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उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा बंद होनी चाहिए !

हाँ
53 (69.7%)
नहीं
15 (19.7%)
50-50
4 (5.3%)
मालूम नहीं
4 (5.3%)

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Author Topic: Custom of Sacrificing Animals,In Uttarakhand,(उत्तराखंड में पशुबलि की प्रथा)  (Read 60379 times)

पंकज सिंह महर

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मैं अगर व्यवहारिक रुप से देखूं तो पशुबलि की प्रथा भी ठीक नहीं लगती है, लेकिन यदि आस्था से इसे देखूं तो ठीक लगती है। सवाल आस्था का है, मेरा मत यह है कि हम सिर्फ इसी चीज के लिये क्यों अपना विजन व्यवहारिक बना रहे हैं, जब कि यह समाज को कोई हानि नहीं पहुंचा रहा है। आज हर शहर में बूचड़खाना होता है, मीट-मुर्गे की दुकानें हैं, जिसमें रोज सैकड़ों निरीह पशु काटे जाते हैं, उनकी ओर किसी मेनका गांधी या एन०जी०ओ० का ध्यान नहीं जाता। हमारे प्रबुद्ध सदस्यों का भी ध्यान उस ओर नहीं है, सालों से चली आ रही हमारी परम्परा और आस्था को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है?

पशुबलि बन्द हो तो हर तरह से हो, दुकानों में भी न हो।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वैसे मै भी इस प्रथा का समर्थन नहीं करता!

जैसे की उत्तराखंड देव भूमि है वहां पर बिना बलि diye हुए देवताओ की पूजा सफल भी नहीं समझी जाती!


dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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सर मेरा विरोध न मांस खाने से है नहीं बुचडखाने से है,क्युकी मनुष्य पशुओ को अपनी आवश्यकता अनुसार पालता है  मेरा विरोध सिर्फ ये है कि जिसको हम जीवन दाता कहते है उसको किसी का जीवन या बलि क्यों दें आग्यानता बस जो भी विकृति आ गयी है हमारे संस्कृति में उसको दूर करना भी हमारा काम है हम इसको आश्था कहकर यूँ ही न रहने दें   

सत्यदेव सिंह नेगी

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choonki... is .....tarah.... ki ....charcha... se...... unhi ......logon.... ko..... fayada .....pahunchega ........jinka .....maine .....pahle ...jikr .....kiya ....hai... atah...... mujhe .....jo......  kahna .....tha.....mai ......kah... chuka.....kripya... mera .....vote .....ho ....chuka .....hai..... ab....mujhe...bakhsen..Mai........pashubali...samarthak ...hun..aapse....jo ....bhi ....ban ...pade ....kar ... lijiyega
अगर बलि ही देनी है तो फिर पशु की ही क्यों पशु से तो मनुष्य ज्यादा कीमती होता है मनुष्य की भी दी जा सकती है पर ये संभव नहीं है इसलिए हम इन बजुवान पशुओं को बलि बना देते है अपने उस भगवान् को खुश करने के लिए जिसको हम जीवन दाता भी कहते हैं

मेरा व्यक्तिगत मत यानि मेरा वोट पशुबलि बंद न हो को जाता है . चूँकि यह हमारी पूजा व्यवस्था का एक हिस्सा है मुझे इसमें पूर्ण आस्था है और हर इंसान आस्तिक हो ऐसा जरुरी नहीं हिन्दू होने के नाते मै उस हर व्यवस्था को समर्थन देता रहूँगा जो मुझे उस परमात्मा में मेरे विश्वास को बनाये रखे अगर इस बारे में कभी भविष्य में संघर्ष भी होता है या यहाँ हम इस मुद्दे पर मत विभाजन तक आ पहुंचे हैं तो इसमें जरुर उन सांप्रदायिक ताकतों का षड्यंत्र होने का अंदेशा है जो हमेशा फिरका परस्त रहे हैं तथा जिन्होंने हमेशा भोले भले हिन्दूऔं को ढगा है और अब तो सत्ता भी उन तक पहुची है जब भी इनकी प्रशाशनिक कमजोरियां जग जाहिर होने लगती हैं तो इनके एजेंट जनता में ऐसा ही भ्रम फैलाते रहें हैं ताकि मूल मुद्दे से लोग भटक जाएँ
सच ही कहा यहाँ किसी मित्र ने कि चर्च ये होनी चाहिए थी कि पशु हत्या बाद हो या नहीं मांसभक्षण कितना मानवीय है, कृपया एक बार इस पहलू पर भी विचार कर लिया जाय ,अगर सब कुछ हमने ही तय करना है तो फिर भगवन क्यों अपने गाँव अपने क्षेत्र या जिले या प्रान्त के किसी अच्छे इंसान पर मतदान करा लिया जाय और फिर जिसे ज्यादा मत मिले सब उसको पूजें जैसा कि कई और धर्मों में होता आया है , मुझे लगता है कि अधिकतर लोग इसलिए हिंदूं हैं क्योंकि इस धर्म में नास्तिकों के लिए भी जगह है, किसी धार्मिक सीरियल में किसी किरदार ने भगवान् कृष्ण का अच्छा किरदार नहीं निभाया तो चर्चाएँ जोर पकड़ लेती हैं ईश्वर में विश्वास किसे कहते हैं उसको पूछिए जो कि कष्ट में है जिसपर कोइ दवा दारू अब असर नहीं डाल रही जिस पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा हो ,

