Author Topic: Footage Of Disappearing Culture - उत्तराखंड के गायब होती संस्कृति के चिहन  (Read 87071 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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पहाड़ पर लुप्त हो चुकी हुड़की बौल की परंपरा

...यो सेरि का मोत्यूं तुम भोग लगाला हो

यो सेरि का मोत्यूं तुम भोग लगाला हो, यो गौं का भूमिया दैण हया हो। पहाड़ों में आषाढ़ और सावन के महीने में हुड़की बौल के यह स्वर अब धीरे धीरे इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। हुड़की का अर्थ हुड़का (खास पर्वतीय वाद्ययंत्र) और बौल का अर्थ श्रम है। पहाड़ के गांवों से पलायन बढ़ने के कारण खेतीबाड़ी के काम भी प्रभावित हुए हैं। रोपाई अब बहुत कम गांवों में लगाई जाती है। रोपाई के लिए लोगों को जुटाना कठिन हो जाता है। गांवों में सामूहिक श्रम की भावना कम होती जा रही है।
लोग रोपाई के लिए मजदूरों की मदद लेते हैं। हुड़की बौल रोपाई के समय प्रचलित परंपरा रही है। गांव के लोग रोपाई लगाने के लिए जुटते। एक लोकगायक हुड़के की थाप में गीत गाता और रोपाई के काम में लगे लोग उसके स्वरों को दोहराते थे। इससे लोगों का मनोरंजन भी होता और काम भी जल्दी पूरा हो जाता। संगीत और श्रम का यह अदभुत मेल अन्यत्र नहीं मिलता था।
1970 के दशक तक हुड़की बौल का प्रचलन बहुत ज्यादा था। धीरे धीरे पहाड़ के गांवों से पलायन बढ़ा, लोग रोजगार के लिए देश के शहरों में बसते चले गए। यहीं से हुड़की बौल जैसी परंपरा लुप्त होने लगी। अध्येताओं ने हुड़की बौल को पहाड़ की लुप्त हो रही परंपरा में शामिल कर दिया है। हुड़की बौल के समय गाए जाने वाले गीतों में आस्था का पुट मिलता है। भूमिया देवता से प्रार्थना की जाती है कि हुड़की बौल में शामिल सभी लोगों का भला हो-

रोपारो, तोपारो बरोबरी दिया हो,
हलिया, बल्द बरोबरी दिया हो,
हाथ दिया छाओ, बियो दियो फारो हो,
पंचनामा देवा हो।

(हे पंचनाम देवताओ, रोपाई के काम में लगे सभी को बराबर का हिस्सा देना, हल जोतने वाले और बैलों को बराबर हिस्सा देना, काम में हाथ तेजी से चले और बीज पर्याप्त हो जाए।)
हुड़की बौल के समय गाए जाने वाले एक प्रमुख गीत में बैल से भी बड़ी अपेक्षा की जाती है। (ए, बैल तू सीधे सीधे चल, सींग से लेकर खुरों तक इस खलिहाल को भर दे, ऐसा प्रयत्न कर कि चारों चौकोट, तल्ला मल्ला कत्यूर, कोसी वार पार सभी घाटियां की उर्वरता इस खलिहान में आकर समा जाए।)

सैल्यो बल्दा सैल्यो, सैल्यो,
सींग के ल्याले, खुर के ल्याले,
फिरि फिरि जालै खई भरि जालै,
गाई गिवाड़ की चारों चौकोट की,
तल्ला कत्यूर की, मल्ला कत्यूर की,
कोसी वार की, कोसी पार की,
सैल्यो बल्दा, सैल्यो, सैल्यो।


हुड़की बौल के समय लोकगायक बड़ा मार्मिक आशीष देता है-
(जितनी धान की बालियां हैं उतनी ही डालियां हो जाएं, जितने गट्ठर हैं, उतने ही अनाज से भरे गोदाम हो जाएं।)

