Poll

उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा बंद होनी चाहिए !

हाँ
53 (69.7%)
नहीं
15 (19.7%)
50-50
4 (5.3%)
मालूम नहीं
4 (5.3%)

Total Members Voted: 76

Author Topic: Custom of Sacrificing Animals,In Uttarakhand,(उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा)  (Read 60072 times)

दीपक पनेरू

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सर मैं आपसे बिलकुल सहमत नहीं हूँ क्योंकि आप की कही बात जोशी जी से सहमत है और जोशी जी श्रीमती गाँधी को सीधे तौर पर इस वार्ता मैं घसीट रहे है, आप और हम लोग स्वच्छ बिचारों का आदान प्रदान करने के लिए स्वतंत्र  है, बाध्य नहीं, मुझे ये बलि देना अच्छा नहीं लगता है, मैं अपनी बात करू तो मैंने जिस दिन से जीवन के बारे मैं कुछ जाना है उस दिन से मक्खी, क्या एक मछ्छर को भी नहीं मारा होगा, अनजाने मैं क्या होता है उस पर मैंने कभी गौर ही नहीं किया, श्रीमान आपकी बात से उन लोगो को आघात पहुचेगा जो निस्वार्थ इस सेवा कार्य से जुड़े है, और उन लोगो को पनाह मिलेगी जो इस प्रकार के कार्यों को करते आये है, हम चंद लोग समाज नहीं सुधार सकते हमें भी पता है, हम अगर आस्थावान लोगो के सामने ये बात कहेगे तो वे हमें समाज से भी निकालने को कोशिश करेगे, (श्री प्रेमचंद जी की कथाओं में एक शब्द का इस्तेमाल होता था हुक्का पानी), हमारा हुक्का पानी बंद हो सकता है, लेकिन फिर भी आप को पता है ये कार्य अच्छा है और ये बुरा तो किसी को दूसरों को क्या देखना .........


मै जोशी जी से पूर्णतः सहमत हूँ
हिन्दू धर्म में नास्तिकों के लिए भी जगह है और इसी जगह का कई सरफिरे फायदा उठाते रहते हैं किसी भी फोरम में कुछ भी लिख कर. अगर किसी भी तरह की बलि
के लोग खिलाफ हैं तो मच्छर मक्खी क्यों मारते हैं  कोकरोच क्यों मारते हैं चूहे क्यों मारते हैं
अपनी बात के जरिये प्रसिद्धि पाने के एक सस्ता हत्कंडा मात्र है ये
जय उत्तराखंड
जय भारत
पशु बलि प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति का अंग रही है, इसको बंद करवाना मुझे कोई जरुरी नही लगता है|  हमारे समाज में जब इंसानों के साथ कई तरह के जुल्म इंसान द्वारा किये जा रहे हैं तो ऐसे में केवल पशु बलि को मुद्दा बनाना एक ढोंगबाजी और सस्ती लोक्प्रियता प्राप्त करने  के जरिये के अलावा कुछ नहीं है| 
अगर गलत है तो यह की किसी को पशु बलि के लिए मजबूर किया जाये।  अगर कोई अपनी खुशी से मन्दिर में पशु बलि देता है तो इसमें क्या बुराई है।  अपने आप को पशु संरक्षण का मसीहा समझने वाली श्रीमति मेनका गांधी जी क्या जामा मस्जिद  के बाहर लगने वाले पक्षियों के बाजार को बंद करवा पाई? उनके संगठन के लोग खुले आम सीधे साधे लोगों को डरा धमकाकर उनसे वसूली करते हैं या बस अखबार में फ़ोटो खींचवाने के जुगाड़ में लगे रहते हैं। 
क्या मन्दिर में पशु बलि ना होने से बाजार में मांस की बिक्री बन्द हो जायेगी?
क्या बकरा ईद पर कुर्बानी रूक जायेगी?
क्या लोग मांस खाना छोड़ देंगे? 
जब कोई कुछ छोड़्ने को तैयार नही तो हम अपनी परंपरा क्यों त्यागें?
केवल इन ढोगी समाज सुधारकों की वजह से?
अगर कुछ करना है तो लोगों को मांसाहार से शाकाहार के लिए प्रेरित किया जाये।  नाकि इन ढोंगियों के साथ होकर इनके पुरस्कार लेने के जुगाड़ में इनका साथ दिया जाये। 
अगर सब शाकाहारी हो जायेंगे तो यह समस्या अपने आप हल हो जायेगी। 
अन्त में मैं यह भी बता देना चाहता हूं कि मैं खुद शाकाहारी हूं पर मुझे मन्दिरों में दी जाने वाली पशु बलि में कोइ बुराई नजर नही आती है।


