ज्योतिपर्व दीपावली को मनाने का उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में निराला ही अंदाज है। यहां दीपावली का उत्सव धनतेरस से शुरू होता है और एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए इस त्योहार को इगास-बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। भैलो परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है। दीपावली के दिन भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है, जिसे सांस्कृतिक ह्रास के इस दौर में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है। बेलो पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हंै, जिसमें निश्चित अंतराल पर चीड़ की लकडि़यां (छिल्ले) फंसाई जाती हैं। फिर सभी लोग गांव के किसी ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर एकत्र होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या में तैयार बेलो में फंसी लकडि़यों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है। इसके उपरांत ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं, जिसे भैलो खेलना कहा जाता है। ऐसा करने के पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी सभी के आरिष्टों का निवारण करें। आचार्य डा.संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्लों को जलाकर ग्रामीण सामूहिक नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है। इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की पूजा भी होती है। इससे पहले धनतेरस के दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा होती है और फिर घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। जबकि, छोटी बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा होती है और उस पर शुभ-लाभ अथवा स्वास्तिक अंकित किया जाता है। दीपावली का अगला दिन पड़वा गोवर्द्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है। कहते हैं कि पड़वा को निद्रा त्यागकर बिना मुख धोए मीठा ग्रहण करने से सालभर घर-परिवार में मिठास घुली रहती है। बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान खिलाती है। कहते हैं कि इस दिन है जब यमलोक की भी द्वार बंद रहते हैं।