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Poems By Vikam Negi 'Boond"- विक्रम नेगी "बूंद" की कवितायें तथा लेख

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
पहाड़ के पलायन की व्यथा को  व्यक्त करती मैंने वर्तमान में इससे बेहतर कविता अभी तक नहीं पडी! युवा कवि
विक्रम नेगी की कुछ कविताये यहाँ पर पोस्ट कर रहा हूँ जो हमें सोचने को मजूर करती है आंखिर कब तक पहाड़
के दुःख पहाड़ जैसे रहंगे और वर्तमान में किस स्थिति से गुजर रहा है पहाड़ ! लेकिन यह कवि लिखता अंत में याद रखना "हमारा पहाड़ अभी मरा नहीं है वो जिंदा है...हमारा पहाड़ पलटकर तुम्हें जवाब देगा....इंतज़ार करो... "
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पहाड़ एक ही था,
तुमने दो कर दिए,
सीधे-सादे पहाड़ के ऊपर तुमने
अपना पहाड़ खड़ा कर लिया,
हमारे पहाड़ के कपड़े उतारकर
तुमने अपने पहाड़ को पहना दिए,
तुम्हारा पहाड़ मोटा होता गया
हमारा पहाड़ सिर्फ हाड़ रह गया
तुम्हारे पहाड़ के बोझ से
हमारे पहाड़ ज़मीन में धंस रहा है
तुमने खूब मजे किए
हमारे पहाड़ की बेचैनी को रिकॉर्ड करके
तुमने खूब मोटी-मोटी किताबें लिखी
हमारे पहाड़ के आंसुओं पर

याद रखना
हमारा पहाड़ अभी मरा नहीं है
वो जिंदा है...
हमारा पहाड़ पलटकर तुम्हें जवाब देगा....
इंतज़ार करो... (By Vikram Negi)
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पंकज सिंह महर:
यह कहावत आम है –
कि जितने टेढ़े-मेढे,
ऊबड़-खाबड़ होते हैं पहाड़-
उतने ही सीधे-सादे होते हैं पहाड़ी लोग.
और जितने सीधे होते हैं मैदान-
उतने ही टेढ़े होते हैं मैदानी लोग.
पहाड़ से पहली बार
मैदानों का सफ़र करने वाले
वापसी में अक्सर सुनाते हैं ऐसे किस्से-
छले जाने के,
लूटे जाने के,
ठगे जाने के...!

लूटे जाने, छले जाने, ठगे जाने के किस्से
कभी खत्म नहीं होते,
ठीक उसी प्रकार-
जैसे कुछ आदतें कभी नहीं बदलती...!
पहाड़ी लोग
पहाड़ को नंदीग्राम, सिंगूर या भुट्टा-पारसोल
बनाना नहीं चाहते..
इसलिए वे चुपचाप औने-पौने दामों में
लुटने देते हैं अपनी तराई की ज़मीनें
क्योंकि यह कहावत भी आम है-
कि पहाड़ी शांतिप्रिय होते हैं...!

और यह बात भी आम है-
कि जितनी ऊँची होती हैं पहाड़ियां
उतने ही नाटे कद के होते हैं पहाड़ी लोग.
ठीक उसी तरह
जिस तरह चमकते हैं पहाड़-
फ़िल्मी पर्दे पर
और रामू काका की तरह
किसी बड़े से रिजोर्ट में चौकीदारी करते हैं-
पहाड़ी लोग...!

पहाड़ी लोगों की नाक
प्राकृतिक रूप से नहीं
बल्कि सामाजिक रूप से ऊँची होती है
गरीब होकर भी
गरीब नहीं होते हैं पहाड़ी लोग
पहाड़ी भीख नहीं मांगते.
कहावत यह भी है...!

कोई घोड़े में चढ़ता है
तो पहाड़ी लोग छत में चढ़ जाते हैं
इसलिए मनोहर श्याम जोशी कहते हैं
कि पहाड़ियों की नज़र में
कोई भी चीज़ फर्स्ट क्लास नहीं होती
हर चीज़ सेकंड क्लास होती है...!

क्या यह अंतिम कहावत है-
कि पहाड़ी या तो पर्वतारोही होते हैं
या फिर सिर्फ़ दिल्ली में बर्तन धोते हैं...?
--
(बूंद)
15 अक्टूबर 2013
रात्रि 8: 23 (डीडीहाट)

पंकज सिंह महर:
क्या लिखें....?
यह कि लिखना जरुरी है.
या फिर यह लिखें
कि चुप रहना ज्यादा खतरनाक है.

लिखें
सिर्फ़ इसलिए कि पढ़ा जाएगा.
या फिर इसलिए
कि कोरे कागज़ असमर्थ हैं
बात कहने में.
लिखें इसलिए कि
लिखे हुए को कभी लड़ा जाएगा.

भावों की वो कौन सी इबारत है
जो स्याही से रंगने की साजिश में
अब तक पढ़ी नहीं गयी...?

शब्दों की वो कौन सी इमारत है
जो कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि की शक्ल में
अब तक गढ़ी नहीं गयी...?

क्यों लिखें..?
इसलिए कि कुछ है जो लिखा नहीं गया.
या फिर इसलिए
कि कुछ था जो पढ़ा नहीं गया.

लिखें इसलिए
कि अदब को एक और लेखक की जरुरत है.
या फिर लिखें इसलिए
कि विचार को वाहक की जरुरत है.

क्यों लिखें...?
इसलिए कि लीक से हटना जरुरी है
या फिर लिखें इसलिए
कि बड़ी कतार से छंटना जरुरी है.

(बूंद)
१४-१०-२०१३

पंकज सिंह महर:
जब घोर अँधेरा होता है, हम चुपके से रो लेते हैं.
सुबह सूर्य की किरणों से हम अपना मुँह धो लेते हैं.

हम आज में डूबे रहते हैं और कल की चिंता करते हैं,
सपनों के खेतों में अक्सर हम उम्मीदें बो देते हैं.

वो जंगल में-हम शहरों में, लड़ते हैं-बातें करते हैं,
संकट में वो, सुविधाओं में हम उनके संग हो लेते हैं.

हम विचारधारा के धागे में उनसे रिश्ता बुनते हैं.
वो गोली खाकर मरते हैं हम गोली खाकर सो लेते हैं.

(बूंद)
०८-१०-२०१३
प्रातः ०९-०९ मंगलवार

पंकज सिंह महर:
"सूर्य अस्त....पहाड़ी मस्त"
हों भी क्यों नहीं
मेहनतकश का मस्त होना कोई गुनाह है क्या...?
दिनभर की थकान के बाद थोड़े पल मस्ती के कौन नहीं चाहता.

अब कहावतें बनाना बंद कर दो पहाड़ियों के बारे में...!

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