हेम पन्त

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मेनका गांधी पशुओं की हितैषी बनती हैं इसमें कोई बुराई नहीं लेकिन उत्तराखण्ड में बलि बन्द कराने का उनको किसई ने ठेका तो नहीं दिया है. हमारे समाज में अच्छी-बुरी कोई भी चीज प्रचलित है तो उसे हम आपस में देख लेंगे.. भला मेनका गांधी हमें सीख देने वाली कौन होती हैं?

Devbhoomi,Uttarakhand

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सभी पहाड़ी ओस्तों को मेरा प्रणाम ,दोस्तों हम सभ जानते हैं की उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में आज भी बेजुबान पशुओं की बलि दी जाती है ,एक बात मेरी समझ में नहीं आती -क्या वे देवी-देवता बलि देने के बाद ,बलि देने वाले के ऊपर मेहरबान हो जाते हैं,क्या बलिदेने  वाले को सब कुछ हासिल हो जाता है,अगर ऐसा है तो फिर क्यों हर देवी-देवताओं के मंदिरों बालियाँ नहीं दी जाती है ये सब अंधविस्वास है जो की हम से बेजुबान पशुओं की हत्या करवाने पर मजबूर कर वाता है !

नेगी जी आहार आप मछर,मक्खी और काक्रोच को नहीं मारेंगें तो यही जीव हमें मार देंगें ,इन जीवों में और बलि के बकरों में जमीन आसमान का फासला है,और हमें इस फासले को बनाये रखने के लिए ये पशु बलि बंद होनी ही चाहिए!हम एक स्वतंत्र राज्य और स्वतंत्र देश के नागरिक हैं,हमें अपने विचारों का रखने का पूरा अधिकार है,छाए वो किसी को अच्छे लगे या न लगे, ओए ना हीहमें किसी के बहकावे में आना चाहिए ,

मेनिकागांधी उत्तराखंड में पशुओं की बलि के खिलाफ बोली तो उसके पीछे भी उसका कुछ मकसद होगा ,उसे अपना वोट बैंक का एकाउंट ठीक करना हैं मेनिका गांधी के परिवार में वो खुद की बलि देने के लिए तैयार रहते हैं और मेनिका गाँधी उत्तराखंड में पशु बलि बंद करने की बात करती है !

"खुद का मुहं तो धो नहीं सकती है और दूसरों को कहती है तुमारा मुहं गंदा है"  दोस्तों हमें किसी के भी बहकावे आने की जरुरत नहीं  ये देवभूमि उत्तराखंड हमारी है और इसके ऊपर टीका- टिपण्णी भी हम लोगों को ही करनी है !

एक कहावत है कि-चूहे के प्राण निकल रहे हैं, और बिल्ली को खेल हो रखा है ! हाँ अगर पशु बलि हमारी प्राचीन काल से चल रही प्रथा है तो ,इसे भी बदलना होगा ,क्योंकि प्राचीन कालीन बहुत सारी प्रथाएं अब बदल चुकी हैं ,प्राचीन काल से तो उत्तराखंड ,उत्तर प्रदेश में था अब क्यों अलग किया गया है ?पहेल तो लोग पहड़ी गांवों से ऋषिकेश -=देहरादून पैदल चलने  की प्रथा थी अब तो आप जानते ही हो पहले तो बिमारी क इलाज भी घरेलू दवाइयों  से होता था अब लोग अपोलो में इलाज करवातें हैं क्या वो घरेलू दवाइयां और उपचार आज नहीं होते ?

  दोस्तों ईद पर जो बकरा कटता है उससे हमें क्या लेना दें वो मुशलिम समुदाय की प्रथा है वो जो चाहें करें यहाँ पर हम हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की बलि प्रथा की बात कर रहे हैं !

