कभी कागज़ पर लिख लिया,
कभी फेसबुक पर,
कभी घर की दीवारों पर चीखे,
तो कभी टेलीविजन पर,
कभी दुनियां पर,
कभी धर्म पर,
कभी समाज की झूठी नैतिकताओं पर,
तो कभी किसी की विकृत मानसिकता पर.
कभी रोता है,
तो कभी सोच में घंटो गुज़ार देता है,
एकांत में ही संवेदनाएं जागृत होती हैं,
रोज़मर्रा के कामों में कहाँ कोई खुद के बारे में सोचता है?
और कहाँ कोई दूसरों के बारे में सोचता है?
गुस्सा आता है,
अपने लिए भी,
और दूसरों के लिए भी,
अपने पर भी,
और दूसरों पर भी,
एक लाचार व्यक्ति संवेदनशील होने का दर्द यों ही व्यक्त कर पाता है.