आदरणीय महर जी बहुत खूब कहा अपने,वाह वाह क्या बात है! महर जी हमारे उन्हीं संसकिरती और आस्था में विश्वास रखने और अंध विश्वासी,बुजुर्गों ,विद्वानों और प्रबुद्जनों की ही एक कहावत है !ये गढ़वाली में सायद आप लोगों को साँझ में आ जाएगी -----------झिं बौ कु बल बडू भरोसू ---स्या बौ बल दिदा-दिदा बोल्दी!!
पर्वतीय अमाज में लोग जो बकरों काटकर और झूठी-मुठी पूजा करके जो मन्नत मागते हैं क्या वो मन्नत कभी पूरी हुई है,सायद हुई हो,मन्नत तो बिना बकरों को काटकर और भूके पित भजन करने से मिलती है और जिसने भी इस तरह से मन्नत मांगीं है वो पूरी हुई हैं,छाए वो ओरंगजेब हो या महात्मागांधी या किताबों को पड़कर बना हवा पशुप्रेमी ! ऐसा कौनसा देवता है जो कहता है कि तुम मुझे बलि का बकरा चढाओ और तुमारी मन्नत पूरी करूंगा क्या कोई जनता है ऐसे देवी-देवता को !
ये जरूर हमारे बुजुर्गों कि आस्था या अन्ध्विस्वास कहो यहाँ तक सही है लेकिन अब सतयुग नहीं कलयुग है ! इस कलयुग मैं किसी बुजुर्ग कि नहीं किसी पशु प्रेमी की नहीं किसी भी नहीं चलने वाली है !यहाँ पर कोई भी किसी को दबाव नहीं दल रहा है की आप पशुबलि बांध करो वो आपकी मर्जी है , आप या आपके बुजुर्ग कहते हैं पशुबलि सदियों तक चलनी चाहिए तो चलने दो किसी को क्या फर्क पड़ेगा और पशुबलि के खिलाब अब के बुजुर्गों मैं सायद वही बुजुर्ग होंगें जो मांस के स्था साथ शराब का सेबन करते हैं और वही बुजुर्ग चाहेंगें की पशुबलि कभी भी बांध नहीं होनी चाहिए,अगर पशुबलि बांध हो जाय तो उनकी मांस और शराब का सेबन भी बांध हो जायेगा फ्री का मिलता है इसलिए !
हम पहाड़ियों के पास कभी जब भी दो पैसा आता है तो हम सबसे पहले अपने पुराने मकान को तुडाकर नया बनाते हैं क्यों वो पुराना मकान भी तो हमारे उन बुजुर्गों का ही जो की हने तोड़ा है तब खान चली जाती हैं बुजुर्गों के प्रति हमारी धार्मिक आस्था और विश्वास !
क्या ये जो पशुबलि के खिलाप आन्दोलन हो रहे हैं ,इनके बुजुर्ग इनको अपनी संसकिरती और आस्था के बारें नहीं बताते या इन आन्दोलन कारियों के कोई बुजुर्ग ही नहीं है या भी किताबी कीड़े हैं जो किताबों को पड़कर पशुबलि खिलाप आन्दोलन का रहें क्या इनमें कोई विद्वान नहींहै ,क्या इन आन्दोलन कारियों में कोई भी ऐसा नहीं हैजिसको पद्य पुरुष्कार से समानित किया गया है ! नहीं इन आन्दोलन कारियों में वो बुजुर्ग हैं,वो पद्यपुरुश्कारित ब्यक्ति भी हैं ,वो धर्मशास्त्री और प्रबुदजन भी हैं जो की समय के साथ च रहे हैं और आन्दोलन कर रहे हैं !
किसी भी रूडी को हम मार-मारकर नहीं बदल सकते हैं और न ही ऐसा होना चाहिए सभी स्वतंत्र है !लेकिन अब ये समय कहाँ जो की ९०-८० साल पहले था सटी प्रथा भी तो उन्हीं बुजुर्गों,धर्मशास्त्रियों,प्रबुदजनों की ही दें थी उसको क्यों बांध करवाया गया है,तब कहाँ थे ये धर्मशास्त्री,पद्यपुरुश्कारित लोग !
