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प्रसिद्ध लेखक डा. दिनेश चमोला “शैलेश” जी की रचनाएं

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हेम पन्त:
डा. दिनेश चमोला ‘शैलेश’ की कहानीः
इंतजार

इमरती पफूल परी सी घर के आंगन में ठुमकती, गौरैÕया सी पुफदकती, अपने छोटे भाई नरेंद्र के साथ चुला भन्नि ;घर-घर का खेल खेलती रहती। दुख-दारिद्रय भरे संसार से कोशों दूर ये अपने बालपन के स्वार्गिक संसार में हरिण शावकों से कुलांचे भरते थे। उदास मां अरुणा ओखली में धन कूटती रहती। अपने दोनों बच्चों का सुख ऐश्वर्य भरा संसार देखती तो पहाड़ के डगमग लाल बुरांश की तरह खुशी से महक उठता मन।
नैणी डांडा के घटाटोप आकाश की ओर दृष्टि जाती तो भीतर तक टूट जाती मां। गहरी श्वास छुई-मई की तरह खुशियों की कुमड़बत्ती को दरका देती। ऐसा ही
मनहूस अंध्ेरा काला दिन था वह, जब उसके पफौजी पति ज्वाळमुखी देवी के पूजा के उपरांत देश सीमा पर लड़ने व अगले पनौऊं के कोथी ;पांडव नृत्यद्ध तक अपनी जन्मभूमि लौटनेका आश्वासन देकर विदा हो चले थे।
तब से कितनी बार पनौ नाचे ;पांडव नृत्य हुआद्ध बड्वाल नाचे, कुल देवताओं, ग्राम देवताओं के थानों में पूजा-अर्चनाएं हुईं। लोग परदेश जा-जाकर लौट गए .........लेकिन नहीं लौटे तो इमरती के पफौजी पिता।
जब भी परदेश से सिपाही की वर्दी में कोई गांव की सीमा या सड़कों पर आता दिखाई देता- दोनों बच्चे अपने परदेश गए पिता के स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछाते ..................... लेकिन गांव की सरहद से अपलक उसे राह बदलते देख गहरे कष्ट में मन मसोस कर रह जाते। कभी-कभार गांव के ऊपर से कोई हाॅलीकाॅप्टर गुजरता तो छोटा नरेंद्र दीदीसे कहता- ‘दीदी पिताजी हमारी कुशलक्षेम जानने के लिए हैलिकाप्टर से रोज हमें देखा करते हैं ................. लड़ाई में पफुर्सत नहीं मिलती होगी ................. हमारी ही तरह पिताजी को भी हमारी याद तो आती होगी न ................. क्या उन्हें बाडुली ;हिचकीद्ध नहीं लगती होगी?’ ‘जरूर लगती होगी भुला ......... उन्हें हमें देखने का मन भी करता होगा ......... .. लेकिन .......’ कुछ न कह पाती इमरती ......... बस आंखें डबडबा जातीं।
‘दीदी कैसा नियम है भगवान का ............. जिस बात को मुंह नहीं कह पाता आंखें सब कुछ कह जाती हैं .................. क्या हमारे ये आंसू खुद पिताजी को वापस नहीं लौटा सकती? जब-तब उनके सामान्य प्रसंग भी पिताजी से जुड़ जाया करते।
कितने उत्सव, तीज-त्योहार, दीपावली-बैसाखियां बीत गईं। लेकिन न देश सीमा पर गए पिता लौटे न उनकी कोई कुशलक्षेम ही। बसुकेदार स्कूल जाते समय बग्ड्वाल देवता के मंडले ;मंदिरद्ध में माथा टेकते दोनों भाई-बहन, शिव मंदिर में रोट व गांव के घंडियाल, जाख, सिंघलास नगराजा-धरीदेवी के मंदिरों में पूजा-अर्चना करने की मनौतियां मानते कि यदि लड़ाई में गए पिताजी की कोई संत-खबर कहीं से मिल जाए या पिफर वे स्वयं लौट आए ........... तो मैती देवी के धान में चांदी का छतर चढ़ा देगी मां।