दीपक पनेरू

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मैं दयाल जी से बिलकुल सहमत हूँ, पंकज महर जी और श्रीमान नेगी जी का ध्यान   मैं फिर से इसी मुद्दे पर लाना चाहूँगा कि हमें पशुबलि को बिलकुल भी   शाकाहारी और मांसाहारी होने से नहीं जोड़ना चाहिए, यहाँ पर आस्था का सवाल है   तो मैं पूछना चाहता हूँ कितने लोगो ने आज तक देखा और उनके पास क्या प्रमाण   है कि भगवान जिसे जीवन दाता कहा जाता है वही हमसे बोले कि आप लोगो से मैं   तभी खुश हो सकुगा जब तक आप मुझे किसी कि जान लेकर, किसी का जीवन समाप्त कर   मेरे को अर्पण नहीं करते, मैं नहीं मानता इस सम्बन्ध में किसी के पास कोई   प्रमाण हो. कुछ समय पूर्व अख़बार मैं एक लेख आया जिस पर लिखा था कि लोगो ने   देवी को खुश करने के लिए बलि देने के बजाये पेड़ लगाने शुरू किये है, ये   जगह मुंश्यारी के आस पास है, आखिर क्यों ? आपके मतानुसार हमारे पहाड़ी   क्षेत्रो में ही सबसे ज्यादा इस प्रकार के कृत्य होते है लेकिन जहा पर ये   पेड़ लगाये गए है उस जगह पर तो संचार सुविधाओं, सड़क आदि का अभाव है, फिर   लोगो में इतनी जागरूकता कैसे आई, मेनका तो नहीं गयी वह पर ओ लोग अपने मन कि   बात सुनकर देवी माता को पशु के बजाय पेड़ समर्पित कर रहे है और उनका उससे   भला हो रहा है, उनकी पीड़ा   दूर हो रही है तो हम लोग क्यों नहीं कर सकते आंखिर क्यों हमारे अन्दर इतना   घमंड भर गया है कि कोई मेनका जैसा एक बार हमारी आस्था के बारे में बोल दे   हम उसे अन्यथा ले लें और अपने मूल विषय से भटक जाये आकिर क्यों? में सभी से   पूछना चाहता हूँ जो पशुबलि नहीं रुकनी चाहिए पर बात करते है,  बार बार   मेनका गाँधी जैसे सख्श  को आप  बीच में लायेंगे और ये सोचेंगे ये बोल रही   है तो हम ऐसा क्यों करे हम कभी नहीं कर पाएंगे, क्यूंकि यहाँ पर हमारा घमंड   झलकने लग जाता है....

पंकज सिंह महर

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मेरा कहना यह है कि अगर हमारे समाज में कोई रूढि़ है तो उसे जरुर बदलना चाहिये, यदि वह समाज को प्रभावित कर रही है तो। यदि वह समाज को कोई हानि नहीं पहुंचा रही और सामाजिक ताने-बाने को मजबूत कर रही है, गांव-बिरादरी के लोगों को एक साथ जोड़ रही है तो उसको बन्द करने की बात क्यों?