टिहरी डाम को बंध करवाने का वादा किया था सुन्दरलाल बहुगुणा जी ने,उन्होंने तो अपनी आधी जिंदगी टिहरी डाम को बंध करव्वाने के लिए अनसन करने में ही पूरी की थी तब कहाँ थे ये बुजुर्ग धर्मशास्त्री प्र्बुध्जन पद्यपुरुश्कारित लोग ! उस समय घर की सीड़ियों में बैठकर हुक्का पी रहे थे ये बुजुर्ग ,और आज वही सीड़ियों को छीनकर ले गए हैं उत्तराखंड के डाम अब क्या पश्ताना जब चिड़िया चुग गयी खेत !
जहां तक रही रूडीवादियों को सुधरने की बात,तो जो लोग समाज के बीच में रहने के बाबजूद भी क्या उखाड़ लिया ओ भी आखिर में किसी न किसी के तलवे चाटते दिखाई देते हैं !हमें सबसे पहले अप्निआप को सुधारना होगा ,उसके बाद अपने घर को और मुहल्ले को तभी हम गाँव को सूधार सकते हैं !
जब हम घरों के मुह्ल्ल्लों के मंदिरों में दी जाने वाली मुर्गों की बलि को बंध करवाएंगे तभी गाँव के मंदिरों में चढ़ाए जाने वाली पशुबलि बंध करवा सकते हैं ! हम लोग घर की सफाई तो ठीक से करवा नहीं सकते और सपने देखते हैं गैरसैण को राजधानी बनाने की !
पूरे उत्तराखंड में जितने जिल्ले हैं उनसे डबल उत्तराखंड में ग्रुप बने हुए हैं ये ग्रुप वो ग्रुप सो ग्रुप , क्यों क्या ये ग्रुप किसी बुजुर्ग या धर्मशास्त्री ने बनवाये है ! या ये भी हमरे पूर्वजों की आस्था और विश्वास है यही भावना हैं जो हमें कभी भी सुख चैन से जीने देगी ,देवभूमि उत्तराखंड एक परिवार की तरह लगता है लेकिन ये अंध विश्वास क्षेत्रवाद है ये कभी भी एक परिवार की तरह रहने नहीं देगा ! पूरे राज्य के टुकड़े करके रख दिए हैं !
कोई कहता हैं मैं पौड़ी का हूँ,कोई कहता हैं मैं टिहरी का हूँ,तब तक तीसरा कहता हैं मैं कुमाऊं का हूँ और एक और भी लाइन मैं खड़ा होता है ,मैं तो चमोली का हूँ लेकिन इतने सारे लोगों में किसी की मुहं से ये आवाज नहीं आती हैं की मैं उत्तराखंड का हूँ ! क्या ये भी बुजुर्गों और धर्मशास्त्रियों की दी हुई शिक्षा है या हमारी सदियों से चली आ रही प्रथा !
उदाहरण देने में हमें बहुत ही मजा आता हैं,आज वहां ये हवा आज वहाँ वो हुआ उसने इंतनी बकरी काटी मैंने उतनी काटी बहुत खूब मजा आ गया है पड़कर,दोस्तों अगर हमारी यही भावनाएं और में ये नहीं कहता हूँ की हमें अपनी संसकिरती और समाज के विरुद्ध जाना चाहिए ,संसकिरती ही हमारी पहचान है लेकिन कुछ चीगें ऐसे हैं जिनके क्षेत्र में बदलाव जरूरी हैं समयानुसार तभी उत्तराखंड की प्रगति और विकास हो सकता है !
कोई भी किसी की आस्था को खंडित नहीं कर रहा है ,हमारी ये जो अंध विश्वास वाली जो आस्था उसमें बदलाव की जरूरत है,थोड़ा संशोधन की गरूरत है और ये संशोधन होना ही चाहिए तभी हमारी आस्था और संसकिरती कायम रहा सकती है !
हाँ एक बात का में भी समर्थन करता हूँ कि किसी बहारी ब्यक्ति छाए वो नेता ही क्यों हों या प्रधानमंत्री ही क्यों नहो उसे हमारी संसकिरती के बारे में कहने का या ब्यान बाजी करने का कोई हक़ नहीं हैं चाहे वो सोनिया या मेनिक गाँधी इन सभी गांधियों को पहले अपने अन्दर झांकर देकना चाहिए और ये दूरों पर ऊँगली उठानी चाहिए !