उचाणों ;मनौतियोंद्ध से पूरा काकर भरा रहता। जहां जो कुछ जांचने-पूछने की बात करता कोई .............. मां व सगे-संबंध्ी वहीं पहुंच जाते बक्या ;भविष्यवाणीकर्ताद्ध से पूछने . ........ लेकिन वही ढाक के तीन पात ................ चारों ओर हाथ लगती तो केवल निराशा।
मां गऊशाला व खेतों के कामकाज से थकी-हारी लौटती तो आग की सरसराहट पर पिताजी की स्मृतियां ताजी हो आतीं। पिताजी के जाने की बात जब वे जानना चाहते, तो पहले पल्लू को दांत से दबाए मां कष्ट में स्वयं दुखी होती .......... पिफर ढाढ़स के स्वर में कहती- ‘नरेंद्र दो माह तेरह दिन का था तब .............. और इमरती तीन साल की ...... सन् अड़सठ की बात है ........... दो महीने की छुट्टी काट कर गए थे वे ......। तेरह साल में शादी हुई थी मेरी ............. 102 सिपाहियों का जहाज लाहौल-स्पफीति दर्रे में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था ............ किसी ने कहा कि जहाज दुश्मनों के कब्जे में है ..... ...... किसी ने कहा विमान लापता हो गया है ............ किसी ने कहा अन्य पफौजियों के साथ वे भी मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं ..........।
मृतक के संस्कार भी संपÂ हुए लेकिन मैं वर्षों तक इसी आश-विश्वास में रही कि दुश्मन की कैद से मुक्त होकर अवश्य लौटेंगे वे एक न एक दिन, अपने गांव के पांडव नृत्य ;पनौ के कोथीद्ध देखने ..........। कई-कई सालों बाद कई पफौजी लौटे थे सकुशल अपने देश वापस ............ लेकिन नहीं लौटे वे .............। कुछ समय पश्चात पफौज ने उन्हें मृतक मानकर मेरी पैन्शन लगा दी इक्यावन रुपये मात्रा ............।’
निर्मोही दुनिया मारे को और मारती है ..................... जब-तब पुरानी स्मृतियों को कुरेद कर तोड़ देना चाहती अरुणा को। लेकिन देश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले पफौजी पति के देशप्रेम की लहर थी उसकी रगों में। दुर्दिन व गहरे संकटों में ही तो समय व ईश्वर परीक्षा लेते हैं मनुष्य के पौरुष की। इस परीक्षण काल में जो खरा उतर गया। उससे पिफर कौन जीत सकता है? .......... कोई नहीं ..............।
अपने बुरे दिनों में अपनों व सरकार से दिवंगत शहीद की विध्वा होने की गुहार भी लगाई अरुणा ने .......... लेकिन सब कुछ व्यर्थ। न उसे कोई मदद मिली न बेटे की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी का आश्वासन व न बेटी की शादी या अपनी गृहस्थी की सुख- सहायता ही। लेकिन इस सबसे भी टूटी नहीं अरुणा।
