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Devbhoomi,Uttarakhand:
ढोल सागर समारोह में उत्तराखंड संस्कृति की बिखेरी छटा
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डॉ.अम्बेडकर सांस्कृतिक कला मंच के तत्वावधान में रिखणीखाल प्रखंड के अंतर्गत कोटडीसैंण में आयोजित ढोल सागर समारोह में उत्तराखंड की पौराणिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया गया।

समारोह का शुभारंभ बतौर मुख्य अतिथि वरिष्ठ अधिवक्ता जगमोहन सिंह नेगी ने किया। उन्होंने देवभूमि की पौराणिक संस्कृति को विलुप्त होने से बचाने के लिए इसके प्रचार-प्रसार पर जोर दिया।

उन्होंने कहा कि प्राचीन पंरपराओं व संस्कृति के संरक्षण व संव‌र्द्धन के साथ नई पीढ़ी को इससे अवगत कराया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल से ही दूरसंचार के मजबूत माध्यमों के रूप में ढोल सागर के शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है।

 शादी के मौकों पर बारात के आने जाने व कितना समय बारात के चलने में इन सबका कोड ढोल सागर में है। उन्होंने ब्लॉक स्तर पर ढोल सागर का प्रचार-प्रसार करने व इसके लिए प्रशिक्षण केंद्र खोलने पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि राज्य निर्माण आंदोलन में ढोल सागर के वाद्य यंत्रों की अहम भूमिका रही है। उन्होंने प्रदेश सरकार से वाद्य यंत्रकारों को भी राज्य आंदोलनकारी घोषित करने की मांग उठाई।

source dainik jagran

Devbhoomi,Uttarakhand:
खास होता है चतुर्थी, नवमी और अमास्या का श्राद्ध
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सनातनी संस्कृति में सालभर में एक बार पड़ने वाले पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का तर्पण व पिंडदान किया जाता है। यह पितरों के प्रति श्राद्ध व कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर होता है। यूं तो पितृपक्ष के सोलहों दिन पितरों के प्रति तर्पण आदि होते हैं, लेकिन इनमें कुछ दिन खास होते हैं।

आश्रि्वन मास के कृष्ण पक्ष में पितृपक्ष होता है। इसमें भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि भी शामिल होती है। पितृपक्ष के सभी सोलह दिनों में श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों अनुसार जिस तिथि को पूर्वज की मृत्यु होती है, उसी तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है।

पितृपक्ष की सबसे खास तिथि नवमी होती है। मान्यता है कि नवमी को श्राद्ध करने से मातृ ऋण कम होता है। हालांकि शास्त्र यह भी बताते हैं कि जीवन में सभी ऋणों से मुक्ति मिल जाए, लेकिन मातृ ऋण से मुक्ति नहीं मिल पाती है। इसी प्रकार पितृपक्ष में चतुर्दशी की तिथि भी खास होती है।

शास्त्रीय मान्यता है कि अकाल मौत के शिकार व्यक्तियों के निमित चतुर्दशी का श्राद्ध किया जाना चाहिए। अमावस्या को ज्ञात-अज्ञात पितरों के निमित श्राद्ध किए जाने का विधान है। अमावस्या की तिथि के साथ ही पितृपक्ष संपन्न हो जाते हैं और पितर धरती से पितृलोक वापसी करते हैं।

Dainik jagran

Devbhoomi,Uttarakhand:
मंच पर जीवंत हुई विभिन्न प्रांतों की लोक संस्कृति
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जाका, अल्मोड़ा: 42वीं वाहिनी एसएसबी के सभागार में देश की बहुरंगी संस्कृतियां जीवंत हो उठीं। मंच पर कलाकारों की दमदार प्रस्तुति पर जवान ही नहीं प्रशिक्षु भी खूब थिरके। कार्यक्रम का मकसद कड़े प्रशिक्षण के बीच जवानों का मनोरंजन व उन्हें विविध संस्कृतियों व लोक रंग से रूबरू कराना था।

