Author Topic: Journalist and famous Photographer Naveen Joshi's Articles- नवीन जोशी जी के लेख  (Read 71915 times)

dramanainital

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navin jee lekhon me dam bhee hai,taqat bhee aur sachchaaee bhi.kripayaa post karte rahe .dhanyawaad

नवीन जोशी

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कुमाउनी कविता:  ढुड.
ढुड. जब घन्तर बणनीं
ठुल-ठुल एकना्ली-द्विना्ली लै
सिलाम करनीं उनूकैं
ट्याड़-ट्याड़नैकि कपा्ई फोड़ि
करि दिनीं सिदि्द,
कूनीं-
झन करिया कुकाम
झन जाया कुबा्ट।
मैंस जब-जब भबरीनीं
ढुंड. है जानीं तिख
बुड़नीं खुटों में
करि दिनीं ल्वेयोव
कि ढ्या्स लागि
घुर्ये  दिनीं भ्योव
पुजै दिनीं पताव।

मैंस जब जा्नीं भा्ल बा्ट
ढुड. बणि जा्नीं द्याप्त
क्वे ग्वल्ल, क्वे गंगनाथ
क्वे ब्रह्मा, बिश्णु, महेश लै
गाड़ में बगि-बगि बेर
गंगल्वाड़ बणि जानीं शिवलिंग
भलि अशीक दिनीं
जि मांगौ दि दिनीं।

जांणि कतू काम
मस्याल घैसंण, धान कुटंण, ग्युं पिसंण
गा्ड़-कुड़, इचा्ल-कन्हा्व
कां न ला्गन ढुड.
औंव खून लागि गयौ
घ्यू में छौंकि चाटी जानीं ढुड.।

पर आज
ढुड.ौकि  के कदर न्है
लत्यायी, जोत्याई
बुसिल-पितिल समझि
ख्येड़ी-फोड़ी
द्वि-द्वि डबल में गा्ड़-स्या्र खंड़ि
बेची जांणईं ढुड.।

भो यै ढुड.
यं आजा्क बा्टाक रर्वा्ड़
बंणि जा्ल `माइलस्टोन´
ल्येखी जा्ल इनूं पारि
बखता्क कुना्व
शिलालेख बंणि जा्ल यं
सुंई-सुंई बेर ढुनि
छजाई जा्ल संग्रहालयों में
पहरू द्या्ल इनर पहर
डबल लागा्ल इनूकैं द्यखणा्क।

पै कि फैद
मरी पितर भात खवै
जब ज्यून छनै
निकरि इनैरि फिकर
खालि मारि लात।
यस न हओ
तब जांलै
घ्वेसी-घ्वेसी बेर
यं रेत है जा्ल, मटी जा्ल।

हिन्दी भावानुवाद

पत्थर

पत्थर जब पथराव में प्रयोग किऐ जाते हैं
बड़ी बड़ी बन्दूकें भी
उन्हें सलाम ठोकती हैं
टेढ़े से टेढ़े लोगों को भी सिर फोड़
कर देते हैं सीधा,
कहते हैं-
न करना बुरे काम
न जाना गलत रास्ते।
लोग जब-जब रास्ता भटकते हैं
पत्थर नुकीले हो जाते हैं
चुभते हैं पांवों में
कर देते हैं खून ही खून
या फिर
धकिया देते हैं पहाड़ियों से
पहुंचा देते हैं पाताल।

लोग जब अच्छे रास्ते जाते हैं
पत्थर देवता बन जाते हैं।
कोई ग्वल, कोई गंगनाथ
कोई ब्रहमा, बिष्णु, महेश भी
नदी में बहते हुऐ
नदी के पत्थर बन जाते हैं शिवलिंग से
अच्छी आशीष-
जो मांगो, दे देते हैं।

जाने कितने काम
मसाला पीसने, धान कूटने, गेहूं पीसने
खेत, मकान, नींचे-ऊपर
क्हां नहीं लगते पत्थर
आंव-खून लग जाऐ तो
घी में छौंक कर चाटे भी जाते हैं पत्थर।

पर आज
पत्थरों की कोई कद्र नहीं
ठोकर मारी जा रही उन्हें
कमजोर-बेकार समझते हुऐ
फेंके-तोड़े
बेहद सस्ते में उपजाऊ खेत, चरागाह खोदकर
बेचे जा रहे हैं पत्थर।