 और देवी देवताओं के मंदिरों में पशु बलि बंद हो जाने से मान मछली खान बंद कैसे हो जायेगा जोशी,आजकल क्या मांस की दूकान वाला जो मांस बेचता है,क्या वो मंदिरों चढ़ाये जाने वाले पशुओं का होता है क्या ?मांस मछली खाने वाले का इस पशु बलि से कोई तालुक नहीं है जोशी जी, ये सब कुछ भी नहीं होगा जो हम लोग सोचते हैं की इसके रुकने ये होगा !दोस्तों कुछ प्राचीनकालीन प्रथाएं इसी होती हैं!

 जिनको बदलना जरूरी है ,तभी हम लोग अंधविश्वास की दुनिया से बहार आ पायेंगें,जिन मदिरों में पहले बलि दी जाती थी आज भी बहुत सारे मंदिर ऐसे हैं जिनकी बलि अब बंद कर दी गयी है और लोगो का विश्वास उन देवी-देवताओं पर पहले ज्यादा हो गया है, मेरे गाँव में भी एक मंदिर है देवी भगवती का,इस मंदिर में हर साल एक बलि दे जाती थी और आज कम से कम दस साल पहले से उस मंदिर की बलि बंद कर दी गयी है और देवी भगवती आज भी  वही है  और लोगों का विश्वास आज पहले से ज्यादा हो गया है !


M S JAKHI

दीपक पनेरू

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आदरणीय जाखी जी नमस्कार, महोदय आपने जोशी जी के द्वारा उठाये गए हर सवाल का जवाब बड़े अच्छे ढंग से दिया है, मैं भी आपसे सहमत हूँ की मांसाहारी होने का पशुबलि से कोई भी ताल्लुकात नहीं है, हम तब तक उन बुराइयों को अपने समाज से दूर नहीं कर सकते जिनके बारे मे हमें पूरा पता ही नहीं है, पशुबलि एक अलग मुद्दा है तथा मांसहारी होना अलग. हां ये बिलकुल सही है कि हमारी बहुत सारी सामाजिक रीतिया अब खत्म या बिलकुल बंद हो चुकी है, ये सब समय का अभाव है पहले लोगो के पास वक़्त होता था इसलिए वे अपने आप को व्यस्त रखने या गाँव में में रुतवा ऊँचा रखने के लिए इस प्रकार के कार्य किया करते थे ये बिलकुल 12 आने सच है क्योंकि में भी उन सौभाग्यशाली लोगो में शामिल हूँ जिनके आमा-बुबुजी अभी तक जिन्दा है और मार्गदर्शन कर रहे है. मेरे बुबुजी कि उम्र 82  वर्ष है मानसिक व शारीरिक रूप से बिलकुल स्वस्थ्य है, यही बात मैंने कुछ दिन पहले उनसे जिगर की थी तो उन्होंने यही उपरोक्त लिखित तर्क मुझे दिया था. अब लोग गाँव से पलायन कर रहे है इस तरह के कार्यों में रूचि लेने का वक़्त लोगो के पास नहीं है इसलिए हमें लगता कि ये सब कम हो गया है. हाँ मेरे इस बात का समर्थन भी वे करते है कि अगर हम लोग प्रयत्न करें तो आने वाले 1-2 दशक में काफी कुछ सुधार हो सकता है.........हमारे परिवार और हम लोगो को अपने आप को इस प्रकार के कार्यों से अलग करना होगा क्योंकि जब तक घर में सयाने लोग है उनको समझाने में वक़्त लगेगा जब तक वे इस बात को समझेंगे क्या पता वे रहे न रहे (माफ़ी चाहूँगा ये सब लिखते हुए).....हमें आप जैसे समर्पित लोगो का साथ चाहिए मार्गदर्शन कीजिये...कोशिश हम भी करेगे .........इति


दोस्तों जैसा कि हम सब जानते भी हैं और कुछ लोगों ने तो देखा भी होगा कि उत्तराखंड में कई ऐसे मेले हैं और त्यौहार हैं , जिनमें पशुओं कि बलि दी जाती है, तो आप लोगों के क्या विचार हैं इस बलि प्रथा के सम्बन्ध में,आप लोग अपने सुझाव देने कि महान किर्पा करें !

