रंगों की गूंजती लय
कुमाऊंनी लोक संगीत की परंपरा आज भी जीवित है गली-मुहल्लों में होने वाले ‘बैठक होली’ के होली गायनों में
उत्तरांचल की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा का ‘हुक्का क्लब’. शाम के सात बजे हैं. बीसेक होलियारों की महफिल जमी है यहां. तबले की थाप, मंजीरे की खन-खन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर 72 वर्षीय शिवचरण पांडे गा रहे हैं: ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया... सभी आंखें मूंदे लय में झूम रहे हैं. तबले पर कहरवे की मीठी ताल ने गति पकड़ ली है. सुर और साज की लयकारी चरम पर है. तिहाई पूरा होते लगता है राग बिहाग की खूबसूरत बदिंश खत्म हो गई है. तभी कोने में बैठे 81 वर्ष के शंकरलाल साह मुक्त कंठ से ‘भाग’ लगाते हैं. तबले पर चांचर का ठेका शुरू होते ही ‘होरी’ फिर से शबाब में लौट आती है.
पौ कब फटी, पता नहीं चलता. ‘‘इसकी मिठास ऐसे बांध देती है आपको,’’ पांडे कहते हैं. अपनी इसी मिठास के लिए लोकप्रिय ‘बैठक होली’ कुमाऊं के समृद्ध लोक संगीत का अभिन्न अंग है. यहां की संस्कृति में रची-बसी होने के बावजूद यह ‘न्योली’ जैसे पारंपरिक लोकगीतों से भिन्न है. इसे कुमाऊंनी में नहीं गाया जाता. इसकी भाषा ब्रज है. सभी बदिंशें राग-रागिनियों में गाई जाती हैं. यानी यह खांटी शास्त्रीय गायन है. पर इसे गाने का ढब बिलकुल जुदा है. इसे समूह में गाया जाता है. लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है, न शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन. महफिल में कोई भी व्यक्ति बदिंश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे यहां ‘भाग लगाना’ कहते हैं. वह श्रोता है, तो होलियार भी. ‘बैठक होली’ की यही सबसे बड़ी विशेषता है. मशहूर गायिका शुभा मुद्गल ‘लोगों के बीच की होली’ की इसे अजीम परंपरा मानती हैं, जिसकी जीवंतता आपको अपने रंग में भिगो देती है. वे कहती हैं, ‘‘यह कद्रदान और कलाकार दोनों का मंच है. इस लोक विधा ने हिंदुस्तानी संगीत को समृद्ध किया है.’’
‘बैठक होली’ का अपना ऋतु और समय चक्र है. शुरुआत पौष माह के पहले रविवार से होती है. बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक, शिवरात्रि तक अर्द्ध-शृंगारिक और उसके बाद शृंगार रस में डूबी होलियां गाई जाती हैं. सो इसमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी- प्रेमिका की रार-तकरार, देवर-भाभी की छेड़छाड़ सभी रस मिलते हैं. किसी मस्त के आने की आरजू है कि साकी लिये सागरे मुश्क बू है/ गुलिस्तां में जाकर हरेक गुल को देखा, न तेरी सी रंगत न तेरी सी बू है. राग सहाना की यह बदिंश अगर आपको रूमानियत से भर देती है, तो वहीं शृंगार रस में भीगी ये कैसी होरी खिलाई श्याम तुम बड़े हरजाई आपके दिल को इस कदर गुदगुदाती है कि आप ‘नटखट श्याम’ बन ‘ठिठोेली’ के लिए मचलने लगते हैं. इसमें भौंडेपन के लिए कोई स्थान नहीं. तभी इसके सबसे सुधी कद्रदानों में गिने जाने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी कहते हैं, ‘‘होली जैसे धमाल भरे त्यौहार को ‘बैठक होली’ गरिमा प्रदान करती है.’’होली की बैठक अमूमन शाम को शुरू होती है. सो, धमार से आह्वान कर पहली होली राग श्याम कल्याण में गाई जाती है. समापन राग भैरवी पर होता है. बीच में समयानुसार अलग-अलग रागों में होलियां गाई जाती हैं. ब्रज की होली ने यहां कब और कैसे पांव पसारे, इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. इसे वैष्णव ब्राह्माणों की देन कहा जा सकता है, जो 12वीं सदी के बाद से चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा में टुकड़ों-टुकड़ों में आ बसे थे. यहीं यह फूली-फली, इसे लोक परंपरा का मौजूदा स्वरूप मिला और बाद में शेष कुमाऊं और गढ़वाल में प्रचलित हुई. गंगोलीहाट, लोहाघाट, चंपावत, पिथौरागढ़ और कुछ हद तक नैनीताल को ‘बैठक होली’ का गढ़ माना जाता है. मैदानी क्षेत्रों में कुमाऊंनी जहां-जहां बसे, वहां इसे वे ले गए हैं.
