मेरा कहना यह है कि अगर हमारे समाज में कोई रूढि़ है तो उसे जरुर बदलना चाहिये, यदि वह समाज को प्रभावित कर रही है तो। यदि वह समाज को कोई हानि नहीं पहुंचा रही और सामाजिक ताने-बाने को मजबूत कर रही है, गांव-बिरादरी के लोगों को एक साथ जोड़ रही है तो उसको बन्द करने की बात क्यों?
दूसरी बात शाकाहारी और मांसाहारी कि तो यह मसला इससे भी जुड़ा है, आप लोग पशुबलि के विरोधी क्यों हो....जड़ में तो मांसाहार ही है ना, यदि मांसाहार ही नहीं होगा तो पशुबलि होगी ही नहीं। मेरा कहना यह है कि उस समय आपका पशु प्रेम कहां चला जाता है जब रोज सुबह बूचड़खाने में सैकड़ों बकरे, मुर्गे और अन्य जानवर काटे जाते हैं। मेरे एक भाई ने कहा कि मन्दिर में होने वाली बलि को देखकर मन नहीं मानता.....लेकिन आपका यह मन तब कहां चला जाता है जब बकरे का हलाल हो रहा होता है और वह कटी गर्दन लेकर एक घंटे तक चिल्लाता और तड़फता रहता है, जब कि बलि में तो उसकी जान भी सताई नहीं जाती।
मुन्स्यारी में जो हुआ वह सराहनीय है, ऐसा ही सब जगह आये, चेतना आये, यह ठीक है, लेकिन कोई आदमी अपनी राजनीति चमकाने के लिये हमारी आस्था को मुद्दा बनाये घूमे, मैं इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता। जिस तरह से कुकुरमुत्तों की तरह से उग आये बाहरी संगठन अपने फायदे और नाम कमाने के लिये हमारी आस्था पर प्रहार कर पुजारी और ग्रामीणों पर प्शुबलि के मुकदमे दर्ज करा रहे है, क्या वह ठीक है?
अगर रुढि है तो चेतना लाइये, लोगों को समझाइये, समाज को शिक्षित बनाइये। हां इतना जरुर है कि हमारी आस्था पर चोट पहूचाने की इजाजत मैं किसी को नहीं देता.....उत्तराखण्ड को राजनीति का मोहरा लोगों ने बहुत बना लिया है, अब नहीं बनने देंगे। कोई काम करना है तो उसके पीछे अच्छी मंशा हो तो हम ब्राजील और उरुग्वे के आदमी का भी समर्थन करेंगे, लेकिन कुमंशा होगी तो विरोध ही नहीं करेंगे, इलाज भी कर देंगे।