एसएसबी सभागार में शनिवार को रंगारंग कार्यक्रमों का शुभारंभ सेनानायक जीतेंद्र जोशी ने दीप जलाकर किया। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए देश के 18 राज्यों की लोक परंपरा व संस्कृति से जवानों व प्रशिक्षुओं को जानने का अवसर मिलेगा। सेनानायक ने कहा कि ऐसे आयोजन आगे भी किए जाएंगे, ताकि प्रशिक्षु जवान मानसिक दबाव से उबर सकें और मनोबल भी बढ़ेगा। इस दौरान कलाकारों ने लोक गीत व नृत्य से समां बांध दिया। श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले प्रतिभागियों को पुरस्कृत किया गया। कार्यक्रम में एसएसबी के अधिकारी, कर्मचारी व तमाम जवान मौजूद थे।


Source dainik jagran

Pawan Pathak:
अपणि बात
आमा की बात
‘आछत फरकैण रस्म व मंगल गीतों का है महत्व
कुमाऊं की वैवाहिक परंपराओं में अक्षत(चावल) के द्वारा स्वागत अथवा पूजन का भी अपना एक विशेष महत्व है। इसे कुमाऊं में अनेक स्थानों पर कुमाऊंनी भाषा में (आछत फरकैण) अथवा अक्षत के द्वारा मंगलमयी जीवन के लिए भी कामना की जाती है। विवाह समारोह में आछत फरकैण एक महत्वपूर्ण रस्म है। इसके लिए वर और वधू पक्ष के परिवार की महिलाओं को विशेष रूप से इसके लिए आमंत्रित किया जाता है। वे पारंपरिक परिधानों रंगवाली पिछौड़ा व आभूषण पहनकर इस कार्य को करती हैं। दूल्हे के घर में बारात प्रस्थान के समय भी इन महिलाओं द्वारा दूल्हे का अक्षतों से स्वागत किया जाता है। दूल्हे के घर में बरात पहुंचने पर वर पक्ष की महिलाएं जो आछत फरकैण के लिए आमंत्रित होती हैं। वे दूल्हा और दुल्हन का घर में प्रवेश से पहले आंगन में यह परंपरा अदा की जाती है। अक्षत को शुद्ध, पवित्रता और सच्चाई का भी प्रतीक माना जाता है। शादियों से पूर्व में मंगल गीत गाने के लिए गांव की विशेष दो महिलाएं जो गितार कहलाती थी, विवाह में मंगल गीत गाती थीं। पर अब यह परंपरा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ती जा रही है। मंगलगीत में देवताओं का आह्वान और मंगलमयी जीवन की कामना की जाती है।[/color][/size] -भुवन बिष्ट, मौना रानीखेत, अल्मोड़ा

Source-  http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20150629a_005115005&ileft=-5&itop=82&zoomRatio=130&AN=20150629a_005115005