लोकप्रिय बनाने के लिए मर्मज्ञों ने होली की धमार और चांचर ताल में परिवर्तन किया. सो, 14 मात्रा की धमार और चांचर तालें 16 मात्रा की हो गईं. रागों के अंग या चलन में भी थोड़ा-सा परिवर्तन किया गया. इससे होली गायन की एक नई शैली विकसित हुई और वह सहज आम जन की हो गई. होली के मर्मज्ञ और गुणी गायकों में गिने जाते चंचल प्रसाद कहते हैं, ‘‘होली गायन की ऐसी शैली अन्यत्र देखने को नहीं मिलती. इसमें लय और मधुरता है, तो सहजता भी. इसीलिए यह उत्तरांचल के जनमानस में प्रतिष्ठित हुई.’’ दिल्ली और उत्तरांचल के कद्रदानों में होली गायन के लिए खासे लोकप्रिय प्रसाद अपनी वंश परंपरा में तीसरी पीढ़ी के फनकार हैं. कहते हैं, उनके दादा उस्ताद कालिया को नेपाल की राजशाही का वरदहस्त प्राप्त था, तो पिता राम गुलाम रामपुर के सहसवान घराने के पारंगत गायक और सारंगी वादक थे. बकौल शिवचरण पांडे, ‘‘होली की बैठकों में जान डालने वाले गुलाम उस्ताद की आवाज और अंगुली दोनों में जादू था. उनके बाद यहां किसी को ‘उस्ताद’ नहीं कहा गया.’’ उनके अलावा रामप्यारी, अमानत खां, शिवलाल वर्मा, कांती लला, मोहन रईस, तारा प्रसाद पांडे, नारायण दत्त जोशी जैसे कलाकारों को ‘बैठक होली’ के दिग्गजों के रूप में याद किया जाता है.
जैसा कि हर विधा में होता है, ‘बैठक होली’ भी दो खेमों में बंटी है- ‘पारंपरिक’ और ‘क्लासिक’. एक ओर ‘बैठक होली’ की पारंपरिक गायन शैली है, जिसका विकास शुभा मुद्गल के अनुसार दो परंपराओं के आपसी लेन-देन का परिणाम है, जिसे आज फ्यूजन कहते हैं. क्लासिस्ट इस शैली को गलत बताते हैं, क्योकिं इससे रागों में कभी-कभी मिलावट आ जाती है. भातखंडे संगीत महाविद्यालय लखनऊ के स्नातक धीरेंद्र कुमार कहते हैं, ‘‘हम जैसा गायक होली को शास्त्रीय शैली में ही गाएगा.’’ शास्त्रीय होली में ठुमरी और दादरा का पुट है. पर इसकी कमी यही है कि इसे निपुण गायक ही गा सकता है. पारंपरिक शैली में लय है, माधुर्य है और इसे हर कोई गा सकता है. होली का सच्चा आनंद इसी में है कि आम श्रोता उसमें ‘भागी’ बने.
इस टंटे की काट में प्रसाद कहते हैं, ‘‘यह बेकार की रार है. आप दोनों को लेकर चल सकते हैं. बशर्ते आप सच्चे फनकार हों.’’ इसके लिए प्रसाद ने होली गायन की ऐसी शैली विकसित की है जिसमें पारंपरिक होली की मधुरता और सहजता है, तो शास्त्रीय होली की ठुमरी का पुट भी. उनकी बात में दम है, क्योकिं 67 बसंत देख चुके प्रसाद जब ‘होरी’ गाते हैं तो दोनों पक्ष इसमें रंगे बिना नहीं रह पाते.
अपनी इस लंबी यात्रा में ‘बैठक होली’ ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. कभी ऐसा दौर था कि हर मोहल्ले, हर गांव में होली की बैठकें सजती थीं. पहाड़ियां और वादियां होलियारों की ‘हो-हो होलक रे’ से गूजती थीं. होली के रसिया पूरे साल बेसब्री से इसका इंतजार करते थे. ये सब गुजरे जमाने की बात है. बैठकें आज कुछ घंटों में सिमट कर रह गई हैं. बदलते जमाने की मार है यह. कभी उस्ताद गुलाम का सान्निध्य पाने वाले और अपने जमाने में धमार के लिए ख्यात तबलावादक, 74 वर्षीय देवीलाल ‘चचा’ कहते हैं, ‘‘न अब वैसे कलाकार रहे, और न वैसे कद्रदान ही रहे.’’
पर ‘हुक्का क्लब’ ने इस परंपरा को बनाए रखा है. 1907 में स्थापित यह क्लब सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है. तब से यहां नियमित रूप से होली की बैठकें आयोजित होती रही हैं. पिछले दशक से यह क्लब हर वर्ष अल्मोड़ा में ‘होलिकोत्सव’ का आयोजन कर रहा है, जिसमें उत्तरांचल के अलावा देश के कई भागों जैसे मथुरा, वृंदावन, जम्मू, कोलकाता इत्यादि से टीमें भाग लेती हैं. फलत: लोगों में इस परंपरा के प्रति जागृति आई है. लेकिन क्लब से 1974 से जुड़े पांडे थोड़े निराश दिखते हैं, ‘‘युवाओं में इसको लेकर कोई खास उत्साह नहीं है.’’ इसकी वजह जाहिर है. इसमें वे अपना भविष्य नहीं देखते. फिर भला वो परंपरा को क्यों ढोएं.
पर शायद हालत इतने बुरे भी नहीं हैं. हुक्का क्लब से कुछ दूर नीचे अल्मोड़ा के ‘राजपुरा’ मोहल्ले में सुनील, विमलेश, सतीश कुछ अन्य तरुण होलियारों के साथ राग भैरवी में आशीष होली गा रहे हैं-फागुन रितु शुभ अलबेली, सबको मुबारक होली. उनका हौसला बढ़ाने वाले पर्वतीय लोक सांस्कृतिक मंच के महावीर प्रसाद कहते हैं, ‘‘यह तो हमारी थाती है. इसे कैसे छोड़ दें.’’ निस्संदेह, इस लोकविधा का भविष्य सुरक्षित है.
साभार- आज तक