सभी पहाड़ी ओस्तों को मेरा प्रणाम ,दोस्तों हम सभ जानते हैं की उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में आज भी बेजुबान पशुओं की बलि दी जाती है ,एक बात मेरी समझ में नहीं आती -क्या वे देवी-देवता बलि देने के बाद ,बलि देने वाले के ऊपर मेहरबान हो जाते हैं,क्या बलिदेने वाले को सब कुछ हासिल हो जाता है,अगर ऐसा है तो फिर क्यों हर देवी-देवताओं के मंदिरों बालियाँ नहीं दी जाती है ये सब अंधविस्वास है जो की हम से बेजुबान पशुओं की हत्या करवाने पर मजबूर कर वाता है !
नेगी जी आहार आप मछर,मक्खी और काक्रोच को नहीं मारेंगें तो यही जीव हमें मार देंगें ,इन जीवों में और बलि के बकरों में जमीन आसमान का फासला है,और हमें इस फासले को बनाये रखने के लिए ये पशु बलि बंद होनी ही चाहिए!हम एक स्वतंत्र राज्य और स्वतंत्र देश के नागरिक हैं,हमें अपने विचारों का रखने का पूरा अधिकार है,छाए वो किसी को अच्छे लगे या न लगे, ओए ना हीहमें किसी के बहकावे में आना चाहिए ,
मेनिकागांधी उत्तराखंड में पशुओं की बलि के खिलाफ बोली तो उसके पीछे भी उसका कुछ मकसद होगा ,उसे अपना वोट बैंक का एकाउंट ठीक करना हैं मेनिका गांधी के परिवार में वो खुद की बलि देने के लिए तैयार रहते हैं और मेनिका गाँधी उत्तराखंड में पशु बलि बंद करने की बात करती है !
"खुद का मुहं तो धो नहीं सकती है और दूसरों को कहती है तुमारा मुहं गंदा है" दोस्तों हमें किसी के भी बहकावे आने की जरुरत नहीं ये देवभूमि उत्तराखंड हमारी है और इसके ऊपर टीका- टिपण्णी भी हम लोगों को ही करनी है !
एक कहावत है कि-चूहे के प्राण निकल रहे हैं, और बिल्ली को खेल हो रखा है ! हाँ अगर पशु बलि हमारी प्राचीन काल से चल रही प्रथा है तो ,इसे भी बदलना होगा ,क्योंकि प्राचीन कालीन बहुत सारी प्रथाएं अब बदल चुकी हैं ,प्राचीन काल से तो उत्तराखंड ,उत्तर प्रदेश में था अब क्यों अलग किया गया है ?पहेल तो लोग पहड़ी गांवों से ऋषिकेश -=देहरादून पैदल चलने की प्रथा थी अब तो आप जानते ही हो पहले तो बिमारी क इलाज भी घरेलू दवाइयों से होता था अब लोग अपोलो में इलाज करवातें हैं क्या वो घरेलू दवाइयां और उपचार आज नहीं होते ?
दोस्तों ईद पर जो बकरा कटता है उससे हमें क्या लेना दें वो मुशलिम समुदाय की प्रथा है वो जो चाहें करें यहाँ पर हम हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की बलि प्रथा की बात कर रहे हैं !
और देवी देवताओं के मंदिरों में पशु बलि बंद हो जाने से मान मछली खान बंद कैसे हो जायेगा जोशी,आजकल क्या मांस की दूकान वाला जो मांस बेचता है,क्या वो मंदिरों चढ़ाये जाने वाले पशुओं का होता है क्या ?मांस मछली खाने वाले का इस पशु बलि से कोई तालुक नहीं है जोशी जी, ये सब कुछ भी नहीं होगा जो हम लोग सोचते हैं की इसके रुकने ये होगा !दोस्तों कुछ प्राचीनकालीन प्रथाएं इसी होती हैं!
जिनको बदलना जरूरी है ,तभी हम लोग अंधविश्वास की दुनिया से बहार आ पायेंगें,जिन मदिरों में पहले बलि दी जाती थी आज भी बहुत सारे मंदिर ऐसे हैं जिनकी बलि अब बंद कर दी गयी है और लोगो का विश्वास उन देवी-देवताओं पर पहले ज्यादा हो गया है, मेरे गाँव में भी एक मंदिर है देवी भगवती का,इस मंदिर में हर साल एक बलि दे जाती थी और आज कम से कम दस साल पहले से उस मंदिर की बलि बंद कर दी गयी है और देवी भगवती आज भी वही है और लोगों का विश्वास आज पहले से ज्यादा हो गया है !
M S JAKHI