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Marriages Customs Of Uttarakhand - उत्तराखंड के वैवाहिक रीति रिवाज

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
बारातियों में नहीं रहा ‘बरैत्य पिठ्यां’ का आकर्षण
चंपावत। अब बारातियों में पहले की तरह ‘बरैत्य पिठ्यां’ का आकर्षण नहीं रहा है। एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो विवाह समारोह में ‘बरैत्य पिठ्यां’ लगाने का रिवाज खत्म हो गया है। दरअसल बारातों के परंपरागत स्वरूप के बदलने के कारण शादी की रस्म को निपटाने की जल्दबाजी में बारातियों को पिठ्यां (टीका) लगाने की अतीत से चली आ रही मान्यता भी हाशिए में जा रही है।

सामाजिक चिंतक गोविंद बल्लभ खर्कवाल बताते हैं कि पूर्व में विवाह की सभी रस्में सादगी के साथ नियम पूर्वक निभाई जाती थी। विवाह समारोह में शामिल दोनों पक्ष के बड़े बुजुर्ग सभी परंपराओं निभाने में सहयोग करते थे। दुल्हन के घर से बारात लौटने के समय सभी बारातियों को कन्या पक्ष की ओर से टीका लगाने के साथ सार्मथ्य अनुसार उपहार और नकद दक्षिणा दी जाती थी, जिसे ‘बरैत्य पिठ्यां’ कहा जाता था। बारात में शामिल युवाओं और विशेषकर छोटे-छोटे बच्चों में ‘बरैत्य पिठ्यां’ लगाने को लेकर उत्साह रहता था। ‘बरैत्य पिठ्यां’ में बारातियों को मिलने वाली रकम से कन्या पक्ष के रहन सहन और रुतबे का आंकलन भी किया जाता था। बुजुर्ग अमर सिंह महर का कहना है कि वर्तमान में बारात घरों में शादी होने के कारण दोनों पक्ष के लोग जल्दबाजी में ‘बरैत्य पिठ्यां’ की रस्म को विस्मृत करते जा रहे हैं।

http://www.amarujala.com/news/states/uttarakhand/champawat/Champawat-67533-115/

Pawan Pathak:
बारात से पहले पहुंचते थे डाक पिठ्यां लेकर संदेश वाहक
आधुनिक संचार व्यवस्‍था ने तोड़ी वर्षों पुरानी परंपरा
नरेंद्र बिष्ट
चकरपुर। आधुनिक संचार व्यवस्था के चलते डाक पिठ्यां की परंपरा अतीत की याद बनकर रह गयी है। शादी के दिन बारात से पहले दूल्हा पक्ष की ओर से समाज के दो जिम्मेदार व्यक्ति डाक पिठ्यां लेकर दुल्हन के घर जाते थे। वह बारातियों की संख्या एवं उनके पहुंचने के समय की जानकारी देकर जरूरी व्यवस्था करवाते थे।
वर्ष 1990 के दशक तक डाक पिठ्यां की परंपरा जरूरी थी। कई जगह इसकी औपचारिकता अब भी निभाई जाती है। दूल्हे के घर से पीले कपड़े से लिपटी काठ की ठेकी, उसमें दही, हरा साग लेकर दुल्हन के घर जाते थे। शुभकार्य में अच्छा शगुन माने जाने वाले दही, हरी सब्जी लेकर दुल्हन के घर डाक पिठ्यां वाले बारातियों की संख्या और उसके पहुंचने के समय की जानकारी देते थे। तब दुल्हन पक्ष के लोग उसी संख्या के हिसाब से खाने, पीने, ठहरने की व्यवस्था करते थे। अगर डाक पिठ्यां वाले के आने में देर होती थी तो तो दुल्हन पक्ष के लोगों की चिंता बढ़ जाती थी। बिना सही जानकारी के बारातियों के भोजन इत्यादि की व्यवस्था में असुविधा होती थी। डाक पिठ्यां वाले दुल्हन के घर सूचना देने के बाद खाना खाकर वापस बारात के आने वाले मार्ग पर पहुंचकर दुल्हन पक्ष की व्यवस्था ठीक-ठाक होने की जानकारी बारातियों को देते थे। तब बारात निश्चिंत होकर दुल्हन के घर पहुंचती थी लेकिन अब डाक पिठ्यां की परंपरा दूरसंचार व्यवस्था के दुरुस्त होने से लुप्त हो चुकी है।
आधुनिक जीवन शैली में फैशन से बाहर हो रहा है गलोबंद
चंपावत (
सतीश जोशी सत्तू)। पर्वतीय अंचलों में सुहागिन महिलाओं के लिए कुछ दशकों पूर्व तक आकर्षण का खास आभूषण माना जाने वाला गलोबंद अब चलन और फैशन से बाहर हो चला है। पहाड़ में अब गलोबंद ही नहीं शीषफूल, कमरबंद, मुरखी, बुलांकी, चंद्रहार जैसे तमाम पारंपरिक जेवरात फैशन से बाहर हो चुके हैं। खास बात यह है कि नए दौर की पहाड़ी महिलाएं पारंपरिक जेवरों से हटकर जिन नए मॉडल के आभूषण पहन रही हैं, उसमें सोने और चांदी की गुणवत्ता के बजाय डिजायन पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इसके चलते महिलाएं 24 कैरेट के सोने से बने आभूषणों को बेचकर 23 कैरेट वाले अशुद्ध सोने के जेवरात बना रही हैं। जानकारों का कहना है कि महिलाओं की पसंद में आ रहा यह बदलाव पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव का नतीजा है। अलबत्ता आदिवासियों और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में कुछ जगह पहाड़ की पारंपरकि जीवन शैली आज भी अपने मूल रूप में अपवाद की तरह अवश्य दिखाई पड़ती है। कुछ दशक पूर्व तक पहाड़ों में महिलाएं गलोबंद के अलावा सिर पर चांदी का शीषफूल, कान के उपरी भाग में सोने की मुरखुली, नाक में दोनों छिद्रों के बीच सोने का बुल्ला, गले में चरेऊ, चांदी का चंद्रहार, मूंग की माला, हाथों में चांदी की धागुली और पौंची, कमर में चांदी का कमरबंद तथा पैरों में चांदी के ही खोखले और गोलाई लिए झांवर पहनती थीं।

आमा की बात
पैली जस मिलनसार नि रै गे आजक पीढ़ी
चंपावत। 77 साल की आमा सावित्री देवी वक्त के बदलते रंग से हैरान हैं। वे उन्हें तरक्की से ज्यादा परंपराओं से दूरी के रूप में देखती हैं। कहती हैं कि पहाड़ के सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी बदलाव हुआ है। लोग अब पैली जस मिलनसार नि रै गे आजक पीढ़ी। संयुक्त परिवार प्रथा कम होने से संकीर्णता हावी हो रही है। आज से दो दशक पहले तक शादी-ब्याह में घाघरा-पिछोड़ा की प्रधानता थी। नए दौर में उसका स्थान धोती, साड़ी ने ले लिया है। आभूषण के पहनावे में भी परंपरा की जगह नएपन ने ले ली है। ज्वार, बाजरा, मडुवा जैसे पुराने भोजन के स्थान पर फास्टफूड की पसंद बढ़ गई है।


Source- http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20150706a_003115007&ileft=110&itop=68&zoomRatio=130&AN=20150706a_003115007

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