वक्त की बयार ने पहाड़ के विवाहोत्सवों पर चढ़ाया आधुनिकता का रंग (Jun29/10 from Dainik Jagran)
चम्पावत। वक्त के बदलाव की बयार ने पहाड़ की कला संस्कृति, रहन-सहन, खानपान के साथ ही यहा की परंपराओं, संस्कारों और उत्सवों में भारी तब्दीली ला दी है। पैदा होने से लेकर अंतिम संस्कार के रीतिरिवाजों व अनुष्ठानों में जहां रस्म अदायगी दिख रही है, वहीं पाश्चात्य संस्कृति का रंग सिर चढ़कर बोलने लगा है। विशेषकर गृहस्थी बसाने के लिए होने वाले विवाहोत्सवों में तो अब डीजे व बार संस्कृति के बेसुरे राग ने यहां की वैवाहिक परंपराओं के पुरातन सुर, लय, ताल को हाशिए में धकेल दिया है।
यथा नाम तथा गुण के अनुरूप देवभूमि में गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए होने वाले विवाह यहा की संस्कृति के अनुरूप शालीनता, लोक सरोकारों व परस्पर सौहार्दपूर्ण और दिखावे से दूर होते थे। रिश्ता पारिवारिक पृष्ठभूमि नाते रिश्तेदारी जन्मकुंडली और हैसियत के अनुसार तय होता था। दिखावे की संस्कृति पर आज भी कई लोग नाक भौं सिकोड़ते हैं। लेकिन पिछले एक दशक से पहाड़ में शादी पर्व में जबरदस्त तब्दीली आ गई है। अब यह दिखावे और जलसे का रूप लेने लगी है। शुरूआती बदलाव तो पहले होने वाली दो दिवसीय शादी के एकदिनी होने से शुरू हुआ। पहले जहां द्वाराचार, धुलर्ग, गोठक ब्या, सात फेरे व नरनारायण की पूजा के बाद विदाई होती थी। और सायं से पूरी रात तथा दूसरे दिन सुबह तक विधिविधान से वैदिक रीति के तहत अनुष्ठान होते थे। बहू के घर पहुंचने पर देली गोठ्न और पूजा होती थी। लेकिन अब एकदिवसीय कार्यक्रम में यह सब रस्म अदायगी के तौर पर शार्टकट फार्मूले में हो रहा है। पहले पहाड़ में जयमाला नहीं होती थी। कहा जाता है कि दुल्हन गोठ के विवाह में कन्यादान के बाद ही अपने जीवनसाथी यानि दूल्हे को सौंपी जाती है। बकायदा कन्यादान से पूर्व की रस्में दोनों पक्षों के बीच पर्दा डालकर होती थी। अब ऐसा नहीं है। दिन में दो बजे धुलर्ग की रस्म अदायगी के बाद जयमाला होती है और बिना फेरे हुए वर-वधु को आशीर्वाद देने का दौर चल पड़ता है। फिर बारी आती है विवाह और फेरों की। यह सब कार्यक्रम एक दो घंटे में निपटाकर, पानी परखने की रस्म के साथ दुल्हन को विदा कर दिया जाता है। फेरों के समय ध्रुव तारे को अब दिन में ही दिखा दिया जाता है। वैवाहिक रस्मों में तो बदलाव आया ही है। इस अवसर पर बजने वाले वाद्ययंत्र भी अब हाशिए पर हैं। ढोल, दमाऊ, मशकबीन और छोलिया नृतकों की जगह अब बैंड बाजे, पंजाबी ढोल व डीजे ने ले ली है। देर रात तक कानफोड़ू शोर लोगों की नींद उड़ा रहे हैं। इस मौके पर आयोजित होने वाले भोज की परंपरा भी बदली है। पंडितों द्वारा बनाई गई रसोई और लौरों की जगह स्टैंडिंग सिस्टम के साथ ही यहां की परंपरागत डिसें गायब हो गई हैं। तेल, मसालों व वसायुक्त खाना परोसना शान समझा जाने लगा है। कहीं कहीं तो अब मांसाहार से भी परहेज नहीं रहा। बहरहाल पहाड़ के वैवाहिक रस्मों में आ रहा बदलाव हमारी संस्कृति व पहचान को लीलने लगा है।