Uttarakhand Updates > Articles By Esteemed Guests of Uttarakhand - विशेष आमंत्रित अतिथियों के लेख

Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख

<< < (58/60) > >>

नवीन जोशी:
मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !
-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो ठीक लोक सभा चुनाव से पहले रोहित नाम के पुत्र रत्न की प्राप्ति के बाद एनडी तिवारी और भाजपा नरेंद्र मोदी के लिए बनारस सीट खाली करने को इस सीट से अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण
हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने [/size]

नवीन जोशी:
होली छाई ऐसी झकझोर कुमूं में....
कुमाऊं में है अनूठी बैठकी, खड़ी, धूम व महिला होलियों की परंपरा
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाई जाती हैं। यूं कुमाऊं में होली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं, बैठकी व खड़ी होली, परन्तु अब दोनों के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर कर आ रहा है। इसे धूम की होली कहा जाता है। इसके साथ ही महिला होलियां भी अपना अलग स्वरूप बनाऐ हुऐ हैं।
कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत होली के पूर्वाभ्यास के रूप में पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों से होती है। माना जाता है कि प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह होली गीत यहां आऐ हैं। इनमें शाष्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण इन्हें शाष्त्रीय होली भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शाष्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं।
होली की शुरुआत बसन्त के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है तथा
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´
व झिंझोटी राग में
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में...´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´
आदि होली के रूप में गाऐ जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे


`शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´ व `सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं। सामान्यतया खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं।
इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर रहा है, इसे धूम की होली कहा जाता है। यह `छलड़ी´ के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं, तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में भी होली का यह रूप प्रचलित है।

होलियों के दौरान युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गीतों में सराबोर देखा जा सकता है। खासकर ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में होलियां गाई जाती हैं, इस दौरान ऐसा लगता है मानो हर होल्यार शास्त्रीय गायक हो गया हो। नैनीताल, अल्मोड़ा और चंपावत की होलियां खास मानी जाती हैं, जबकि बागेश्वर, गंगोलीहाट, लोहाघाट व पिथौरागढ़ में तबले की थाप, मंजीरे की छन-छन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ जैसी होलियां गाते हैं। बैठकी होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती हैं, और फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक, बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ के साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति जैसे सभी रस मिलते हैं। बैठकी होली अपने समृद्ध लोक संगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है, खास बात यह भी है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश होलियों की भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है। सभी बंदिशें राग-रागनियों में गाई जाती है, और यह काफी हद तक शास्त्रीय गायन है। इनमें एकल और समूह गायन का भी निराला अंदाज दिखाई देता है। लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं। खड़ी होली होली में होल्यार दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाते हैं, और रात में यही होली बैठकर गाई जाती है। शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है।

इधर शहरी क्षेत्रों में हर त्योहार की तरह होली में भी कमी आने लगी है। लोग केवल छलड़ी के दि नही रंग लेकर निकलते हैं, और एक-दूसरे को रंग लगाते हुए गुजिया खिलाते हैं। गांवों में भांग का प्रचलन भी है।
 कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्परायें

कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें  हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा...सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो...´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं। कुमाऊं में `चीर हरण´ का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है। बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से  शुरू कर सबसे छोटे पुरुष  सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस...हो हो होलक रे...´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

नवीन जोशी:
[justify]बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी

एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है।
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-

दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।[/justify]

नवीन जोशी:
उत्तराखंड की पहली कुमाउनी, गढ़वाली व जौनसारी सहित समस्त लोक भाषाओं की पहली मासिक पत्रिका ‘कुमगढ़’ का पहला अंक प्रकाशित हो गया है।

पत्रिका की प्रति सुरक्षित करवाने, नियमित या आजीवन सदस्यता लेने एवं आगामी अंकों के लिए अपने मौलिक लेख, कविताएं आदि प्रेषित करने के लिए पताः
श्री दामोदर जोशी ‘देवांशु’
संपादक-कुमगढ़ पत्रिका
हिमानी वाङमय पीठ, पश्चिमी खेड़ा, पोस्ट-काठगोदाम, जिला-नैनीताल, पिन-263126। मोबाइलः 9719247882। ईमेलः kumgarh@gmail.com ।