जतुक बाली, ततुक डाली,
जतुक खारा, ततुक भकारा।


सामूहिक श्रम की भावना समाप्त


सोर की लोकथात पुस्तक के लेखक पद्मा दत्त पंत ने अपनी पुस्तक में जिन लुप्तप्राय परंपराओं का जिक्र किया है, उनमें हुड़कीबौल भी शामिल है। हुड़की बौल की परंपरा लुप्त होने से सामूहिक श्रम की भावना भी समाप्त हो रही है। पहाड़ की अर्थ व्यवस्था के लिए यह लक्षण बेहद खतरनाक है।
 


रिपोर्ट - दीपक उप्रेती
अमर उजाला

cgigeek

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हम पहाड़ियों को अब अपनी संस्कृति का बचाव करने का वक़्त आ गया है...सबको किसी न किसी तरह से कोशिश करनी चाहिए.,

Pawan Pathak

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चलन से बाहर होने लगा है बखुला
हिमालय में ही दम तोड़ रही है दस्तकारी
बागेश्वर। स्थानीय ऊन के बाखुल से जुड़ी बुनकरी हिमालयी क्षेत्र में ही दम तोड़ने के कगार पर है। समय के साथ नई पीढ़ी इसे भूल जाएगी। इस विधा को आधुनिक रंगों और डिजाइनों के साथ बाजारों में ले जाने की भी कोई पहल नही हुई।

आमा की बात
सामान्य तरीके से होता है रखरखाव

बागेश्वर। सोराग निवासी 63 वर्षीया कांती दानू ने बताया कि बचपन में वह मायके में, फिर ससुराल मेें इसकी बुनाई करती थीं। गंदा होने पर इसे पहले स्थानीय बनस्पतियों से धोया जाता था, अब साबुन, पावडर आदि से गर्म पानी में धोते हैं। अब कुछ ही गांवों में इसे बनाया जाता है।
बर्फ पर भी भारी पड़ता है बोखला
पिथौरागढ़। भेड़ के ऊन से बने कोट को नामिक क्षेत्र में बोखला कहा जाता है। बोखला के भीतर हवा, पानी नहीं घुस पाती है। बर्फ पर भी बोखला भारी पड़ता है। यही कारण है कि 2700 मीटर की ऊंचाई पर बसे नामिक के लोग भेड़ के ऊन से बने वस्त्रों से बारिश, ओलावृष्टि, बर्फबारी से लोहा ले रहे हैं।
120 परिवार वाले नामिक में प्रत्येक परिवार भेड़ पालता है। साल में एक भेड़ से 300 ग्राम से आधा किलो तक ऊन निकलता है। करीब 4 से 55 किलो ऊन से एक कोट तैयार होता है। पुरुषों के लिए सुतुण (पायजामा) भी ऊन का ही बनाया जाता है। महिलाएं गादी नाम का चादरनुमा ऊनी वस्त्र पहनती हैं। 5 किलो भेड़ के ऊन से तैयार गादी को साड़ी की तरह पूरे अंग में पहना जाता है। बच्चों के लिए भी ऊन से ही गरम वस्त्र तैयार किए जाते हैं। नामिक के लोग कहते हैं कि बोखला, सुतुण और गादी के बगैर जाड़े से मुकाबला नहीं किया जा सकता।
बारिश में पानी से बचने के लिए पहना जाता है। ब्यूरो

बोखला, गादी, सुतुण बनाने वाले कुछ ही लोग
पिथौरागढ़। बोखला, गादी, सुतुण को सिलाई कर आकार देने वाले दर्जी बागेश्वर जिले के गोगिना में हैं। गोगिना के प्रताप राम, भूपाल राम, चंद्र राम, बिर राम, लक्ष्मण राम के बनाए बोखला, सुतुण, गादी के लोग कायल हैं। कोट की 400 पायजामा की 300 रुपये सिलाई मिलती है, जो काफी सस्ता माना जा सकता है। काला कोट 3500 रुपया, सफेद 2500, भूरे रंग का कोट 3000 रुपये में मिल जाता है।
अमर उजाला ब्यूरो

