Uttarakhand > Culture of Uttarakhand - उत्तराखण्ड की संस्कृति

Our Culture & Tradition - हमारे रीति-रिवाज एवं संस्कृति

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


वैतरणी

हिंदू धर्मानुसार वैतरणी, मुक्ति की धार्मिक नदी है, जिसे मृतक को दूसरी दुनिया में जाने के लिये इसे पार करना पड़ता है। इसका वर्णन पिंड दान में मिलता है, जब यह आशा की जाती है कि आत्मा सुरक्षित रूप से वैतरणी पार कर गयी है।

पंकज सिंह महर:
यहाँ के लोग मुख्यतः चावल पसन्द करते है। परन्तु भोजन में गेहूँ मडुवा एवं अन्य अनाजो का उपयोग भी किया जाता है दालो में यहाँ के लोग उडद, ग्रहट, भट्ट एवं मसूंर की दाल का उपयोग करते है। यहाँ के लोगो में सामान्यतः माँस का प्रयोग भी किया जाता है। त्यौहारो एवं उत्सवो के भोजन में खीर, सिधल, पुडी, पुआ, वडा, पालक के कापे, रायता, एवं अचार सम्मिलित होते है। अन्य विशिष्ट कुमायुँ भोजनो में भट्ट एवं सोयाबिन से निर्मित चुडकनी एवं भट्टियाँ, ग्रहट से निर्मित गोत्र, मटठे में निर्मित झोली एंव गावा की संब्जी प्रसिद्ध है।

पंकज सिंह महर:
समस्त मांगलिक अवसरो पर हल्दी एवं अक्षत से निर्मित तिलक माथे पर लगाया जाता है। ग्रामीण महिलाओ को ऊपरी नाक से माथे तक लम्बा तिलक लगाये देखा जा सकता है। यहाँ पर पूरे देश में सामान्य विभिन्न अन्धविश्वास लोगो में पाये जाते है। बच्चो को बुरी आत्माओ से दूर रखने के लिए उनके माथे पर काला चिन्ह लगाया जाता है।
मंगलवार एवं शनिवार को दिनो के अतिरिक्त अन्य दिनो में यहाँ शिष्टाचारपूर्ण आमंत्रण दिये जाते है। शोक में लोगो को विशिष्ट रूप से मंगलवार एवं शनिवार के दिनो में आमंत्रित किया जाता है। मंगलवार, बृहस्पतिवार एवं शनिवार के दिनो में बीमार व्यक्तियो से मिलने नही जाते है। महिलाए अपने माँ के घर बृहस्पितवार के दिन नही जाती है। ज्येष्ठ व्यक्तियो का सम्मान उनके चरण स्पर्श करके “पैलागन“ के सम्बोधन के साथ किया जाता है। जिसका उत्तर ज्येष्ठ व्यक्ति अनुजो को “चिरंजीवी भव“ या “सौभाग्यवती भव“ के सम्बोधन के द्वारा देते है। अन्य व्यक्तियो को हाथ जोडकर नमस्कार कर उनको सम्मानित किया जाता है।
विवाहित महिलाएं अपने माथे पर सिन्दूर का गोल टीका लगाती है। विशिष्ट अवसरो पर विवाहित महिलाऐ अपनी नाक में बडी सोने की नथ पहनती है। विवाहित महिलाए काले मोतियो की माला गले में पहनती है जिसे उनका सुहाग चिन्ह माना जाता है। सोने के हार को सामान्यतः पहना जाता है परन्तु गरीब व्यक्ति गले में चांदी के हार, (जिसे हँसली कहते है) का प्रयोग करते है। जहाँ तक वस्त्रो का सम्बन्ध है महिलाए यहाँ पर सामान्यतः साडी पहनती है। परन्तु यहाँ पर अभी भी महिलाओ द्वारा प्राचीन पारम्परीक घाघरा-पिछोरा नामक ड्रेस पहनी जाती है। समारोह के अवसरो पर प्रत्येक महिला विशिष्ट रूप से स्वयं को तैयार करती है।
यहाँ के लोग पत्थरो या ईटो के मकानो में रहते है। यहाँ लकडी द्वारा निर्मित कुछ प्राचीन भवन भी उपलब्ध है। लकडी की नक्काशी जो प्राचीन काल में अतिसामान्य थी वर्तमान में अतिदुर्लभ हो गई है। पर्वतीय क्षेत्रो में छते ढालू बनाई जाती है। तथा छतो का निर्माण टीन की चादरो या पत्थर की पट्टियो द्वारा किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रो में पशु भूतल पर तथा मनुष्य प्रथम तल पर रहते है। पशुओ के निवास स्थल को गोढ कहा जाता है।
यहाँ के पर्वतीय मन्रि कला एवं संस्कृति की गहन अनुभूति के मिश्रण के स्मारक है। यहाँ की शिल्पकला मन्दिरो के निर्माण के प्रारम्भ काल से परिवर्तनीय है। मैदानी क्षेत्रो की तुलना में यहाँ के मन्दिरो में की जाने वाली पूजा-पद्धति में अन्तर पाये जाते है। ये मन्दिर सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र के रूप में कार्य करते है। पर्वतीय लोग स्थानीय देवताओ को प्रसन्न करने के लिए जागर का आयोजन करते है। स्थानीय देवताओ में गोलू, भोलानाथ, साम, ऐदी, गंगनाथ इत्यादि प्रमुख है।

