[justify]गौरा को आठूं के समय एक सामान्य और अभावग्रस्त पर्वतीय महिला के रूप में दर्शाया जाता है। वह पहाड़ की आम महिला की तरह कष्टों को सहने के बावजूद आराध्य है और अखंड सौभाग्य को देने वाली है।
आठूं पर्व की प्राचीनता के बारे में कई मत प्रचलित हैं। अंग्रेज इतिहासकार ट्रेल ने इसकी शुरुआत 1818 से बताई है। कुछ लोग इसे कुमाऊं से गोरखों के जाने के विषय से जोड़ते हैं। कुछ इतिहासकार यह भी कहते हैं कि यह पर्व कुमाऊं के राजा उद्यान चंद के राजतिलक के समय से प्रचलित था। सोर की लोकथात पुस्तक के लेखक पद्मादत्त पंत कहते हैं कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती दूसरे जन्म में हिमालय पुत्री के रूप में प्रकट हुईं और शिव की अर्धांगिनी के रूप में कैलास में रहने लगीं। हिमालय में रहने वाला हर व्यक्ति इसे अपनी देवी पुत्री मानता है। वर्ष में एक बार वह उसे अपने घर बुलाता है।
आठूं के समय जो गीत प्रचलित हैं उनमें गौरा (गंवरा) से प्रश्न किया जाता है कि-हे गौरा तूने कहां रात्रि विश्राम किया, कहां तुझे रात पड़ी? गौरा उत्तर देती हैं-मुझे हिमालय की कंदरा में रात्रि विश्राम करना पड़ा और वसुधारा में मुझे रात पड़ी।
कां त्वीले गंवरा रै बासो लीछ
कां पड़ि गै हो रात
हिमाचल कांठी रै बासो लीछ
वसुधारा पड़ि गै रात।
इससे भी मार्मिक चित्रण तब होता है जब गौरा से यह कह दिया जाता है कि तू इस भूखे भादो में क्यों आई, चैत में आती तो गेहूं के भुने हुए दाने खाती, आश्विन में आती तो चावल के भुने दाने खाती।
ये भुख भदौ गंवरा कि खाणें कि आछै
चैत ऊनी त उमिया बुकूनी
असौज ऊनी त सिरौली बुकूनी।
आठूं पर्व व्यक्तिगत सुख की कामनाओं के साथ सामाजिक स्नेह का उत्सव भी है। बिरुड़ा पंचमी के दिन लोग किसी बर्तन में सप्तधान्य भिगोकर रखेंगे और अमुक्ताभरण सप्तमी और दूर्वाष्टमी के दिन इन सप्तधान्यों से ही गौरा और महेश की प्रतिमाओं का वैदिक तरीके से पूजन होगा। पूजा के समय भी गौरा को महिलाएं अपने ही बीच की साधारण महिला के रूप में मानकर चलती हैं-
नाचि बै खेलि बै,
लौलि गमारा देवी,
धैं तेरो कैसो नाच
(हे गौरा तू नाच तो देखें तू कैसा नाच करती है)। पूजा के बाद खेल चांचरी की धूम होती है। उसमें मनोरंजन के भरे कई गीत पेश किए जाते हैं-
सिलगड़ी का पाला चाला हो गंवरा,
गिन खेलून्या गड़ो ला भुलू गंवरा,
कालि ज्यू को तल्ला चालो हो गंवरा
मली हिट सियो ला भुलू गंवरा।
(ओ गौरा सिलगड़ी के उस पार गेंद खेलने का मैदान है, ओ बाला गौरा काली के निचले मैदान से शेर चला आ रहा है)। गौरा, महेश की प्रतिमाओं के समापन के साथ ही पर्व का समापन हो जाता है।
साभार - अमर उजाला