सभी पहाड़ी ओस्तों को मेरा प्रणाम ,दोस्तों हम सभ जानते हैं की उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में आज भी बेजुबान पशुओं की बलि दी जाती है ,एक बात मेरी समझ में नहीं आती -क्या वे देवी-देवता बलि देने के बाद ,बलि देने वाले के ऊपर मेहरबान हो जाते हैं,क्या बलिदेने  वाले को सब कुछ हासिल हो जाता है,अगर ऐसा है तो फिर क्यों हर देवी-देवताओं के मंदिरों बालियाँ नहीं दी जाती है ये सब अंधविस्वास है जो की हम से बेजुबान पशुओं की हत्या करवाने पर मजबूर कर वाता है ![/b]

नेगी जी आहार आप मछर,मक्खी और काक्रोच को नहीं मारेंगें तो यही जीव हमें मार देंगें ,इन जीवों में और बलि के बकरों में जमीन आसमान का फासला है,और हमें इस फासले को बनाये रखने के लिए ये पशु बलि बंद होनी ही चाहिए!हम एक स्वतंत्र राज्य और स्वतंत्र देश के नागरिक हैं,हमें अपने विचारों का रखने का पूरा अधिकार है,छाए वो किसी को अच्छे लगे या न लगे, ओए ना हीहमें किसी के बहकावे में आना चाहिए ,

मेनिकागांधी उत्तराखंड में पशुओं की बलि के खिलाफ बोली तो उसके पीछे भी उसका कुछ मकसद होगा ,उसे अपना वोट बैंक का एकाउंट ठीक करना हैं मेनिका गांधी के परिवार में वो खुद की बलि देने के लिए तैयार रहते हैं और मेनिका गाँधी उत्तराखंड में पशु बलि बंद करने की बात करती है !

"खुद का मुहं तो धो नहीं सकती है और दूसरों को कहती है तुमारा मुहं गंदा है"  दोस्तों हमें किसी के भी बहकावे आने की जरुरत नहीं  ये देवभूमि उत्तराखंड हमारी है और इसके ऊपर टीका- टिपण्णी भी हम लोगों को ही करनी है !

एक कहावत है कि-चूहे के प्राण निकल रहे हैं, और बिल्ली को खेल हो रखा है ! हाँ अगर पशु बलि हमारी प्राचीन काल से चल रही प्रथा है तो ,इसे भी बदलना होगा ,क्योंकि प्राचीन कालीन बहुत सारी प्रथाएं अब बदल चुकी हैं ,प्राचीन काल से तो उत्तराखंड ,उत्तर प्रदेश में था अब क्यों अलग किया गया है ?पहेल तो लोग पहड़ी गांवों से ऋषिकेश -=देहरादून पैदल चलने  की प्रथा थी अब तो आप जानते ही हो पहले तो बिमारी क इलाज भी घरेलू दवाइयों  से होता था अब लोग अपोलो में इलाज करवातें हैं क्या वो घरेलू दवाइयां और उपचार आज नहीं होते ?

  दोस्तों ईद पर जो बकरा कटता है उससे हमें क्या लेना दें वो मुशलिम समुदाय की प्रथा है वो जो चाहें करें यहाँ पर हम हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की बलि प्रथा की बात कर रहे हैं !

 और देवी देवताओं के मंदिरों में पशु बलि बंद हो जाने से मान मछली खान बंद कैसे हो जायेगा जोशी,आजकल क्या मांस की दूकान वाला जो मांस बेचता है,क्या वो मंदिरों चढ़ाये जाने वाले पशुओं का होता है क्या ?मांस मछली खाने वाले का इस पशु बलि से कोई तालुक नहीं है जोशी जी, ये सब कुछ भी नहीं होगा जो हम लोग सोचते हैं की इसके रुकने ये होगा !दोस्तों कुछ प्राचीनकालीन प्रथाएं इसी होती हैं!

 जिनको बदलना जरूरी है ,तभी हम लोग अंधविश्वास की दुनिया से बहार आ पायेंगें,जिन मदिरों में पहले बलि दी जाती थी आज भी बहुत सारे मंदिर ऐसे हैं जिनकी बलि अब बंद कर दी गयी है और लोगो का विश्वास उन देवी-देवताओं पर पहले ज्यादा हो गया है, मेरे गाँव में भी एक मंदिर है देवी भगवती का,इस मंदिर में हर साल एक बलि दे जाती थी और आज कम से कम दस साल पहले से उस मंदिर की बलि बंद कर दी गयी है और देवी भगवती आज भी  वही है  और लोगों का विश्वास आज पहले से ज्यादा हो गया है !


