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Poems By Vikam Negi 'Boond"- विक्रम नेगी "बूंद" की कवितायें तथा लेख

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
 मैं आज आपका परिचय उत्तराखण्ड के एक ऐसे नैजवान कवि से करा रहा हूं, जिसकी सोच परिवर्तनकामी है, जिसकी सोच में नास्टेलजिया से ज्यादा कुछ कर गुजरने की तमन्ना है। खैर ये सब तो आप उनकी कविताओं से समझ जायेंगे, मैं आपको उनका परिचय दे दूं।
 
श्री विक्रम नेगी जी "बूंद" उपनाम से कवितायें लिखते हैं, मूलरुप से बागेश्वर जनपद के निवासी नेगी जी की पढ़ाई पिथौरागढ में ही हुई है और वह शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं। अपने व्यस्ततम क्षणों में भी उन्हें समाज और साहित्य की फिक्र है, जो उनको औरों से जुदा करती है। श्री नेगी "विहान" नामक एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन भी करते हैं।

 नेगी जी की कविताओं में आप अपना "धौंकार" पायेंगे, जो आपके दिल में है, लेकिन आप व्यक्त नहीं कर पाते नेगी जी उन्हें आसान से शब्द देकर हमारे दिल की आवाज को साहित्य बना देते हैं। तो फिर उनकी कविताओं में खोया जाय.....

विक्रम नेगी:
मुझे फोरम में अपनी कविताओं को पेश करने के लिये आपका धन्यवाद, मेरी एक रचना

आओ
पहाड़ आओ,
अपने कैमरे साथ ले आना
झोड़ा-चांचरी, छोलिया नृत्य,
सातूं-आठूं, जागर,
सब कैद कर ले जाओ,
दो-चार बूढ़ी हड्डियां तुम्हें हर गांव में मिल जाएँगी,
जिनके साथ तुम थोड़ी देर हुक्का गुडगुडा सकते हो,
दो-चार मडुवे की रोटियां तोड़कर उनके साथ
तुम वो सब उगलवा सकते हो
जो तुम्हें अपनी किताबों में लिखने के लिए चाहिए

आओ,
मंचों पर अपनी बेबसी की गाथा सुनाते
लोककलाकार तुम्हारे कानों को तरस रहे हैं.
और वो भी
बैठे हैं तुम्हारे इंतज़ार में
जिन्हें भ्रम है कि वो लोककलाओं को बचाने का बहुत बड़ा काम कर रहे हैं...

आओ
पहाड़ की आखिरी पारंपरिक शादी को कैद कर ले जाओ,
डोली में बैठकर ससुराल जाती आखिरी दुल्हन की तस्वीर समेट लो
तुम्हारी किताबों के मुख्य पृष्ठ पर
बहुत सुन्दर लगेगी वो तस्वीर....

आओ
पहाड़ आओ
बूढ़ी हड्डियां अब गलने लगी हैं,
मकड़ियों के जाल तुमसे पहले पहुच गए हैं,
पहाड़ के पुराने घरों की दीवारों में,
जल्दी आओ,
वरना तुम्हें निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलेगा,
दौडाओ अपने गणों को
पूछो-
कौन, कहाँ, किस गाँव में अपनी आखिरी साँसें गिन रहा है,
आने से पहले
अपने कैमरे की वोईस क्लीयरिटी चेक कर लेना
मसकबीन पुरानी हो तो आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं देती....

आओ
खत्म होती साँसें तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं...!
......

विक्रम नेगी:
पहाड़ एक ही था,
तुमने दो कर दिए,
सीधे-सादे पहाड़ के ऊपर तुमने
अपना पहाड़ खड़ा कर लिया,
हमारे पहाड़ के कपड़े उतारकर
तुमने अपने पहाड़ को पहना दिए,
तुम्हारा पहाड़ मोटा होता गया
हमारा पहाड़ सिर्फ हाड़ रह गया
तुम्हारे पहाड़ के बोझ से
हमारे पहाड़ ज़मीन में धंस रहा है
तुमने खूब मजे किए
हमारे पहाड़ की बेचैनी को रिकॉर्ड करके
तुमने खूब मोटी-मोटी किताबें लिखी
हमारे पहाड़ के आंसुओं पर

याद रखना
हमारा पहाड़ अभी मरा नहीं है
वो जिंदा है...
हमारा पहाड़ पलटकर तुम्हें जवाब देगा....
इंतज़ार करो...

विक्रम नेगी:
आओ,
पहाड़ आओ,
टूटी-फूटी सड़कों ने अपने ज़ख्म भर लिए हैं,
तुम्हारी गाड़ियों के टायरों को अब थकान महसूस नहीं होगी,
पहाड़ इतना भी बेशर्म नहीं है
कि तुम्हारा ख्याल न रखे

आओ,
पहाड़ बेचैन है,
तुम्हारी यात्राओं का वर्णन सुनने के लिए,
न जाने कितनी बार तुम पहाड़ की छाती पर टहलते हुए निकले,
अस्कोट से आराकोट

आओ,
पहाड़ जानना चाहता है
अपनी कीमत,
जो तुम्हारी किताबों में प्रिंट है,
उसे सिर्फ इतना पता है
कि लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, रेता, बजरी से बना
उसका जिस्म रोज बिकता है,

वो समझना चाहता है कि
उसकी आबरू, उसकी संवेदनाओं की कीमत कैसे तय होती है,
पहाड़ देखना चाहता है,
तुम्हारी मोटी-मोटी किताबें,
उसे मालूम नहीं तुम्हारा अर्थशास्त्र,
पहाड़ की गणित कमज़ोर है,

उसे पता नहीं था,
कि वो इतना कीमती है,
पहाड़ अनपढ़ है,
उसे तुम्हारी तरह लिखना नहीं आता,
पहाड़ सुनना चाहता है,
अपना दर्द
तुम्हारी जुबानी,
आओ,
घाट का पुल तुम्हारे इंतज़ार में आँखें बिछाए खड़ा है.....!
...
"बूँद"
२३ मई २०१२

विक्रम नेगी:
नेताओं ले देश मेरो बुकै हैलो
भारत माताक शीश झुकै हैलो

धर्म, जाति आड़ लिबे, दंग यो करुनी
एक भै कैं दूसर भैक दगाड यो लडूनी 
मारकाट करी दिल दुखै हैलो
भारत माताक शीश झुकै हैलो

महंगाईक मार हैगे, जनता बीमार रैगे
पाणी लै बेचाण भैगो, प्यास आब प्यास रैगे
जनताक धन क्वाड लुकै हैलो
भारत माताक शीश झुकै हैलो

किसान बेहाल छन, मजूर छन निराश
लौंड बेरोजगार भैरी, लिबे खाली आस
देशक विकास यसी रुकै हैलो
भारत माताक शीश झुकै हैलो

लट्ठी-डंड थमेबेर लौंडों कै भड्कूनी
आपुण फैद लिजी फिर शराब पिलूनी
लौंड-मौडूंक सारै खून सुखै हैलो
भारत माताक शीश झुकै हैलो
___
विक्रम नेगी “बूँद”
२००५, पिथौरागढ़

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