कल यही पत्थर
बन जाऐंगे `मील के पत्थर´
लिखी जाऐंगी इन पर
वक्त की कुण्डलियां
शिलालेख बन जाऐंगे यह
सूंघ-सूंघ कर तलाशे जाऐंगे
सजाऐ जाऐंगे संग्रहालयों में
सैनिक करेंगे इनकी सुरक्षा
पैंसे लगेंगे इनके दर्शनों के।

पर क्या फायदा
दिवंगत पूर्वजों पर
सर्वस्व न्यौछावर कर भी
जब जीवित रहते
न की उनकी फिक्र
कहीं ऐसा न हो
तब तक यह
घिस-घिस कर ही
रेत हो जाऐं, मिट्टी हो जाऐं।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Joshi Ji,

Thanks a lot for sharing such interesting articles in poems with us. I am sure Merapahad community members must be liking / enjoying the poems and the articles.

नवीन जोशी

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कुमाउनी कविता : ज्यूनि अर मौत

ज्यूनि अर मौत
छन गाड़ाक द्वि किना्र
बिन पुरि गाड़ तरि
फटक मारि नि मिलि सकन द्वियै
ए दुसरा्क पिरेमी दिन भर
ए दुसा्र कैं टाड़ै बै
निमूनीं तीस चै-चै
पर रात में जब सब सिति जा्नीं
द्वियै मिलनीं
मैंस कूनीं-
हम नींन गा्ड़नयां।

उं ए दुसा्र कैं भेटनीं
अंग्वाल खितनीं
लाड़ करनीं-प्यार करनीं
जांणि को-को लोकन में
जां इकलै न ज्यूनि जै सकें
न मौत
वां घुमनीं,
मैंस कूनीं-
हम स्वींण द्यखनयां।

घुमनै-फेरीनै
कब रात ब्यै जैं
पत्तै न चलन
उं ए दुसा्र कैं छोड़नै न चान
मैंस य बखत बिजण न चान।
फिर जदिन अथांणि है जें
ज्यूनि मौता्क तिर पुजि जैं
कि मौतै...
ज्यूंनि कैं ल्हिजांण हुं ऐ जैं।

जनम-जनमा्क
दुणिया्क सबूं है ठुल पिरेमी
मिलि जा्नीं
इकमही जा्नीं
खुसि इतू है जैं
डाड़ ऐ जैं
मैंस लै डाड़ मारंण भैटनीं
फूल चड़ूनीं उना्र मिलंण पा्रि।

जुग-जुगन तलक
रूनीं फिरि उं दगड़ै
पर, मिलंण-बिछुड़ंण
दुणियौ्क नियम...
ए दिन मौत रिसै बेर
छ्वेणि दिं ज्यूनिक दगड़,
डाड़ मारंण फैटि जें ज्यूंनि
डाड़ मारंन-मारनै
बिछुड़ण पड़ूं मौत बै
जांण पड़ूं
नई लुकुण पैरि
नईं दुनीं में,
बंणि बेर नई काया
वां मिलें उकें
मौतैकि जौंया बैंणि माया
वीकि´ई चारि
द्येखींण चांण...

उकें वी समझि
लागि जैं उ
वीकि पिछाड़ि।
हिंदी भावानुवाद :
ज़िन्दगी और मौत
हैं नदी के दो किनारे
बिना पूरी नदी पार किए
या कूद कर नहीं मिल सकते दोनों

एक दूसरे के प्रेमी दिन भर
एक दूसरे को दूर से ही
देख-देख कर
बुझाते है प्यास।

पर रात में जब सब सो जाते हैं
दोनों मिलते हैं
लोग कहते हैं-
हम सो रहे हैं।
वह एक दूसरे को बाँहों में भरते हैं
लाड़-प्यार करते हैं

जाने किस-किस लोक में
जहाँ न अकेले जीवन जा सकता है
और न मौत
वहाँ घूमते हैं।
लोग कहते हैं-
हम सपने देख रहे हैं।

घूमते-फिरते
कब रात बीत जाती है
पता ही नहीं चलता,
वे एक दूसरे को छोड़ना ही नहीं चाहते
इस समय लोग जगना ही नहीं चाहते।

फिर जिस दिन सहा नहीं जाता
ज़िन्दगी मौत के पास पहुँच जाती है
या मौत ही
ज़िन्दगी को ले जाने आ जाती है।
जन्म-जन्म के
दुनियां के सबसे बड़े प्रेमी
मिल कर एक हो जाते हैं