M S JAKHI


Devbhoomi,Uttarakhand

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दीपक जी आपके इन महान विचारों को पड़कर बहुत अच्छा लगा, कास अगर आज सभी उत्तराखंडी ऐसे सोचते तो सायद हमारा उत्तराखंड आज भारत का सबसे अच्छा विकासशील राज्य होता,लेकिन क्या करें हर कोई एक दुसरे की ताग खींचने की रणनीति बनाता है, और कभ-कभी तो ऐसा भी होता की उस रणनीति में खुद को फंसा देता है !

जब शाकाहारी लोग ही उत्तराखंड में पशु बलि देने के लिए तैयार हैं तो मांसाहारियों से क्या उपेक्षा करेंगें,लेकिन हमें प्रयास करते रहना चाहिए ,जैसा की मैंने और मेरे कुछ दोस्तों ने मिलकर हमारे गानवी देवी भगवती मंदिर की बलि बांध करवाने का प्रयास किया था आज से दस साल पहले तो आज उसका नतीजा हमारे सामने है उस मंदिर में दी जाने वाली बलि बांध हो गयी है !

काफी समय लगा था लेकिन सफल रहे,गाँव के हा बुजुर्ग हमारे विरोध में हुए लेकिन हमने सबको समझाया और उत्तराखंड की प्राचीनकालीन प्रथा में विस्वास रखने वाले लोग भी बाद में मान गए और मंदिर की पशु बलि
बंद की गयी !



M S JAKHI


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ANIMAL SACRIFICE IN UTTARAKHAND - BY MANEKA GANDHI
« Reply #35 on: August 10, 2010, 04:36:24 PM »
ANIMAL SACRIFICE IN UTTARAKHAND
 
i have just returned from a four-day trip to the Himalayas in Uttarakhand, a district called Pauri Garhwal. It was my first serious trip to the mountains and I went round and round, past dozens of minor landslides and road collapses to the villages where the meetings had been set up.
Uttarakhand has been on my radar for several years now. There are a few States in India where animal sacrifice still continues and this is one of them. The way the administration and animal welfare people deal with it is self-defeating: they descend on the village on the day of sacrifice, when the men have been drinking and chewing tobacco and bhang the whole night and the women have been wailing to the goddess and blood lust is high. Then when they attempt to take away the animals, there are pitched battles on the street and the animal is hit so many times by so many people in an attempt to kill it before the Police take it away that the lane is full of blood.   Last year when the Police drove away baby buffaloes from the site of the temple , their killers took them, tied stones on them and drowned them in the river below with the explanation that since they had already been consecrated to the Goddess it was bad luck to let them live.   I have never attempted to stop animal sacrifice in Uttarakhand because I did not feel I had any backup. But my plan has always been that we divide the State into its 95 blocks and have meetings with the village heads, the schoolteachers and the persistent sacrificers and talk them out of it much before Dussehra and the killing season starts. We could not do this because the local politicians have, strangely, always been afraid of losing votes — even though animal sacrifice has never been an election issue.   Anyway, everything finally came together. We have a State Home Secretary and a Panchayat Raj Secretary who are both committed to animal welfare and passionate about cruelty. The Commissioner of Pauri Garhwal has worked with me briefly and the Deputy Commissioner is a hardworking young man prepared to take orders. The local Police are fed up with the sacrifices and violent confrontations. And the animal welfare movement is growing across the hills.   So we held the meetings. We showed a film which had three men beating a buffalo to death before cutting her neck. Swami Ramdev gave an extremely lucid and passionate appeal asking for the sacrifices to stop because they were not sanctioned by any Hindu scriptures. I talked about the monetary reasons behind their continuance — the meat and alcohol money that came to the priests, the denigration of women. The administration people talked about the effect it had on law and order and the fact that the killers of the animals were not usually even local residents but people who sent money from Mumbai and Delhi to have animal slaughtered in their names.   The Panchayati Raj Secretary is a doctor himself and he talked about the effect beating had on animals and the subsequent poisonous meat distributed as prasad.   Then came the objections. Most of which had no basis at all and were based on a some perversity or other. Rational explanations seemed to have no place and the villagers looked unconvinced until the goddess herself came to my rescue: an emaciated old woman went into a hysterical spasm, claimed the devi had entered her and we saw her shake and ululate for several minutes until the Police threatened to throw her out and she became normal immediately. She showed the villagers by example what I had been talking about: the irrationality of killing animals with inhuman cruelty because some deity needed its blood and their wishes would be fulfilled...   The result has been that the younger people of the blocks that we went to, have decided not to allow sacrifices this year. The DC has promised to end the sacrifices in the entire Pauri Garhwal area by turning each killing mela into a cultural event of singers and dancers. My next round is to Kumaon. May the Goddess bless this endeavour !
 