पंकज सिंह महर:
पिछौड़ा
आँचल के कपडो पर पारम्परिक रंगीन अलंकरण इस जिले की एक अद्वितीय प्राचीन ऐतिहासिक परम्परा है। समस्त धार्मिक समारोहो के अवसर पर महिलाएं पिचोरा पहनती है। जिसे रंगवाली के नाम से भी जाना जाता है। यह तीन मीटर लम्बा एवं डेढ मीटर चौडा एक मलमल का कपडा होता है। जिसे पीले रंग से रंग दिया जाता है। इसके बाद इस पर गद्दीदार लकडी की डंडी की सहायता से लाल रंग के डिजाइन छाप दिये जाते है। इसके मध्य में स्वास्तिक का निशान एवं सूर्य चन्द्रमा घंटी के चिन्हो को छाप दिया जाता है।
चित्रकारी की कला को स्थानीय भाषा में आइपान कहते है। समारोहो एवं त्यौहारो के अवसरो पर गृह के फर्श एवं दीवारो को विभिन्न प्रकार के डिजाइनो से स्वयं ही सजाती है। इसे बनाने में चावल के पेस्ट एवं गेरू का प्रयोग किया जाता है। पूजाघर के फर्श एवं देवी देवताओ के स्थान को विशिष्ट तांत्रिक यन्त्रो से सुसज्जित किया जाता है। एक यंत्र देवता का आरेखी प्रस्तुतीकरण होता है। तथा उसमें रेखीय या परीय ज्यामिती परिवर्तन सम्मिलित होते है। जहाँ देवता निवास करते है। नामकरण संस्कार में लकडी की चौकी पर सूर्य, चन्द्र, घंटी इत्यादि के अभिप्राय चिन्हो को स्थापित करते है। जनेऊ संस्कार में आइपन, षट्कोणीय रूप में निर्मित रीछ के. चिन्ह को दर्शाता है। जो सप्तऋषियो की पूजा के लिए प्रयुक्त होता है। विवाह संस्कार के अवसर पर धुलिआर्द्ध चौकी पर एक विशाल जल-जार को चित्रित किया जाता है। जो आदिकालीन जल को दर्शाता है। जिससे पृथ्वी का उदय हुआ है।

Risky Pathak:
Humaare yhaa ye Riwaaz bhi hai ki.... Byoli Ka Bhai.... Byoli Ko "Khil" deta hai har 1 fere ke dauraan... and byoli un khilo ko kisi katore type me girate girate chalti hai....

Is pic me Byoli Ka bhai Khil ki Theli haath me Pakde Hue..


--- Quote from: M S Mehta on January 14, 2008, 05:19:27 PM ---traditional marriage.




--- End quote ---

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