ख़ुशी इतनी हो जाती है
कि आँखों से आँसू झरने लगते हैं।
लोग भी रोने लगते हैं
फूल चढ़ाते हैं उनके मिलन पर।

युग-युगों तक
फिर रहते हैं वो साथ
पर मिलना-बिछुड़ना दुनिया का नियम
एक दिन मौत नाराज़ हो
छोड़ देती है जीवन का साथ
रोने लगती है ज़िन्दगी
रोते-रोते भी
बिछुड़ना पड़ता है उसे मौत से

जाना पड़ता है
नऐ वस्त्र पहन
नई दुनिया में
बन कर नई काया।

वहाँ मिलती है उसे
मौत की जुड़वा बहन `माया´
उसी की तरह
दिखने वाली,
उसे वही समझ
लग जाता है वह
उसी के पीछे।

नवीन जोशी

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कुमाउनी कविता: झुठि सांचि

को मानौल मेरि सांचि
जब मैं कूंल-
सांचि हैं कई परकारैकि

सिति बेर पुठ मुणि धर्ति
ठड़ी बेर खुटों मुणि धर्ति
च्नरमा में जै बेर है सकूं
ख्वार मांथि हवो धर्ति
त य हुनीं सांचिक परकार-

सिती सांचि अलग, बिजी सांचि अलग

भैटी सांचि, ठड़ी सांचि, उठी सांचि
आंखौंल द्येखी, क्ानौंल सुंणी
हाततोल ठौक लगायी सांचि
पुरांणि सांचि-नईं सांचि
झुठि सांचि-सांचि झुठि

और एक उ लै सांचि
ज्ो ब्ाबुल झुठि सिखै-
`सांचि पुन, झुठि बुलांण पाप´

सांचि त अच्यान
हैगे-सबूं है ठुलि पाप
हुंणौ निलाम हर चौबाट में
द्रोपदिक चीराक भैं
उभी न रै सकनै्य
झुठिकि ताकतै सामुंणि ।

को मानौल म्येरि सांचि
जब मैं कूंल-
भगवान लै हुनीं

द्वि परकार्ाक
एक उं
जो हमूकैं पैद करनीं
दुसार उं
जनूं कैं हम पैद करनूं
उनैरि मूरत बनै
क्वे चालौ
जोर-जोरैल
हुत्तै आंग झुमै
जै-जै करि नाचनूं
आफ्फी लै द्याप्त बंणि जानूं
कुकुड़-बकार मांगनू
उनार नौं पारि
दुकान चलूनूं।


हिंदी भावानुवाद

कौन मानेगा मेरा सच
जब मैं कहूँगा-
सच होता है कई प्रकार का।

सोते हुए पीठ के नीचे धरती
खड़े होते हुए पाँवों के नीचे धरती
और चन्द्रमा में जाकर हो सकता है
सर के ऊपर हो धरती,
तो हुआ न सच कई प्रकार का ?

सोते हुए का सच अलग, जागे हुए का सच अलग
बैठे, खड़े व 'उठे' हुए के सच भी अलग अलग
आँखों देखा, कानों सुना
हाथों से छुवा, जीभ से चखा,
तोड़ा-मरोड़ा सच भी अलग
फिर पुराना सच-नया सच
झूठा सच-सच्चा झूठ

और एक वह सच भी
जो पापा ने झूठ सिखाया था
"सच पुण्य और झूठ बोलना पाप"

सच बोलना तो आजकल
हो गया है सबसे बड़ा पाप
हो रहा है नीलाम हर चौराहे में
द्रौपदी की चीर की तरह
ठहर नहीं पा रहा
झूठ की ताकत के समक्ष

कौन मानेगा मेरी सच
जब में कहूँगा-
भगवान भी होते हैं
दो प्रकार के

एक वे
जो हमें पैदा करते हैं,
और दूसरे वो
जिन्हें हम पैदा करते हैं
उनकी मूर्ति बना
कोइ देख रहा हो तो
ज़ोर ज़ोर से
पहले सर और फिर
पूरे शरीर को भी झूमाकर
जय-जय कर नाचते भी हैं,
ख़ुद भी देवता बन जाते है,
बड़े-बड़े उपदेश देते हैं
जो जितना चढ़ावा चढ़ाये
उतना ही प्रसाद देते हैं,

वी०आई०पी० आ जाएँ तो
उन्हें अन्दर लाने
खुद मंदिर से बाहर भी निकल आते हैं।
परेशान लोगों के दुख हरने के बदले
मुर्गियाँ-बकरियाँ माँगते हैं,
उनके नाम पर राजनीति करते हैं...
दुकान चलाते हैं....

