Uttarakhand > Culture of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की संस्कृति

Footage Of Disappearing Culture - उत्तराखंड के गायब होती संस्कृति के चिहन

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विनोद सिंह गढ़िया:
[justify]अभिव्यक्ति और बदलाव का सशक्त माध्यम थे बैर भगनौल


'झुंगरै की घान, रहटै की तान, धोई नै लुकड़ी रैगे, खैंचनू कमान, कां उसौ मनखी रैगो, कां उसौ ईमान, दुनिया दोरंग हैगे बखत बेमान।' बदलते वक्त और गिरते जीवन मूल्यों को एक जमाने में बैर भगनौल के माध्यम से मेलों, त्योहारों में व्यक्त किया जाता था, जो सुनने वालों को झकझोर देते थे और सामाजिक बदलाव का सशक्त मनावैज्ञानिक माध्यम हुआ करते थे। समय के साथ पहाड़ की यह समृद्ध विरासत उत्तरायणी जैसे बड़े मेले से भी लुप्त होने के कगार पर है।
उत्तरायणी सहित पहाड़ के सभी मेलों और त्योहारों में पहले बैर भगनौल ही मुख्य आकर्षण का केंद्र होते थे। कुमाऊं के साथ ही गढ़वाल और नेपाल से भी लोग मेलों में आकर बैर भगनौल की महफिलों में जम जाते थे। तब मनोरंजन के अन्य साधन नहीं होने के कारण संस्कृति की यह विधा काफी लोक प्रिय थी। बैर किसी गंभीर विषय पर संगीत मय वाद-विवाद को कहा जाता है। मसलन एक व्यक्ति ने कहा, ‘झुंगरै की घान, रहटै की तान, धोई नै लुकड़ी रैगे, खैंचनू कमान’। दूसरे ने जवाब दिया, ‘कां उसौ मनखी रैगो, कां उसौ ईमान, दुनिया दोरंग हैगे बखत बेमान’। अर्थात अब ना तो वैसे लोग रह गए हैं और ना ही वैसा ईमान बचा है। दुनिया दोहरे चरित्र की और समय बेईमान हो गया है। साहित्यकार डा हेमचंद्र दुबे बचपन के दिनों को याद करते हुए बताते हैं, उत्तरायणी के मेले में बैर की यह स्पर्धा रात भर चलती थी। हजारों लोगों की वाहवाही मिलती थी। इसी प्रकार भगनौल उत्तरायणी सहित सभी मेलों के मुख्य कार्यक्रम होते थे। भगनौल में किसी विषय पर तत्काल गीत बनाकर गाया जाता था। प्रेमिका की बेवफाई पर प्रेमी कहता है, ‘दातुलै की धार, बीच गंगा छोड़ि गैछे, नै वार नै पार’। अर्थात तूने तो मुझे बीच धारा में छोड़ दिया, न इधर, न उधर। क्षण भंगुर जीवन में मिले दिनों को हंसते गाते बिताने का दार्शनिक अंदाज में संदेश देते हुए गायक कहता है, ‘ढोलै की कसण, नाचि लियो, हंसि जियो द्वी दिन बचण’। अर्थात दो दिन का जीवन है, हंसते गाते बिता लो।

प्रतिभावान और हाजिर जवाब होते थे गायक

डॉ. हेम दुबे कहते हैं बैर भगनौल समाज की किसी घटना, समस्या अथवा दार्शनिक विषय पर केंद्रित होते थे। इनमें तार्किकता, व्यंग्यात्मकता का भी अद्भुत समन्वय था। टोलियों में बंटकर लोग रात भर गायन करते थे। बैर भगनौल के गायक प्रतिभावान होते थे, महफिलों में उत्साहित होकर तुरंत ही नए गीत रचकर गाने लगते थे। अब यह विधा लगभग लुप्त हो गई है।

Report : Shri Anand Negi, Amar Ujala-Bageshwar

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