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उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा बंद होनी चाहिए !

हाँ
53 (69.7%)
नहीं
15 (19.7%)
50-50
4 (5.3%)
मालूम नहीं
4 (5.3%)

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Author Topic: Custom of Sacrificing Animals,In Uttarakhand,(उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा)  (Read 60367 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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Katta circling the Temple in champawat uttarakhand.photo by euttaranchal


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Katta gets Ready,http://www.uttarakhand.ws



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कहाँ कहाँ से लोग इन बेजुबान जानवरों की मौत का तमासा देखने के लिए आते है



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                      पशुबलि प्रथा देवभूमि पर कलंक है

देवभूमि कही जाने वाली उत्तराखंड की धरती पर धर्म व आस्था के नाम पर प्रचलित पशुबलि प्रथा इसकी संस्कृति के माथे पर कलंक है। आजादी से पूर्व तथा उसके परवर्ती सामाजिक नव जागरण के दौरान ऐसी कुप्रथाओं और धार्मिक रूढ़ियों के विरुद्ध भी आवाजें उठती थीं।

तब यह माना जाता था कि शिक्षा व नई सामाजिक चेतना के साथ इन पर विराम लग जायेगा। लेकिन हुआ इसके विपरीत। कुमाऊँ, गढ़वाल तथा जौनसार क्षेत्र में आज भी पशुबलि बदस्तूर जारी है।



हर वर्ष देवी-देवताओं के मंदिरों तथा भूत-प्रेतों के ‘थानों’ में हजारों बकरों तथा भैंसों की बलि दी जाती है। आश्विन पितृ पक्ष तथा माघ माह को छोड़ कर हमेशा यह सिलसिला चलता रहता है।

आदिम जनजातीय जीवन में अबूझ दैवी आपदाओं व कोपों से बचने के निमित्त बलि देने का जो उपचार-अनुष्ठान चला, वही किसी न किसी रूप में आज भी प्रभावी है। कालान्तर में इसमें सनातन हिन्दू धर्म के शाक्त मत के अनुसार महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा को बलि देकर पूजने का नया आयाम भी जुड़ गया।


यही कारण है कि उत्तराखंड में जहाँ एक ओर देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों के मंदिरों में हिन्दू विधि-विधान के साथ पशुबलि दिये जाने की प्रथा एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रचलित है, तो वहीं दूसरी ओर स्थानीय भूतांगी लोक देवताओं उनके ‘आँण-बाँण’ आँछरी-परी ही नहीं, वरन् अपने ही परिवार के भूत योनि को प्राप्त घोषित मृतकजनों को भी उनके ‘म्वड़ों-थानों’ में नौर्त, जागा-जागर लगाने के बाद पशुबलि देकर पूजने, प्रसन्न करने की प्रथा भी बदस्तूर जारी है।


पशुबलि हेतु जागा-जागरों का आयोजन व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर पर किसी कष्ट, अनिष्ट के निवारण हेतु या मनौती पूर्ति के फलस्वरूप किया जाता है। ऐसे छोटे आयोजनों में प्रायः एक या दो बकरों की बलि दी जाती है।

 पंचबलि या अष्टबलि जैसे अनुष्ठानों में नौर्त-बैसि के उपरांत बकरों के साथ भैंसों की भी बलि दी जाती है। ऐसे आयोजन प्रायः पूरी गाँव बिरादरी द्वारा सामूहिक तौर पर किये जाते हैं।


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