूलना भी है। महिलाएं बेशक किसी और की वंशवृद्धि करती हैं, लेकिन अपने मायके को कभी नहीं भूलतीं। पहाड़ की युवतियों के लिए उनका कहना था, वह बुद्धिमान तथा मेहनती व कर्तव्यनिष्ठ हैं। अपने लक्ष्य के प्रति दृ़ढ केंद्रित हांे, और घर से बाहर निकलकर ‘एक्सपोजर’ प्राप्त करें।
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नवीन जोशी

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नई जमा्न में

अजब-गजब द्यखौ
(उत्तराखंड आंदोलना्क) उ जमा्न में
मैंस देखणांछी स्वींण
राज्या्क विकासा्क
गौं-गाड़न में द्यखौ-कर्फ्यू
घुघुतिकि घुर-घुर में सुणीं
बन्दूगौंकि गोइ
जां लागि रूंछी रोज
भा्इ-चारा्क म्या्व
वां ज्वानौंकि लाश द्ये्खीं
जां है रूंछी, हंसि-ठा्ठ-खुसि
वां इज-बाबुकि डाड़ पड़ी द्येखी
बजार में द्येखीं
धरना, जुलूस, हड़ताल
मरीनैकि जिन्दाबाद
ज्यूनौंकि मुर्दाबाद
ठो्सीणांछी मैंस-स्यैंणी
झेलून बड़ पैमा्न में,
अजब-गजब द्यखौ
उ जमा्न में ।
.................................
पहाड़ों में द्यखौ बड़ बिकास
गौं-गौं तक दये्खीं सड़क
रिटणाछी जीप, गाड़ि, मोटर-कार
घर-घर में द्यखौ टी.बी.
एक-एक टी.बी. में द्य्खौ
छै-छै डिसौंक कनैक्सन
पेट खा्लि हो भलै
गा्ड़ खड़ि हुं, खंणि बिचै ग्येईं भलै
डा्व बोट खोपि-काटि बेचि हालीं भलै
के रुजगार न्है भलै
घरक काम करंण में शरमै भै
नईं-नईं मिजात करणै भै
बिड़ि-सिगरेट-सुर पींणै भै
खांण हुं क्रीमरौल, बिश्कुट चैनेरै भै
ए दुसरैकि हौंसि में
हिन्दी-हिंग्लिश
कुमाउनी हिमाउंनी बंडण द्येखी
मैंस द्येखीं भैटी रात्ति-ब्याव
जुवा्क फड़न में
अजब-गजब द्यखौ
यौ नई जमा्न में ।

(मेरे इसी माह प्रकाशित हो रहे कुमाउनी कविता संग्रह 'उघडी आँखोंक स्वींण' से...)

 

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