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
पहाड़ की संस्कृति को
पहचान की तलाश
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के लोगों की राजधानी में खासी तादाद है। कुमाऊंनी लोगों की अपनी अनूठी लोक संस्कृति और परंपराएं हैं, जिन्हें वह दिल्ली जैसे शहर में भी सहेजकर रखे हुए हैं। साथ ही यह समाज बरसों से अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिशों में भी जुटा हुआ है। बता रहे हैं विवेक शुक्ला :
लोकगायक मोहन उप्रेती
दिल्ली-एनसीआर में कहां-कहां : दिल्ली में पहली पीढ़ी के कुमाऊंनी सरकारी नौकरियों में भी खूब जाते रहे। इसलिए ये आरके पुरम, आराम बाग, मोती नगर, नेताजी नगर, सरोजनी नगर, दिल्ली कैंट जैसी सरकारी कॉलोनियों में भी काफी संख्या में रहते रहे। इन्होंने इन कई कॉलोनियों में अपनी रामलीलाएं भी चालू कीं। दिल्ली कैंट में शायद सबसे पहले कुमाऊंनी रामलीला की शुरुआत हुई 60 के दशक में। बीते बीसेक सालों से कुमाऊंनी सोनिया विहार, बुराड़ी, पुष्प विहार, वेस्ट विनोद नगर, मौजपुर, घोंडा, नोएडा के राम विहार, गाजियाबाद, फरीदाबाद वगैरह में भी खासी संख्या में बस गए। मुंबईकर बनने से पहले ऐड गुरु प्रसून जोशी भी नोएडा में ही रहते थे। नौकरी दिल्ली के रानी झांसी इलाके में करते थे।
कौन हैं कुमाऊंनी
दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले कुमाऊंनी मुख्य रूप से राजपूत या ब्राह्मण हैं। रौतेला, राणा, चौहान, जीना राजपूतों के कुछ खास सरनेम हैं। उधर जोशी, पंत, पांडे, त्रिपाठी, ध्यानी ब्राह्मणों के सरनेम हैं। ध्यानी गढ़वाल में भी होते हैं। प्रेम मटियानी ने बताया कि उत्तराखंड के राजपूत मूल रूप से राजस्थान से संबंध रखते हैं। जबकि ब्राह्मण महाराष्ट्र से। ये सब उत्तराखंड में आकर बसे थे।
कुमाऊंनी सेलिब्रेटीज
उन्मुक्त चंद
क्रिकेटर
हिमांशु जोशी
कला
डॉ. पुष्पेश पंत
शिक्षा
कुलानंद भारती
राजनीति
प्रेम मटियानी
संगीत और रंगमंच
ईस्ट दिल्ली के स्वास्थ्य विहार का शादी वाला एक घर। आज वधू को मेहंदी लगनी है। सारे घर में गहमा-गहमी है। बैकग्राउंड में बज रहा है- 'बेडु पाको बारों मासा, ओ नरेण काफल पाको चैता मेरी छैला...'। ये कुमाऊं का सदाबहार लोकगीत है। 40 पार कर चुके लोग इसे गुनगुना भी रहे हैं। यानी अपनी जड़ों से दूर जाने के बाद भी कुछ लोकगीत और परंपराएं कुमाऊंनी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, दिल्ली-एनसीआर में बसने पर भी।
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में शामिल हैं: अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल वगैरह। उत्तराखंड़ को गढ़वाल और कुमाऊं में बांटा जाता है। माना जाता है कि दिल्ली-एनसीआर में कुमाऊंनी आने शुरू हुए गोविंद बल्लभ पंत के देश का गृह मंत्री बनने के बाद। ये बातें हैं 50 के दशक की। उससे पहले कुमाऊंनी पंत जी के साथ लखनऊ में जाते रहे, बसते रहे। वरिष्ठ लेखक आशुतोष उप्रेती बताते हैं कि पंत जी के बाद 70 के दशक में बीडी भट्ट नाम के एक शिक्षा निदेशक दिल्ली आए। वे कुमाऊंनी थे। उन्होंने कुमाऊं के बड़ी संख्या में टीचरों को दिल्ली के सरकारी स्कूलों में नौकरी दी। तब नौकरी के लिए परीक्षाएं और इंटरव्यू आजकल की तरह से होते नहीं थे। नारायण दत तिवारी 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री बनने के बाद दिल्ली आए। पर उनके साथ यहां कुमाऊंनी नहीं आए।