वह सोचा करती कि उसके स्वामी ने देश के लिए प्राणों की बाजी लगा दी .......... और वह विपरीत परिस्थितियों में छोटी सी गृहस्थी का भार भी न उठा पाए .......... तो दिवंगत वीर शहीद की पत्नी कैसी? जीवन भी तो किसी संग्राम से कम कहां है। उससे पीठ दिखाना तो निरी कायरता है। कभी-कभी इमरती मां से कहती- ‘मां .............. यह दुनियां कितनी विचित्रा है ............. हमें दया का पात्रा क्यों समझती है ............. हर बार हमसे सहानुभूति के शब्दों यरां ;अरेद्ध!, बेचारे आदि का प्रयोग कर क्यों बात करती है ................ राष्ट्र के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले सिपाहियों व देशभक्तों के परिजनों को तो नमन करना चाहिए बार-बार सबको, .......उन्हें दया के पात्रा नहीं .......... बल्कि औरों के लिए प्रेरणा का स्रोत मानना चाहिए .......।’
‘ठीक कहा है बेटी तुमने ............... इतिहास उन्हें ही याद करता है ........ जिन्होंने अपना सर्वस्व देश, जाति व समाज की खातिर अर्पित किया है ......... ऐसे वीर सैनानियों, देशभक्तों के वंशज होना भी तो पुण्य का ही पफल है बेटी .........। ईश्वर बडे़-बड़े संकट व उत्तरदायित्व उनको ही सौंपता है ........... जिनके लिए उन्हें सत्पात्रा समझता है .......।
इस सबसे प्रेरणा ले मैं विपरीत स्थितियों में भी जीवन की गाड़ी को ईमानदारी से खींच रही हूं .............। इंतजार व परिश्रम कठिन जरूर होता है लेकिन इसका पफल बहुत सुखकारी व मीठा होता है। जीवन की परीक्षा में पास ;उत्तीर्णद्ध होना भी किसी बड़ी लड़ाई जीतने से कम नहीं होता।
बस, यही गुरु मंत्रा था अरुणा का ............ अपनी टूटी गृहस्थी को कुशलतापूर्वक चलाने का। कितने कष्ट, झंझावत आए ............ कितने बुरे दिन भी ........... लेकिन मेहनत, ईमानदारी व कर्तव्यपरायणता का पल्लू कब छोड़ा उसने। अनाज, दूध् व घी बेचकर पढ़ाए-लिखाए बच्चे ............ जो भी दो पैसे मिलते उसे अपने दिवंगत पति का कृपा प्रसाद मानती।
समय ने लंबी उड़ान भरी। दुखों का पासा पलट गया .......... देखते ही देखते चार दशकों का समय चरखी के मांनिद घूम गया .............. अनाथ बच्चे बड़े हो गए समर्थ व अपने पैरों पर खड़े ............. बेटी अच्छे घर में ब्याही गई .............. दिवंगत पति की भावुक देखरेख में संपन्न हुआ सब कुछ।
पूरे चालीस साल बीत गए। ढाई महीने का नरेंद्र अब इकतालीसवें में हैं ..... चैखंभा से कार्तिक स्वामी व मौण से नैणी डांडा की पहाडि़यों बर्पफ की चादर ओढ़े गुमसुम हैं। आंगन में पोते-पोतियों के साथ खेलती है अरुणा। गांव में पिफर नाचने लगे हैं पनौ व बग्ड्वाल .............? और पूरे चालीस साल बाद अपने चिर युवा हंसमुख चेहरे में तिरंगे में लिपटा उसका वीर पफौजी पति पहुंच रहा है अपने गांव के पनौ के कोथी ;पांडव नृत्यद्ध देखने को ............ एक युग पूर्व अपने किए गए वायदे को पूरा कर मृत रूप में ...............। और एक दिन लौट आया उसका पफौजी देश प्रेमी पति जन्मभूमि वापस लाहौल-स्पफीति की हिम शिलाओं में अपने चालीस वर्ष पूर्व के यौवन को उसी तरह सुरक्षित रखते हुए।