दूसरी बात शाकाहारी और मांसाहारी कि तो यह मसला इससे भी जुड़ा है, आप लोग पशुबलि के विरोधी क्यों हो....जड़ में तो मांसाहार ही है ना, यदि मांसाहार ही नहीं होगा तो पशुबलि होगी ही नहीं। मेरा कहना यह है कि उस समय आपका पशु प्रेम कहां चला जाता है जब रोज सुबह बूचड़खाने में सैकड़ों बकरे, मुर्गे और अन्य जानवर काटे जाते हैं। मेरे एक भाई ने कहा कि मन्दिर में होने वाली बलि को देखकर मन नहीं मानता.....लेकिन आपका यह मन तब कहां चला जाता है जब बकरे का हलाल हो रहा होता है और वह कटी गर्दन लेकर एक घंटे तक चिल्लाता और तड़फता रहता है, जब कि बलि में तो उसकी जान भी सताई नहीं जाती।
मुन्स्यारी में जो हुआ वह सराहनीय है, ऐसा ही सब जगह आये, चेतना आये, यह ठीक है, लेकिन कोई आदमी अपनी राजनीति चमकाने के लिये हमारी आस्था को मुद्दा बनाये घूमे, मैं इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता। जिस तरह से कुकुरमुत्तों की तरह से उग आये बाहरी संगठन अपने फायदे और नाम कमाने के लिये हमारी आस्था पर प्रहार कर पुजारी और ग्रामीणों पर प्शुबलि के मुकदमे दर्ज करा रहे है, क्या वह ठीक है?

अगर रुढि है तो चेतना लाइये, लोगों को समझाइये, समाज को शिक्षित बनाइये। हां इतना जरुर है कि हमारी आस्था पर चोट पहूचाने की इजाजत मैं किसी को नहीं देता.....उत्तराखण्ड को राजनीति का मोहरा लोगों ने बहुत बना लिया है, अब नहीं बनने देंगे। कोई काम करना है तो उसके पीछे अच्छी मंशा हो तो हम ब्राजील और उरुग्वे के आदमी का भी समर्थन करेंगे, लेकिन कुमंशा होगी तो विरोध ही नहीं करेंगे, इलाज भी कर देंगे।

दीपक पनेरू

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श्रीमान ये आस्थावान उन सभी लोगो की बात है जो वास्तव में अब इन रुढियों से   ऊब चुके है, जो नहीं चाहते की पशुबलि होनी चाहिए, लेकिन कदम कौन उठाये आप   या हम? क्यों हम एक दुसरे की भावनाओ को नहीं समझ सकते? लोग धीरे धीरे   मांसाहार से दूर होते जा रहे है! आप एक समृद्ध लेखक और पत्रकार है आपका   वास्ता हम लोगो की अपेक्षा समाज के लोगो से अधिक पड़ता है आप भी शायद इस   बात का अनुभव करते होंगे, की ये सब धीरे धीरे कम होते जा रहा है,
 
  हल्द्वानी की ही बात करू तो जहा पहले हर रोज मीट की दुकान खुला करती थी आज   यहाँ पर सप्ताह में दो दिन मीट की दुकान बंद होने लगी है आखिर क्यों? लोगो   की संख्या बढ रही है लेकिन मीट की दुकान बंद हो रही है ये सब इसी बात की और   इशारा करती है लोग इस बात को समझने लगे है एक दिन ऐसा जरुर आएगा जब सारी   मीट की दुकाने बंद हो जाएँगी, महोदय पशुबलि में तो भैसे का भी लोग प्रयोग   करते है पर इसे खाते हुए आपने कितने लोगो को देखा है आप बता सकते है नहीं   न? इसलिए नहीं बता सकते क्यूंकि यहाँ पर ये मांसाहार की और इशारा नहीं करता   है यहाँ पर हमारी आस्था, हमारा रूढ़ीवाद दीखता है बस यही लोगो से दूर करना   है.
 