http://www.starofmysore.com/main.asp?type=specialnews&item=5007

Raje Singh Karakoti

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Re: ANIMAL SACRIFICE IN UTTARAKHAND - BY MANEKA GANDHI
« Reply #36 on: August 10, 2010, 05:27:18 PM »
Animal sacrifice scenes in Nanda devi temple.
I think no god will be happy or ask the life of any living being. its the human who wants to fulfill their desires in name of GOD.
 

 
 
 
quote author=एम.एस. मेहता /M S Mehta link=topic=1021.msg67292#msg67292 date=1281438384]
ANIMAL SACRIFICE IN UTTARAKHAND
 
i have just returned from a four-day trip to the Himalayas in Uttarakhand, a district called Pauri Garhwal. It was my first serious trip to the mountains and I went round and round, past dozens of minor landslides and road collapses to the villages where the meetings had been set up.
Uttarakhand has been on my radar for several years now. There are a few States in India where animal sacrifice still continues and this is one of them. The way the administration and animal welfare people deal with it is self-defeating: they descend on the village on the day of sacrifice, when the men have been drinking and chewing tobacco and bhang the whole night and the women have been wailing to the goddess and blood lust is high. Then when they attempt to take away the animals, there are pitched battles on the street and the animal is hit so many times by so many people in an attempt to kill it before the Police take it away that the lane is full of blood.   Last year when the Police drove away baby buffaloes from the site of the temple , their killers took them, tied stones on them and drowned them in the river below with the explanation that since they had already been consecrated to the Goddess it was bad luck to let them live.   I have never attempted to stop animal sacrifice in Uttarakhand because I did not feel I had any backup. But my plan has always been that we divide the State into its 95 blocks and have meetings with the village heads, the schoolteachers and the persistent sacrificers and talk them out of it much before Dussehra and the killing season starts. We could not do this because the local politicians have, strangely, always been afraid of losing votes — even though animal sacrifice has never been an election issue.   Anyway, everything finally came together. We have a State Home Secretary and a Panchayat Raj Secretary who are both committed to animal welfare and passionate about cruelty. The Commissioner of Pauri Garhwal has worked with me briefly and the Deputy Commissioner is a hardworking young man prepared to take orders. The local Police are fed up with the sacrifices and violent confrontations. And the animal welfare movement is growing across the hills.   So we held the meetings. We showed a film which had three men beating a buffalo to death before cutting her neck. Swami Ramdev gave an extremely lucid and passionate appeal asking for the sacrifices to stop because they were not sanctioned by any Hindu scriptures. I talked about the monetary reasons behind their continuance — the meat and alcohol money that came to the priests, the denigration of women. The administration people talked about the effect it had on law and order and the fact that the killers of the animals were not usually even local residents but people who sent money from Mumbai and Delhi to have animal slaughtered in their names.   The Panchayati Raj Secretary is a doctor himself and he talked about the effect beating had on animals and the subsequent poisonous meat distributed as prasad.   Then came the objections. Most of which had no basis at all and were based on a some perversity or other. Rational explanations seemed to have no place and the villagers looked unconvinced until the goddess herself came to my rescue: an emaciated old woman went into a hysterical spasm, claimed the devi had entered her and we saw her shake and ululate for several minutes until the Police threatened to throw her out and she became normal immediately. She showed the villagers by example what I had been talking about: the irrationality of killing animals with inhuman cruelty because some deity needed its blood and their wishes would be fulfilled...   The result has been that the younger people of the blocks that we went to, have decided not to allow sacrifices this year. The DC has promised to end the sacrifices in the entire Pauri Garhwal area by turning each killing mela into a cultural event of singers and dancers. My next round is to Kumaon. May the Goddess bless this endeavour !
 