एक युग का इंतजार समाप्त हुआ अरुणा का ..............। पूरी गमगीन ध्रती व नम नेत्रों से हजारों हिमपुत्रा गर्व से ‘भारत माता का जयनाद’ करेंगे जब मंदाकिनी के तट पर पूरे राजकीय सम्मान के साथ दाह संस्कार कर शहीद का रग-रग गंगा की कल-कल में प्रवाहित हो जाएगा ................ तब अरुणा व उसके परिवार का महकालजयी इंतजार इतिहास के पृष्ठ की अमिट ध्रोहर बन हर दृष्टि से मिला अरुणा को..... नई पीढ़ी की प्रेरणा का स्रोत होगा।
दर्शन मात्रा से पूरे चालीस वर्षों के दुख-कष्ट पुफर्र हो गए......... मानो इस जीवन के बहुत बड़े )ण से उ)ण हुई हो अरुणा। देश की रक्षा के साथ-साथ उसके साथ की वचनव(ता का अक्षरशः पालन किया देवतुल्य पतिदेव ने....... सोच-सोच भीतर तक पसीज जाती अरुणा। इस लंबे इंतजार का प्रतिपफल हर दृष्टि से मिल अरुणा को?..... आ£थक रूप में भी मिला सुकून के रूप में भी। ऐसे वीरों को शत-शत नमन।

हेम पन्त:
कहानीः-
घरौंदे की तलाश
डा. दिनेश चमोला ‘शैलेश’, डी. लिट्.इंटर का परीक्षापफल निकलने तक विशु के दोस्तों ने देश-परदेश की यात्राएं कर दी थीं। कइयों ने शहरों में नौकरी कर रहे अपने संबंध्यिों से परामर्श कर कई-कई जगह डिग्री, पाठ्यक्रमों के फार्म मंगवा दिए थे। न केवल फार्म बल्कि यह भी तय कर लिया था कि अब इसके बाद उनके जीवन का अगला पड़ाव कौन सा होगा ....... उसका गंतव्य क्या होगा .........। कई मित्रा अभी दो-दो नावों में पैर रखे हुए थे ......... कि यदि
इसमें उनका चयन हो तो अच्छा है .......... और यदि उसमें चयन हो तो उससे भी अच्छा।
कुछ संशय के मझधर में हिंडोले खा रहे थे जबकि कुछ अभी भी प्रतियोगिताओं की तैयारी कर ही रहे थे। जीवन में प्रगति तथा दुर्गति की बहुमंजिला इमारत की मैट्रिक अथवा इंटर की परीक्षा मूलभूत सोपान है। किन्हीं की जीवन दिशा की नींव मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही पड़ जाती है जबकि किसी की निर्भर रहती है इंटर के परीक्षापफल पर।
मार्ग सुनिश्चित होते ही जीवन का गंतव्य व मंतव्य भिन्न-भिन्न हो जाता है। पिफर अपनी-अपनी जीवन नदी के प्रवाह में सभी अपनी-अपनी दिशाओं की ओर तैरते चले जाते हैं।
विशु इंटरमीडिएट कालेज का न केवल होनहार छात्रा था बल्कि पिछले तीन वर्षों से विद्यालय का निर्विरोध् चुना जा रहा ‘जनरल मानीटर’ ;जी.एम. भी था। खेल से लेकर सांस्कृतिक गतिविध्यिों तक में जिले से प्रदेश स्तर का प्रतिनिध्त्वि कर चुका था वह। जब भी कभी कालेज के स्टाफ रूम में अध्यापकों के बीच अथवा खेल के मैदान में सुस्ताते हुए कैरियर की बात चलती तो सपफलता की तालिका में ग्रापफ सबसे ऊपर जाता विशु का।
बात सी पी एम टी की हो या हो आइ.आइ.टी. या अन्य किसी बड़े कंपीटीशन की ......... .... उसमें शत्-प्रतिशत सपफलता के लिए विशु की गारंटी अध्यापक से लेकर कोई भी होनहार विद्यार्थी पूरी विश्वास से देता। इस सबकी विशु न कभी सोच करता न चिंता ही।