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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Respected Joshi ji. Mujhe aapne ke dwara likhe har article babut pasand hai. Please keep it up.!

हेम पन्त

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नवीन दा बहुत बढिया छन तुमरि कविता और लेख... हमुन अपना नय्या-पुरान लेख और कविता पढाते रया हाँ..

नवीन जोशी

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[justify]विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में उत्तराखण्ड का इतिहास
उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ।
अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
सम्भवतया इस कारण कि यहां के लोग रूस को भारत आने का रास्ता न दे दें, अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कानूनों को शिथिल रखा। इसका एक कारण अंग्रेजों को इस भूभाग का भौगोलिक तौर पर उनके अपने घर जैसा होना भी एक कारण हो सकता है। सो, कंपनी सरकार ने इस क्षेत्र को पूरे देश से हटकर `नॉन रेगुलेटिंग प्रोविंस´ घोषित किया। यहां का कमिश्नर सीधे वायसराय के अधीन होता था। वह `स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार´ कानून बनाता था, उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जैसे न्यायिक अधिकार भी थे। जबकि देश के अन्य क्षेत्रों के लिए `कोर्ट ऑफ डायरेक्टर´ कानून बनाते थे। इसलिए यहां पारंपरिक कानूनों को बहुत अधिक महत्व दिया गया। इससे यहां गांव की पंचायतों एवं घर के बुजुर्ग भी जैसे संपत्तियों के बंटवारे आदि में कोई बात कहते थे, तो उसे कानून की मान्यता थी। जबकि देश के अन्य क्षेत्रों में मिताक्षर कानून, जिन्हें `मनु के नियम´ भी कहा जाता है। इसी पर आज यूपी में `मनुवादी´ जैसे शब्द प्रचलित हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि यहां `मनुवादी सोच´ नहीं रही।
अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया।
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोखाZली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई।
                                                                                                                                (इतिहासविद् प्रो. अजय रावत से बातचीत के आधार पर)