http://www.starofmysore.com/main.asp?type=specialnews&item=5007

Devbhoomi,Uttarakhand

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                      अब खुल रही इनकी आँखें , पशु बलि जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार गंभीर
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केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने देश के विभिन्न भागों में प्रचलित पशु बलि की प्रथा पर प्रतिबंध लगाए जाने के संबंध में कहा कि यह संवेदनशील मुद्दा है और सरकार सतर्कता के साथ इस मसले पर आगे बढ़ेगी।

मंदिरों में हाथियों पर हो रहे अत्याचार तथा जानवरों की खरीद फरोख्त के लिए आयोजित होने वाले गैर-कानूनी पशु मेलों को शर्मनाक करार देते हुए पर्यावरण मंत्री ने कहा कि सरकार व्यापक पशु कल्याण विधेयक लाने के प्रति पूरी तरह गंभीर है।

रमेश ने लोकसभा में बुधवार को प्रश्नोत्तर काल के दौरान रमाशंकर राजभर, लालू प्रसाद और मेनका गांधी के सवालों के जवाब में कहा कि पशुओं का कल्याण केंद्र सरकार के शीर्ष एजेंडे में शामिल है और इसके लिए व्यापक पशु कल्याण विधेयक लाया जाएगा।

मेनका गांधी ने अपने सवाल के जरिए कहा कि 1960 के पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में कानून का उल्लंघन करने वाले पर मात्र 50 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। उनकी बात का समर्थन करते हुए रमेश ने जुर्माने के प्रावधान को हास्यास्पद बताया और साथ ही कहा कि छह राज्यों में धार्मिक स्थलों पर पशुओं की बलि पर प्रतिबंध है और बाकी राज्यों को भी उनका अनुकरण करना चाहिए।

रमेश ने कहा कि केंद्र सरकार इस संबंध में राज्य सरकारों को दिशा निर्देश जारी करेगी। उन्होंने कहा कि यह एक संवेदनशील मसला है और इस दिशा में सतर्कता से आगे बढ़ना होगा।

इससे पूर्व मेनका गांधी ने कहा कि दशहरे के मौके पर देश के विभिन्न भागों में पशुओं की बलि दी जाती है और यह संगठित अपराध का स्वरूप ले चुका है।

राजद के लालू प्रसाद ने इसी दौरान सर्कस में काम करने वाले लोगों के भूखे मरने और पशु क्रूरता निवारण कानून की आड़ में पशुओं के व्यापारियों को परेशान किए जाने का मुद्दा उठाया।

लालू द्वारा बिहार में आयोजित होने वाले सोनपुर पशु मेले का जिक्र किए जाने और पशु कल्याण बोर्ड की समीक्षा किए जाने की मांग करने पर पर्यावरण मंत्री रमेश ने कहा कि सोनपुर मेले के बारे में मुझे अच्छी तरह जानकारी है और यह मेला शर्म की बात है। जिस तरीके से मेले में हाथियों की गैर-कानूनी खरीद-फरोख्त की जाती है वह चिंता का विषय है।

उन्होंने कहा कि हाथियों को इस प्रकार की क्रूरता से बचाने के लिए उनके मंत्रालय ने हाथी परियोजना कार्यक्रम शुरू किया है। रमेश ने साथ ही कहा कि जिस तरीके से मंदिरों में हाथियों के साथ बर्ताव किया जाता है वह शर्म की बात है।

उन्होंने कहा कि तमिलनाडु में जलीकट्टू इसी प्रकार की एक प्रथा है जिसमें कई बार इंसानों तक की मौत हो चुकी है। उन्होंने कहा कि बदलते समय के साथ कुछ सांस्कृतिक परंपराएं जारी रखने लायक नहीं होती। पर्यावरण मंत्री ने कहा कि जब बुल फाइटिंग के नाम से दुनियाभर में जाने जाने वाले स्पेन में इस प्रथा पर रोक लग सकती है तो तमिलनाडु में जलीकट्टू पर प्रतिबंध क्यों नहीं लग सकता।