सदस्यता राशिः सदस्यता (संरक्षक): रुपए 5000
आजीवन सदस्यताः रुपए 1000
विशेष सहयोगः रुपए 500
वार्षिक सहयोगः रुपए 100
एक प्रतिः रुपए 20

नवीन जोशी:
भारत का स्विटजरलेंड, गांधी-पंत का कौसानी
महाकवि कालीदास के कालजयी ग्रंथ कुमार संभव में नगाधिराज कहे गए हिमालय को बेहद करीब से निहारता और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा ‘भारत का स्विटजरलेंड’ कहा गया कौसानी देश के चुनिंदा प्राकृतिक सौंदर्य से ओतप्रोत रमणीक पर्वतीय पर्यटक स्थलों में एक है। महात्मा गांधी को अपनी नीरवता और शांति से गीता के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान कराने और ‘अनासक्ति योग’ ग्रंथ की रचना कराने वाले और प्रकृति के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत की यह जन्म भूमि आदि-अनादि काल से लेकर वर्तमान तक प्रकृति प्रेमियों का पसंदीदा स्थान रही है। यहां दूर तक कोसी, गोमती और गगास नदियों के बीच फैली कत्यूर, बोरारो व कैड़ारो घाटियों के बीच लहलहाती धान व आलू की खेती, हरे कालीन से बिछे चाय के बागानों और शीतलता बिखेरते देवदार व चीड़ के दरख्तों के बीच पर्वतराज हिमालय को अपनी स्वर्णिम आभा से रंगते सूर्याेदय और सूर्यास्त के स्वर्णिम आभा बिखेरते मनोहारी दृश्य सौंदर्य के वशीभूत सैलानियों को न केवल आकर्षित करते वरन अपना बना लेते हैं।
Kausani3कौसानी उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले से 53 किलोमीटर उत्तर में बागेश्वर, पिंडारी-सुंदरढूंगा ग्लेशियर के मार्ग पर समुद्र सतह से लगभग 1950 मीटर यानी 6075 फीट की ऊंचाई पर पिंगनाथ चोटी पर बसा एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा है। यहाँ से बर्फ से ढके नंदा देवी पर्वत की चोटी का नजारा ‘ऊं’ जैसे स्वरूप में नजर आता है। साथ ही चौखंबा, नीलकंठ, नंदा घुंटी, नंदा देवी, नंदा खाट व नंदाकोट से लेकर पंचाचूली तक की हिम मंडित पर्वत श्रृंखलाओं का सुंदर व भव्य नजारा भी दिखता है। कहा जाता है कुमाऊं में कत्यूरी राज के दौरान यह क्षेत्र राजा बैचलदेव के अधिकार में आता था, जिन्हांेने इसे श्रीचंद तिवारी नाम के एक गुजराती ब्राह्मण को दे दिया था। संभवतया वहीं से गांधी जी इस स्थान के नाम से परिचित हुए और 1929 में एक स्थानीय चाय बागान मालिक के आतिथ्य में केवल दो दिन के प्रवास के लिए यहां आए थे, लेकिन इस स्थान के आकर्षण में पूरे 14 दिन न केवल रुके वरन ध्यान लगाकर ‘अनासक्ति योग’ ग्रंथ की रचना कर डाली। उन्होंने इस स्थान के बारे में कहा था, ‘इन पहाड़ों में प्राकृतिक सौंदर्य की मेहमाननवाजी के आगे मानव द्वारा किया गया कोई भी सत्कार फीका है। मैं आश्चर्य के साथ सोचता हूँ कि इन पर्वतों के सौंदर्य और जलवायु से बढ़ कर किसी और जगह का होना तो दूर, इनकी बराबरी भी संसार का कोई सौंदर्य स्थल नहीं कर सकता। अल्मोड़ा के पहाड़ों में करीब तीन सप्ताह का समय बिताने के बाद मैं बहुत ज्यादा आश्चर्यचकित हूँ कि हमारे यहाँ के लोग बेहतर स्वास्थ्य की चाह में यूरोप क्यों जाते हैं, जबकि यहीं भारत का स्विटजरलेंड मौजूद है।’ उनका वह ध्यान केंद्र आज यहां ‘अनासक्ति आश्रम’ के रूप में मौजूद है।