नवीन जोशी

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'ब्रिटिश कुमाऊं' में भी गूंजे थे जंगे आजादी के 'गदर' में विद्रोह के स्वर
उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियां 1857 में देश के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों से विद्रोह के अधिक अनुकूल नहीं थीं। सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों के 1815 में आगमन से पूर्व यहां के लोग गोरखों का बेहद दमनात्मक राज झेल रहे थे, वरन उन्हें ब्रिटिश राज में कष्टों से कुछ राहत ही मिली थी। इसके बावजूद यहां भी जंगे आजादी के पहले 'गदर' के दौरान विद्रोह के स्वर काफी मुखरता से गूंजे थे।
इतिहासकारों के अनुसार ´ब्रिटिश कुमाऊं´ कहे जाने वाले बृहद कुमाऊं में वर्तमान कुमाऊं मण्डल के छ: जिलों के अलावा गढ़वाल मण्डल के चमोली व पौड़ी जिले तथा रुद्रप्रयाग जिले का मन्दाकिनी नदी से पूर्व के भाग भी शामिल थे। 1856 में जब ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कंपनी के विरुद्ध देश भर में विद्रोह होने प्रारंभ हो रहे थे, यह भाग कुछ हद तक अपनी भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण इससे अलग थलग भी रहा। 1815 में कंपनी सरकार यहां आई, जिससे पूर्व पूर्व तक पहाड़वासी बेहद दमनकारी गोरखों को शासन झेल रहे थे, जिनके बारे में कुमाऊं के आदि कवि ´गुमानी´ ने लिखा था ´दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ यानि गोरखे इतना शासकीय भार जनता के सिर पर थोपते थे, कि किसी के सिर में बाल ही नहीं उग पाते थे। लेकिन कंपनी सरकार को उर्वरता के लिहाज से कमजोर इस क्षेत्रा से विशेश राजस्व वसूली की उम्मीद नहीं थी, और वह इंग्लेण्ड के समान जलवायु व सुन्दरता के कारण यहां जुल्म ढाने की बजाय अपनी बस्तियां बसाकर घर जैसा माहौल बनाना चाहते थे। इतिहासकार पद्मश्री डा. शेखर पाठक बताते हैं कि इसी कड़ी में अंग्रेजों ने जनता को पहले से चल रही कुली बेगार प्रथा से निजात दिलाने की भी कुछ हद तक पहल की। इसके लिए 1822 में ग्लिन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने लोगों के विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण भी कराए। उसने इसके विकल्प के रूप में खच्चर सेना गठित करने का प्रस्ताव भी दिया था। इससे लोग कहीं न कहीं अंग्रेजों को गोरखों से बेहतर मानने लगे थे, लेकिन कई बार स्वाभिमान को चोट पहुंचने पर उन्होंने खुलकर इसका विरोध भी किया। कुमाउंनी कवि गुमानी व मौला राम की कविताओं में भी यह विरोध व्यापकता के साथ रहा। उधर `काली कुमाऊं´ में बिश्ना कठायत व आनन्द सिंह फर्त्याल को अंग्रेजों ने विरोध करने पर फांसी पर चढ़ा दिया, जबकि प्रसिद्ध  क्रांतिकारी कालू महर को जेल में डाल दिया गया। ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्सा रहे श्रीनगर में अलकनन्दा नदी के बीच पत्थर पर खड़ा कर कई क्रान्तिकारियों को गोली मार दी गई। 1858 में देश में ईस्ट इण्डिया कंपनी की जगह ब्रिटिश महारानी की सरकार बन जाने से पूर्व अल्मोड़ा कैंट स्थित आर्टिलरी सेना में भी विद्रोह के लक्षण देखे गए, जिसे समय से जानकारी मिलने के कारण दबा दिया गया। कई सैनिकों को सजा भी दी गईं। अंग्रेजों के शासकीय दस्तावेजों में यह घटनाएं दर्ज मिलती हैं, पर खास बात यह रही कि अंग्रेजों ने दस्तावेजों में कहीं उन क्रान्तिकारियों का नाम दर्ज करना तक उचित नहीं समझा, जिससे वह अनाम ही रह गऐ।

हल्द्वानी में मारे गए थे 114  विद्रोही रुहेले

1857 में रुहेलखण्ड के रूहेले सरदार अंग्रेजों की बस्ती के रूप में विकसित हो चुकी `छोटी बिलायत´ कहे जाने वाले नैनीताल को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे। वह नैनीताल पर चढ़ाई करने के लिए हल्द्वानी तक पहुँच गए थे,  पर 17 सितम्बर 1857 को तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें हल्द्वानी के बमौरी दर्रे व कालाढुंगी से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस कवायद में 114 स्वतंत्रता सेनानी क्रान्तिकारी रुहेले हल्द्वानी में शहीद हुए।  उनकी असफलता का कारण उन्हें स्थानीय लोगों से समर्थन व सहयोग न मिलना भी बताया जाता है ।


तात्या टोपे को नैनीताल में फांसी दी गयी !1857 में ग़दर के daram तत्कालीन कमिश्नर हैनरी रैमजे ने नैनीताल में तीन से अधिक व अल्मोड़ा में भी कुछ साधु वेशधारी क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। नैनीताल का फांसी गधेरा (तत्कालीन हैंग मैन्स वे) आज भी इसका गवाह है। प्रो. पाठक इन साधुवेश धारियों में मशहूर क्रांतिकारी तात्या टोपे के भी शामिल होने की संभावना जताते हैं, पर दस्तावेज न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं हो पाती।


इसी दौरान पैदा हुआ उत्तराखंड का पहला नोबल पुरस्कार विजेताएक ओर जहां देश की आजादी के लिए पहले स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, ऐसे में रत्नगर्भा कुमाऊं की धरती एक महान अंग्रेज वैज्ञानिक को जन्म दे रही थी। 1857 में मैदानी क्षेत्रों में फैले गदर के दौरान कई अंग्रेज अफसर जान बचाने के लिए कुमाऊं के पहाड़ों की ओर भागे थे। इनमें एक गर्भवती ब्रिटिश महिला भी शामिल थी, जिसने अल्मोड़ा में एक बच्चे को जन्म दिया। रोनाल्ड रॉस नाम के इस बच्चे ने ही बड़ा होकर मलेरिया के टीके की खोज की, जिसके लिए उसे चिकित्सा का नोबल भी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

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