लेकिन जंगलों में जब मवेशियां चरती रहतीं ............. आकाश में चीलों का समूह गोलाकार परिध्यिों में बराबर चक्कर काटता रहता .......... धूप की तपन से ऊब पपीहा ‘प्याऊ-प्याऊ’ कह कराहता रहता ........ सुदूर नीचे पहाड़ की तलहाटियों में मच्छर सी गाडि़यों का हुजूम हरकतें करता व चीड़ के जंगल की हवा की सांय-सांय कानों में गुपचुप भविष्य के सपनों की आहट के प्रश्न घोल जाती ................ तो विशू चीड़ की छांह में पल दो पल के लिए आंखें मूंद कल्पना के आकाश में उड़ने को उतावला हो जाता।
कल्पना की अंधेरी व दुर्गम, गुपफाओं तथा चोटियों पर सफलतापूर्वक आरोहण कर जब वह वापस यथार्थ के ध्रातल पर लौटता तो स्वयं को कहीं भी न पाकर ठिठक जाता। उसे लगता कि कल्पना व यथार्थ के इस काल्पनिक चित्रा का संबंध् सीधे-सीधे उसके वास्तविक जीवन से भी है।
संसार में प्रतिभाओं की असंख्य व असीमित संभावनाएं होती हैं अनगिनत बालक-बालिकाओं व युवाओं में। लेकिन इन प्रतिभाओं को संभावनाओं के उत्कर्ष व निष्कर्ष तक पहुंचाने के लिए आवश्यक होती हैं बहुत सी चीजें........ जिनमें सहयोग, प्रेरणा, परामर्श, प्रोत्साहन के साथ-साथ आर्थिक पहलू भी गहराई से जुड़ा
होता है। यदि सहयोग प्रेरणा, परामर्श, प्रोत्साहन शरीर रूपी गंतव्य के हाथ-पांव, बुद्धि व मन हैं तो धन इस शरीर की रीढ़।
विशु मां-बाप की बुढि़माई उम्र की संतान है। विशू की पढ़ाई का कुछ-कुछ खर्च उसनके वजीफे से मिली धनराशि से हो जाता है बाकी मां द्वारा गाय-भैंस के दूध् को बेचकर या पिफर पिताजी द्वारा जंगल की सूखी लकडि़यों की भारी गट्ठर पास के बाजारों में बेचकर मिली ध्नराशि से चलता है। विशू को अपने गरीब घर में जन्मे होने का दुख भी नहीं खलता ............ वह मानता है कि ईश्वर अपने किसी नियंत्रित संविधान के तहत ही इन्सानों को बड़े व छोटे घरों में जन्म देता है..........।
हां, यह बात कभी-कभार किसी तेज सुई की नोक की तरह अवश्य कचोटती है उसे कि जीवन के बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति में बड़ी सुविधएं आवश्यक व सहायक होती हैं। जबकि बौद्धिक क्षमताओं के होने पर भी छोटे घर के बड़े सपने संजोए बच्चे अभाव की चैखट पर दम तोड़ देने के लिए जबरन बाध्य हो जाते हैं। कभी-कभी विशू को लगता कि उसकी बौद्धिक पराकष्ठा का यही अंतिम गंतव्य स्थल है।
बड़ी-बड़ी सेवाओं में जाने का वह स्वप्न भर देख सकता है, उन स्वप्नों को व्यावहारिक रूप से साकार करने का साहस अभी उसमें नहीं है। यद्यपि अपने परिश्रम व संघर्ष के बल पर वह किसी भी कंपीटीशन में कामयाब हो जाने का शत-प्रतिशत विश्वास भी रखता है लेकिन इस सबका आर्थिक बोझ उठा पाने के लिए अपने परिवार को सर्वथा असमर्थ पाता है।
वही जानता है कि सरकारी स्कूल की सीमित पफीस को भी उसके बूढ़े पिता कैसे लंगड़ाते-लगड़ाते अदा करते रहे हैं। पाठ्यक्रम की संपूर्ण अवधि में खर्चा जुटाने की बात तो दूर केवल पफार्म भरने आदि के लिए भी उसे दिन में तारे दिख जाते हैं। फिर भी साध्नों की झोपड़-पट्टी में उसके पिता महलों का सा साहस जुटाए रहते हैं। एक दिन विशू को खिन्न देख कहा था बूढ़े पिता ने-