कौसानी हिन्दी के छायावादी कवि त्रिमूर्ति महादेवी-पंत-निराला के पंत की न केवल जन्म स्थली रही है, वरन यहीं उनका बचपन बीता और उन्होंने अपनी कवि कालजयी रचनाओं का सृजन भी यहीं किया। उनकी यांदें आज भी यहां प्रसिद्ध इतिहासकार व साहित्यकार पं. नित्यानंद मिश्रा के प्रयासों से निर्मित राजकीय संग्रहालय में अनेक दुर्लभ चित्रों के रूप में मौजूद हैं। पंत के पिता गंगा दत्त पंत कौसानी की खूबसूरती के एक प्रमुख आकर्षण, यहां उस दौर में करीब 390 एकड़ में फैले चाय बागान के व्यवस्थापक थे। यहां के चाय बागानों की गिरनार ब्रांड की चाय पहाड़ की खुशबू से लबरेज होती है, और देश ही नहीं जर्मनी, कोरिया और आस्ट्रेलिया तक निर्यात की जाती है। साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘ठेले पर हिमालय’ में कौसानी की खूबसूरती को अनेक कोणों से उकेरा है।
कौसानी के अन्य पर्यटक स्थलों में गांधी जी की लंदन निवासी शिष्या कैथरीन मेरी हेल्वमन द्वारा 1964 में निर्मित लक्ष्मी आश्रम भी है। कैथरीन 1948 में भारत आकर गांधी जी के सत्य, अहिंसा के सिद्धांतों से इतना प्रभावित हुईं कि सरला बहन के रूप में यहीं बस गईं। वह यहां कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल के तहत महिलाओं का संगठन बनाकर उन्हें स्वरोजगार से जोड़कर कार्य करती रहीं। कौसानी से 17 किमी की दूरी पर गोमती नदी के तट पर कत्यूरी शासनकाल में 12वीं सदी में बने शिव, गणेश, पार्वती, चंडिका, कुबेर व सूर्य आदि देवताओं के मंदिर के समूह बैजनाथ भी एक दर्शनीय पौराणिक व धार्मिक महत्व का स्थल है। पास ही में गरुण के पा 21 किमी की दूरी पर कुमाऊं की कुलदेवी कही जाने वाली नंदा देवी एवं कोट भ्रामरी देवी का मंदिर भी बेहद प्रसिद्ध है। बैजनाथ से 28 किमी और आगे बढ़ने पर सरयू और गोमती के संगम पर कुमाऊं की काशी कहा जाने वाला बागेश्वर नाम का स्थान है, जो पिंडारी, सुंदरढूंगा व काफनी ग्लेशियरों के यात्रा मार्ग का बेस शिविर भी है। आगे 87 किमी की दूरी पर स्थित चौकोड़ी से हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं को और भी अधिक करीब से देखा जा सकता है। बैजनाथ से ही दूसरी ओर कुमाऊँ और गढ़वाल मंडलों के मिलन स्थल ग्वालदम होते हुए स्वर्ग से भी सुंदर कहे जाने वाले बेदनी बुग्याल तक जाया जा सकता है। साहसिक खेलों के शौकीन सैलानियों के लिए यहां ट्रेकिंग, रॉक क्लाइबिंग के प्रबंध भी उपलब्ध हैं।
यहां पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर-178 किमी, निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम-178 किमी तथा दिल्ली 431 किमी की दूरी पर है। मार्च-अप्रेल एवं सितंबर-अक्टूबर कौसानी सहित सभी पर्वतीय पर्यटक स्थलों की सैर एवं प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के लिए सवसे बेहतर समय है, अलबत्ता गर्मियों में भी यहां शीतल जलवायु के लिए आया जा सकता है। कौसानी के प्रेमियों में गांधी जी के साथ ही अनेक अन्य खास हस्तियां भी शामिल हैं, इनमें पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के अलावा यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी, पूर्व कंेद्रीय मंत्री डा. कर्ण सिंह व अरुण शौरी के साथ प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं, जो कमोबेश हर वर्ष यहां आते रहते हैं।

Originally View at My New Website : www.navinjoshi.in http://navinjoshi.in/tourism/kausani/

Navigation

[0] Message Index

[#] Next page

[*] Previous page

Sitemap 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 
Go to full version