बागेश्वर। ठंड से बचने के लिए गर्म ऊनी कपड़ों की जरूरत होती है और पानी से बचने के लिए रेनकोट जैसी चीजें चाहिए, लेकिन बखुला उच्च हिमालयी क्षेत्र का एक ऐसा परिधान है जो हवा के साथ पानी से भी शरीर को बचाता है। हिमालयी क्षेत्र में भेड़ों की ऊन से इसे बनाया जाता है। हालांकि आधुनिकता के कारण अब नई पीढ़ी इससे विमुख हो रही है।
पिथौरागढ, बागेश्वर, चमोली और उत्तरकाशी के सैकड़ों गांव हिमालयी क्षेत्र में हैं, जहां साल के छह महीने बर्फ रहती है। यहां के लोग भेड़-बकरियों को चराने के लिए हिमालयी बुग्यालों में ले जाते हैं। बर्फ, बारिश और ठंड का इन्हें हमेशा ही सामाना करना पड़ता है। अत्यधिक दूरी पर होने के कारण यहां के गांवों तक बाजार की वस्तुएं आसानी से नहीं पहुंच पातीं। ग्रामीणों ने अपने ज्ञान और तजुर्बे से संसाधनों की व्यवस्था की है। इनमें बखुला सबसे महत्वपूर्ण चीज है। कपकोट के कई गांवों में इसे बाखुल और गढ़वाल के इलाकों में बखू कहते हैं। भेड़ों की ऊन को कातकर चान पर बुनाई होती है और कपड़ा तैयार होता है। इसे स्थानीय भाषा में पख्खा कहते हैं। अब इस पख्खा के छेदों को बंद करके इसे वाटर प्रूफ बनाया जाता है। इसके लिए पख्खे को आधा घंटे तक पानी में भिगोया जाता है। डेढ़ फीट ऊंचा चूल्हा बनाकर उसे खूब गर्म किया जाता है। चूल्हे के ऊपर ढाई फीट चौड़ी, दो फीट लंबी पत्थर की स्लेट रखी जाती है। गर्म स्लेट के ऊपर पख्खा को रखकर दो घंटे तक पैरों से मसला जाता है। इससे छेद बंद हो जाते हैं, जिससे हवा, पानी इसके अंदर नहीं घुस सकते। बाद में नाप के अनुसार इसे काटकर ऊन के तागों से सिला जाता है। इसे कोट का रूप दिया जाता है। झूनी निवासी खीम सिंह के अनुसार बखुला को बुग्यालों में बकरी चराने के साथ ही खेतीबाड़ी और घर के अन्य कार्यों के दौरान भी पहना जाता है। खलझूनी निवासी भागीचंद्र सिंह टाकुली ने बताया कि गांवों में रहने वाले लोग अभी भी इसका प्रयोग करते हैं।
वाटर प्रूफ भी होता है यह परंपरागत परिधान
जब हम घर में ब्वारी (बहू) बनकर आए, तो हम सुबह साढ़े तीन-चार बजे उठ जाते थे। हाथ-मुंह धोकर हम रोज ‘जांतर’ (घर में हाथ से चलाई जाने वाली छोटी चक्की) से गेहूं, मंडुआ पीसने को बैठ जाते थे। कभी दायें हाथ से तो कभी बाएं हाथ से जांतर को घुमाते थे। तब आज की तरह गांवों में गेहूं पीसने वाली चक्की नहीं थी, घराट यानी पनचक्कियां भी दूर थी। कुछ घट (घराट) बरसाती थे जो सिर्फ चौमास में ही चलते थे। वैसे भी हम धुर गौं के रहने वाले ठैरे। जांतर से ग्यों-मडू (गेहूं एवं मडुआ) पीसते-पीसते थे। उजाला होने पर गौशाला में जाकर जानवरों को चारा डालते, दूध दुहते, गौशाला की सफाई करते थे। फिर छाछ बनाते और मक्खन बिला (पिघला) कर घी बनाते थे। सिलबट्टे में भट (काली सोयाबीन) पीसते थे। कुछ बुजुर्ग ही गुड़ के कटक के साथ चाय पीते थे। पर आज जमाना बदल गया है। लोग पलायन कर रहे हैं। मेरे जैसे बूढ़े लोग ही अब पहाड़ में बच गए हैं जो पहाड़ (उत्तराखंड) के भविष्य के लिए चिंता का विषय है।