  आप मुनस्यारी के लोगो की सराहना करने के हक़दार तभी है जब आप भी इस प्रकार   के कार्यों में लिप्त लोगो का साथ देते है उन्हे प्रोत्साहित कर आस्था को   बीच नहीं लाते है, श्री जाखी जी ने बताया था उन्होंने अपने गाँव में एक इसी   प्रकार की प्रथा को रुकवा दिया है जिसे अब लगभग १०-११ वर्ष होने जा रहे   है, मेरे गाँव में खुद एक मंदिर में पिछले पांच सालों से कोई पशुबलि नहीं   चढाई गयी है लोग वहा पर शुद्ध घी का दिया जला कर अपनी कामना की पूर्ती के   लिए प्रार्थना करते है, ये सब इसका उदहारण है, रही आस्था को ठेश पहुचाने की   ये बात कोई भी आस्थावान नहीं सहन नहीं करेगा. लेकिन यहाँ पर किसी के दिल   को दुखाने वाला कोई मुद्दा मुझे नहीं दीखता शिवाय एक ढोंग के.........

Pawan Pahari/पवन पहाडी

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मैं भी पशुबलि को गलत नहीं मानता . पर जब इसे आस्था के साथ जोड़ा जाता है तो   ये गलत है. क्योकि कोई भी देवता ये नहीं कहते की मुझी पशुबलि चाहिए.

Sunder Singh Negi/कुमाऊंनी

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किसी भी परंमपरा की विधि को जान लेना बहुत आवश्क है बली प्रथा पहाडो़ की बहुत पुरानी परंमपरा है जिस पर सिवाय वक्त के और कोई भी रोक नही लगा सकता. एक वक्त ऐंसा आयेगा और इस पर खुद व खुद रोक लग जायेगी और बली प्रथा एक इतिहास बनकर रह जायेगी.
एक तरफ हम अपनी परंमपरा को बचाने की बात करते है दुसरी तरफ हम इस पर रोक लगाने की बात कर रहे है ये कैसा संसकृति प्रेम है सुन्दर की समझ से बहार की बात है बाकी आप खुद समझदार है.

"सती प्रथा बदलाव"

परंमपरा का उदाहारण दु तो आज की महिलाओ की शारिरिक उत्पीड़न से तो अच्छा पहले की सती प्रथा ही अच्छी थी कम से कम वह महिला दुराचारियों के शारिरिक शोषण से तो बच जाती थी.

Devbhoomi,Uttarakhand

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किसी भी रूडी वाद या किसी आन्दोलन के बारें में पत्रकार भाइयों की बहुत ही बड़ी भूमिका होती है,इस बलि प्रथा को बंद कराने में भी आप लोगों की सबसे बड़ी भूमिका होनी चाहिए !
 दोस्तों किसी भी शहर का पक्ष लेना या देना हर किसिस शहर वाशी को पूरा हक़ है और समर्थन करना भी लेकिन इस बलि प्रथा से किसी भी मांस की दूकान से कोई तालुक नहीं है और न ही किसी को मांसाहारी से शाका हारी बनाने तालुक है !

 कोई मांस कहए या नहीं खाए ये कोई भी नहीं बदल सकता लेकिन जहाँ तक पशुबलि की बात है जो की अभी भी उत्तराखंड के देवी-देवताओं के अम्न्दिरों में दी जात है !
आप लोग ये बताओ कौनसा देवता कहता है की मुझे भैंस की या बकरे की बलि चाहिए कोई भी नहीं कहता होगामहान अगर कघ्ता है तो वो इंसान कहता है जो देवता का पश्वा होता है ये भी तो हो सकता है की देवता या देवी का पश्वा अपनी मर्जी से बोल रहा हो ! क्या नंदा देवी कहती हैं की मुझे इस बार इतनी बकरियों की बलि चाहिए ,आहार ऐसी बात है तो कल कोई भी १०० बक्रिओं कबली चढ़कर किसी देवी या देवता से कह दे की में तुम्ह्ने १०० बकरियों की बलि चढ़ाउंगा मुझे उत्तराखंड  का मुख्यमंत्री बना दे, तो या कोई देवी दवता ये चमत्कार कर सकता है !

या सब ढोंग हैं और हमारा अंधविश्वास भी है पहले ही गरीब होते हुए भी ये देवी-देवता बलि के लिए बकरी कारीदवा कर इंसान को और गरीब बना देता हैं,कंगाली में आटा गीला होने वाली बात है !

पैसे वाले तो कुच्छ भी कर सकते हैं ,इसका मतलब ये हवा की जो बलि चढ़ाएगा देवी-देवता भी उसी की रक्षा करेंगे और गरीब वेचारा वैसे का वैसे ही मारा जाएगा यानी की गरीब के ऊपर अब देवी-देवताओं की शाया उठ जाएगा !



 

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