नाटकों और रंगमंच में जीवंत हुई संस्कृति : राजधानी में कुमाऊंनियों को उनकी संस्कृति से जोड़ने की बड़ी और सार्थक पहले मोहन उप्रेती ने की। वे सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मज्ञ थे। उनकी कुमाऊंनी संस्कृति, लोकगाथाओं को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में अहम भूमिका रही। वे 1963 में दिल्ली आ गए थे। इंडियन ओशन बैंड से जुड़े हुए हिमांशु जोशी ने बताया कि मोहन उप्रेती ने 1968 में दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से पर्वतीय कला केंद्र की स्थापना की। इसके तहत कुमाऊंनी में अनेक नाटक खेले जाते रहे। राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी लोक कथाओं पर कुमाऊंनी में नाटक खेले गए। इनके मंचन कमानी ऑडिटोरियम में होते थे। प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी भी इन नाटकों का हिस्सा रहे।
कहते हैं कि 90 के दशक तक कुमाऊंनी नाटकों को देखने के लिए ऑडिटोरियम खचाखच भरे होते थे। दिल्ली के दूर-दूर के इलाकों से कुमाऊंनी अपनी बोली में खेले जाने वाले नाटकों को देखने के लिए आते थे। इन सभी नाटकों का निर्देशन मोहन उप्रेती ही करते थे। इनमें विश्व मोहन बड़ोला, विनोद नागपाल और उर्मिला नागर जैसे रंगमंच के मंजे हुए कलाकार भी शामिल होते थे। विनोद नागपाल मूल रूप से पंजाबी होने के बाद भी कुमाऊंनी नाटकों से जुड़े थे। मोहन उप्रेती की 1992 में अकाल मौत के कारण दिल्ली में कुमाऊंनी रंगमंच को झटका लगा। हालांकि पवर्तीय कला केंद्र अब भी सक्रिय है। मोहन उप्रेती ने ही दिल्ली में कुमाउंनी रामलीला की नींव भी रखी थी। वहां की रामलीला संवाद की बजाय ओपेरा अंदाज में होती है। यानी गायन पर आधारित होती है। और अगर बात पर्वतीय कला केंद्र से हटकर करें, तो राजधानी के साउथ एक्सटेंशन में कुमाऊंनी भवन भी है। यहां भी कुमाऊंनी समाज आपस में मेलजोल करता है। बुराड़ी में उत्तरायणी मेला भी बरसों से आयोजित हो रहा है।
सांस्कृतिक दुविधा है यहां : भारत सरकार के सॉन्ग एंड ड्रामा डिविजन के पूर्व डायरेक्टर प्रेम मटियानी कहते हैं कि मैं कुमाऊंनी लोगों से बात करने की कोशिश करता हूं अपनी बोली में। लेकिन वे हिंदी में जवाब देने लगते हैं। मुझे लगता है कि उन्हें अपनी बोली में संवाद करना नापसंद है। वे खुद को उत्तराखंड का बताने से भी बचते हैं। वे शायद इस तरह से अपने को ‘छोटू की दुनिया’ से निकाल लेना चाहते हैं। वे खुद को उत्तराखंड या कुमाऊं का बताना नहीं चाहते और ये पूरी तरह से दिल्ली-एनसीआर वाला भी नहीं बन पाते। ग्रेटर नोएडा में रहने वाले उत्तर प्रदेश पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी और महेश भट्ट की फिल्म ‘साइलेंट हीरोज’ में कर्नल थापा की भूमिका में अपनी पहचान बना चुके निर्मल पंत कहते हैं कि उत्तराखंड और कुमाऊं के लोगो में बिहारियों के विपरीत अपनी सांस्कृतिक पहनचान को बनाए रखने को लेकर किसी तरह का आग्रह दिखाई नहीं देता।
पंडिताई का भी पेशा : दिल्ली-एनसीआर के कई मंदिरों में कुमाऊंनी ब्राह्मण पंडिताई कर रहे हैं। फरीदाबाद के सेक्टर-14 के मंदिर के मुख्य पुजारी सुनील जोशी ने बताया कि पंडिताई उनका पुश्तैनी काम है। वे करीब 15 वर्षों से फरीदाबाद में पुरोहित का काम कर रहे हैं। वे हर महीने 30-35 हजार रुपये कमा लेते हैं। फरीदाबाद के अजरौदा में उन्होंने अपना घर भी बना लिया है। वैसे दिल्ली-एनसीआर में बसे कुमाऊंनी बिजनेस को छोड़कर सभी तरह के काम कर रहे हैं। लगता है कि बिजनेस करने से अभी इन्हें परहेज है। ये मेहनत-मशक्कत करके अपने लिए जगह बना चुके हैं या बना रहे हैं।
हालांकि दिल्ली-एनसीआर में कुमाऊंनी बिरादरी खासी तादाद में है, पर इनके खास व्यंजनों के बारे में गैर-पहाड़ियों को कोई जानकारी नहीं है। आशुतोष उप्रेती मानते हैं कि उत्तराखंड सरकार के सहयोग से दिल्ली-एनसीआर में उत्तराखंड फूड फेस्टिवल हर साल आयोजित होना चाहिए। इसमें पहाड़ी व्यंजन जैसे भट की चुड़काणी, मड़ुवे की रोटी, कौड़ी झुंगर का भात परोसा जाए, ताकि हमारे व्यंजनों का आनंद गैर-पहाड़ी भी लें। ये बात दीगर
है कि अब तो इनके घरों में भी
ठेठ कुमाऊंनी व्यंजन कम ही पकाए जाते हैं।

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