-सरुली कपकोटी (90 वर्ष), पोथिंग (कपकोट)
मुख्यमंत्री हरीश रावत और पूर्व स्वास्थ्य महानिदेशक डा. जेएस पांगती को नामिक के लोगों ने बोखला भेंट किया था। नामिक के लोग बोखला को बड़ी सौगात मानते हैं।

Source-   http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20150720a_004115006&ileft=110&itop=219&zoomRatio=130&AN=20150720a_004115006

Pawan Pathak

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कुमाऊंनी रंगोली पिछौड़ विलुप्ति होने के कगार पर
 महिला जनजागृति समूह की पहल दुल्हन फिर ओढ़गी हाथ से बना पिछौड़
डीडीहाट (पिथौरागढ़)। कभी दुल्हन के श्रृंगार में चार चांद लगाने वाला कुमाऊंनी रंगोली पिछौड़ अब शायद ही शादियों में दिखता हो। समय बदलने के साथ ही जिस तरह से व्यवस्थाएं हाईटेक हुईं उससे रंगोली पिछौड़ का अस्तित्व भी एक तरह से खत्म हो गया। पहले घरों में ही आकर्षक तरीके से विवाह के समय रंगोली पिछौड़ बनाए जाते थे।
विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके इस पिछौड़ को फिर दुल्हनों को ओढ़ने की पहल शुरू हो चुकी है। पर्वतीय महिला जनजागृति समूह ने यह बीड़ उठाया है। अभी तक समूह को पांच पिछौड़ं का आर्डर मिल चुके हैं। खुद इस समूह में शामिल महिलाएं भी घर-घर जाकर डिमांड ले रही हैं। समूह सचिव गंगा खड़यत का मानना है कि कुमाऊंनी रंगोली पिछौड़ की महत्ता को अब एक तरह से भुला दिया गया है। क्योंकि बाजारों में मिलने वाले रेडीमेड पिछौड़ लोगों को इतने आकर्षक जो लगने लगे हैं।उन्होंने कहा कि पहले जब सुविधाएं नहीं थीं और बारात भी काफी मामूली तरीके से निपटाई जाती थी तब दुल्हन के लिए घर में ही रंगोली पिछौड़ तैयार किया जाता था। ग्रामीण इलाकों में आज भी यही पिछौड़ देखने को मिलता है।

Source- http://earchive.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20090404a_005115008&ileft=264&itop=463&zoomRatio=130&AN=20090404a_005115008

Pawan Pathak

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भड़ौ, भगनौल की उपेक्षा से खिन्न हैं बोरा
पिथौरागढ़। लोक विधाओं के मर्मज्ञ पूर्व विधायक हीरा सिंह बोरा लुप्त होती राज्य की लोक विधाओं को लेकर खासे चिंतित हैं। वह इसके लिए लोक कलाकारों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
अमर उजाला से बातचीत में बोरा ने कहा कि जब भी बात पहाड़ की संस्कृति की आती है तो भड़ौ (हुड़कीबौल) और भगनौल (बैर) की यादें दिल और दिमाग में ताजा हो जाती हैं लेकिन आज इन दोनों विधाओं का भुला दिया गया है। संस्कृति संरक्षण के नाम पर भौंडा प्रदर्शन हो रहा है। यह दोनों प्राचीन विधाएं पहाड़ की आत्मा और पहचान रही हैं। इनके संरक्षण के लिए लोक संस्कृति से जुड़े लोगों को मोहभंग होना एक परंपरा को समाप्ति की ओर ले जा रहा है। जिसे कोई भी सच्चा संस्कृति प्रेमी आंख बंद कर नहीं देख सकता है। उन्होंने संस्कृति के संरक्षण में लगे लोगों, लोक गायकों, कलाकारों से भड़ौं और भगनौल परंपरा को जीवित रखने के लिए आगे आने की अपील करते हुए कहा कि वर्तमान पीढ़ी इन विधाओं से अनजान हो गई है। यही हाल रहा तो आगे की पीढ़ी इन पुरातन विधाओं का नाम तक नहीं सुन पाएगी। कहते हैं कि बात केवल भड़ौ की ही करें तो इसे हुड़ीबौल के नाम से सर्वत्र जाना जाता है।