उन्होंने स्वीकार किया कि आज भी देश में पशुओं के खिलाफ संगठित तरीके से अत्याचार हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह पशु क्रूरता संबंधी प्रथाओं में कतई विश्वास नहंी रखते और गोवा में बुल फाइटिंग की अनुमति दिए जाने संबंधी एक गैर-सरकारी विधेयक को उन्होंने चार दिसंबर, 2009 को लोकसभा में नामंजूर कर दिया था।
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_6641596.html

दीपक पनेरू

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पशु बलि पर दर्ज हुई एफआईआर
« Reply #38 on: August 25, 2010, 03:02:08 PM »
पशु बलि पर दर्ज हुई एफआईआर

देवीधुरा मेले में दी जाने वाली पशु बलियों का मामला थाने की चौखट पर पहुंच   गया है। सांसद मेनका गांधी की एनजीओ पीपुल्स फार एनिमल्स की राज्य   प्रतिनिधि गौरी मौलेखी की रिपोर्ट पर पुलिस ने 11 पशु क्रूरता अधिनियम के   साथ ही आईपीसी की धारा 268, 269 तथा 270 के तहत मंदिर कमेटी के खिलाफ मामला   पंजीकृत कर लिया है।   गौरी मौलेखी द्वारा थाने को दी गई तहरीर में कहा गया है कि मंदिर कमेटी   सहित इस मेले का प्रबंधन देख रहे सभी लोगों ने पशु बलि को रोकने का भरोसा   दिलाया था, लेकिन इसके बावजूद मेले के दौरान निरीह पशुओं की बलि दी गई है।   इसके लिए प्रबंध तंत्र, मंदिर कमेटी और पशु बलि देने वाले जिम्मेदार हैं।   उन्होंने तहरीर में इस कृत्य के लिए दोषियों के खिलाफ मामला दर्ज करने को   कहा। जिसके आधार पर लोहाघाट थाने में यह मामला सोमवार को दर्ज कर लिया गया   है।  इधर गौरी मौलेखी का कहना है कि पुलिस द्वारा हालांकि शुरूआती रूप में   हल्की धाराएं लगाई गई हैं, लेकिन तफ्तीश के बाद अन्य धाराएं बढ़ने की भी   उम्मीद है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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पशु बलि पर दर्ज हुई एफआईआर

देवीधुरा मेले में दी जाने वाली पशु बलियों का मामला थाने की चौखट पर पहुंच   गया है। सांसद मेनका गांधी की एनजीओ पीपुल्स फार एनिमल्स की राज्य   प्रतिनिधि गौरी मौलेखी की रिपोर्ट पर पुलिस ने 11 पशु क्रूरता अधिनियम के   साथ ही आईपीसी की धारा 268, 269 तथा 270 के तहत मंदिर कमेटी के खिलाफ मामला   पंजीकृत कर लिया है।   गौरी मौलेखी द्वारा थाने को दी गई तहरीर में कहा गया है कि मंदिर कमेटी   सहित इस मेले का प्रबंधन देख रहे सभी लोगों ने पशु बलि को रोकने का भरोसा   दिलाया था, लेकिन इसके बावजूद मेले के दौरान निरीह पशुओं की बलि दी गई है।   इसके लिए प्रबंध तंत्र, मंदिर कमेटी और पशु बलि देने वाले जिम्मेदार हैं।   उन्होंने तहरीर में इस कृत्य के लिए दोषियों के खिलाफ मामला दर्ज करने को   कहा। जिसके आधार पर लोहाघाट थाने में यह मामला सोमवार को दर्ज कर लिया गया   है।  इधर गौरी मौलेखी का कहना है कि पुलिस द्वारा हालांकि शुरूआती रूप में   हल्की धाराएं लगाई गई हैं, लेकिन तफ्तीश के बाद अन्य धाराएं बढ़ने की भी   उम्मीद है।


मेनिका गाँधी ये कौन है जो की उत्तराखंड की संसकिरती  के आगे खडी हो रही है,मेनिका जी आप पहले अपने और अपने परिवार के दामन में  झाँककर  तो देखो आपको वहां पशुओं की बल नहीं बल्कि अपने ही परिवार के सदस्यों  की बलि कुछ कहानी और झलक मिलेगी,वैसे भी आप होती कौन हो उत्तराखंड की संसकिरती के बारेमें कहने वाली !

 

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