‘बेटा! मैं सांसारिक गरीब हूं ........... मन का बहुत अमीर हूं ......... तुम जहां जाना चाहो ............. जाओ ............. एडमिशन के खर्चे के लिए बकरियों का गोठ आध बेच दूंगा ............... रही बात माहवारी तुम्हें खर्चा भेजने की ................... वह भी जब तक जंगल में लकडि़यां रहेंगी व घर में बकरियां तथा ब्याही गाय व भैंस ......... ईश्वर की कृपा से पूरा होता रहेगा ..............। कभी बकरी या उसका बच्चा बिक गया, कभी घास-दूध् या फिर लकडि़यां ....... तो कुछ न कुछ बिकता ही रहेगा ........ इससे तुम्हारी फीस का जुगाड़ तो हो ही जाएगा .......... रहा हमारे खाने-पीने का ................. उसके लिए भी भगवान कुछ न कुछ साध्न अवश्य जुटा देंगे ............ जिसने सिर दिया है ......वह अवश्य सेर भी देगा ............ इसलिए जब तक मेरी बूढ़ी हड्डियों में ताकत है बेटा! तुम्हें रत्ती भर भी चिंता करने की आवश्कता नहीं है।
विशू पिता के साहस को दाद देता भीतर से, कि इतनी कमजोरी में भी कितना कुछ करने को तैयार हैं बूढ़े पिता। लेकिन शहर व होस्टल के खर्चों में इस सबकी क्या विसात? वहां तो तीस तारीख का मतलब तीस होता है .............. एक दो दिन ऊपर हुए नहीं कि तीसरे दिन हाथ में कमरा छोड़ने व मैस में खाना न खाने की क्लीन चिट थमा दें। इध्र पिताजी की बकरी समय पर न बिके, दूध् व घी की खरीद किसी ने भर मौके पर न की .................. व किसी महीने जंगल में एक साथ इतनी लकडि़यां न सूखें .......... या जंगलात विभाग ने कभी सूखी लकड़ी के काटने पर प्रतिबंध् लगा दिया ............ तो कैसे जुट पाएगी समय पर परदेश की बंधी-बंधाई फीस?
यह तो केवल विशू के मन का डर था। बूढ़े पिता को नीली छतरी वाले पर असीम आस्था थी। जैसे आज तक निभाया है सब कुछ ......... वैसे आगे भी नीभेगा। डर था तो केवल यह कि नीचे रोड वाली दुकानों में लोग लकड़ी के बदले गैस से भरे सिलिंडर प्रयोग करने लगे थे। कहीं ऐसा न हो कि सभी लोग सिलिंडरों का ही प्रयोग करने लगें व लकड़ी खरीदने का सिलसिला बिल्कुल बंद ही न हो जाए।
अब चूंकि विशू को घर से बाहर जाना ही था, यहां नहीं तो कहीं और इसलिए वह चाहता था बूढ़े माता-पिता के लिए साल भर की लकडि़यों की व्यवस्था कर के रख दे।
बूढ़े पिता कई बार लोभ-लालच में आकर सामथ्र्य से बाहर के कार्य में हाथ डाल बैठते हैं जिसके साथ जीवन के अनेकानेक खतरे जुड़े रहते हैं। विशू को किसी कंपीटीशन में निकलना कठिन नहीं लगता........कठिन लगता है उसकी प्रशिक्षण अवधि में ....... नियमित रूप से खर्चे का भार झेलना। पिता अनपढ़ व गंवार जरूर थे लेकिन थे विशाल हृदयी व उदारचेता।

कहानी अगली पोस्ट में जारी रहेगी

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