Soruce-http://earchive.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20101017a_006115010&ileft=231&itop=941&zoomRatio=270&AN=20101017a_006115010

विनोद सिंह गढ़िया

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[justify]अभिव्यक्ति और बदलाव का सशक्त माध्यम थे बैर भगनौल


'झुंगरै की घान, रहटै की तान, धोई नै लुकड़ी रैगे, खैंचनू कमान, कां उसौ मनखी रैगो, कां उसौ ईमान, दुनिया दोरंग हैगे बखत बेमान।' बदलते वक्त और गिरते जीवन मूल्यों को एक जमाने में बैर भगनौल के माध्यम से मेलों, त्योहारों में व्यक्त किया जाता था, जो सुनने वालों को झकझोर देते थे और सामाजिक बदलाव का सशक्त मनावैज्ञानिक माध्यम हुआ करते थे। समय के साथ पहाड़ की यह समृद्ध विरासत उत्तरायणी जैसे बड़े मेले से भी लुप्त होने के कगार पर है।
उत्तरायणी सहित पहाड़ के सभी मेलों और त्योहारों में पहले बैर भगनौल ही मुख्य आकर्षण का केंद्र होते थे। कुमाऊं के साथ ही गढ़वाल और नेपाल से भी लोग मेलों में आकर बैर भगनौल की महफिलों में जम जाते थे। तब मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होने के कारण संस्कृति की यह विधा काफी लोक प्रिय थी। बैर किसी गंभीर विषय पर संगीत मय वाद-विवाद को कहा जाता है। मसलन एक व्यक्ति ने कहा, ‘झुंगरै की घान, रहटै की तान, धोई नै लुकड़ी रैगे, खैंचनू कमान’। दूसरे ने जवाब दिया, ‘कां उसौ मनखी रैगो, कां उसौ ईमान, दुनिया दोरंग हैगे बखत बेमान’। अर्थात अब ना तो वैसे लोग रह गए हैं और ना ही वैसा ईमान बचा है। दुनिया दोहरे चरित्र की और समय बेईमान हो गया है। साहित्यकार डा हेमचंद्र दुबे बचपन के दिनों को याद करते हुए बताते हैं, उत्तरायणी के मेले में बैर की यह स्पर्धा रात भर चलती थी। हजारों लोगों की वाहवाही मिलती थी। इसी प्रकार भगनौल उत्तरायणी सहित सभी मेलों के मुख्य कार्यक्रम होते थे। भगनौल में किसी विषय पर तत्काल गीत बनाकर गाया जाता था। प्रेमिका की बेवफाई पर प्रेमी कहता है, ‘दातुलै की धार, बीच गंगा छोड़ि गैछे, नै वार नै पार’। अर्थात तूने तो मुझे बीच धारा में छोड़ दिया, न इधर, न उधर। क्षण भंगुर जीवन में मिले दिनों को हंसते गाते बिताने का दार्शनिक अंदाज में संदेश देते हुए गायक कहता है, ‘ढोलै की कसण, नाचि लियो, हंसि जियो द्वी दिन बचण’। अर्थात दो दिन का जीवन है, हंसते गाते बिता लो।

प्रतिभावान और हाजिर जवाब होते थे गायक

डॉ. हेम दुबे कहते हैं बैर भगनौल समाज की किसी घटना, समस्या अथवा दार्शनिक विषय पर केंद्रित होते थे। इनमें तार्किकता, व्यंग्यात्मकता का भी अद्भुत समन्वय था। टोलियों में बंटकर लोग रात भर गायन करते थे। बैर भगनौल के गायक प्रतिभावान होते थे, महफिलों में उत्साहित होकर तुरंत ही नए गीत रचकर गाने लगते थे। अब यह विधा लगभग लुप्त हो गई है।

Report : Shri Anand Negi, Amar Ujala-Bageshwar

 

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