Author Topic: Footage Of Disappearing Culture - उत्तराखंड के गायब होती संस्कृति के चिहन  (Read 87105 times)


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thul Nantin

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च्युड़े, खाजे ,व सिरौले
च्युड़े तो फिर भी दीपावली के समय देखने को मिल जाते हैं ( ये बात अलग है की अब वैसे नहीं बनते,न अब वो चावल उगते हैं  )
सिरौले व खाजे तो अरसा हो गया देखे

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गले की शान सोने का गलोबंद फैशन से बाहर

अल्मोड़ा। आधुनिकता के दौर में पर्वतीय क्षेत्र में परंपरागत गहने प्रचलन से धीरे-धीरे बाहर होने लगे हैं। कुमाऊंनी महिलाओं के गले की शान रहा सोने का गलोबंद फैशन से बाहर हो गया है। इसका स्थान सोने के मंगलसूत्र और नए डिजाइन के हार ने ले लिया है।
सोने का गलोबंद कुमाऊंनी महिलाओं की शान रहा है। गलोबंद को सनील अथवा कपड़े की पट्टी में सिलकर उपयोग में लाया जाता है। विवाहिता महिलाएं गलोबंद के अलावा चरेऊ और चांदी के मंगलसूत्र पहनती थीं लेकिन पिछले दो दशक से गलोबंद का प्रचलन नाममात्र का रह गया है। नई पीढ़ी की महिलाएं गले में गलोबंद के स्थान पर अब आधुनिक डिजाइन के सोने के मंगलसूत्र और हार पहनने लगी हैं।
स्वर्णकार भुवन वर्मा बताते हैं कि गलोबंद एक तोले सेे चार तोले तक बनते थे लेकिन अब लोग गलोबंद बनाने के आर्डर नहीं आते हैं हैं। गलोबंद के स्थान पर आधुनिक डिजाइन के सोने के मंगलसूत्र और हार प्रचलन में आ गए हैं। मंगलसूत्र में पाइप माला, मछली, चंपाकली, दाने आदि डिजायन महिलाओं के पसंदीदा हैं। सोने के हार बनाने के लिए स्वर्णकार विभिन्न डिजायनों की डाइ का उपयोग करते हैं। (amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सोने की बुलाक को भूल गई नई पीढ़ी

चौखुटिया। पर्वतीय क्षेत्रों में पहने जाने वाली सोने की बुलाक के दर्शन अब मुश्किल से ही हो पाते हैं। नई पीढ़ी तो इसका नाम तक भी नहीं जानती, लेकिन रिवाड़ी की रमोती आमा ने इसे सहेज कर रखा है।
रमोती देवी (88) पत्नी बख्तावर सिंह ने बताया कि उनकी शादी 65 साल पहले 1948 में हुई थी। एक तोले का बुलाक तब 70 रुपये में बना था। बताया कि इसे नाक के निचले हिस्से में पहना जाता था। आमा ने सिर्फ बुलाक ही नहीं बल्कि कई पुराने आभूषण और काले रंग का खादी का पाखुला पहनकर भी दिखाया।
द्वाराहाट के वरिष्ठ स्वर्णकार ईश्वरी लाल वर्मा ने बताया कि बुलाक का प्रचलन नेपाल में अब भी खूब है, लेकिन अब यहां पहाड़ में बंद हो गया है। बुलाक आयताकार होती है। सोने के तारों पर नक्कशी करने के बाद नग डाले जाते हैं। बुलाक चांदी की भी बनती थी।

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]पहाड़ में सरौला विवाह की प्रथा अब समाप्त

पहाड़ पर विवाह की परंपराएं तेजी से बदल रही हैं। इस बदलाव के बीच यह जानकारी बहुत कम लोगों को होगी कि पहाड़ में पहले बिना दूल्हे के भी बारात जाती थी। इसे सरौला विवाह कहा जाता था। यह बात अलग है कि अब यह परंपरा समाप्त हो चुकी है। पिछले 40 साल से कोई सरौला बारात नहीं देखी गई। सरौला विवाह ज्यादातर उन युवाओं का ही होता था जो सेना में कार्यरत थे और विवाह के लिए उनको छुट्टी नहीं मिल पाती थी। क्षत्रिय समाज में ही इस तरह के विवाह की प्रथा थी। ब्राह्मण समाज सरौला बारात नहीं ले जाता था।
पहाड़ में पहले सरौला विवाह का प्रचलन था। यदि दूल्हा घर पर मौजूद न हो और सेहरा बांधने तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान में शामिल हो पाने की स्थिति में न हो लेकिन दुल्हन को लगन के अनुसार घर पर लाना जरूरी हो जाए तो परिवार के कुछ लोग अपने पुरोहित को ले जाकर दुल्हन के घर जाते और दुल्हन को दूल्हे के घर ले आते। प्रतीक के रूप में एक नारियल ले जाया जाता। बाद में जब दूल्हा नौकरी से या परदेस से घर आता तब सात फेरे लगाए जाते थे। सरौला विवाह में ढोल, नगाड़े नहीं जाते थे। धार्मिक अनुष्ठान पूरा होता था। मांगलिक गीत गाए जाते थे। बारातियों की संख्या भी आठ, दस से ज्यादा नहीं होती थी।
इतिहासकार डा. मदन चंद्र भट्ट का कहना है कि सरौला विवाह को सैनिक विवाह भी कह सकते हैं। वह इस प्रथा का बंद होना गलत मानते हैं। उनका कहना है कि सरौला विवाह को फिर से प्रचलन में लाया जाना चाहिए। इतिहासकार पद्श्री डा. शेखर पाठक ने कहा कि दूल्हे की गैर मौजूदगी में भी विवाह संपन्न कराया जाता था। कम से कम इस तरह के विवाह में आज की तरह ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं होती थी। यह दो परिवारों की बड़ी समझदारी को दर्शाता था।


साभार- अमर उजाला
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विनोद सिंह गढ़िया

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साथियो, एक दुर्लभ चित्र आया है पहाड़ से।

हमारा सलाम इन 'चुनेर' भाईयों को जिन्होंने स्टील और नॉन स्टिक बर्तनों के दौर में पर्वतीय क्षेत्र की काष्ठ कला को अभी तक अपने व्यवसाय के रूप में चलाकर जीवित रखा है। 
आज यह काष्ठ कला लगभग विलुप्तप्राय हो चुकी है। ठेकी, डोकले, पाई, फरूवे, नाली, माणा आदि काष्ठ निर्मित पारंपरिक बर्तन यहां की काष्ठ कला के नमूनों में शामिल थे।  इन बर्तनों का निर्माण चुनेरों का पुश्तैनी काम था। आज ये बर्तन हमारे बीच लोकप्रिय न होने कारण अधिकतर चुनेर इस पुश्तैनी धंधे को बंद कर चुके हैं।   विडंबना है कि सरकारी स्तर पर इस कला को संरक्षित रखने का कोई प्रयास अभी तक नहीं हुआ है।



 

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